सद्-विचार प्रवाह
जय बोलो सत् - धर्मों की ।
जय बोलो सत्-कर्मों की ।।
जय बोलो मानवता की ।
जय बोलो सत् जनताकी ॥
जय बोलो सत्-सन्तोंकी ।
जय बोलो सत्-पन्थोंकी ।॥
हम सब कष्ट उठायेंगे ।
सब मिलकर सुख पायेंगे ।।
सब मिल सतगुण गायेंगे ।
सब का जश फैलायेंगे ।।
पिछडी कोउ न जाति हो ।
सबकी सबपर प्रीती हो ।।
देश धर्म में नीती हो ।
हम सत् के ही साथी हो ।|
सब मिल नव-निर्माण करें ।
बहु संग्रहका दान करें ।।
विश्वस्नेह का ध्यान धरे ।
सबका सब सम्मान करे ।। ९


मुफ्त कभी नहीं खायेंगे ।
सच सेवा कर जीयेंगे ।।
अमर किर्ति कर जायेंगे ।
सदा प्रेम-रस पीयेंगे ।।
सब का ज्ञान बढायेंगे ।
कला कुशल बनवायेंगे ।।
सत् - संसार सजायेंगे ।
मनपर विजय कमायेंगे ।।
निर्भय ज्ञानको जानेंगे ।
निज - स्वरुप पहिचानेंगे ।।
अंधी चाल हटायेंगे ।
समझ बुद्धि में लायेंगें ।।
सत् सेवा का मंत्र मिले ।
सबमें सेवा फले - फुले ।।
भक्ती भी न अनाडी हो ।
विवेक आगू पिछाडी हो ।।
सब सन्तों का ज्ञान मिले ।
पर जचता है, वही चले ।।
जिसका जिसपर ध्यान रहे ।
उसका वह ही स्थान रहे ।।
आशिष तो है सन्तों का ।
पर बढना है निश्चयका ।।
बिन निश्चय कुछ कार्य नहीं ।
जो दुनियाँ में करे सही ॥ २१


पूजा पाती दुय्यम है ।
पहिली बात तो संयम है ॥
आँखों में ही दर्शन है ।
चिन्तन ही तो पूजन है ॥
अवगुण अपने ही देखो ।
उन्हें हटानेको सीखो ॥
प्रेमकी बातहिं मोहनी है ।
उससे दुनियाँ अपनी है ॥
प्रसन्नतासम स्वास्थ्य नहीं ।
अनासक्ति - सम मस्त नहीं ।।
स्वामी - सम कुछ काम करो ।
तब फलता है प्रणाम करो ॥
कभी न निन्दा कर किसकी ।
झुठी साक्ष न भर किसकी ॥
जितना हो उपकार करो ।
व्यसन -मुक्त व्यवहार करो ।।
हम सब उनकी मदद करे ।
जो दुनियाँ में पडे गिरे ॥
सबसे ऊँचा दान ओ है ।
जो देता सत्-ज्ञान ओ है ॥
डर न जरा हो मरनेका ।
हिम्मत जब सच करनेका ॥
यही विश्व का शिक्षण है ।
उपकारक हो जीवन है ॥ ३३


साहुकार सहकारी बने ।
तब मानेंगे लोक उन्हें ।॥
साधु सब उपकारक हो ।
हीन - दीन - उद्धारक हों ।।
क्षत्रिय सबपर ख्याल करें ।
कोई न किसके हाल करे ।।
बेपारी वही सच्चा है ।
नेक तराजू अच्छा है
सबकी उन्नति चाहता हैं ।
वहि ब्राम्हण कहलाता है ।।
शुद्र उसीकी जाति है ।
जो अवगुण का साथी है ।।
जो सब जनता को प्रिय रहे ।
उसको शुद्र न कोई कहे ।।
जिसके घट में क्रोध रहे ।
उसके मन ना बोध रहे ।।
जो गुस्से को पीता है ।
वहि जनता -प्रिय होता है ॥
जो सबको अपनाता है ।
ईश्वर को वह भाता है।
हरिजन से जो कपट करे ।
उसके घर में भेद सिरे ॥
संबकि भलाई जो सोचे ।
कभी न वह गिरता नीचे ॥ ४५


जिसे किसीकी गर्ज नहीं ।
प्रभु के घर वह दर्ज नहीं ।।
ब्रह्मचर्य नहिं स्तंभन है
ब्रह्मचर्य सच्चा मन है ।।
गृहस्थ वहि कहलाता है ।
संयमसे जो रहता है ।।
सच्चा वह पुरुषार्थी है ।
सत्ता के नहिं माथी है ॥
अपनी कमाई खाना है ।
दुसरोंपर नहिं जीना है ।।
धीरज अरु सन्तोष जहाँ ।
अनुभव - सागर रहे वहाँ ॥
बक-बक सो पंडीत नहीं ।
समदर्शी, विद्वान् वही ।।
जो कोई भूख मिटाता है ।
ईश्वर - सम कहलाता है ।।
उसकाहीं इतिहास बने ।
सेवाव्रत ले खाय चने ॥
किसिकी आत्मा पंगु नहीं ।
बुरी आदतें पंगु कही ॥
समझ समझ जो बढता है ।
कभी न वहगिर सकता है ॥
सेवा का कभू मोल नहीं ।
सच्चे प्रेमको तौल नहीं ।। ५७


शत्रू हमारे हमही हैं ।
मित्र हमारे हमी रहें ।।
दुर्व्यसनों - सम शत्रु नहीं ।
सद्गुण के सम मित्र नहीं ।।
धन नहिं ऊँच उठाता है ।
ज्ञानहि ऊँच कहाता है 
सत्ता की आयु न बडी ।
सेवा की ध्वज सदा खडी ।।
गुणी - जनो का संग जहाँ ।
रहते तीरथ - राज वहाँ ।।
जिसके घर में नीती चले ।
वह आश्रम-सम सदा फले ।।
जिसके घर में झगडा है ।
उनपर जम का पगड़ा है ।।
जिनके घर आलस्य नहीं ।
लक्ष्मी का है बास वहीं ।।
जो दुसरों के छिद्र गिने ।
उनके घर शैतान बने ।।
सन्त - साधु कि जात नहीं ।
सच्चा साधे साधु वही ।।
जो सज्जन - संग नम्र रहे ।
उनकी बढती लोक कहे ।।
उसका कभी नहिं संग करो ।
जिसने मन व्यभिचार धरो ।। ६९


जिनको सुख-दुख रहते सम ।
उनको गले लगाओ तुम ।।
धर्म सभीको तारक है ।
अधर्म हानी कारक है ।।
मत बैठो उनके संग ।
जिनमें है व्यसनोंका रंग ।।
सत् की शक्ती एक करो ।
तब दुनियाँ मुट्ठीमें धरो ।।
इंद्रिय संयम है जिसमें ।
दुनिया उनके है बसमें ।।
जो खुद ही गिर जाता है ।
वह नहिं राज चलाता है ।।
जिसका मन निर्लोभी है ।
उसका लोभ सभीको है ॥
जो विद्याका दम्भ करे ।
वो न कभी भी पेट भरे ।।
उनको दुनियाँ हँसती है ।
जिनमें झूठकी मस्ती है ।।
मरनेपर क्यों दान करो ?
जब जीते अभिमान करो !!
क्यो नहिं उनपे सवारी हो ?
जो गरिब के बैरी हो ।।
ज्ञान समान न शस्त्र कोई ।
जो लगते ही मुक्ति भई ॥ ८१


अभी बात का वक्त नहीं ।
करके बताओ तभी सहीं ।।
जो कहे बालकसे सुख हो ।
उनके सद्गुण सम्मुख हो ।।
जिनकी चाल कुचाल रहे ।
उनपर ही सबका शक है ।।
जो श्रमसे शरमाता है ।
भूखसे वही तडपता है ।।
सच्चा है इन्सान वही
जो संकट में डरे नहीं ।।
क्यों भाई पढते पोथी ?
नहीं ज्ञान की मजबूती ॥
अपनी गलती जो माने ।
वहि आगे बढना जाने ।।
अपने दोष छुपाते है ।
वे नहीं अगुवा होते हैं ।।
सूरज कभी न छुपता हैं ।
बादलसे नहिं दिखता हैं ।।
हर कोई साधू पहिचाने ।
पापी क्यों उसको जाने ! 
ऐसे भी दिन आते हैं।।।
बिन जाने भटकाते है ।।
हम अपने मन चिढ़ते हैं ।
समझ पडे पर अडते हैं ।। ९३


मन्दर जाना आदत हैं ।
इमानदारी इबादत हैं  ।।
योगासन सब कसरत हैं ।
योग वही जो स्थिरचित हैं ।।
पापी को खुश करवायें  ।
दोनों ही जम-घर जायें ।।
सच्चा मारग सिखलायें ।
दोनों भी प्रभु- पद पायें ।।
जीवन - सम संग्राम नहीं ।
बिरला पावे पार कहीं ।।
या तो कुछ कर दिखलायें ।
या तो सज्जन - संग जायें ।।
कोई अधूरा ठीक नहीं ।
या पापी या पून कोई ।।
गरज पड़े पर नम जाना ।
यहि हैं मूरख का बाना  ।।
मतलब से मीठे बोले ।
वहि होते हैं जहरीले ।।
दुर्जनकी पहिचान यही ।
जो बोले नहिं साच कही ।।
हरि - जन उनको कहना हैं ।
जिनका निर्मल रहना हैं !!
वह पापी जग - जाहिर है ।
लडकी धनसे बेच गये ॥ १०५


उसने बेशक खून किया ।
किसी गरिबसे घूस लिया ।।
सबसे चोर बडा वह हैं ।
करके मिलावट चीजें दे ।।
वह गुण्डा कहलायेगा ।
दहशत देकर खायेगा ।।
मददगार वह है ही नहीं ।।
जिसकी तृष्णा तृप्त नहीं ।।
बड़पन की क्यों चाह धरो ?
उसके खातिर पाप करो ।।
सही जमाना तब आवे ।
ईश्वरसे मन डर पावे ।।
सबसे तालिम वो अच्छी ।
सबल रहे लडकी-बच्ची ।।
बडी सुबा जो जग जावे ।
उसके प्राणमें बल आवे ।।
कार्य - काल जो सोता हैं ।
वह मुर्दे - सम होता हैं ।।
जिनके घर में गीत नहीं ।
उन्हें जिनेकी रीत नहीं ।।
नहीं व्यवस्था कर पाता ।
क्यों फिर बच्चे उपजाता ?? ११७


उतनेही हो पुत्र तुम्हे  ।
शिक्षण देकर काल क्रमे ॥
बिना पुत्रके जो धन है ।
देश - धर्म के सुपूर्द दे ॥
बिना जान कुर्बान किये ।
कौन प्रभू हाथों में लिये ??
ग्राम यही तो मन्दिर है ।
मानव ही प्रभू के स्तर हैं ।।
साधू अलख जगाता है ।
जन जागे सुख पाता है ॥
खाली जगना पशु ओंका ।
दिल जागे वह नर पक्का ।।
ऐसे भजन को गाना हैं  ।
जन - जन को जगवाना है ।।
कर्म करनको हम सोचे ।
फल देने ईश्वर सोचे ।।
अमृत जन सागर में हैं ।
बिना त्याग नहिं मिल पाये ।।
आज नहीं प्रभु मन्दर हैं ।
सच्चे सेवक के घर है ।।
प्रभू समा नस-नस मैं हैं ।
सच सेवक के बस में हैं ।।
प्रभू किसे नहिं कभू हँसे ।
सेवक के नाचे ही नचे ।। १२९


प्रभू के दर्शन चाहते हों  ।
फिर क्यों भोग में रहते हों ।।
प्रभु हरिजन - संग काम करे ।
तुम क्यों महलों में ही मरे ।।
घर छोडो, जेवर छोडो  ।
तब मेरा प्रभु लो पकडो ॥
क्या तुमने सच काम किया।
कहते, प्रभू ! नहिं दर्श दिया ॥
चाहे बालक बोध करे  ।
क्यों नहिं हम महसूस करें ??
झूठी बात बड़ा बोले  ।
कभी न हम उसको सहले ।।
मैंने उसमें प्रभु देखा  ।
जिसकी बात ह्दय सीखा ॥
हमको अपना बल ही कहाँ ?
जब गुरुदेवने पास किया ।।
पत्थर पर्वत सहता है  ।
वैसे संकट भक्त सहे ।।
सेवा करने जो न डरे ।
प्रभु उसके घर काम करे ।।
कुष्ट कोढी की सेवा करे ।
प्रभु उसको ही दुवा करे ।।
सज्जनताका साथ करे ।
प्रभु उसके सिर हाथ धरे ॥ १४१


