तेरे दर्शन से मन की ही भ्रांति मिटे

      (तर्ज : सारी दुमियाँ का तू ही...)
तेरे दर्शन से मन की ही  भ्रांति   मिटे ।
तार माया के थें जो जमा   सब   छूटे ।।टेक।।
अब तो   बालक के   नाते रहे खेलता।
सारे सुख-दुःख को भी रहें   झेलता ।।
मुझको पर्वां नहीं है, ये तन भी  छुटे ।।1।।
हम तो उसको ही दरसन कहाते सदा।
जबके जिस वख्त गुरुकी निगा हो बदा।।
मैं - तू का भेद  सारे   जीवनसे   हटे ।।2।।
पैर पड़ना ये व्यवहार की रीत है ।
पूजा करना वही रीत की प्रीत है ।।
सच्चा दरसन तो तब है,अँधेरा कटे ।।3।।
उनकी रजधूल का नाम है, ग्यान लो ।
अपने अनुभव करो, वृत्ति को ठान लो।
कहता तुकड्या जो जिव-शिव कभू ना फुटे।।4।।