*तीर्थक्षेत्र, पूजा-भक्ति आदिका मर्म*
२३६
भारी बना मन्दर-बगीचा, देखने को सब चले।
अपना न देखा पाप तो फिर क्यों चले कैसे चले।।
फिर तो तमाशा देखना, इसमें ओ उसमें भेद क्या?।
जिसनेन धोया दिल बुरा,उसको तिरथ ओ बेद क्या?।।
२३७
यह घर हि तो मन्दीर है, जब शुद्ध शान्त पवित्र है।
हरिनाम जपते मन्त्र है, शुभ कामना का तन्त्र है।।
तसबीर है भगवान की, तुलसी है घरके सामने।
व्यवहार निर्मल सत्य है,तब तीर्थ घर क्यों ना बने।।
२३८
घर को नही पावित्र्यता, तो तीरथों में ना रहे।
बुद्धी नही सत् ध्यान में, तो सत्-समागम क्या रहे? ।।
तुकड्या कहे पावे प्रभू, रख प्रेम ही मँझधार में।
रे सत् नियत रख आदमी! काशी मिले संसार में।।
२३९
मत बोल ब्रह्मज्ञान को,मत धर किसीके ध्यान को।
मत जा तिरथ-निजधामको,मत कर पूजा अरुस्नानको।।
रे कर गडी! पहले यही, झूठा कभी नहि बोलना।
सारे व्यसन को छोडना, बन्धुत्व सबसे जोडना ।।
२४०
कुछ ग्रंथ भी बेकार है, वे पेट भरने को लिखे।
उनमें नहीं है तत्व का बल, पंथ-वैभव ही दिखे ।।
सारा चमत्कारों हि का भण्डार उसमें भर दिया।
इन्सान कैसा भी रहे पर पार कहते कर दिया ।।
२४१
तीरथ में फँसवाये कोई, इसके लिए है आदमी।
चारों तरफ है घेरते, पडने न देते है कमी ।।
मिलता उन्हें कमिशन यहाँ, जो दान देते तीर्थ में।
कैसा सुधारा होयगा ऐसी बनावट शर्त में? ।।
२४२
बजते रहे मंदीर में घण्टे घनाघन जोर से।
ब्राह्मण पुजारी मंत्र बोले वेद-गीता ठौर से ।।
चारों तरफ है महक ऊठी धूप-दीप औ माल की।
पर मन नही मेरा वहाँ, खोजे कुटी कंगाल की ।।
२४३
मंदीर में क्या कर रहा? आँखे लगाकर देखता ।
घण्टी हलाकर देखता, मुण्डी झलाकर देखता ।।
क्या है वहाँ? पानी-फतर, भगवान उसमें है नही ।
वह भक्त के घर रब रहा, कर दीन की सेवा तुही ।।
२४४
मंदर में दौडे जा रहे, भगवान को छोड चले।
सब पंथ ही चिल्ला रहे, सच तत्व को मोडे चले ।।
क्या दीनदुःखी दिख नही, पातें तुम्हे संसार में ।
सेवा बिना इनकी किये, काशी कहाँ बाजार में? ।।
२४५
सीढी अगर चढना चहो, चढती पहरियाँ डाल दो।
आगे बढालो ज्ञानको पहिला करम ओछाल दो।।
खुद आँख अपनी खोलकर ऊँचे शिखरपर चढ चुको।
पूजा करो यह ठीक है, पर पूज्य गड पे गढ चुको ।।
२४६
सबसे बराबर प्रेम करना, और पजा है नही।
जो समझता इस बात को, सच्चा पुजारी है वही।।
जब वासना से गुक्त है, सन्यास फिर दूजा कहाँ।
पर-स्त्री जिसे माता लगे, माला चढी न चढी वहाँ।।
२४७
पूजा करे जगदीश की तो पूज पहिले भाव को।
श्रद्धा पकड *सबमे प्रभु है* डाल दे हम्-भाव को।।