पैसेवालों रहम करो ।
तब पैसा आगे भि भरो ॥
थोडा जो कुछ देता है ।
दुगुना राम कराता है ॥
जिसने दानको मुंह मोडा ।
समझो उसने घर फोडा ॥
सूम के धनको चोर लुटे ।
या तो वो जलकर भूमि फटे ।।
बिछुडा साथी मिलता हैं ।
दिल बिगडा नहिं चलता हैं ।।
धूप की गर्मी दाह भरे ।
दिलकी गर्मी पाप करे ॥
पहिले भरोसा अपना हो ।
राम भरोसा फेर कहो ॥
नसिहत अपने आपकी हो ।
कहने - सुनने बापकी हो ॥
फूल इसलिये प्यार का हैं ।
हरा - भरा दीदार का हैं ॥
प्रियतम प्रभु उनको मिलते ।
सदा विरह -दुःख जो सहते ॥
यादहि नहिं मैं करता था ।
बलके दिनभर रोता था ॥
शत्रु वही जो बहकावे ।
मित्र वही पथपर लावे ॥ १५३


लगे तीर फिर सी सकते ।
शब्द -बाण नहीं मिट सकते ।।
प्रेम - पात्र इन्सानहि हैं ।
जब बैंमानी की बू नहिं हैं ।।
हम न करें अपनी रक्षा ।
तब मर जानाही अच्छा ।।
रामनाम जप फेर करो ।
पहिले नेककि साक्ष भरो ।।
मान - प्रतिष्ठा गुण की हो ।
कभू नहीं इन्सानकि हो ।।
चरणामृत का अर्थ यही ।
शब्द - बोध पी जाय सही ।।
संतबचन दिल ठान लिया ।
जानो उसीने नमन किया ।।
सन्त - कृपा का अर्थ यही ।
आज्ञापालन सही - सही ।।
सन्त - देव इन्सानहि हैं ।
बड़ा फर्क ईमान में हैं ।।
आँख सभीकी बराबर है ।
नजर का भेद सरासर है ॥
क्या होता जाके जंगल ।
मनकी संगत करे विव्हल ।।
दिल राजी तो जग राजी ।
दिल बिगडे सब नाराजी ॥ १६५


धन्धा सब का एकसा है ।
भंगी हो या पुजारी रहे ।।
अगर साधु भी क्रोधी है ।
उससे गृहस्थी क्या कम हैं ।।
तारतम्य नहिं ज्ञानी में ।
ज्ञान डुबेगा पानी में ॥
सब जनता नाराज करे।
फिर तो साधू भूख मरे ।।
मोल न होता बातों का ।
कीमत मिलता है तपका ॥
तीरथ जा या जाओ किधर ।
पर अच्छी होनी है नजर ।।
उतनी गर्ज न धन की है ।
जितनी जरुरत गम की है ।।
आततायी को फल ही नहीं।
गमसे बनती बात सही ।।
जीते मरना जाना है ।
उसीका ज्ञान सुहाना है ।।
वही क्रांति कर सकता हैं ।
जिसका निश्चय टिकता है ।।
उनका ज्ञान न काम करे ।
जो खुद पैसों को ही मरे ।।
शिक्षक वही हो सकता है ।
जो अवगुणसे रिक्ता है ।। १७७


वही स्वामि, के लायक है ।
इंद्रीय - मन का नायक है ।।
निर्मल भक्ती है जिनमें  ।
ईश्वर - शक्ति रहे उनमें ।।
राज्य कुशल के हाथ रहे ।
प्रभु सेवक के साथ रहे ।।
अमृत उनसे स्त्रवता है  ।
जो करुणा से द्रवता है ॥
उनके हाथ कठोर बडे  ।
जिनके मन सन्ताप चढे ॥
संकोची मेहमान गया  ।
भूखे पेट फजीत भया ।।
उधार धंदा जो करता  ।
पैसे खो भूखा मरता  ।।
नगदी बेच, सचाई कर  ।
तब लक्ष्मी आवेगी घर ॥
अपना दुख उनसे कहना  ।
बिगडी को बनवा दे,अपना ।।
मन्त्र - मुग्ध मन होता है ।
तब कहि प्रेम उलझता है ।।
अकसर उनसे बात करो  ।
जो असहाय बड़ा होगा ॥
पहिले मुखिया ढील करे
तब जानो फिर साथी मरे ।। १८९


लाख पोथि का अर्थ यही ।
सबसे बर्ता सही - सही ॥
कर्ता लड़का अगुआ है ।
तब बूढे क्यों बीच रहे ।।
जब बेटेने घर ठीक किया ।
पिताजी क्यों नाराज भया ?
अच्छे कामको देरी क्यों ?
कल करना सो आज करो ।।
दुखियों की दो बात सुने ।
इतनेसे वह सुख माने ।।
गिरे हुऐ  को रुलवाना ।
यह नहिं सज्जनका बाना ।।
उचित चाल तो है यह ही ।
हमसे रुटे नहिं कोई ।।
घर रुठे तो लोभि रुठे ।
सज्जनका नहिं संग टुटे ॥
हँसी है, अगुआ कह लेना ।
जब विश्वास नहीं अपना ॥
अकल बिना धन सौंप दिया ।
उसने खोकर धूल किया ॥
अपना झगड़ा ग्राममें मिटे ।
फिर सत्ता का भेद टुटे ॥
गुरु - पितासे बैर करो ।
तब यह पाप कहाँ सुधरो ।। २०१


बालक बलपर चढ़ने दो ।
तुम साक्षी देखने रहो ।।
काम तो है अपना दो से ।
फीर ढिंढोरा क्यों सबसे ।।
उनसे मित्रता क्यों करना
अन्दर का कहता रोना !!
गम नहिं बातें रखनेका ।
मित्र बने क्योंकर किसका ??
बने जहाँतक जूट करो ।
फूट डालकर मत बिचरो ।।
चलाख जो है दुनिया को ।
वह धोखा भी दे हमको ॥
बराबरी का बालक हो ।
उससे फिर आदरसे रहो ।।
शान न अपनी कपडोंपर ।
बल्की अच्छी संगतपर ।।
झगडा नहिं हैं धर्मों का ।
सिर्फ है पुजारी-पण्डों का ॥
पेटहि भरनेका जब हो ।
तो फिर अच्छे कायसे हों ॥
पहिले तो मन पाप करे ।
फिर सब तन-मन जाय गिरे ।।
यदी पुरानी बात रही ।
बूरी है तो छुओ नहीं ।। २१३


खेती भी तो लक्ष्मी है ।
जिससे जिवनकी हामी है ।।
वेहि बहाद्दर कहलाते ।
अपने बलपर जो जीते ।।
जो अपनेको रज माने
आगे वहि होते शाने ।।
ज्ञानी को अभिमान भया ।
समझो उसका प्राण गया ।।
बिना कीर्ति के जो जीता ।
उसको कोई नहीं छूता ॥
ज्यादा खाना पाप ही है ।
दिनभर ही आलस्य रहे ।।
बचन दिया फिर टल जाना ।
उससे अच्छा मर जाना ।।
परनारीपर जोर करे ।
वहि होते आगे बकरे ।।
जो दुसरेका जल छीने ।
प्रभु उसकी नहिं बात सुने ।।
समाज का यह दोष बड़ा ।
एक भूखा और एक चढ़ा ।।
जनता में आदर्श वही ।
जिसका जीवन चले सही ॥
अधिक मिलेपर *भोग* नहीं ।
कभी उन्होंको *रोग* नहीं ।। २२५


थोडि गरज में जो रहता ।
वहि नर सबका प्रिय होता ।।
प्रेमकी नीती वह जाने ।
जो ईश्वर के दीवाने ।।
आया अतिथि मत छोडे ।
दोनों मिल खाओ थोडे ।।
गर आदर नहिं कर पाता ।
क्यों मेहमान को बुलवाता ??
थोड़ा भोजन लज्जत का ।
अधिक खाना हुज्जतका ।।
ऐसा कोई प्रवासी हो ।
सत्प्रेरक उल्हासी हो ।।
जो खुदही रंग जाता है ।
उसीका ज्ञान लुभाता है ।।
खुद की जिसको तडप नहीं ।
वह लेगा क्या झडप कही ??
मुफ्त न जाये एकभि क्षण ।
यहि है जीवन का शिक्षण !!

खुद जीकर दुसराभि जिये* ।
-यहि सन्देश बडोंने दिये ।।
खुदका गर्व न हो पाये ।
जब मोटे जन दिख जाये ।।
खुद मोटेपन लेना है ।
तब छोटेपर निगा रहे ।। २३७


आडी मत कर बात कहीं ।
फिर आडी निकलेगी नहीं ।।
सरल स्वभाव बडप्पन है ।
जिसका सत्य आभूषण है ।
हजार धंधे क्यों करता ।
एकभि अच्छा नहिं आता ??
धंधा कर तो ऐसा कर ।
लोग आये चलके घर ॥
दुनिया का वहि दोस्त बने ।
सबके घर समझे अपने  ॥
सदा चपल जो रहता हैं।
जीवन - रस वहि पाता हैं ॥
तेज नहीं, कुछ ओज नहीं ।
उसका बोझ न सहे कोई ॥
ऊपर - ऊपर बात करे ।
दुनिया उसका थाह धरे ॥
जिसकी दिलसे चोट चले ।
उसके जरिये लोग फुले ॥ 
जबतक बात न स्पष्ट मिले ।
तबतक शक नहिं होत खुले ।।
मातृप्रेम - सम प्रेम नहीं ।
गुरु-नियम-सम नेम नहीं।।
डर तो अपने ही घर है ।
जबतक पास में जेवर है ।। २४९


वहि निर्भय हो सकता है ।
आतम-ज्ञान परखता है ।।
अभद्र किससे बात करो ।
तो फिर आफतसे ही मरो ।।
सज्जनताका ब्याज बडा ।
मिलता है सर्वस्व खडा ॥
अपने हाथमें लक्ष्मी हैं ।
जबतक श्रम की हामी हैं ।
खाली गप्पें मारेगा ।
उसको कौन उद्घारेगा ।।
जरुरत हैं नैतिकता की ।
उतनी न चन्दन मालाकी ।।
जिसके मार्ग में है धोखा ।
कौन मित्र होगा उसका ??
जिससे ध्येय न मिलता हैं ।
उसका प्रेम न फलता है ।।
समयकी कीमत जो करता ।
वह बेकार नहीं रहता ।।
जिसके दिलपर चोट नहीं ।
वह नहिं आता काम कहीं ।।
स्थानभी प्रेरक होता है ।
जहाँ इतिहास जगाता हैं ।।
प्रतिमा में भी ज्योती हैं ।
दिखते ही सन्देश कहे ।। २६१


किसिके दर्शन लाभ करे ।
किसि दर्शनसे भूख मरे ।।
यश-अपयश दिख जाता हैं ।
जब चलते कोई आता है ।।
समझो यश पहिलेही हैं ।
जैसे हो संकल्प किये ।।
वैद्य दवा का साथ करे ।
मगर प्रेम की बात करे ।।
किसी स्थान में ध्यान लगे ।
किसी स्थानमें विषय जगे ।।
कोई जगा बैराग बने ।
किसकी संगत विषय बने ॥
मनुष्य चाहे भग जाये ।
संस्कार नहीं जा पाये ।।
सुपात्र वही कहलाता है ।
जिसका पथ उज्ज्वलता है ।।
प्रगतशिल को दान करो ।
देश का तब कल्यान करो ।।
बिन सोचेसे दान किया ।
सब पैसा गांजामें गया ।।
उसिके घर विश्राम मने ।
शौच, स्थान-घर जहाँ बने ॥
राजपाट भी हट जाते ।
चरित्र-हिन जब दट जाते ।। २७३


