आशिक है मस्त गजाननजी

(तर्ज : यह प्रेम सदा भरूपर रहे...)
आशिक है मस्त गजाननजी, मन भाये है माशुकके भी ।
ना भेद रहा था दोनोंमें, माशुकके भी आशकके भी ।।टेक।।
शेगाँव निवासा था उनका, लोगोंके कहे-कहलाने को ।
पर थी सब दुनियाही उनकी, थे बादशहा सब जगके भी ।।१।।
राजा - महाराजा कदमोंमें, पड़ते थे पैर छुआनेको ।
बस खास रंगे रगमें थे वे, किसकी ना पर्वा रखके भी ।।२।।
जो लब्ज निकाले वाणीसे, पत्थरकी रेख सही होवे ।
तुकड्या कहे संतोंकी योंही, लीला है कहते सच्चे भी ।।३।।