सबके बरावर प्रेम कर, कर द्रोहता-उत्थान रे!।
सत्प्रेम ही भगवान है, यह बात सच्ची जान रे! ।।
*दया और विवेक*
२४८
सद् धर्म का मूल है दया, अभिमान का मूल पाप है।
इस ज्ञान को छोडो नही, जबतक मिटो नहि आप है।।
जो चाहते हो कर चलो, अपना किया ही भर चलो।
आज्ञा हुई भगवान की, शुभ नाम आखिर धर चलो।।
२४९
छेडे गरीबों को सदा, पाले न कबहूँ कीव को।
ईश्वर-पूजन के नाम पे बलिदान देता जीव को।।
अन्याय है यह घोरतम, ईश्वर खुशी नहि होयगा।
भगवत् स्वरूप सब जीव है, हो लीन सत्सुख पायगा।।
२५०
जो दूसरे को दुःख दे, दुखिया वही हो जात है।
जो सौख्य देना चाहता, तो खुद सुखी बन जात है।।
गर यार! तेरे हाथ से गौएँ कतल-घर जायँगी।
तो याद रख, यह जिन्दगी भर धूल में हर जायगी।।
२५१
उपकार हरदम कीजिए, पीडा न किसको दीजिए।
यह धर्म है सबके लिए,सब शास्त्र मत सुन लीजिए।।
सब सन्त का मत है यही,हर जीव की करना दया।
सो ही पुरुष इस लोक में सद्धर्म से मोटा भया।।
२५२
जिसकी दया मे स्वार्थ है, वह तो दया नहि ढोंग है।
अपने बडप्पन का प्रदर्शन ही उसीका रंग है।।
सच्ची दया करुणा से लिपटी, प्रेम ही निष्काम है।
बदला नही वह चाहती, ऐसी दया बेदाम है।
२५३
उसको दया तारक बने, जो फिर बुराई ना करे।
अनुताप से सुधरे जो अपनी भक्ति -नीति हि ले धरे।।
विश्वास जिसका आ गया, उसपर दया करना सही।
जो साँप के सम पलटता, उसकी दया करना नही ।।
२५४
जिसकी गिरी नीयत तथा जो पाप का भंडार है।
अपने व्यसन की पूर्ति को बेचे सभी घरबार है।
उसको खिलाना या पिलाना यह दया नही दोष है।
चाहे मरे, मरना हि उसका मानना सन्तोष है।।
२५५
चाहो कहो *है बेकदर*, डरता नही है दिल मेरा।
मै जानता है, हर कोई भोगो से है जग में भरा।।
जो जो किया वह भोगना है,सौख्य हो या दःख हो।
गर *भोग छूटें *चाहते, तब ज्ञान हो सत्संग हो।।
२५६
सेवक को सुख मिलता नही,कभुना भिखारी मान ले।
व्यसनी न हो धनवान,व्यभिचारी को शुभगति ना मिले।।
लोभी को यश मिलता नही,अज्ञानी को कीर्ती कहाँ? ।
नहि आततायी बच सके,भोगी को सुखशान्ती कहाँ ? ।।
२५७
पुरुषार्थ में दारिद्र ना, नहि राम-जप में पाप है।
नहि मौन में कभि कलह ही,नहि प्रेम में सन्ताप है।।
हानी न सेवा मे औ जगने में न भय कुछ भी कही।
ना भेद ज्ञानी में मिले, आलस में श्रीमन्ती नही।।
२५८
शांतीसरीखा तप नही, सन्तोषसम नहि सुख कही।
तृष्णासरीखा रोग नहि, ना प्रेम के सम योग ही।।
ज्ञानीसरीखा मित्र नहि, अज्ञानसम बैरी नही।
नहि क्रोधसम शत्रू कोई,और भक्तिसम मुक्ती नही ।।
२५९
जहाँ वृत्ति रहती स्थीर हो, उसको समझ ले धाम तू।