नहीं कुआ, धन, हाथ सबल ।
वृक्ष लगेगा किसके बल ??
नहिं खुराक, नहिं होत जतन ।
क्यों घर रखता है गोधन ??
जरा काम - उद्योग नहीं ।
पिता बनेगा कहाँ सही ??
एकहि लडका पैदा कर ।
जिसकी कीरत दुनियाँभर ॥
हतबलने जिन्दगी किया ।
सब डाकुने बाँट लिया ॥
जीर्ण देह की क्यों आशा ?
फेर जनम जब है अच्छा !!
मजदुर की जहाँ कदर नहीं ।
वह मालिक फिर जबर नहीं ।।
सबके मन आनंद बसे ।
है वहि मंगल-क्षण सबसे ॥
तुम्हरा - हमरा प्रभू कहाँ ?
प्रभु तो सबका एक रहा ।।
सत्य - वस्तु तो एकहि है ।
चाहे बढे या खर्च किये ।।
भाषा बातें न्यारी है ।
चीज वही जो प्यारी है ॥
सत्-की हिम्मत कीर्ति करे ।
असत्-की ताकत प्राण हरे ।। २८५


मिले - जुले रहते हैं हम ।
इस बड़ा फिर कीन कदम ??
समझानेमें कसर रहे ।
क्यों सुधरे नहीं ? -आप कहे !!
समयकी घन्टी बोल गयी ।
तभी प्रार्थना शुरु हुआ ।।
जबरदस्ती यह भक्ति नहीं ।
भक्ति विभक्त न होति कहीं ।।
भक्ती अपने आपकी है ।
समझ - बूझ गुरुसाबकि है ।।
अगुआ इंजन आगे चले ।
सेवक डिब्बा पिछु निकले ।।
निर्भय - निर्दय साधक हो ।
तब साधनसे सिद्ध रहो ।।
दया कभी सुख देती हैं ।
कभी - कभी बिगडाती हैं ।।
सही बात सबकी ही सुनो ।
गलत राह किसकी न गिनो ।।
मनमें आया हैं तो क्या ??
निश्चय बुद्धीने न किया ! ?
जिनके निश्चय में बल है ।
वहि पा सकता सत्फल है ।।
नमस्कार का अधिकारी गुण ।
उनके सामने फिके धन-जन ?? २९७


गधो के घोडे बनवाना ।
अर्थ है मूरख सुधराना ।।
खबर आसमाँ करता हैं ।
भक्त न मरने डरता है ।।
करके चौघडा बजता है ।
वीर सुलीपर हँसता है ।।
धन-दारा सब लजती है ।
कौपिन में भी मस्ती है ।।
सन्त नहीं वह मेला क्या ?
उपदेश बिनाहि कलेवा क्या ??
समझदार जहाँ लोग रहे ।
वहाँ शासन का काम क्या है ।।
चोरी - डकैति गुनाह नहीं ।
रामराज्य वह सही - सही ।।
जनता पाप को क्यों सीखी ?
निगा नहीं है गुरुओं की ।।
कच्चा बरतन बगता है ।
बालक वैसे सिखता है ।।
अकल में तीनों काम कामकि है।
दण्ड - छडी और ज्ञानभि है ॥
लिखा है सब पोथी में वही ।
लिखाने वाले एक नहीं !!
शासन चलता शूरोंसे ।
शिक्षा मिलती गुरुओंसे ॥ ३०९


अपने घर कोइ आये जन ।
नहीं दुखाओ उनके मन ।।
धन में धन है सेवा - धन ।
किर्ती उसकी करे जतन ।।
मात-पिता सज्जन गुरु-जन ।
उनसे कपट न हो किसिक्षण ॥
ज्यादा बडबड जो करता ।
उसको है वह रोग-व्यथा ।।
मनपर जब अंकुश नहीं ।
पागल का है अर्थ यही ।।
सुनी - सुनाई मिली किधर ।
झूठ न किसिकी निन्दा कर ।।
किसकी सुनी है बात गलत ।
उसिको पूछो सच हालत ।।
नशा, जुवारी, व्यभिचारी ।
सज्जन के होते बैरी ।।
मुंह में राम बगल में छूरी ।
मतलबियोंकी रीति है सारी ।।
कसम धरम की भी खावे ।
स्वार्थि न पापसे डर पावे ।।
मोल - मजदुरी पसन्द करो ।
पर किसिसे धोखा न करो ।।
मजदुर बनना शरम नहीं ।
बल्के काम हो नेक वहीं ।। ३२१


किसिके न्यायपे शंका हो ।
ईश्वर न्याय पे शान्त रहो ।।
प्रयत्न करके थक जाना ।
प्रयत्न का यह नहीं बाना ॥
किस्मत पिछू दौड सके ।
पर प्रयत्नवादी रुक न सके ।।
बाँसा खाना किस्मत का ।
ताजा खाना कसरत का ।।
बाप के धनपर निगाह नहीं ।
तभी होगी उन्नती सही ।।
सद्गुरुसे सत्-ज्ञान सिखो ।
निगा न उनके घरपे रखो ।।
सन्त खुशी तब कृपा बने ।
और समय न सताओं उन्हें ।।
सब जन सन्त के साथ चले ।
अच्छे - बूरे - पापि भले ।।
सन्त सभी को प्यारे है ।
नजर नजरसे न्यारे है ।।
जिस में कच्चा माल भरा ।
सन्तने छानके पुरा करा ।।
शास्त्र रोग को कहता है ।
दवा तो संत ही भरता हैं ।।
ज्ञान तो पण्डीतोंसे सुनो ।
अनुभव तो गुरुओंसे गिनो ।। ३३३


सत्-गुरुकी बातों में बल ।
औरों की, बातें बल-बल ।।
सत्-गुरु वहि कहलाता है ।
ज्ञान औ गम को पीता है ।।
सन्त रहनसे बच्चा है ।
पर ज्ञान उन्हींका सच्चा हैं ।।
क्रूर वही जो पाप करे ।
शूर वही सत् को ही धरे ।।
वीर वही हिम्मत न हरे ।
धीर वही श्रम सहन करे ।।
कायर वहि गुण्डोंसे डरे ।
शहिद वही सत् पर ही मरे ।।
तिरय्या वही भवधार तरे ।
गवय्या वही अनहद में फिरे ।।
बजवैय्या वही बंसिको झुरे ।
योगी वही मन-विजय करे ।।
भक्त वही प्रभु-प्यार करे ।
विषयांध वही विषयोंको झुरे ।।
सही जात वही जो सहाय्य करे ।
वह जाता नहीं आपस में घुरे ।।
वह कुत्ते की मौत मरे ।
जो मित्रसे नमक हरामि करे ।।
वह मित्र नहीं है, डाकू ।
पाप सिखाता किसको हैं ।। ३४५


उनकी छाॅव खड़े न रहो ।
जिन्हें चरित्र का ज्ञान न हो ।।
अच् है भले सर जाना ।
चुगली खाकर क्या जीना ?
अपनी मौत को दोस्त करे  ।
दुनिया उनके पैर धरे ।।
मुंह मत खोले बारंबार  ।
खोल तो करदे बेडापार  ।।
तार सके तो तार किसे  ।
मगर न क्रोधसे मार किस ।।
न जाये चाहे मन्दर तू ।
चोरी - जारी मत कर तू ।।
बडी चीज है शक्ति सबल ।
आसन-कसरत-दण्ड प्रबल ।।
पहिलवानि नहिं झगडेकी ।
बलके है जीवन-सुखकी ।।
अपने संरक्षण कि हो कला ।
जो जाने वहि सुखी भला ।।
किसकी बातें मोह करें  ।
किसकी बड़बड द्वेष भरे ।।
ऐसा हो इन्सान बना  ।
सबमें रहे पर बिगडे ना ।।
ऐसो का संग क्यों करना ।
अपकीर्ती से हो मरना ।। ३५७


कायम तगड़ा वही बने ।
कसरत करता दिने-दिने ।॥
तगड़ापन नहिं दिखनेपर ।
बल्के तनको कसनेपर ।।
हिम्मत बढ़ती संगतसे ।
आचारसे और बिचारसे ।।
सीधे चलो तो तुम्हरे साथ |
नहिं तो करेंगे दिलकी बात ।।
पहिलवान वहि कहलाता ।
सुने गरिबकी दो बाता ।।
पैसे खाकर झूठ करे ।
अन्त उन्हें यमराज घिरे ।।
वैद्य वही आदर्श रहे ।
बिना दवा उपचार कहे ।।
बड़ा वैद्य तो निसर्ग हैं ।
पहिले ही प्रतिकार करे ।।
दवा सभींके पासमें हैं ।
सब बाते संयमसे रहे ।।
क्यों खाता इतना खाना ?
चुरण लेकर पचवाना ।।
अपना-अपना सब बोले ।
बिमारका नहिं दिल तोडे ।।
कुत्तेका जब पेट दुखे ।
हरियाली को जाय चखे ।। ३६९


नेवला को जब साँप घिरे ।
मिट्टी सूंघकर दवा करे ।।
अच्छी दवा तो सूरज है ।
प्रकाश देकर जीवन दे ।।
जो इंद्रिय के स्वाधीन है ।
उसे दवा का नहिं गुण है ।।
खाना - पीना परहेज का ।
उसे दुःख नहिं होनेका ।।
नित्यप्रति व्यायाम करे ।
कभू न वह बीमार गिरे ।।
बड़ी बिमारी, हैं आशा ।
नहीं छूटे तब बुरी दशा ।।
खुला बदन और कष्ट करे ।
उसे बिमारी नहीं घिरे ।।
सभी दुःखोंकी दवा मिले ।
मौत न कोई टाले टले ।।
अलग तरीके दवा चले।
दुःख यही कभू मन न मिले।।
वर-वधुके जब हाथ मिले ।
धनकी तब क्यों बात चले??
बिन आमद खर्चा करना ।
फिर चिन्तासे घर भरना ।।
बात खरी पर प्यारी है ।
उसकी तब बलिहारी है ।। ३७०


देशपे जब परचक्र चले ।।
तब नहिं रहते स्वस्थ भले ।।
देशपे जब कोइ बिपत पडे ।
होनाहि है तब युवक खडे ।।
मेरि समझ में नहिं आता ।
फिजूल क्यों करना बाता ??
मजाक भी तो कामकी हो |
जिसमें चीज आरामकी हो ।।
क्यों करते कागज काले ।
जिससे सार नहीं निकले ।।
पागल भी खुब लिखता है ।
मगर न सार निकलता है ।।
जिनको कलकी याद नहीं ।
उनकी बुद्धी मंद भयी ।।
न्यायासनपर चढना है ।
आप - परा न परखना है ।।
सगेको भि जो दण्ड करे ।
वही न्यायी समझाते पुरे ।।
साधू घर-घर जाय घुमे ।
लोक-सुधार में काल क्रमे ।।
सबको हैं मरनेका डर ।
ज्ञानी भक्तहि रहे निडर ।।
लोभ बढे तो रह न कहीं ।
गंगाजलसम बहे सही ।। ३९३


राम - राम तो सब गाये  ।
होने राम न दिल भाये ।।
साधू के संग सभी चले  ।
मगर न साधू बने खुले ।।
हमरा दर्शन वोही है।
ईमानसे दुनिया में रहे ।।
बिना आग नहीं घी पिघले ।
बिन बैराग न विषय जले ।।
जो सिखलता वहि तू कर ।
तब सिख जाये जन जी-भर ।।
या निंदक का मुंह बन्द कर ।
नहिं तो तू चल जाय किधर ।।
आदत से मजबूर सभी  ।
इसिसे मुक्ति न पाय कभी ।।
देना - लेना जग जाने  ।
सत दे दे वह देव बने ।।
धन - दारा जब दिल में हैं ।
तब भगवान् न रह पाये ।।
मूरख से मत बात करो  ।
नहिं तो मूरख बनके मरो ।।
अपना मृत्यु हम जाने  ।
ऐसे जन होते शाने ।।
हम भारत के भारतीय है ।
धर्म - जात फिर बाद कहे ।। ४०५


