जहाँ चित्त सदाही निर्भय हैं
(तर्ज : यह प्रेम सदा भरपूर रहे...)
जहाँ चित्त सदाही निर्भय हैं, ऊँचा है सीर बिचारोंसे ।
वे डरते नहीं कट्यारोंसे, या शूलोंकी भी धारोंसे ।।टेक।।
जो कुछभी हो सचही गाना, सचमें रहना, सचका बाना ।
यह स्फूर्ति ग्यानकी है जिसमें, वह मुकुटमणी है शुरोंसे ।।१।।
नहि शर्म जिन्हें अपने तनकी, कंगाली हो या राव बने ।
बस जो कुछ है सो यह मेरा नहि पाप करें कुविचारोंसे ।।२।।
कर्तव्य यही चढ़ जानेका, अपना -पर ऊँच बनानेका ।
नहि श्वाँसभि पल बहलानेका, जो होगा मलिन विकारोंसे ।।३।।
हे भगवन् ! ऐसे भक्त हमें, भारतमें दो अब पावनको ।
तुकड्याकी आस पुरी कर दो, तब होंगे मुक्त करारोंसे ।।४।।