जिस शब्द में बैराग हो, उसको समझ ले नाम तू ।।
जिस स्फूर्ति से शमदम बढे, वहि जान ले सत् ज्ञान तू।
आनन्द जो निष्काम हो,वहि जान खुद-पहिचान तू ॥
२६०
प्रभु-नाम ही है शुभ शकुन,ध्याते फते सब काम है।
खाली न जावे वार यह, मंगल प्रभूके नाम है ।।
उठ रे गडी! क्या देखता? घट तो भरा रख प्रेम का ।।
तुकड्या कहे हो जा सुखी, सब तोड बन्धन नेमका ।।
*सजग कर्तव्यनिष्ठा*
२६१
अदमी! अगर तू जा रहा, क्या ध्येय तेरा हो गया? ।
बिनध्येय के तू आजतक में क्या किया क्या ना किया? ।।
जैसी हवा मिलती तुझे, वैसी पुतलियाँ भागती।
ऐसा नही होना कभी, अच्छी न होगी फिर गती ।।
२६२
सब रंग तुझमें ही भरे, जो चाहता वो खोज ले।
मन-बुद्धि को साथी बना,फिर पास ही हर चीज ले।।
हे जीव! तूही सर्व कर्ता है, न भूले बात को।
छोडे अविद्या अज्ञता,तब ही मिले प्रभु साथ को।।
२६३
हर चीज मिलती है यहाँ, लेनाहि मालुम चाहिए।
कीमत सभीकी है जुदा,कुछ त्याग-तप भी लाइए।।
भगवान भी जाता खरीदा, प्रेम निर्मल दे कोई।
दर्भागि को दर्बुद्धि से यमदण्ड भी मिलता यहीं।।
२६४
कर्तव्य बिन इस जगत में पल भी नही जीवन मिले।
उठो, भगाओ कर्म-आलस, साथ कोइ न दे भले ॥
मुर्दाड वृक्षों की जड़ें ही काटकर है फेंकना।
जीता रहे कर्तव्य-तत्पर, फूल उसपर झोंकना।।
२६५
हम धर्म नही कहते बिना कर्तव्य के होगा कहीं।
कर्तव्य व्यष्टी औ समष्टी का धरम तो है वही ।।
कर्तव्यहिनता और आलस, पाप इसको जानिए।
ऊठो चलो जागृत रहो, रख लो सदा यह बानी है।।
२६६
पाया जनम कर्तव्य से, कर्तव्य हरदम हाथ ले।
मत रो कभी संचीत से, संचय-खजाना साथ ले।।
जो हो गया सो हो गया, फल के उपर ना ख्याल कर।
अपने उचित कर्तव्य को शास्त्रोक्त रीती चाल कर।।
२६७
करते रहो शुभ कामना, फल ना मिले रोना नही।
लपटे रहो कर्तव्य से, बिलकुल घबड़ाना नही ।।
नहि लाज हो किसि काम की,झाडू अगर लेना पडे।
मौका मिले जब गण दिखाना,तब कहीं होंगे बडे ।।
२६८
सीखो मगर उपयोग भी कर लो, सदाचारी बनो।
आदर्श का परिचय भी दो, झुठे घमण्डी ना बनो।।
विद्या नही हो सिर्फ अपने पेट ही के काम की।
विद्याविनयसंपन्नता है साक्ष भी निजधाम की।।
२६९
सेवा करो जड जीव की, विद्या पढ़ाओ अज्ञ को।
सब जीव में समता करो, यदि मानते सर्वज्ञ को।।
*मै ही भला मेरा भला ऐसा जहाँपर कर्म है।
वह कर्म तो कुछ है नहीं, पर जान लो सब भर्म है।।
२७०
आलस्य को छोडो, खडे हो, आत्मशक्ती साथ लो।
अपनी-परायी अक्ल को हुशियार होके हाथ लो।।
उद्योग करना है तुम्हें, इस देश की गरिबी हटे ।।
घर-घर में जागे धर्म, खेती तब गुलामी जा मिटे ।।
