ओ शस्त्र के धारी ! प्रीय मुरारी ! !
(तर्ज : ओ ! निर्दयी प्रीतम...)
ओ शस्र के धारी ! प्रीय मुरारी ! !
सुनो हमारी, बन्सि काहे बिसारी ?? ।।टेक।।
बन्सिसे नहीं काम बना, संकट क्या ही था इतना ?
हमने देखा, इस बन्सी से, सब गोपी हो गयी जमा।।
ऐसा सबको मोहित करता, तबतो होती बलिहारी !।।1।।
किस पर शस्र चलानेसे, काबिज वह होता कैसे ?
दिल तो उसका जलता रहता, छुपकर रहता है वैसे।।
सही काबिज तो वह होता है, अनन्यता जिसमें भरी! ।।2।।
किसके बम्ब गिरानेसे, दुनिया क्या जीती उनसे ?
वह तो मरके फिर जीयेगी, बदला लेनेको तुमसे !!
इसीलिये है तुकड्या कहता, अर्ज॒ सुनो मेरी ! ।।३।।