अजहुँ न आये गये गिरिधारी ।
(तर्ज : जगमें हीरा मिलत कठीना... )
अजहुँ न आये गये गिरिधारी । तरसे नैन हमारी ।।टेक।।
घटके अंदर हृदय-भुवनमें मन - सिंहासन डारी ।
डगमग डोले श्रमरगुंफाकी, द्वीदल कमल-फुलारी ।।१।।
बिन बाती बिन तेल लगायी, ज्योती नैन उजारी।
साक्षिराज रख हर द्वारनपे, देखनको प्रभु - स्वारी ।।२।।
निर्मल जल यह भाव-भक्तिका, दो नैनन भर डारी ।
ग्यान-चँवर ले बुध्दिया बैठी, सोहँ पवन उचारी ।।३।।
अनहदकी चोघडियाँ बाजे, मधुर मधुर करतारी।
तुकड्यादास कहे टक लागी, रम गयी सुरति हमारी ।।४।।