*स्वतंत्रता के पत्थर*
२७१
रोटी तुम्हें तो चाहिए, पर मान से ही खाइए।
अपमान का धन भी मिला कहि तो उसे ठुकराइए ।।
उन सज्जनों से नम्र रहना ही हमारा धर्म है।
गुण्डे अगर छाती चढे, तो शेर बनना कर्म है।।
२७२
*मै दीन हूँ, मैं हीन हूँ* ऐसा मगज में मानता।
स्वातंत्र्य अपना छोडकर अंधी खियालत जानता ।।
अभिमान रखता हीनका,तो किस गतीको जायगा? ।
मत भूल अनुभव-हक्क को,नहि तो पिछे भरमायगा।।
२७३
अदमी वही ठहरा गया, जो बन्धसे निर्मुंक्त है।
है स्थीत अपने हक्क में, स्वातंत्र्य-निश्चल युक्त है।।
किंचित् नही परतन्त्र है, भीतर रहे बाहर रहे।
परतन्त्र है जो भोग में आदम कभी भी ना रहे।।
२७४
साहब, निशाचर, गांजसी,इनका जिन्हें सँग लग गया।
उनका धरम सब भग गया,झूठा करम नित जग गया।।
सोबत न कर ऐसी कभी मद काम के जंजाल की।
यह ख्याल रख, इनके रहे होगी गती बेहाल की।।
२७५
गर धर्म के पीछे न शक्ती हो किसी भी राज की।
तब धर्म पोथा बन पड़े, यह नीति है हर रोज की।।
यह तो धरम को राज्य करके साधना है कर्म को।
गर यह न बन सकता है तो भूलो धरम के वर्म को॥
२७६
भागो नहीं संसार से, त्यागो नही व्यवहार को।
जागो सदा ही आत्ममें, काटो संदा मँझधार को।।
सच्चे रहो अच्छे रहो, मिलके रहो समुदाय से।
निर्लेप रहकर भोग लो आनन्दसूर सद्उपाय से।।
२७७
बुंँदेहि जल की मिल गयी तो बाढ़ आती है बड़ी।
चाहे बहा दे गाँव-खेती, झाड-झुर्मट हो खड़ी।।
वैसीहि ताकत खून में है, संगठन यदिहो खड़ा।
अच्छा करे तो भी बडा या नाश चाहे तो बड़ा।।
२७८
थोडा करोगे संगठन, तब चोर बोले जाओगे।
पूराहि जागृत देश हो, तब राज्य भी कर पाओगे।।
है रीत दुनिया की यही, बलवान सो राजा बने।
लाठी उसीकी भैंस होती, भूलना नहि है तुम्हें ।।
२७९
हो काम-क्रोध अरु मान भी,हिंसा-असत् पर युक्त हो।
घर ना जले-सा अग्न हो,जो रोशनी-उपयुक्त हो।।
जिहुँ धान्य-रक्षा के लिए है युक्त काँटे खेत को।
वैसे सभी कुविकार भी हो ध्येय-रक्षण हेत को।।
२८०
छलबल कभी करना नही,गज के समानहि पग धरो।
दुर्जन बडा ही वृक्ष हो,बस नाश ही उसका करो।।
काँटे हो उसके अंग मे, बचके ही धरना है उसे।
डरना नही भय से कभी,प्रभुपुत्र हो तुम सिंह-से।।
२८१
धीरज बडा ही मित्र है, हर आदमी को तारता।
सत्संग ऊपर हो अगर तो जनम ही उद्धारता ।।
जो आततायी से करे व्यवहार, दुख वह पायगा।
जो शान्तिसेवक बन सके,वह कभु न धोखा खायगा ।।
२८२
निर्भय उन्हीका कार्य है, जो सत्यपर रहते डटे।
उनकी विजय ही होयगी, आवाज उनकी ही उठे।।
है सत्य औ निर्भय कोई, ऊँचे वही कहलावेंगे।
