दिन दहाडे मैं घुमता था

             (तर्ज : सारी दुनियाँ का...)
दिन-दहाडे मैं घुमता  था   भ्रमसे   गरम ।
मुझको क्या कोई बोले, न थी भी शरम ।।टेक।।
शास्त्र और बेदने   सबको  बोला  नीति ।
पर न सीखा  था मैं  कि   सुधारूँ   मति ।।
मुझको यही ठीक लगता था,विषयोंका दम ।।1।।
रात-दिन कष्ट करता रहा बैल-सा ।
जिन्दगी में घूमा खूब  पायी   नसा ।।
कौन देता   मुझे   ग्यान  तोडे   करम ।।2।।
पर लगा है पता आज कीर्तन सुना ।
इससे सुख है अलग ये तो है यातना।।
हे प्रभु !  मुझको तूही    बतादे  मरम  ।।3।।
कुछ तो करलूँ जगत में बडा नाम हो।
नहिं तो मानव का जीनाही बेकाम हो।।
कहता तुकड्या मुझे भागसे पाई गम ।।4।।