क्यों थोड़ी बुध्दीसे अपना
(तर्ज : यह प्रेम सदा भरपूर रहे... )
क्यों थोड़ी बुध्दीसे अपना, प्रिय आत्माराम फँसाते हो ?।
बिल्लीकी राह बताकरके, वह शेरका ग्यान हँसाते हो ।।टेक।।
सब हाथ तुम्हारे हैं करना, जो कुछभी जीका रंग करो ।
या रंक करो, या राव करो, इस धनको क्यों नहि पाते हों ?।।१।।
मानवका देश वहाँतक है, जो खुद ईश्वरभी बनता है ।
फिर द्रोहका जीवन दे करके, क्यों जमके द्वार बसाते हो ?।।२।।
अब यार ! पढो गीता अपनी, जो अर्जुनको आधार हुई ।
श्रीकृष्ण भये जब विश्वस्वरूप, उस रँगमें क्यों नहि न्हाते हो ? ।।३।।
वह खोज करो जगिया अपनी, जहँसे निर्मलसी बात बढे ।
अब उसके अंदर घूस पड़ो, गर ब्रम्हभुवनही भाते हो ।।४।।
आजाद करो दिलको अपने, जो सूरजसा परकाश करे ।
छलबलको दूर हटाकरके, क्यों दिव्य रूप नहि छाते हो ? ।।५।।
अपनी बुध्दीसे ऊँच बढो, अरु काम करो सिर हो ऊँचा ।
कहे तुकड्या ग्यान सिखो ख़ुदका, क्यों मायामें बहलाते हो ? ।।६।।