रातमें जपता माला, गांधीजी रातमें जपता माला

      (तर्ज: सच्चा धरम नहि जाना...)
             रातमें जपता माला,
     गांधीजी रातमें जपता माला ।।टेक।।
सुन्दर तारोंके प्रांगणमें खटिया थी   बापू   की ।
इर्द-गिर्द साथीही सोते, अजब  वहाँकी  झाँकी ।।१।।
मैंने एक दिन उठते देखा,कुछ पूछा,नहि बोला ।
हाथमें माला चली हुई थी, सहज समाधीवाला ।।२।।
दिन निकले फिर कहते देखा,मैं था अपनी धुनमें ।
रामनामकी लगी थी तारी,मौन रहा  हरिगुणमें ।।३।।
वह तुलसी की लम्बी माला, लेकर बापू सोता ।
तारोंका वह निसर्ग-वैभव,देख देख सुख  पाता ।।४।।
वैष्णवजन का स्थितप्रज्ञ का था आदर्श अमलमें ।
राजकाज था वह ऊपर का,रामराज था दिलमें।।५।।
प्रात:स्मरण नित्य आध्यात्मिक बाणीका होता था।
उपनिषदोके मन्त्र बोलकर फिर नारायण गाता ।।६।।
ब्रह्मुहर्त बादमें वहाँपर सो   नहिं   सकता   कोई ।
तुकड्यादास कहे मुझको थी आदत पहलेसे ही ।।७।।