तू निरख-निरख कर बढता जा

             (तर्ज: मन मन्दिर में शुंगार किया...)
तू निरख-निरख कर बढता जा,सत-मारगमें,चढता जा ! ।।टेक।।
आने दे आँधी गजबज की, विवेक -पथसे लढता जा ! ।।1।।
आने दे मोह ममता को, त्याग-धुनी में कढता जा ! ।।2।।
विषय सताने जब-जब आवे, गुरु-नाम खुब रटता जा ! ॥3।।
अवगुणि शत्रू प्रेम करे कहीं, निर्भय होकर अडता जा! ।।4।।
तुकड्यादास कहे,प्रभु-पद को, हरदम ही तडपता जा! ।।5।।