यदि मर गये सच काम से तो पुण्य-फल ही पावेंगे ।।
२८३
बलवान होते है वही, जो दीन से भी नम्र है।
सेवा करे नित देश की, हक में रिझावे उम्र है ।।
*सब जीव को नित सौख्य हो ऐसा जिन्हों का प्रेम है।
तुकड्या कहे उन श्रेष्ठ को मेरा नमन सप्रेम है।।
-------------------
*राष्ट्रधर्म के प्रचार का तूफान*
पुराने साधनों से लोक-संग्रह
२८४
नो सालकी ही उम्र से फिरने लगा बाहर चला।
लाखों घुमा हूँ गाँव, अबभी बंद नहि फिरना भला ॥
भाषण-भजन कइ साधनों से देशको ऊँचा किया।धार्मीकता राष्ट्रीयता है, यह समझ बनवा दिया ।।
२८५
एक गाँव में *हरिनाम लेनेसे वहीं मर* सुना।
मैने वहाँ जाके किया फिर भजन-किर्तन दस गुणा।।
मै ना मरा, जन देखते,श्रद्धा बढी,बदली क्रिया।
तबसे वहाँ होता भजन,ऐसी मिटा दी भ्रान्तियाँ।।
२८६
एकदिन,नऊदिन,सात दिन,हरिनाम-काला भी किया।
आदत लगायी लोगको,भारी खुशी,दिल भर गया।।
बच्चे-तरुण-बूढ़े भी लाखों भाग लेने आ गये।
कइ गाँव-गाँवों के तमासे बंद इससे हो गये।।
२८७
बीसों हजारों आदमी हररोज भोजन पा गये।
ऐसा चातुर्मासा किया, वह भक्त ही लाते गये।।
इस दिनहि का उस दिन नहीं, ताजा सिधा हररोज था।
सागर सरीखा लोग दिखता था,मगर नहि बोझ था।।
२८८
लाखों खिलाये आदमी, जंगल में मंगल हो गया।
लाकर हजारों ब्राम्हणों से यज्ञ-यागादिक किया।।
उस सालबर्डी-यज्ञ में कई दिन भिखारी खा गये।
बाकी बचा,विद्यालयादिक दान देकर खुश किये।।
२८९
विश्वास लोगोंका बढ़ा,नोटों की भारी भीड थी।
चाँवल में भी,गेहूँ में भी,सब्जी में भी धन बाढ थी ।।
चालिस हजारों से अधिक एकेक पंगत थी वहाँ।
कइ गाँव सेवामें लगे, हररोज रंगत
थी वहाँ।।
*संगठन और जन-जागरण*
२९०
कहिं आरती मंडल कही माणिकसमाज भी बन गया।
*गुरुदेव सेवामंडलो* से वायुमंडल भर गया ।।
ऐसे हजारों ग्राम है, जहाँ सामुदायिक प्रार्थना ।
अति शिस्त से चलती सदा,खिलती विधायक योजना ।।
२९१
*गुरुदेव सेवामंडलो* को देशभर फैला दिया।
कड़ सैंकडो शाखा बनी, आश्रम भी सुंदर सज गया ।।
जीवन औ आजीवन प्रचारक त्यागसे ही बढ़ गये।
मानव-धरमके ख्याल से सेवा-शिखरपर चढ़ गये ।।
२९२
इतना घुमा, इतना घुमा, भारत सभी घुम आ गया।
सारे तिरथ-मठ-आश्रमों में प्रेम ही फैला गया ।।
कुछ दे गया कुछ ले गया, सीखा सिखाया प्रेमही ।
भाषण-भजन हररोज जब तब, नेम ही उसका नहीं ।।
२९३
घर-वास्तु को लेकर चलो या शादी में भी ले चलो।
किसकी जयंती-पुण्यतिथी हो,सम्मिलन या शिबिर लो।।
दसवाँ किसिका, बारसा भी हो, तभी आग्रह करो।
हम सब जगह जाकर कहें-*बस राष्ट्र को उन्नत करो ।।
२९४
