लगता है मुझे क्यों काव्य करुँ ?

          (तर्ज : हर देशमें तू, हर भेष में तू...)
लगता है मुझे क्यों काव्य करूँ ? क्या और कमी है ग्रंथन की ? 
पर मैं नहिं करता ये सब कुछ, प्रभु धार बहाता है मनकी ।।टेक।।
जब बाढ बढ़े नदियोंकी कहीं, किसी के रूकनेसे रूक न सके । 
उसका तो धर्म यही बहना, सागर मिलनेकी उमंग उनकी ।।1।।
साहित्य नहीं, ना ग्यान भी है,जो कुछ भी है प्रभु-भक्ति जरा ।
उतनी ही नशा बेचैन करे, जैसी कि नशा किसको धन की- ।।2।।
हम आखिर है तो उसीके ही, जैसे भी भले या पाईक हों ।
तुकड्या कहे,संत-समाज मेरा,सागर से विशाल मती उनकी ।।3।।