जग सत्य - आसत्य ही क्या कहना
(तर्ज : हरद देशमें तू हर भेष में तू...)
जग सत्य-असत्य ही क्या कहना, परिवर्तन इसका है पलपल ।
पीछे था कहीं अब वो न दिखे, पर दिखता है सारा छलबल ।।टेक।।
कहीं गंभीर है,कहीं भोग बढ़े,कहीं आस -निरास भरी सबमें।
एक दुःख करे, एक मौजी हँसे, एक दिनभर करता है कलकल ।।1।।
कुछ छोडके जाते हैं तनको,फिरभी तो बाज बजे उनका।
कोई जन्मा हो, होती है खुशी, किसीकी शादीकी है खलबल ।।2।।
कोई वृद्ध अनूभव देने लगे,अरे सब संसारमें सार नहीं
कोई मरते दमतक कार्य करे, उनके उत्साह में झाँकी फसल ।।3।।
कोई सुखमें , दुखमें, मस्त रहे; मरनेमें कष्ट नहीं उनको।
वाहवारे मुनी है, धाम वही, जीतेजी तोडी है दलदल ।।4।।
अनुभव तो ऐसा है मेरा, एकहि आत्माका रंग सभी ।
तुकड्या कहे कुछ कहते न बने,क्या सत्य-असत्य है,बीज या फल ।।5।।