जब जब मिला मुझसे कोई,उसकी हि में सुनता गया ।
सुनता है तो धीरेसे उसको बात अपनी कह दिया ।।
लादा नहीं उपदेश का बोझा किसीपर जोर से।
हम कौन है जो कर सकें सिरजोर कोई चोरसे? ।।
२९५
सीधी सरल जनता-हितैषी बात ही मेरी चली।
मैंने किसीको दोष देकर ना दिया कबहूँ बली।।
बल्के लिया हँ नम्रता, पीछे रहा नहि कामको।
लाखों लगाये भक्तिसे, गाते प्रभूके नामको।।
२९६
कितनी हटा दी रूढियाँ, कितनेहि मन्दिर खुल गये।
बलिदान-बंदी, ब्याह-शुद्धी, व्यसन-निर्मूलन किये।।
सबमें भरी नवचेतना, शिक्षण रहे रक्षण रहे।
या हो अखाडा-संगठन, कृषि और गौरक्षण रहे।।
२९७
भूदान हो श्रमदान हो, हो समयदानादिक सभी।
आपत्तिमें धनदान हो, परिवार-नियमन भी कभी।।
देखी जरूरत जब जहाँ, लहरें उठा दी कार्य की।
नव जोश वीरों में भरा, सब देश को करने सुखी।।
२९८
उत्सव-महोत्सव हर जगह,अधिवेशनादिक भी कई।
सबही स्तरों के लोग है, हर प्रान्त में चलता यही॥
*गणराज्य का हर नागरिक आदर्श कर्तबगार हो* ।
आवाज देता हूँ यही बस पात्र के अनुसार हो!।।
२९९
फुरसत नही पल की हमें,ताँता लगा *मुक्काम* का।
एकदिन में छह-छह कार्यक्रम,भजन-भाषण आदिका॥दो - तीन हजार भी मीलतक जाता हूँ मैं हर माह मे।जो भी मिले वाहन मुझे, लाता हैं अपने काम में।।
३००
दस बीस हजारों के नीचे रहता न जन - समूदाय है।
कभी लाख भी बोलो नही , मीलती जगह नही हाय है ! ।।
हर रोज भाषण-भजन से करता हुँ जन - मन जागरण।
गुरु की दया से धर्म- भक्ती से ही हो मेरा मरण ।।
---------------
*चिरविजयी कृपासामर्थ्य*
*संघर्ष में उत्कर्ष*
३o१
बाहर विदेही हूँ नही, पर दिल विदेही है मेरा।
पागल हूँ मैं हर बातका, मुझको पता लगता मेरा॥
जो शत्रु हो या मित्र हो, आदर ही मैंने कर लिया।
फिरभी किसीके दिल जले हो तो जले, मन ना लिया।।
३०२
हमको लगे मीठी मिठाई, कोइ उससे खिन्न है।
कारण इसीके साथ है, सबकी रुची ही भिन्न है।।
किसको तो कडुआ नीम भी मीठा लगे या मिर्च दो।
जिसकी जबाँ विकत हुई, कडुआहि उसपर सींच दो॥
३०३
नापाक या के पाक हो, सरत तुम्हारी बोलतो।
अलमस्त हो या चोर हो. रहनी भरम यह खोलती ॥
हम है किनारे पे खडे दोनों भी हम से ना छिपे।चंचल औ निश्चल तत्त्व
क्या ? हम जानते अजपा जपे ।।
३००
दस बीस हजारों के नीचे रहता न जन - समूदाय है।
कभी लाख भी बोलो नही , मीलती जगह नही हाय है ! ।।
हर रोज भाषण-भजन से करता हुँ जन - मन जागरण।
गुरु की दया से धर्म- भक्ती से ही हो मेरा मरण ।।
---------------
*चिरविजयी कृपासामर्थ्य*
*संघर्ष में उत्कर्ष*
३o१
बाहर विदेही हूँ नही, पर दिल विदेही है मेरा।
