ऐ विश्वके चालक प्रभो !

(तर्ज : क्यों नही देते हो दर्शन... )
ऐ विश्वके चालक प्रभो ! मुझमें समझ दे विश्वकी ।
इस अखिल मानवधर्मके, आदर्श ऊँचे वेषकी ।।टेक।।
दुःख है इसका हमें, हम अवनती क्यों पा रहे ? ।
शील यह हममें भरा, सेवा करे हम देशकी ।।१।।
है मनुज हम देहसे, पर कर्म हैं सब भूलके ।
सोचनेकी बुध्दि दे, आदर्शवत्‌    संदेशकी ।।२।।
पक्ष औ उपपक्षमें खाते हैं गोते जोरसे ।
प्रभू ! ऐक्यताका ग्यान दे, बंधन कटाकर द्वेषकी ।।३।।
धर्म किसका हो कोई, पर वर्म सबके एक हो ।
हम भाईसम बिचरें सदा, लहरें   चले   संतोषकी ।।४।।
हों गरिब या के अमिर, सुख-दु:ख सबमें एक हो ।
गर मर मिटें तो हम सभी, हो ख्याल ऐसे होशकी ।।५।।
धीर हों गंभीर हों, हम वीर हों संसारमें ।
बस दान यह दिजे प्रभो ! सेवा करें   जगदीशकी ।।६।।
आजकी यह वक्त है , सौभाग्य - चंदनलेपकी ।
कहत तुकड्या भीख दे, जो कुछ रहे अवशेषकी ।।७।।