काहे को धूनी रमाता रे साधो
(तर्ज : काहें को तीरथ जाता रे भाई... )
काहेको धूनी रमाता रे साधो, काहे को धूनी रमाता ।।टेक ।।
चावल, तिल्ली, घी औ शक्कर, ले-लेकर लकडी जलाता ।
काम न त्यागे, क्रोध न त्यागे, तृष्णा को क्यों ना जलाता,रे साधो -
काहेको धुनी रमाता 0।।१।।
चन्दन, चावल, बेलकी पतियाँ, मंन्दिर जाके चढाता।
धन दौलत तेरे आसन भीतर, काहेको उसे बढाता, रे साधो-
काहेको धूनी रमाता 0।।२।।
गाँजा, चरस के ही हरदम दम में , ग्यान, ध्यान बतलाता ।
इंश्वर सेवा की मस्ती चढाकर, काहे नही रंग जाता, रे साधों -
काहेको धूनी रमाता 0।।३।।
कर लोगॉपर उपकार हरदम, चला जा, गंगासम बहजा ।
तुकड्या कहे तेरी यादमें भारत, आँस लगाये रोता, रे साधो-
काहेको धूनी रमाता 0।।४।।