पहिले थी उद्योग ही जात ।
अबतो वह नहिं जातकि बात ।।
अलग जात, उद्योग अलग ।
यह है जीवन की दग-दग ।।
मेरे ख्यालसे जात मिटे ।
उद्योगों की श्रेणि दटे ।।
क्षमतापर उद्योग चले ।
चाहे जो उनको भि मिले ।।
मानवता एक जात बने ।
उसके लिये सब हाथ मने ।।
जतियता एक शराब है ।
विशालता की शत्रु रहे ।।
विवाह में कोई बात नहीं ।
प्रीत मिले फिर जात नहीं ।।
बन्धन है धन गिननेका ।
विवाह में वह है धोखा ।।
दिल मिलते सहकार हुआ ।
लगा शादि का वहाँ दिया ।।
शादी तो आसानी है ।
मगर निभाना बानी है ।।
कम खर्च में शादी हो ।
नाहक नहिं बर्बादि हो ।।
अस्पृश्यता नहिं जाती हैं ।
वह भोगियोंसे बनती हैं ।। ४१७
सबही में अस्पृश्य रहे ।
जो नीती को छोड़ गये ।।
बातें नहिं चाहता दफ्तर ।
वहां तो हो कागज-पत्थर ।।
दप्तर सदा न पहिचाने ।
वह तो लेखी सही माने ।।
समझाने की बात नहीं ।
वहाँ साक्ष की रहे सही ।।
आज जमाना दस्तुर का ।
कोई नहीं पुछता मनका ।।
सही बात को चक्कर क्यों ?
अनुभव है फिर टक्कर क्यों??
मकान - सडकें फेर करो ।
पहिले शिक्षण को सुधरो ।।
शान - शौकिनी बाद रहे ।
पहिले अर्थकि जरुरत हैं ।।
जब खावे तब काम करें ।
बिना काम खाना न जिरे ।।
खाना पचाने दण्ड करो ।
क्यों नहिं काम उदण्ड करो ??
सबके सिर अब साथ चले ।
विकास करनेको निकले ।।
सद्-विचार का सुगंध है ।
वहाँ धूप का क्या छन्द हैं ?? ४२९
 सद्-विचार की धुनी जले ।
वहाँ पनपते लोग भले ।।
गुरुजी एक तपस्वी है ।
बालक का तभि भला कहे ।।
व्यवहार - शुद्धी तभी बने ।
लोग चरित को लगे छूने ।।
साहब ही पैसे खावे ।
लोग सुधरने कब पावे ??
अधिक खर्चा अफसर का ।
कार्य कब बढ़े गरिबों का ।।
पण्डित जब साशंक रहे ।
जनता निर्भय कहाँ भये ??
राजा ही जब डर जावे ।
न्याय कहाँ गाना गावे ??
गुणपर सब कुर्बानी हैं ।
सूरत कि कहाँ कहानी हैं ??
बिना समझ के जोश बढ़ा ।
पत्थर-सम वह निचे पड़ा ।।
दुनिया यह बाजार भरा ।
कोई न रहता हरा -भरा ।।
चिन्ता सब पर शोर करे ।
बिन चिन्ताका जीव तरे ।।
जीव - शीव में भेद नहीं ।
सिर्फ ग्यान की बात रही ।। ४४१


सब लोगोंपर कर्ज रहा ।
मानव जब उन्नत न हुवा ।।
ऐसा गाना क्यों गावे ।
समाज मतलब नहिं पावे ।।
सच साहित्य तो वही बने ।
कोई किसीका हक न छिने ।।
खुशबु न कागज -फुलोंमें ।
सुख नहिं बात - वसूलोंमें ।।
जलसे* भी क्या बूरे है ?
गर जन जाय सुधारे है !!
जो खुद है उसे क्या ढूंढे ?
दिल न मुंडा, सर क्या मुंडे??
जिसको प्यारा ग्यान लगे ।
क्यों उसको कोई ध्यान लगे ।।
बूरी आदत बरबादी ।
आबादी रहनी सादी ।।
मकरंदोंपर भ्रमर घुमे ।
वैसे प्रभु - पर भक्त झुमें ।।
भक्त वही भगवान बने ।
दोनोंभी एक जान बने ।।
अलग ने किसकी तारिफ है ।
प्रभू रहे या भक्त रहे ।।
बाहर दिया जलाये क्यों ?
अँधियारा जब दिलमें क्यों ?? ४५३
इतनी पूजा क्यों करता ।
नहिं इन्सान परख सकता !!
दिमाग सबके साथ चले ।
तब भाई एक क्यों न मिले ??
हम जब खाये पिये सब मिल ।
धन भी एक और एक हो दिल ।।
अपना-अपना काम करें ।
एकमें रहके मौज करें ।।
पहिले तू तो कामको कर ।
फिर पीछे दुसरोंको सुधर ।।
मुझमें एक बिमारी खडी ।
काम नहीं पर बात बडी ।।
बात का नेता भूख मरे ।
कष्ट करे वहि मौज करे ।।
हरिजन - हरिजन क्यों कहता ।
तू क्या हरिको नहिं भजता ??
जन उतने भी हरिजन है ।
पाप करे वे ही रावण है ।।
अग्यानहि तो बचपन हैं ।
यहाँ उमर का क्या गुण है ।।
वन - वृक्षोमें बास करो ।
अपने हरीसे बात करो ।।
पूजा में है चित्त कहाँ ।
मन तो बाहर ढूंढ रहा !! ४६५
 दिल टकराता पत्थरसे ।
ब्रह्म मिले तिहुं निश्चयसे ।।
हम सब मिलके बात करे ।
सेवा की खैरात करें ।।
मेरे मनने चोरी की ।
परकी चीजपे दृष्टी दी ।।
मुफ्त मिला तो खाना क्यों ।
बिना कष्ट पचाना क्यों ।।
बकरी के सम चरता है ।
काहे उपोषण करता है ??
कदर करे नहिं नौकर की ।
समय बदलेगी कभी उनकी ??
जंगल में मंगल होगा ।
जब प्रभु किरपा पायेगा  ।।
सेवा का पछिना सोना है ।
विषयोंका पछिना रोना है ।।
सच्चे कामोसे मौत मिले ।
देव - देवता झुक के नमे ।।
कुछ वस्त्रभि त्याग सिखाते है ।
पर उतनेसे ही फल न मिले ।।
माला भी सुख दे सकती ।
बिना जपे क्यों हो मुक्ति ??
चंदन मंगल - चिह्न खरा ।
झुठी करनी धोखा बुरा ।। ४७५
 कभी धोये वस्त्र फँसा सकते ।
कभी मैले वस्त्र हँसा सकते ।।
आत्मा क्यों सुधरानी है ।
सुधरानी बूरी आदत है !!
दुःख नहीं तब सुख भी क्यों ?
रोगी नहीं बलवान भी क्यों ??
क्यों जल्दी करना - कहते ?
और हाथ नहीं कुछ लगवाते ।।
जो भोजन में आग्रह करता  ।
वह आलस का भागी होता ।।
भोजन का अर्थ यही ।
इच्छा जितना लगता है देना वही ।।
सभी जगा लाठी न चले  ।
सभी जगा बातें न चले  ।।
कहींका खून तो हिंसा है ।
कहींका खून अहिंसा है ।।
सबका बोना शिस्तमें हैं  ।
मनुष्य क्यों बेशिस्त रहे ??
उत्तम साँडसे गैया हो  ।
उत्तम वरसे वधू कहो ।।
बिना बीज फल ठीक कहाँ ?
बीना प्रेम सुनीत कहाँ ??
बिन आवाज के गीत, नहीं ।
बिन ताल-गित जीत नहीं ?? ४८९


नैन तडपते देखन को ।
योगी जन जीते मनको ।।
यह भारत की बानी हैं ।
भूखे को रोटी - पानी है ।।
यह देश, विदेशी छोड गया ।
पर थाट साहबी रखही दिया ।।
बेकारी का एक बहाना है ।
कुछ गोशा में ही जनाना है ।।
अरे! हड्डी-माँस को क्या देखे ?
चारित्र्यही सीधा नाक रखे ।।
तेरे सेंट-इत्र को फैक कहीं ।
सेवा - खुशबू अमर रही ।।
कोइ अपने इत्र लगाते है ।
कोइ सतूपर फूल झुकाते है ।।
कोइ मर्द चले संरक्षण को ।
कोइ गीध चले है भक्षण को ।।
मानवता ही है पंथ मेरा ।
इन्सानियत है पक्ष मेरा ।।
प्रसंग पडेपर दास भी बन ।
पर सेवा करने नहिं तज तन ।।
कुपात्र धनको रखें नहीं ।
सुपात्र को धन कभी नहीं ।।
सबकि भलाई धर्म मेरा ।
दुविधा को हटाना कर्म मेरा ।। ५०१
नैन तडपते देखन को ।
योगी जन जीते मनको ।।
यह भारत की बानी हैं ।
भूखे को रोटी - पानी है ।।
यह देश, विदेशी छोड गया ।
पर थाट साहबी रखही दिया ।।
बेकारी का एक बहाना है ।
कुछ गोशा में ही जनाना है ।।
अरे! हड्डी-माँस को क्या देखे ?
चारित्र्यही सीधा नाक रखे ।।
तेरे सेंट-इत्र को फैक कहीं ।
सेवा - खुशबू अमर रही ।।
कोइ अपने इत्र लगाते है ।
कोइ सत्-पर फूल झुकाते है ।।
कोइ मर्द चले संरक्षण को ।
कोइ गीध चले है भक्षण को ।।
मानवता ही है पंथ मेरा ।
इन्सानियत है पक्ष मेरा ।।
प्रसंग पडेपर दास भी बन ।
पर सेवा करने नहिं तज तन ।।
कुपात्र धनको रखें नहीं ।
सुपात्र को धन कभी नहीं ।।
सबकि भलाई धर्म मेरा ।
दुविधा को हटाना कर्म मेरा ।। ५०१
एकजात बनाना कर्म मेरा ।
सब साथ चलाना मर्म मेरा ।।
निच ऊँच हटाना गर्व मेरा ।
गिरते को उठाना स्वर्ग मेरा ।।
हम जिनसे मिले वो हमारे है ।
नहिं मिले वो मिलनेवाले हैं ।।
हमरा मिलना सद्विचार का ।
जब मिले तो टूटा जा न सका ।।
जो बाह्य आँखसे मिलते है ।
जो घडि-पल में ही चलते है ।।
जो-जो शुद्ध ह्दयसे मित्र हुये ।
फिर जनम-जनम नहिं अलग रहे ।।
आपस में भेद तुम्हारे हैं ।
हमको तो सबही प्यारे है ।।
मतभेद तुम्हारा मतलब का ।
मेरा है भेद जीव-शिव का ।।
ऐसी भक्ती क्यों करता ?
जरा न आगे बढ सकता ।।
ऐ बन्दे ! सच तू कामही कर ।
ईश्वर खुद आवेगा घर ।।
मनके पीछे क्यों जगता ।
सच कामोंसे नहीं लगता  ।।
जिनकी मनशा सब ऊठ गयी ।
लालच उसे मोक्षकी नहीं ।। ५१३
सदा न बैठो साधू संग ।
बिगड़ जायेगा किस दिन रंग ।।
समय न किसका बिगड़ाना ।
अच्छे मौकेपर मिलना ।।
स्पष्ट बोलना क्या गलती ?
शरम बगाना क्यों भलती ??
जग में मानसे जीना है ।
दो सेवाका पछीना हैं ।।
जिसने घर-जर त्याग दिया ।
उसे भोगकी आशा क्या ??
जब गर्दन उँची रखना हो ।
तब मोह न पर-दारा से हो ।।
सब दिन अपने नहिं चलते ।
समझे वहि फलते-फुलते ।।
किसकी उमर अनुभव देती ।
किसकी उमर है आसक्ति ।।
अपना सब कुछ सौप चला ।
वही कहाँ जाता है भला ।।
अपने जी - भर ठीक रहो ।
यहि है धन सबसेहि कहो ।।
मारग में पैर छुआता है ।
वो झुठा साधु कहाता है ।।
बिन अनुभव बातें कह देना ।
यहभी तो एक सिनेमा है ।। ५२५