पागल हूँ मैं हर बातका, मुझको पता लगता मेरा॥
जो शत्रु हो या मित्र हो, आदर ही मैंने कर लिया।
फिरभी किसीके दिल जले हो तो जले, मन ना लिया।।
३०२
हमको लगे मीठी मिठाई, कोइ उससे खिन्न है।
कारण इसीके साथ है, सबकी रुची ही भिन्न है।।
किसको तो कडुआ नीम भी मीठा लगे या मिर्च दो।
जिसकी जबाँ विकत हुई, कडुआहि उसपर सींच दो॥
३०३
नापाक या के पाक हो, सरत तुम्हारी बोलतो।
अलमस्त हो या चोर हो. रहनी भरम यह खोलती ॥
हम है किनारे पे खडे दोनों भी हम से ना छिपे।चंचल औ निश्चल तत्त्व
क्या ? हम जानते अजपा जपे ।।
३०४
वेदान्त तुम तो कह रहे, पर पेटवाला भी कहे ।
बीमार भी तो कह रहा,और हँसनेवाला भी कहे ।।
सबको हि उत्तर एक है, *कमसे कहो, गम से रहो ।
आये हुए दिन जायेंगे, अनुभव करो जमके रह*।।
३०५
हम तो हँसेगे ही सदा, जो आयगा उस के लिए,।
चाहे भले रोकर कहे या वह खुशी होकर कहे।।
हर बात के पीछे हि हम तो प्रेम से समझायेंगे।
सुन तो रहा हूँ यार! गम से ही सभी दिन जायेंगे।।
३०६
अजि! तुम भले बदलोगे सूरत,पर है मूरत तो वही।
कहिं गुण्ड हो,कहिं ठण्ड हो,कहिं लंदीफंदी ही सही।।
हम तो तुम्हारा मूल ही देखे, उसी पर खश रहे।
आत्मा तुम्हारी शुद्ध है आनन्द है! यहि बस रहे।।
. ३०७
यदि क्रोध का भी रुप हो,है मूल तो भी एक ही।
आनन्द के आस्वाद में बदले नही व्यक्ती कहीं।।
ऐसे प्रभू के रूप नाना वेष लेकर छागये।
पहिचान होने से हमें, लगते नही आये नये॥
३०८
झगडो भले कितना हि मुझसे, शान्त हूँ मैं सर्वदा ।
हसता हूँ में, नाटक तुम्हारा देखकर मन से सदा।।
अजि! तुम नही झगडे,तुम्हें वह तो किसी ने सूझदी।यह जानकर ही मुझको उसने प्रेम की यह बूझ दी ।।
३०९
मझको ही मैने खुश रखा, हरबात से हर काम से।
जितना बने उतना सहा, बिछुडा न अपने राम से।।
फिर तो सभी प्रेमी बने, अनुभव यही मैने लिया।
*अच्छे है हम तब सबहि अच्छे खूब प्रत्यय पालिया ।।
३१०
तुम मित्र बन जाओगे पहले, फिर रहे शत्रुत्व क्या?।
जो भी मिले सब मित्र होंगे,शत्रु क्या और मित्र क्या? ।।
कारण है इसका एक ही, हम तो पुरे निष्काम है।
अच्छा करो तो राम है, बूरा करो तो राम है।।
३११
हमने रचा था खेल, पर जब मेल उसका जम गया।
सतही निकल आया उसीसे, था रहा सब भ्रम गया ।।
किसको तो भूतों से भी अपना प्रीय दर्शन पागया।
है साक्ष तुलसीदास की, यह तो मुझे भी भा गया।।
३१२
एक दिन सुना गांधीजीने, मेरा भजन अति प्रेमसे।
वे कह गये *फिरसे कहो* रहते हए भी मौन से॥
हँसते कहा फिर दूसरे दिन, *मौन मेरा छुट गया।
