हम है सब पंथोके साथी

                    (तर्ज: सुनी खबर की...)
हम है सब पंथोके साथी, संत  हमारा   रहा  सगा ।
भेदभावका नाता टूटा,अब तो वह घरकाही लगा ।।टेक।।
रंगरुपसे पंथहि  न्यारे, ईश्वर-घरके फूल बने ।
सत्य - अहिंसा -त्याग दे बता इसी फूलसे जात मने ।।
विकार-काँटे सबपे लगे हैं, अंज्ञानहिं से   पलते   है ।
ग्यानसुगंध बढे जब जादा, अपने आप पिघलते  है ।।
एक मंचपर बैठ हरीके गुण  गाने   जब   सत   लगा ।
                 भेदभावका नाता टूटा 0।।१।।
क्या बैरागी और संन्यासी, दादू,उदासी, वारकरी । 
एक बेदकी शाखाएँ हैं, श्रुतिस्मृती   सबको  प्यारी ।।
प्रकार चाहे अलग बने पर मूलद्रव्य   तो   है   एकी ।
भोग छोड़ना,त्याग पकडना,सुखआत्माही है बाकी।।
जगन्नियंता परमेश्वर है, जानके दुर्गुण छोड  भगा ।
                 भेदभावका नाता टूटा0।।२।।
स्वधर्मसुख आत्मामें रहता,परधर्मोको स्थान नही ।
जो इंद्रिय-भोगोमें रहता, फँसना उसको रहा  सही ।।
स्थितप्रज्ञकी मिली जगह जब,जन्ममरण का दुःख नही
यही पंथ है सीधा सबका,अटक-फटक किसको न कहीं ।।
उठो साधकों ! साधन करके बढो,यहाँपर नही दगा ।
                 भेदभावका नाता टूटा0।।३।।
हम सब एकहि है पहिलेके, ईश्वर जबसे माना  है ।
उनसे हैं संघर्ष हमारा, नास्तिक जिनका बाना  है ।।
चरित्र, नीति,बंधुता,समता इनका नहीं ठिकाना है ।
जितना चाहे भोग करो,कहते इकदिन मर जाना है ।।
तुकड्यादास कहे मानवमें वही सदा जाता है   ठगा ।
                  भेद्भावका नाता टूटा 0।।४।।