दुर्बल वख्त परखिये नारी ।
संकट समय मित्रकी थोरी ।।
तरुण समय पुत्रको परखो ।
अंत समय आसक्ती देखो ।।
ग्रीष्म ऋतू में वृक्ष पछानो ।
भूख समय साधक पहिचानो ।।
धनके समय चोरको चिन्हो ।
सत्ता समय बडे पहिचानो ।।
भोजन समय श्वान पहिचानो ।
रुग्न समय तुलसी को छानो ।।
सभा समय विद्वत्ता निरखो ।
युद्ध समय बीरों को परखो ।।
चुगलखोर पीछे परखालो ।
सूने घर पेहरा अजमालो ।।
खेती-किसानी ऋतुपर जानो ।
विषमज्वर में वैद्य पछानो ।।
कठिन समय सेवक को गीनो ।
स्त्री-एकान्त में त्यागी चूनो ।।
खेल-कूद में तरुण निगा लो ।
वृद्ध समय समयाचित छू लो ।।
समृद्धीपर चुनो उपोषण ।
चिन्तन समय गिनो बैरी मन ।।
करार के अनुभव पर निश्चय ।
स्पष्ट बात पर परखो निर्भय ।। ५३७
मैंने सुनाया है बहु-भाँती ।
उसके कान न जुरे रेंगती ।।
गिनके लो मेरा दिल अपना ।
थोक बजालो चाहे कितना ।।
सब चिन्ता का बोझ खोगया ।
प्रभु सुमरनसे बाग-होगया ।।
अगर हम रखते ग्यानीसे मेल ।
तबतो जिन्दगी गुडियाका खेल ।।
पुराने द्वेष को दोहराना ।
है नयी जखम फिर बनवाना  ।।
जुनी याद ही करना है ।
कीर्ती ही फिर उलझना है ।।
गये दिन थे गरीबी के ।
उनकी याद हमेशा रखे ।।
अगर अमीरी थी पीछे ।
कभू न दोहराना फिरसे ।।
नाहक किसीको सलवाना ।
अहंकार कस है बाना ।।
जो गुजरी वह गमसे रख ।
नया कदम चलनेको परख ॥
भलते समय हँसी करना ।
मरनेसे दुख है दुगना ।।
भलते समय स्तुती करना ।
निन्दा ही है फरमाना ।। ५४९
समयकि शोभा जो जानी ।
वहि रहते है गुरु - ग्यानी ।।
कानसे जो किसको देखे ।
पराधीन वह है सरिखे ।।
आँखि खोलकर परखाना ।
मतलब हैं उसे अजमाना ।।
भलेहि दक्षना दे सकता ।
क्या आज्ञा में रह सकता ।।
भले पैर छूता हैं कोई ।
क्या आज्ञाधारक है यही ?
भले निमंत्रण हो जिसका ।
दिल ही साफ क्या है उसका ?
भले कोई बडी लुचपत दे ।
क्या यह संग्रह अच्छा है ? ।।
समाज में गर खाना है ।
विषम ढंग नहिं पाना है ।।
जो शरीर को कस सकता ।
वहि आखिर सुख पा सकता ।।
जिसने नियम में पोल किया ।
समझो उसका बस ही गया ।।
गलत प्यार है लड़को का ।
जब न उसे आदत में रखा ।।
आशा सुख की क्यों करना ।
जब दुसरों को दुख देना ।। ५६१
हम न किसीको दान करें ।
एहसान हमारा कौन करे ??
यदि परम-मित्र माना हो किसे ।
बुरा दिखेपर त्यागो उसे ।।
इसलिये ही माला जपनी है ।
प्रभु गलती नहीं हो अपनी है ।।
किसान की भक्ती खेती है ।
जो सबको रखती जीती है ।।
अब कुशल-गुणी खेती में लगे ।
साहित्य उसीका ऊँच जगे ।।
घर-घर गौ - संवर्धन हो ।
इसमेंहि लगे घरके मन हो ।।
है बड़पन खेती करनेंमें ।
उतना नहीं नौकर बननेमें ।।
जो किसान सबका दाता है ।
अभि कर्ज उन्हीके माथा है ।।
मोहे लाज लगत है कहनेकी ।
बस हद्द भयी विषयी मनकी ।।
झोरा भी न साथ ले जा सकते ।
तब बदन भी संगमें क्यों रखते??
जीवन पे निगा नियमोंकि रहे ।
परलोक - कृपा गुरुदेव की हैं ।।
मूरत पूजन ये बचपन है ।
आग्यापालन तारुण्य रहे ।। ५७३


अनुभव का मिलन सुख के दिन हैं ।
प्रभु - समरसता अन्तःक्षण हैं ।।
दिलवर के लिये दिलदार रहो ।
गुंडों के लिये तलवार रहो ।।
सज्जन से नत् - नम्र रहो ।
दुर्जन को कायर न कहो ।।
श्रम का भोजन अमृत है ।
मुफ्त का भोजन विकृत हैं ।।
हम अपने हक का खाते है ।
सेवा में झाडु लगाते है ।।
अपनी हिम्मत पर काम करो ।
मत दुसरो पर आराम करो ।।
जो नव मानव कहलायेगा ।
वह शस्त्र-रहित बन जायेगा ।।
तलवार से शूर कहलाता है ।
तलवार से क्रूर भी होता हैं ।।
हरी - नाम में शक्ती है ।
जपने पर ही मुक्ती हैं ।।
हैं तप के पीछे आत्म प्रबल ।
तब ही फलता हैं तप का बल ।।
वह सेवक नहिं, संहारक है ।
जो पर धन पर रखता हक है ।।
वहि धन्य प्रचारक होता है ।
जो सेवा पर ही जीता है ।। ५८५
सेवक का डर ना हो किसको ।
ऐसी ही रहनी उसको ।।
जहाँ जाय वहाँ कुछ काम करो ।
तब भोजन में खुद नाम धरो ।।
मिजवानी भी उपकारक हो ।
घर-मालक को सहकारकी हो ।।
आराम हराम कहाता है ।
यह सुनो बड़ों की बाता हैं ।।
जब चित्त न चिन्तन साधेगा ।
तब अन्तःक्षण भी बाधेगा ।।
आशा मन की बहोत बड़ी ।
जब कर्म नहीं तब बात नडी ।।
जितना बल है वहि बोलो ।
खालि जबानी मत खोलो ।।
चलो निकल जायेंगे हम ।
सत् - कर्मो की न हो शरम ।।
मौत से भी टकराते हम ।
जब देश-धर्म पर संकट हो ।।
घर रखिये काबू में अपने ।
जिसके तुम देखोगे सपने ।।
मेरे मन की मुझ में रही ।
सब परिवार न मेरा रहा
अब क्या होता है कहने से ?
जो मौका था वह गँवा दिया ।। ५९२
किसको सुझता है हरनाम ।
मुझे सुझे सेवा का काम ।।
प्रभूसे बड़ी प्रभु की भक्ति ।
उससे बडी सेवा-शक्ति ।।
पथिक यहाँ क्यो रुकता है ।
चल आगे आवश्यकता है ।।
में निर्बल हूॅ भक्ति में ।
ना के पाप की शक्ति में ।।
उस निर्बल पर प्रभू-कृपा ।
जो अभिमान से रहे सफा ।।
हीन - दीन उसको कहते ।
जिसके नम इंद्रिय रहते ।।
वह कैसे हिन -दीन बने ?
जिनके मन है द्वेष घने ।।
वह गरिब होता कैसे ?
जो खाने हरदम तरसे ।।
इंद्रिय शौक न कम होता ।
वह निर्बल नहीं बलि होता ।।
सच्चा नम्र वही होता ।
जो पापों से है डरता ।।
मीठा बोलके फसवाना ।
यहि हिंसा का है बाना ।।
मैं किसको क्योंकर जानू ?
मुझे न मैंने जाना है ।। ६०१


मेरा मुझे सुधरने दो ।
जब दुसरोंसे बात करो ।।
जब मैं अंदर गंदा हूँ ।
दुसरों को क्या सुधराऊ ??
अरे कवी ! तेरा मन मीठा ।
पर शरीर मे है ताठा ।।
ऐ ग्यानी ! तेरी बात बडी ।
पर मूंछ तो रहे चढी ।।
इतनी नम्रता पानी हैं ।
मुझसा कौन अज्ञानी हैं ??"
जो भी मैंने जान लिया ।
दुनिया उससे आगे हैं ।।
छाति नहीं मेरी चढ़ने की ।
सन्त जहाँ पर चढ बैठे ।।
कोइ लडते है दुष्मन से ।
हम लडते अपने मन से ।।
गुरु-चेले में फर्क कहाँ ?
एक जाने एक पाके रहा ।।
संग्रह फिर तुम क्यों करते ?
नाहक धोखा ले घुमते ।।
धन में धन है विद्या-धन ।
पढ़ाओ बच्चे करो जतन ।।
धन के प्रेम से चोर टपे ।
गुण के प्रेम से देश खपे ।। ६२२
बुजरु को काम यही ।
अपना अनुभव बोले सही ।।
कुल का भूषण नीती है ।
कुल- भ्रष्टता फजीती है ।।
अपने बल पर जो पढ़ते ।
आगे वह नहिं फिर अड़ते ।।
थोडे जल को खड्-खड् जैसे ।
कमजोरों की बड-बड वैसे ।।
अवगुण का जब संग करो ।
प्राणघात का रंग भरो  ।।
ऐसा बखत भी आता है ।
मूरख से हो नाता है ।।
बड़पन की ही बात करे ।
उसका टट्टू खाली फिरे ।।
करना है तो भरना हैं ।
फिर काहेका डरना है ।।
धन चाहे मिल जावेगा ।
किमती प्राण न आवेगा ।।
आज का शुभ-दिन यह बोला ।
सद्विचार ने रंग खोला ।।
हर दिन कुछ लिखते रहना ।
सार्थंक बनता है जितना ।।
हो सकता करने से ही ।
कार्य हि सब-कुछ कर सकता ।। ६३३
बुंद - बुंद से सागर भरता ।
क्षण-क्षण मिलकर सार्थक होता ।।
इच्छा है तहाँ मार्ग मिलेगा ।
जो कोई निश्चय से ही चलेगा ।।
जब किसान रहता है चेता ।
हराभरा तब खेत है दिखता ।।
आदिवासि का यहि है अर्थ ।
बिना कष्ट नहिं रहना व्यर्थ ।।
जब पास नहिं तब फिक्र कहाँ ।
जब आस नही तो उदास कहाँ ??
संसार नहीं तब दुःख कहाँ ?
व्याप नहीं, सन्ताप कहाँ ??
साथि नहीं तो व्याधि कहाँ ?
प्रभाति नहीं तो श्याम कहाँ  ??
शिष्य नहीं गुरुदेव कहाँ ?
पुत्र नहीं तो पिता कहाँ ??
रोना नहीं तो हँसना क्यों ?
भोग नहीं तो फसना क्यों ??
द्रोह नहीं तो मोह भी क्यों ?
अग्यान नहीं तो ग्यान भी क्यों ??
तुम भी नहीं फिर हम भी नहीं ।
जब भक्त नहीं तो देव नहीं ।।
गरिबी नहीं श्रीमंती कहाँ ?
जब रात नहीं तब दिन भी कहाँ  ?? ६४५
जब राजा नहीं तब राज कहाँ ?
जब फौज नहीं तो युद्ध कहाँ ??
जब बात नहीं तब प्रेम कहाँ ?
जीना हि नहीं तब मुक्ति कहाँ ??
बंधन ही नहीं तो मोक्ष कहाँ ?
जब जीव नहीं तब ब्रह्म कहाँ ??
मनसुबे पर संसार चला ।
जब मन ही नहीं तब कौन रहा ??
जब तुम-हम दोनों एक ही है ।
तब जीव कहाँ और ब्रह्म कहाँ ।।
बिन प्रभु-सत्ता के कुछ न खिले ।
तब बढना क्या घटना भी क्या ।।
हर चीज में ईश्वर छाया हैं ।
तब मिट्टी क्या और सोना क्या  ।।
जब दर्द मेरा सबको ही है ।
फिर घर की आस का काम ही क्या ।।
घर के लोग निराश मुझे ।
बाहर के क्यों फिर चाहे भला ??
दर-दरकि फिकर जब हैं मुझको ।
तब मेरि फिकर नहिं कौन करे ।।
शरणागत का यही अर्थ छुपा ।
अपने प्रभु का बल हैं उसमें
मगदूर नहिं कोई द्वेष करें ।
आतम से जब मैं निर्मल हूँ ।। ६५७


