ऐ गांधी ! तेरा जो ब्रत था, उसमें साथी भारत था
(तर्ज: विश्वास पे क्यों बैठा है.. ?)
ऐ गांधी ! तेरा जो ब्रत था, उसमें साथी भारत था,
करकेहि क्रान्तिपथ पहुँचा,वह आजादीका रथ था ।।टेक।।
जंगल का सत्याग्रह करने लाख कुल्हाडें छूटी ।
जेल गये नवयुवक, वृध्दभी, बच्चे, बाई- बेटी ।।
घबरायी नोकरशाही ।
बस चीढ उठी दिलमाँही ।।
बेगुनाह किसको पकडे ? इतना तो तुझमें सत् था।।१।।
करो नही तो मरो इसी निर्धार पें आखिर आया ।
फिर तो सैनिक जिधर-उधर थे,सब धुमधाम मचाया ।
कहीं पत्थर बम बन पाये ।
जो दिलमें आय कराये ।।
अपना तो भलाही था पर,मानवताका स्वारथ था।।२।।
ऐसी रास रची थी तूने, मोहन ! मनमोहन की ।
जात-पाँत नहि देखी किसकी ,थी सत् के दोहन की ।।
बस जिधर -उधर था गांधी ।
वाहवाह रे ! क्या थी आँधी ! !
तुकड्याने यह देखा हैं, गांधी सत्का पर्वत था ।।३।।