सभी पर्तवमें नहीं माणिक
(तर्ज : मनाला स्थीर करवाया... )
सभी पर्वतमें नहीं माणिक, अगर होता मजा होती !
सभी सीपों के भीतर से निकलता है नहीं मोती ।।टेक।।
बनों में वृक्ष लाखों हैं, फलों और फूल के सुन्दर।
नहीं चन्दन सभी में है, महक सबमें कहाँ होती ? ।।1।।
हजारों भेषधारी हैं, अखाड़े और संन्यासी।
साधु बिरलाद ही होंगे,अगर होंते तो क्यों बीती ?।।2।।
सभी धनवान में सारे, नहीं होते है सत्दानी ।
धर्म निष्काम देते तो, बुद्धियाँ क्यों पलट खाती ! ।।3।।
सभी तो शूर नहीं होते, जो लड़ते देश के खातीर।
अगर होते तो आजादी,अभी क्यों धोकेमैं आती ?।।4।।
भजन और कीर्तनोंका भी, तमासा यों ही है सारा।
अगर सच्चा भजन होता,तो जनता नाच क्यों जाती ? ।।5।।
वो तुकड्यादास कहता है,कहाँ कुछ है,कहाँ कुछ है।
सभी को नेक पथ पावे तो दुनिया ठीक ही रहती ?।।6।।