अरे हम गिरते जाते है
(तर्ज : भले वेदांत पछाने हो... )
अरे हम गिरते जाते है, जरा सम्भले नहिं पाते है ।।टेक।।
मंदिर में तो पूजा-पाती, रोज रोज करतेहैं ।
लेकिन इंद्रिय लोलुपता को,जरा न सम्भालते है ।।१॥
ग्यान-ध्यान की चर्चा करते, पंडित कहलाते है ।
मान-प्रतिष्ठा को मरमरते, सच्चा पद चाहते है ।।२।।
कहे पापी हम इसीलिये तो, बार बार बचते है ।
मगर न पाप करम से हटते, फेर फेर दडते है ।।३॥
अन्तर्मुख होकर सोचो तो, क्यों ऐसा करते है ।
तुकड्यादास कहे सत्-संगत, जरा नहीं आते है।।४॥