जय गुरुनाथा ! तू जगत्राता

                          गुरुस्तुति
(तर्ज : अपने आतम के चिंतन में...)
जय गुरुनाथा ! तू जगत्राता, शरणागत हम आय पड़े ।
भवसागर यह दुस्तर भारी, याद नहीं कहाँ दर्श घडे ?।।
लख चौरासी भोगत फाँसी, नरतन में अब आन खडे ।
कृपा करो महाराज ! दयाघन ! इसही कारण चित्त जडे ।।१।।
भूल गये अँधियारन में, नहीं ग्यान-उजारा साथ लिया ।
कौन बतावे तुमबिन मारग ? चाहे लाख-करोड दिया ।।
अगम अगोचर, श्रृतियों के पर, तुमही हो गुरुनाथ! बडे ।
कृपा करो महाराज! दयाघन! इसही कारण चित्त जडे ।।२।।
कौन बखाने महिमा तुम्हरी ? मुक्ति तुम्हारे द्वार खडी ।
रिद्धी-सिद्धी दो पगमें तुम्हरे, रैन-दिनही सेवामें जड़ी ।।
चार बेद अरु षड़ शास्तर ये, महिमा तेरी गात खडे ।
कृपा करो महाराज ! दयाघन ! इसही कारण चित्त जडे ।।३।।
लाखो लोग डटे सेवामें, फल अपना वह पाय रहे ।
जो कोई तेरो रुप न जाने, वह भवसागर डूब गये ।।
निर्मल चित्त हुवा नहीं मेरा, अहंकारमें खूब नडे।
कृपा करो महाराज ! दयाघन ! इसही कारण चित्त जडे ।।४।।
जगमें यह अवतार तुम्हारा, भक्तनके हितकारणको ।
नेम-धर्म अरु मर्म ग्यानके, घटघट ज्योत उजारनको ।।
तुकड्यादास यही वर माँगे, नाम तुम्हारो जींह लडे ।
कृपा करो महाराज! दयाघन! इसही कारण चित्त जडे ।।५।।