जिधर देखता हूँ, उधर हीं उधर है। कहूँ मैं किधर है, ऊपर या भीतर है

(तर्ज : जर्मी चल रही आसमाँ...) 

जिधर देखता हूँ, उधर हीं उधर है।
कहूँ मैं किधर है, ऊपर या भीतर है ।।टेक ॥
अभी तक के खोजा, नहीं पागया है ।
आता है आगे न लौटा गया है।।
किसीने दिया ना पता वो नजर हैं     ।। १ ॥
मगर आँखसे आँख जब लड गयी थी।
मेरी आँख ही आखरी बढ गयी थी।।
न मै देखता तो, न कुछ था हुजूर है  ।। २ ॥
मजा देखने में न पायी जरासी।
मगर देखना खोके, रंगत भि खासी ।।
तुकड्याने देखा » मुझमें ही घर है   ।। ३ ॥