जिसके घरमें दिया जला फिर

       (तर्ज: हरिका नाम मर नर प्यारे...) 
जिसके घरमें दिया जला फिर उसके घरमें अंधार क्यों ?
नौकर-चाकर फटे रहे और मालिक के घर बहार क्यों ? ।।टेक॥
क्यों नहीं दोनों मजेमें रहते ? बताओ इसकी वजे कहाँ?
एक जो कर को खँचीटता तो बोलो ताली बजे कहाँ ?
जीसके जरिये करे कमाई, उसकी हालत रही कहाँ ?
जो सच्चा मालिक है घरका,वही भिखारी बनके रहा।।
उसकी आत्मा क्या कहती है नहीं सुनते हो पुकार क्यों ?
क्या होता फटफटे उडाये ? अजब गजब का बजार क्यों ? ।।१।।
नहिं उठता था सवाल जबतक,तबतक बाते निबट गयी ।
अब तो भंडा खुला भेदका,पलभर भी गुंजाईश नहीं ।।
सुधरो मेरे धनीमानियों ! भूलके खोना वक्त    नहीं ।
अपना घर सबमें फैलाओ, तभी दिवाली रहे सही ।।
सभी कमाओ मजूर बनके, तो मालिक सब बने रहो।
नहीं तो बदला काल समझो,भूले हम फिर यह न कहो 
अपना स्वारथ ऊँच उठाओ,गावको अपना घर कर लो ।
सब बच्चे-बूढे हैं अपने, अपना धन उनमें  धरलो ।।
तुकड्यादास कहे तब होगी, अबके दिवाली उधार क्यों ? ।
घर आयेगी लक्ष्मी दौडे, यही नाटकी सुधार क्यों।।२।।