ओम जय सद्गुरु देवा !
(तर्ज: ओम जय जगदीश हरे...)
ओम जय सद्गुरु देवा ! ।।टेक।।
भक्तनके हितकारी ! निज मारगदर्शी !
पूरण होकर आपको, पूरण के हर्षी ।।
जय-जय श्रीगुरुगाथ ! दीननके दाता !
धन्य तुम्हारी महिमा, भजते मन हरता ।।१।।
आसन सिद्ध लगायो, निश्चल चित् माँही ।
चेतनसे चितवाये, अंतर-धुन गायी ।।
नैनन प्रेम समाया, निज-शांती पायी ।
बोलत चालत खेलत, आतम-धुन छायी ।।२।।
ग्यानन के ग्यानी हो, ध्यानन के ध्याता ।
योगन के योगी हो, योगहिको दाता ।।
चारउँ बेद पुराणा, तुम्हरो गुण गाता ।
लीला पार न पावे, तेरी कछु भ्राता ! ।।३।।
सबहीके अधिकारी, अज-अव्यय स्वामी ।
बाहर - भीतर तुमही, हो अंतर्यामी ।।
नंग-अनंग-असंगी, अनुभव-निजधामी ।
तुकड्याबालक चाहे, तुम्हरो पद प्रेमी ।।४।।