कहा चला इन्सान !

(तर्ज: सिरपे टोपी लाल...)
कहां चला इन्सान ! डालकर सब खतरे में जान !
भलाई छोड दिया !
नहीं देशका भान, जिन्दगी बढा लिया तूफान,
भलाई छोड दिया ! ।।टेक।।
जवानीका रंग आया, कच्चे-बच्चे खूब बढाया
कौन सम्हालेगा माया?
शान-शौकत में गमाया, नहीं आमदानी लाया,
रात सोचमें बिताया ! !
सुना न किसका ज्ञान, बनाया सारा घर हैरान,
भलाई छोड दिया ।।1॥
मजूरीका पैसा आया, गांजा दारु में उडाया,
फिर किसीका कर्जा खाया !
औरत का पैसा आया, लूटमार कर भगाया,
सट्टे लगाकर गमाया ।।
लड़के माँगे दान, माँके निकले आँखो प्राण
भलाई छोड दिया ।।2।।
कहीं सीखा गुण नाही, कहीं सत्संग नाही,
कहीं भक्तिरंग नाही ।
नहीं है उद्योग कोई, सीखनेकी बुध्दि नाही,
प्रेम भी जबाँमें नाही ।।
कहता तुकड्यादास, तुम्हारी कैसि रखे प्रभु लाज।
भलाई छोड दिया ।।3॥
-बम्बई रेलवे प्रवास दि. २0-१0-१९५९