बिछडे तो वह माने जावे ।
जिसका मन पशु-पक्षी-सम हो ।।
दिलदार न कभू भी हार सके ।
जो हर सूरत में मस्त रहे ।।
कपडा ही सजाना हो तन पे ।
उससे संस्कृति का लाभ नहीं ।।
संस्कृति मन-बुद्धी निर्मल ।
जिसका व्यवहार चरित्र से है ।।
गुजरा हि नहीं मुझ पर अभि तक ।
जिसको मैं बुरा कह सकता ।।
मैं अपने पर ही आशक हूं ।
जहाँ मेरापन मुझको भाया ।।
हर किस्म का प्रेम प्रभू पर है ।
जो जिसम-जिसम में गूंज रहा ।।
तुम किसी देव को भजो भले ।
वह मिलता है निज ब्रह्म को ही ।।
तृष्णा का त्याग हि संयम हैं ।
संयम का सम्भव योग में हैं ।।
अय साधू ! ग्रंथ बताता क्यों ?
जनता तो तुझको ही देखे ।।
जिस दिन यह खेती फले फुले ।
वहि दिन भू-माता खुषी डुले ।।
खेती की पूजा खाद ही है ।
गायों की पूजा है चारा ।। ६६९
किसान की पूजा खेति मिले ।
पण्डित पूजा मान मिले ।।
राजा की पूजा कानून है ।
अफसर की पूजा नेक रहे ।।
पुत्रों की पूजा शिक्षण है ।
अपनी भर पूजा सू-मन है ।।
शत्रू  की पूजा दण्डन है ।
मित्रों की पूजा सहमन है ।।
सूरज की पूजा तपही हैं ।
गुरु - पूजा आज्ञापालन है ।।
बडी बात तो ऐसी है ।
समय पडे खुशी वैसी हैं ।।
भलते समय स्तुती करना ।
निन्दा ही है फरमाना ।।
भली दक्षणा दे सकता ।
क्या आज्ञा में रह सकता ??
यदी पचे खाना ज्यादा ।
सभी जगा खा सकता है ??
किसिने प्रेमसे बुलवाया ।
क्या झगडा कर सकता है ??
शत्रू भी हो मन्दर में ।
उसपर वार खसकता है ।।
दिलसे शरण जो आता हैं ।
उसको क्या कोई मार सके?? ६८१
यद्यपि किसका प्रेम बढ़ा ।
क्या सज्जन मदिरा पी सकते? ।।
मान - प्रतिष्ठा खूब मिले ।
क्या सज्जन जलसाध्यक्ष बनें? ।।
कदर नहीं जहाँ गरिबों की ।
वहां सन्त प्रसन्न नहीं रहते ।।
जहाँ भेद बिना मिष्टान मिले ।
वहाँ सभ्य न रोटी पा सकते ।।
मर-मरके किया जब काम कहीं ।
वे कदर न तारिफ कर सकते ।।
कोई ऐसा काम करें जगमें ।
मर जायें, पर नहिं कीर्ति भुले ।।
हम अपने कामसे रहते है ।
फिर भी डरते है, जनतासे ।।
यदि सुन्दर स्त्री फँसवाती हो ।
एकदम दिलसे बैराग करो ।।
उनकी क्या मोहब्बत हो दिलमें !
जो दिन-दहाड चोरी करें  ।।
गलती न छुपाओ अफसर की ।
जो देश के आँखो धूल भरे ।।
मर जाओं वक्त पडे फिर भी ।
पर पाप का मारग ना ढूंढो ।।
बदला हैं जमाना याद रखो ।
बेइमानी से किसको ना मुंडो ।। ६९३
ऐ पैसोंवालों ! याद रखो ।
बिन नेक ये पैसा मिट्टी हैं ।।
अफसोस है, उनकी शक्ती का ।
जिनसे अच्छा कुछ काम न हो ।।
जब समयपे सेवा भुल जाना ।
फिर राम -भजन का काम क्या है ।।
मिलना सभीसे हैं पर ।
कुछ काम भी तो हो ??
नागानी कहाँ बैठो ।
क्या मुंह ही ताकना है ??
दो बात भि कर सकते ।
दोनों को खुशी हो तब ।।
जब किसके घर मे जाना है ।
दरवाजे पर ही राय पुछो ।।
दोनों के बात में घुसना है ।
पहिले उनकी मंजूरी लो ।।
बिन काम के कोई ना बैठो ।
नहिं तो सिरबोझा पडता है ??
खुशि है खुब शुंगार करे ।
आखिर ये किसे दिखाना है ??
कोई भी चाहे राज करे ।
पर बुद्धी तो होना वैसी ।।
कोई भी चाहे लखपती हों ।
पर हिंमत हो सच करनेकी ।। ७०५


क्यों काम किसी को कहते हो ?
क्या तुमको आलसी बनना है ??
अपना भी काम न हमसे हो ।
बस ऐष-आराम की हद्द हुई ।।
भाई ! घर तो जरासा सुधराले ।
जब चार-जनमें जाना हैं ।।
हम स्वागत उनका करते है ।
जिनका जीवन उपकारक हो ।।
जो खुद आलसकें साथी हैं ।
वह ग्यान क्या देंगे जगनेका ??
सर्व-सुख मिलता किसको ?
सद्विवेक रहता उसको ।।
सीधापन सबको प्रिय है ।
जान-बुझकर वह चाहिये ।।
सीधेपनको होता डर ।
चलाख खैचे अपने घर ।।
विद्याको कृपा शिक्षक की हो ।
बचपन को कृपा पितु-मातकी हो ।।
सहा नहि जाता शत्रुका बकना ।
कितनी बार छातिपर पत्थरको रखना ??
सन्तोंने हमको समझाया कितना |
क्या मेरि अकलपे पत्थरही पडना ??
मेरे तरक्कीपे मीठा हँस गया ।
मानो कलेजेपे साँप डिग गया ।। ७१७
शांति नहिं आयी, मैंने किया वाहवा !
अबतो तेरा कहना किस मर्जकी दवा  ।।
मैंने सच्चे दिलसे तेरि सेवा ना किया ।
तबतो मानो! मेरा अन्न-जलहि उठ गया  ।।
आज तक किताबों की शास्त्रीय जोड की ।
मगर संतने मेरी कलम तोड दी  ।।
पीछे बोलता था कोई आवोना ।
मुझे देखतेहि किया बगल झांकना ।।
पैसोंकी गिनतीसे कई मिले दलाल !
मगर प्रेम देते मिला गुदडीका लाल !!
आजतक के छूपी थी हम दोनोंकी जात ।
मगर सन्तने ही कही पतेकि बात  ।।
कहता था कि मैं कई बार मर गया ।
संतने कहा चोला ही बिसर गया  ।।
प्यारेहो ! जल्दींही सोया करो ।
मगर पौ फटतेहि उठा करो  ।।
क्रोधकी बातोंसे जीयाही उछल गयी ।
मानो मेरी रातको नानी मर गयी  ।।
बात - बातमें इतनी बातें भर गये ।
मानो हवा ही के साथ बात कर गये  ।।
लेना है ना देना कुछ काम ना करना ।
दिन भर में बैठे बैठे गाल बजाना  ।।
सोयी थी बदन सारी,एकदमही जग गयी ।
सपनेको देख धोती ढील खागयी ।। ७२९
छोडो सारि झंझट मुखसे भजो राम ।
न लगे छदाम मिले आँधी के आम ।।
समय आनेपर भी कोई काम ना करना ।
चुल्लु भरके, पानीमें फेर है मरना ।।
बार - बार समझाके कहता हूँ मैं ।
नहिं तों दाँत पीसकर रहता हूँ मैं ।।
सबसे बडा पाप कहे आज जमाना ।
मुट्ठी गरम करना, किसकी गम न निभाना !!
तिलका ताड करके कोई बात बनेगी ?
मूंग खाये-पिये कहे-दाल चनेकी !!
अपना उल्लु सीधा करो, और क्या करना ?
भाई ऐसा कहनेसे तो भला हैं मरना ।।
उधेड-बुनमें लगना, यही काम रहा है ।
इसीसे तो नाम ना राम रहा है ।।
दुनिया जित जाना और बनना पीर ।
राजको सम्हलना बडी है टेढी खीर !!
हाथ साफ करना ये वही जानेगा ।
जो न अपना धरम ईमान मानेगा ।।
मैंने तो जीवन में झूठ भी पाये ।
फिर भी मेरे प्रभुजीने नाक रखा ।।
मक्खीयों के मारो , नहीं काम भी करो ।
और फेर प्रभुजीसे झोलियाँ भरो ??
जान के लाले पड गये, मुष्कील हो रही ।
कुछ कर न सका,धर न सका,इज्जत भी खोगयी  ।। ७४१
रंगमें भंग हुआ, ताल ना मिला ।
बात बडी-बडी किया गुरु ना चेला !!
नौ दो ग्यारह होगा, काहेके लिये ।
धोबीके कुते घाट के न पिण्ड के रहे ।।
कोल्हू का बैल बना, लाभ ना मिला ।
मारा-मारा फिरा और मरा अकेला ।।
हथेलीपे जान लेकर किया कमाई ।
आजादी की लडाई में बीरता पाई ।।
कण्ठ खोल - खोल मैंने सुनाया गाना ।
वाहरे तेरा दिल, टस् से मस् ना होना ।।
इसमें भलाई है, किसिसे हात बँटाना ।
इसमें क्या बड़ाई सदा डिंग चढ़ाना ??
चारों ओर जनता जब बड़ाई करेगी ।
तभी पाँचों उँगलियाँ ये घी, में तरेगी  ।।
घर फूंको तमाशा देखो ये भी क्या जीवन ।
सीर निचाओ, तन बचाओ, फिरो फिरो बनबन!!
बुद्धिपर पत्थर पड जाये, फिर जीओ कैसे ??
मुखमें जब जहर समाये, जल पीवो कैसे ??
आगीमें ही घी डालो तो क्यों ठण्डी होगी ?
लोभीओं को जोश बढाओ, होगी बरबादी !!
जब चाहे तबका ना खाना ।
कैसी शांती जीवन में आना ??
आँचल में बाँधी ये बात मेरी ।
सच कामको नहिं करना देरी ।। ७५३
क्योंकर सीर उठाते हो ।
नहिं शांती पल भी पाते हों ।।
चुंगुल में फँसना दुःख बडा ।
स्वातंत्र्य सभीको प्यारा हैं ।।
दाँतों के तले जब उँगली धरी ।
जब मूर्दा चितासे जाग गया ।।
आँसूही पीकर रहना है ।
मन-वांछित कार्य पुरा न हुआ।।
सारा ही खेल बिगडता है ।
जब दिलका काम न घडता है ।।
दोनों भि किनारे हाथ धरे ।
फिर एक थडीपे कौन करे ??
जब एक भि बात पुरी न करो ।
तब क्यों कागज काला करो ??
अब डेरा-डण्डा उठाना है ।
जब कुछ न किया इस जीवन में ।।
क्यों दिमाग खाली करते हों ।
जब बात न पूरी करते हो ।।
मैं नाक रगडते आया हूँ ।
तुम मेरि आरजू पुरी करो ।।
क्यों खरी-खोटी सुनाते हों ?
जब मैं न तुम्हारा हूँ बैरी ।।
दुसरोंकी चीज हजम करना ।
क्या यह भी नीति बतायी है ?? ७६५
वह क्या सितारा चमक गया ।
जिस की बातों पर देश हिला ।।
मेरा भी पल्डा भारी है ।
मैं बसर न जाता निंदक से ।।
क्यों दिमाग सारा चाट रहें ?
जब करना नहिं सत्कार्य कहीं ।।
क्यों घुमा - फिरा के बात को करना ?
जो हो वह साफ-सफा ही कहना  ।।
हम सार्थक करने को आयें ।
तुम हों किस खेत कि मुली कहो ??
तुम कहाँ तक ओठ कटाओगे ?
मैं तो हर दम ही सीधा हूँ ।।
मत परदा डालो बातों पर ।
जो सन्त कहे, सून लो उस को ।।
तिनों लोक से मथुरा न्यारी ।
हम मानवता - सेवाधारी ।।
प्रेम नहीं, सेवा करने की तान ।
मान न मान मैं तेरा मेहमान ।।
पकड़ा सन्त ने और पूरा लपेटा ।
मानो बिल्ली के भाग से छींका ही टूटा ।।
काला अक्षर भैंस-बराबर बोला ।
तुमने ही मुझे ऐसा बना डाला ।।
कब की लगी आग,अभी कुआ खोदोगे।
जवानी तो गयी, मरते क्या सुधारोगे ।। ७७७


