कितना तुझको समझाऊँ, ए मन ! नहिं बात सुने तन तारणकी

भजन ४६
(तर्ज : नारायण जिनके हिरदमें. .. )

कितना तुझको समझाऊँ, ए मन ! नहिं बात सुने तन तारणकी ।।टेक।।

ऋणी होय रहा, भवधार बहा, तब सोच करे जम-मारण की ।। १ ।।

जब रावण ने चुर लाई सीता, तब बोध किया गुणधारण की ।। २ ।।

नहिं जाने वहीं, घड़ी आय रही, तब आहि गई विपदा रणकी ।। ३ ।।

नहिं देर बडी, बखती है खड़ी, कर मानुजजन्म सुधारन की ।। ४ ।।

धर ध्यान जरा मतिमान नरा, तुझे भूलपरी भ्रमकारण की ।। ५ ।।

मम मान कही, गुरु नाम वही, जपले सबही दुख टारन की ।। ६ ।।

कहता तुकड्या अब मौत खड़ी, कर यार सुधार हुशारन की ।। ७ ।।