सभी धान बाईस पसेरी नहीं होते ।
चोट लगे बिना भक्त कोई ना कहते !!
आगे नाथ न पीछे पगहा हैं मेरे ।
बस मैं हि रोषनी हूँ जलूं द्वार पे तेरे ।।
नौ नगद तेरा उधार का सौदा ।
इसे भला बिगडा कहाँ सस्ता दे नगदा !!
अचानक किसी के घर जाओ ।
याद रखो उन को तिल न सताओ ।।
बल्के किस के घर में नहिं हैं व्यवस्था ।
कर दो मदद उन को निकाल के रास्ता ।।
अपना बडप्पन किसी गरीबपे लदाना ।
तकलीफ ही देना बल्कि दुख बढाना ।।
मेरी किसी को तकलिफ हो तो प्रेम क्या पाया ।
उससे तो अकेले वक्त ने मुझ को निभाया !!
धरतीं के लाल हम है धरती पे जीयेंगे ।
धरती के प्राणियों में हिलमिल के रहेंगे।।
सब से बडी माता है धरती हमारी ।
जिलाना और समाना करती हैं पूरी ।।
नेकी करे जो बालक धरती के प्रिय है ।
है बोझ धरतरी पे जो कि निष्क्रीय है ।।
असमान की निगा है पर गोद धरतरी का ।
हम लाल उस के माने उद्धार कर दे उस का ।।
सौंदर्य धरती माता, शृंगार वृक्ष-बेला ।
आनंद सागरो का अस्मान में उजेला ।। ७८९
सीधी जबान मेरी किस को न खटकती ।
मगर कहीं मैला हो, बस उस को झटकती ।।
लिख - लिख के देर बांधी किताबें ।
दिल न लिखा सच्चा तो आव बे-जाव वे ।।
बेकार के दण्ड कोई मारते बैठे ।
कहो उस को कायम के क्यों नहीं लेटे ??
समय का संकल्प मन को तंग बनाता ।
कार्य - सिद्धि करने का रंग बनाता ।।
अंत के समय को जिस को जानकारी है ।
वही निभाता है जनम की हुशारी है ।।
हमने ही तो बाँध लिया अपने समय को ।
छूट गयी गोली अब तो फिर कहूँ किस को??
हम ही आयें अपना समय बाँध जगत् में ।
भूल गये फिर के दुनिया कि महक में ।।
सन्त ने तो ढोल बजा-बजा के बताया ।
बिरले हि सुने उन की, सब को नहिं भाया ।।
लाखों तारिकाओं में है एक ही चन्द्रमा ।
लाखों - करोडों में हैं बिरलाद महात्मा ।।
किस के दिखाने से भी नहीं याद उठती ।
किस के बताने से शंका खट् से मिटती ।।
इसी नैन कैंमेरे में कितनी तसबीरें ।
वाहवा रे कारीगर तूने सभी को घेरे ।।
आती है याद झटू से जरा होते इशारा ।
पहिले दिखता दिल में, फिर होता नजारा ।। ८०१
जिस को हैं मैंने देखा, में बिठा के सीखा ।
उस को ही फेर परखा. अँखियों के बीच सरखा ॥
जाता था मैं टहलने, बीच में ही मिले राम ।
मैंने कहाँ वाहवा*आम के आम और गुठलि के दाम*  ।।
छुपी जवानी बच्चों में दिख न सकती ।
वैसे प्रभू का दर्श मिलता न बिना भक्ति ।।
सब कुछ अपने में देखो भाई कोई  ।
चाहते हों खट्टा, मिठास कैसे पायी ??
ज्ञानियों के पीछे रहती हैं झुण्ड  ।
लोकेषणा - वित्तेषणाओं की धुमण्ड ।।
सन्त के बचन से सलामत है जान  ।
नहीं तो मच जाता कभी से तुफान ।।
बड़े देवल कैसे बनायें ?
श्रद्धा से श्रमिकों के हाथ रँगायें ।।
पण्डे - पुजारीयों ने खाये है धाम  ।
इसलिये कि उन का न किया इन्तजाम ।।
अगर किस के श्रम लो तो दो बदले दाम ।
नहिं तो मालिक - घर रहे ना छदाम ।।
ऐ धर्म वालों ! दो मेरा जबाब  ।
आज तक ईमान का क्या मोजमाप ??
सुधरे नहीं गर धरम से लोग  ।
क्यों लगाते फेरनागानी ये भोग ??
फेर बनेगा तू भगवान्  ।
पहिले बन सच्चा इन्सान ।। ८१३
 सचाई के नाम पर जीता हैं तू ।
तू तो झूठाई से खाता है लू ।।
सरे बाजार तेरा नाम पूछते ।
खाया कितना और तेरा काम पूछते।।
बच्चा बढ़ा या के बुड्ढा बडा ?
कौन ज्यादा दुनियाँ में रहता खड़ा??
किस की फिकर ज्यादा दुनिया करे ?
बूढे की हो या बच्चे सुधरे !!
सन्त न बेठे बजार में ।
वो रहते सद - विचार में  ।।
बजार में मिलती भाजी ।
सेवा में मिलते प्रभु जी ।।
जलसा कहता जल जावो ।
यात्रा कहती तर जावो ।।
शराब कहती मर जावो ।
जुव्वा कहे सब हर जाओ ।।
भजन कहे सुधर जाओ ।
व्यसन कहे गुजर जाओ ।।
धरम कहे कुछ डर जाओ ।
पोथी कहे सच कर जाओ ।।
गुरु कहे कुछ सिख जाओ ।
पण्डित कहे सच लिख जाओ ।।
माॅं - बाप कहे उद्घार करो ।
अतिथि कहे सत्कार करो ।। ८२५
मित्र कहे विश्वास करो ।
कहे सब नाश करो ।।
साधु कहे सच कार्य सिखो ।
भोंदु कहे बकवास सिखो ।।
ग्राम कहे एकी में रहो ।
आरोग्य कहे दूखी न रहो ।।
बलवान कहे व्यायाम करो ।
संसार कहे कुछ काम करो ।।
बुजुर्ग कहे कुछ नाम करो ।
पुजारी कहे सब धाम करो ।।
सब का कहना मतलब का ।
ख्याल रहे जब का, तब का ।।
वह तीरथ नहिं बजार है ।
जहाँ न दिल का सुधार है  ।।
ग्यान नहीं,ध्यान नहीं,नही संग ना रंग ।
प्रभू इस जीवन में ऐसा हो गया तंग ।।
यह नहीं, वह नहीं, सदा रहे हन् हन् ।
बिन सत्-संग के शांत न होता मन ।।
क्या पूँछते किस को उठाओ कदम ।
अपने, ही बल पर बढ़ सकते हम !!
लाखों के शोरगुल में साधे एकान्त ।
गृहस्थी में वो ही रह सकता सन्त ।।
कहीं जगा चलाया झूठा पाखण्ड ।
सुना-सुनाया बोल दिया चमत्कार का बण्ड  ।। ८३७
जाना नहीं माना नहीं, खोल दिया बात ।
साधू-संत होते है जादूगार की जात ।।
किस के गालियों में भी रहता है प्रेम ।
इसलिये कि वह गाली बताती है नेम ।।
दोनों की बातें सुन मिलता है सार ।
एक ही का सुनकर नहीं करना निर्धार ।।
कई दगाबाजों को रहती हैं कला ।
अपनी ही सुनवा के लेते फैसला ।।
कई अफसरों का रहता हैं कल ।
जो पहिले कहे, उसी को देना फल ।।
बिना छान - बीन के कह देना बात *।
ऐसे भी अफसरों की होती है जात ।।
ज्यादा गरम किस का होता है दिमाग ।
उस को समझा के लोग देते हैं झाँक ।।
लहरी अफसरों का किस-किस को लाभ ।
कभी-कभी अच्छे को कर देते साफ ।।
बड़े अफसरों का यदि हलका हो कान ।
रसोया के कहने से कर दे तुफान ।।
कभी न्यायदाता रहता चिकट ।
बिना सोचे समझे न बोले झटपट ।।
कभी न्याय देने को लगते कई साल ।
क्या पूछे अदालती का वहाँ बेहाल ??
लाँच-लुचपत लेकर करे एकतफर्फा बात ।
ऐसे अफसरों को मिलती मौत की खैरात ।। ८४९


दान दिया सत्प्रचार को ।
क्यों खर्चे अपने घर को ??
सोमल भी तो खा सकते ।
क्यों नहिं विषय पचा सकते ??
छाती पे ज़ब पत्थर फोडे ।
लोभ-मोह को क्यों नहिं तोडे ??
गौरव होता करनी का ।
क्यों गौरव हो किस्मत का ??
इतने मन्दर क्यों करते ?
प्रार्थी उस में नहिं रहते ??
खुद का काम खुद करना ।
यहि सज्जन का कहना  ।।
दिक्कत न पडे जीवन में ।
स्वावलम्बी गर हो जन में ।।
बाहर का बजाया क्या सुनता ।
अन्दर का अनाहत नहिं मनता ।।
उद्योग ही में प्रभु - भक्ति है ।
इस के बिन होति न मुक्ति है ।।
मेरे चरखे में भी माला है ।
जब जले तो मन सीयाराम जपे ।।
किस का घर मंगल धाम दिखे ।
किस में जाते ही उदासी लगे ।।
हम चाहते ऐसी दुनिया हो ।
मुख राम में हो, कर काम में हो ।। 
तुम चाहे पधारो चन्द्र - नगर ।
मेरि राम - कुटी में कमी नहीं ।।
तुम धन गिनो अरबों - खरबों ।
मेरा भि गुजारा सुख में है ।।
मैं बन्द हूँ उनकी हवालत में ।
जहाँ सुख-दुख दोनों बराबर हैं ।।
मेरी तर्कशक्ती यों कहती है ।
एक बड़ी लडाई होती है ।।
बातों पे किसीके क्यों निर्भर ।
जब चिन्ह झूठ दिख पाते है ।।
है कौन प्रचारक निर्मल मन ।
जिनके पिछू लग जावे जन ।।
कई बार भि धोखा होते रहा ।
क्यों फिर भि भरोसा और करो ??
अडचन से दिल सकुचाता है ।
पर मार्ग निकलता जाता है ।।
एक शक्ति है जागे -पिछु कोई ।
जो सबको सम्हल ले जाती हैं ।।
हम अपने से ही ऐदी हों ।
फिर कौन अधार दिला सकता?।।
नहिं खून कभी मुरदाड रहे ।
सिखलाने वाले हि ऐसे है ।।
इन्सान प्रभू की शक्ती है ।
जो कार्य हुआ इनसे हि किया ।।८८७
आगे चल बीच में रुक न कही ।
तेरा तेज हि ऊँच लि जायेगा ।।
कवि की सृष्टि हृदय में है ।
अन्दर है जब बात कहे ।।
यह सुदंर - सा मिलाप है ।
पंच - तत्व गुणकलाप है ।।
घट अन्दर घट पंचाईत हैं ।
जिसे अतःकरण-चतुष्ट कहे ।।
मन, बुद्धी, चित्त अहंकारे ।
और अंतःकरण है पंच मेरे ।।
मन पर मत विश्वास करे ।
बिन बुद्धी निश्चय न धरे ।।
बिना चित्त-मन शान्त नहीं ।
अंतःकरण की साक्ष यही ।।
दिल के दर्द को जो जाने ।
वही नेता होते शाने ।।
चाहे डट जाये बादल ।
निश्चयि नहिं करते है बदल ।।
अपशकुन देखत हट जावे ।
सो कमजोर मुझे नहीं भावे ।।
मेरा निश्चय हि शुभ शकून है ।
कभू न डिगता चंचल मन है ।।
पर्वत आड पड़े या सागर ।
कभू न पीछे हटे उजागर ।। ८८५


चल आगे, चल आगे, बन्दे ।
मारग में रुक न कहीं गंदे ।।
बड़े गीत सुनवाते क्यों हैं ?
भाई ! तुम तो ज्यों के त्यों हैं ।।
रोज लपटकर बाची पोथी ।
अर्थ नहीं फिर क्या परचीति ??
साधू का उपदेश बढ़ा हैं ।
धन उसके घर थोडी गढा है ??
मन्नत ही जब लडका देता ।
तो शादी की क्या आवश्कता ??
ढील - ढील में समय बिताता ।
चुकी रेल फिर मर फजीता ।।
थोडा पहिले ही चल देना ।
अगर कही हो समय पे जाना ।।
ढीले साथी साथ चले ।
दो कलाक पहिले ही निकले ।।
मन - लपंट को सजा यही ।
खाने न मिले मुक्त कहीं ।।
गुरु* और *गूर्र* में फर्क बढा ।
एक साधू एक है बछुडा ।।
मैं डरता हूँ झगडे को ।।
इससलिये डर खावे मुझको ।।
राजा से महाराजा बडे ।।
उनके कहे भगवान् खडे ।। ८९७
इसलिये साधू मोटा हैं ।
सबसे समझता छोटा हैं ।।
बिन पानी के नूर नहीं ।
बिन पानी कोई शूर नहीं ।।
पानि गया फिर जीना क्या ?
बानी सिना पछीना क्या ??
निश्चय में एकी परखो ।
ढील रखो या शील रखो ।।
जो अपने को मन जायें ।
वहि होता फिर बन जाये ।।
अन्दर - बाहर एक हि है ।
उसका जीवन धन्य कहे ।।
अन्दर कपट उपर चतुराई ।
यह धोखे की हैं शहनाई ।।
झाड लगाकर सुखवाना ।
यह बन्दर-सम क्या जीना??
दुर्बल को नहिं जगा कहाँ ।
इह-पर उसका व्यर्थ रहा ।।
गुन्हा नहीं जब हो हमसे ।
क्यों डरना फिर साहब से ??
हम चोरी के आदि नहीं ।
फिर भी बचके चले कहीं ।।
कभि डाकू सटकते हैं ।
वैसे सज्जन अटकते हैं ।। ९०९


लाज गमाई बाजार में ।
वह मिलती नहीं दर-दर में ।।
मेहनत करके खाते है ।
वह सबमें रह पाते है ।।
हाथी ले आना आसान है ।
मगर पालना महान् है ।।
शादि लगेगी मिनिटों से ।
मगर न निभती फंटों से ।।
छिपे गगन के घंट कहीं ।
मगर न छिपते चंट कहीं ।।
मूठ में पर्वत रह सकता ।
मगर न विषयी पच सकता ।।
चन्द्र पकडना आसान है ।
मगर न बस होता मन हैं ।।
काम - क्रोध वश करना है ।
बिन अभ्यास न तरना है ।।
जब बैराग हो दिल में कहीं ।
उसका लाभ उठाओ सही ।।
गया द्रव्य भी मिल सकता ।
टूटा प्रेम न फल सकता ।।
घर करना फिर घर बांधो ।
कायम रहने मन बांधो ।।
भक्ती भी पागलपण है ।
उलझ न सकता फिर मन हैं ।। ९२१
ये करता फिर वो करता ।
एक भि नहिं हाथों धरता ।।
एक घाव दो टुकडे कर ।
घर में मर या देश सुधर ।।
एक मैन दो तरवारें ।
आपस में धस गये बुरे ।।
बराबरी के बलशाली ।
तभी रहेगी खुशियाली ।।
कहीं कमजोरी आ जायें ।
फिर तो तुझको घर खाये ।।
कहीं सिरजोरी दिख पाये ।
लोगों के दिल उठ जाये ।।
सबके बराबर रहना है ।
नाम इसीका जीना है ।।
कोई तो दुनिया बदलाता ।
औ दुनिया को ही कोई खाता।।
मित्र, भक्त में फर्क नहीं ।
फर्क मानव, प्रभू यही ।।
पढा तो बातें सिखलाता ।
किया तो अनुभव बतलाता ।।
मैं भी कभी चक्कर खाता ।
जब-जब अटल न रह पाता ।।
कहता हूँ मैं नेक नहीं ।
सत्य मेरा जब तक मन सही ।। ९३३
अद्-भूत प्रयोग उसीका है ।
जो दिल को नहिं धोखा दे ।।
प्रेम का धागा कच्चा है ।
जब तक नेम न सच्चा है ।।
भर-भर लिखते क्यों जाते ।
सोच - समझ नहिं कर पाते !!
लिखना यह किस काम का है ?
जब करना न छदाम का है ??
वाहवा रे इन्सान अजब तेरी शान ।
तेरा उँचा दुकान पर फीका पक्वान ।।
मानव - प्रगति का जिसे दर्द है ।
लाखों में वह एक सखी-मर्द हैं ।।
बिना काम करे मरने कि निशानी ।
तू रानी, मैं रानी, कौन लाये पानी ।।
जान बचाना वो जाने ।
सेवा कर कुर्बांन बने ।।
दुसरे को दुख देकर जीना ।
चोर हैं वो मानवता छीना ।।
संग्रह होकर कदर न जाने ।
यह भी चोरों के ही नमूने ।।
बिना समझ मुंडी हिलवाना ।
यह अज्ञानी का ही नमूना ।।
चार्वाक ने यहि बतलाया ।।
पहिले करो निरोगी काया ।। ९४५


पास न घी तो कर्ज निकालो ।
मगर सच्चाई से दे डालो ।।
कहता वही खुद नहीं कर रहा है ।
बातों के फूल पर क्यों चढ़ रहा है ??
मिली तो रोजी नहीं तो रोजा ।
उद्धार जीवन , नहीं तो बोजा ।।
चलता हूँ करके, कहाँ हैं कीडा ।
बाँझ क्या जाने प्रसव की पीडा ।।
जन्मा हूँ करके मरन सीखता हूँ ।
नहीं तो अमर मैं न कुछ देखता हूँ ।।
अमर हैं के माने आत्मा कहाँ है ?
जो मरता वह कैसे अमर बन गया है ??
नदी चाहे टेढी नहीं निर टेढा ।
बिमल ज्ञान हो, फिर कहाँ है बखेडा ??
तेरा यार तो तुझको खुद जानता है ।
फिर क्यों ये नखरा ऊपर तानता है ??
ठन्-ठन् गोपाल तुझमें बल हैं कहाँ ?
इतना भी होकर प्रभू भज ना रहा ।।
नाक दबाने से मुंह खुलता जैसे ।
प्रभू के मिलने से सुख पाये वैंसे ।।
आँखे लगा मैं तुझे ताकता हूँ ।
तू मिल जाय फिर आँखों को झाँकता हूँ ।।
मुझे कौन मारे मैं मरना न चाहू ।
मैं ही जन्मता हूँ मैं ही मौत पाऊ ।। ९५७
मेरे मैं का मुझको पता ही नहीं था ।
इसके लिये मैं अहंकार में था ।।
ये जादू नही तो दवा और क्या है ?
मेरी मौत की राह मुझको दिया है ।।
मेरी मस्ती ही तो यहाँ बोलती हैं ।
प्रभू - भक्ती ही मस्ती को खोलती हैं ।।
अरे यार ! तुमको पता क्या लगेगा ।
गुरु - गर्लीयों से न दिल भी उठेगा ?
फटा हूँ बदन का मगर दिल न टूटा ।
बिना दर्श के एक पल भी न ऊठा ।।
इतिहास उनके ही बनते रहेंगे ।
खुद को मरे देश को ही जियेंगे ।।
जितने पत्थर मन्दर को लगते हैं ।
क्या उतनी जनता दर्शन कर पाती हैं ??
भगवान का गहना साधू और जनता है ।
बिन साधू-जनता ठाकूर नहिं रहता है ।।
मैं निश्चय से गुरुजन को बतलाता हूँ ।
मैं रोज हि सूरज के पहिले न्हाता हूँ ।।
विश्वास करो मैं पाऊँ न चीज नशीली ।
इसलिये तो मेरी काया लाव रंगीली ।।
मेरा बदन इसलिये सुन्दर सा दिखता हैं ।
व्यायाम करे बिन दिन न सुना बितता है ।।
मैं इतना सुन्दर चपल बना रहता हूँ ।
इसलिये कि सबकी सेवा ही करता हूँ ।। ९६९
जनता -प्रिय अफसर जो जनता के साथ ।
उस मौके में शान्ति रहे सदा खुशी की बात ।।
करो न किसका द्वेष सभी में आदर हो भली भाँत ।
नया जमाना नये मुल्क में नये घर कि बात ।।
अपनी - अपनी देव-देवता घर में पूजी जाय ।
सब मिलकर जब बने प्रार्थना सबमें आदर लाय ।।
राष्ट्रधर्म ही बड़ा धर्म हैं और धर्म एकांग ।
उसके रक्षण करने खातिर तजे पक्ष की भांग ।।
आज हि मैंने भजन सुनाया गोदावरी के तीर ।
घुसखोरी और गलत मिलावट इनके फाडो चीर ।।
घर में भी कोई ग्रंथ रहे, पर मंदर सुना दिखता है ।
झाडू भी नहिं लगता है तो कौन ज्ञान वहाँ सिखता है??
मरे-मुरे, बूढे और रोगी, मंदर में जब जमा हूए ।
कौन सिखाये राष्ट्रीयता, कइकों ने मन्दर बेच दिये ।।
अच्छी गैया काटे जाय, और बूढी है गौ-शाला में ।
वाहरे! धरम के अगुआ हो ! सब धरम गमाया सोनेमें ।।
पूजाका अर्थ समर्पण है, जहाँ अनन्यसा होता मन है ।
अगरबत्ती के धूप से हम, पूजा नहीं कर पाते है ।।
दिमाग को गुंगवाते है यहि पूजा बतलाते है ।
जहाँ सुनो तहाँ निन्दा है, सब स्वारथ का ही धंधा है ।।
मुझमें जो स्थिरता, गंभीरता आयी है ।
गुरुदेव कि सेवा ध्यान  कमाई है  ।।
मैं इसलिये सबके साथहिलमिलता हूँ ।
मे रोज प्रार्थना सामूहिक करता हूँ ।।९८१
मेरी निगा हमेशा उन्नत ही रहती हैं ।
इसलिये कि मुझको सत्संगत मिलती है ।।
मैं हमेशा सुधरा - साफ नजर आता हू ।
इसलिये कि मैं अतराफ वहीं पाता हूँ ।।
मेरि जबाँ से कडवी बात नहीं निकलेगी ।
यह शक्ती मात-पिता की भी कुछ होगी ।।
मेरें खुन मे  मात-पिता की भरी शक्ती ।
इसलिये कमाई कर मोहे पायी भक्ती ।।
मेरे गुजरे दिन जब कभी याद आते है ।
तब लगता मुझ सम पागल भी तरते हैं ।।
मैं इतना सुन्दर भजन इसलिय गाता ।
जब समय मिले प्रभु के चरणों में रोता ।।
मेरी नजर इसलिये नहीं परस्त्री पर ।
मुझे लगतां आया ईश्वर जनता का डर ।।
मैंने नहीं चाहा किससे बुराई साधू ।
इसलिये बना मैं बिना बनाये ही साधू ।।
ये लोग है कि मुझको है भरोसा प्रभू का ।
पर कभू न माँगा मैंने जोश किसीका ।।
मैं अपनी बुद्धी-विवेक से कहता आया ।
तुम कभू न किसका बुरा चाहो मन भाया ।।
मैं इसलिये कुछ अच्छा कहता हूँ ।
दिन भर प्रभु की मस्ती ही में रहता हूँ ।।
मेरी नजर इसलिये मैंने ऊँची पायी ।
सब विश्व को अपने दिल से माना भाई ।। ९९३
पर - धर्म मुझे इसलिये न बूरे लगते ।
ये सभी अपने प्रभू के रुप परखते ।।
अपने मत को दर्शाना द्वेष नहीं है ।
आपस में फूट गिरा बहकाना द्वेष यही हैं ।।
जबान कहती खुब खाओ ।
क्या खाना पच सकता है ? ।।
चाहे कितनी भी गाली बके ।
फिर भी सन्त प्रिय बात करे ।।
उसे जगत् फिर - फिर देखे ।
जन - सेवा में जो शहिद हुए ।।
क्या होता खुब व्याख्यान देये ?
बिन त्याग प्रभाव क्या बातों में ??
शंकर ने जहर पिया अपने ।
हम निन्दा भी न सहे तो क्या ??
भगवान् में जिसका दिल पागल ।
उसे लड्डु क्या ? और टूकड़ा क्या ?? १००१