मै मस्त होनेपर भजनमें, ख्याल से भी हट गया* ।।
३१३
अजि! प्रेम का पत्थर हि हमने मारना सीखा भला ।
लगता किसे वह चोट बन.यह तो प्रभू जाने कला ।।
कह सैकड़ों को लग गया,और जीव उनका जग गया।
मुझको नही इसका पता
चब लग गया तब वह लग गया।।
*गुरुकृपा के छत्रचामर*
३१४
चलते हुए इस मार्ग के काँटे मुझे तो फुल है ।
यह भूमिमाता ही मुझे लगती है मेरा कुल है ।।
मुझ को कहीं नहि शत्रु है, वे मित्र से रहते सदा ।मेरे गुरु का वरद सिर हे छत्र-चामर सर्वदा।।
३१५
हर चीज अटकाती हमें, सहकार्य जबतक ना मीले ।
यह दशदिशा बन्धन बने, मन-बुद्धि में रहते भूले।।
सबको हि खश करना बडा ही कष्ट है, यह स्पष्ट है।
गुरु की कृपा हो तो सभी जा भागते संकट है।।
३१६
अंग्रेज राजा के बखत अफसर कई थे अड गये।
भगवान की बेहद कृपा से सबही नीचे पड गये।।
ब्यालीस सन में तो मुझेभी जेल सहनाही पडा।
क्रांती हुई बडी जोर की, आवाज मुझसे ही बढा॥
३१७
सारी मुसीबत खा गया, सब प्रेम में पचवा गया।
गुरुदेव की किरपा रही, विश्वास यह दृढ होगया।।
दिखता नहीं इस आँख से, पर साथ है उसका बड़ा ।
मै याद करता हूँ जहाँ, आगे-पिछे रहता खड़ा ॥
३१८
में खेलता अपने नशे में, जो मुझे है सूझता।
अपने हि बलपर आजतक पायी सभी की मित्रता।।
मै जानता हूँ, शक्ति है गुरुदेव की आगे - पीछे । धोखा न खाया आजतक, विश्वास नहि डाल निज।।
३१९
विश्वास ने पायी सफलता , अब मुझे छोडे नही ।
संकट बडा ही आय चाहे, दिल मेरा मोडे नहीं।।
अनुभव में बसा, गुरुदेव ही सर्वत्र
है मुझसे कराता सर्व लिला-जगत चित्रविचित है ।।
३२०
धन से कई होते बडे, कई ज्ञान से होते बड़े।
पर बल से कहलाते बडे,गुण से भी रहते हैं बडे।।
मुझ में नही था ज्ञान, धन, ना गुण बाहूबल कोई।
एक आसरा था सद्गुरु का, सब से प्यारा हूँ मही ।।
३२१
यह कौन ? करता है पुरा जो दिल में आते ही मेरे।
मालुम नही पडता मुझे वह कौन शक्ती ला भरे? ॥
आगे - पीछे भी दल किसी का साथ है देता मुझे।
गुरू का वरद ही है सही ,हर पल उडा लेता मुझे।।
३२२
छोटे बनाये आश्रमों में राष्ट्रपति भी आगये।
मेंरे जनम-दिन के लिए, माला मुझे पहना गये।।
मैने कहा *भगवान ही किरपा करे तो सब बने । लायक बनाना हाथ उसके , जो बनाये सो बने ।।
३२३
मोटर चली ,घोडा चला ,काहीं बैलगाडी भी चली । जापान बीच जहाज भी ,काहीं साइकील , रेलें चली ।। मेरे नही थे हाथ ये , मै साक्षि हुँ इस हाथ का । मुझमें बसा गुरुदेव है , सब जोश था उसि बात का ।।
३२४
हरबात है आश्चर्य की, ताज्जुबहि लगता है बड़ा।
जापान में जब मैं गया, तो जहाजपर ही था खडा।।
मुझसे कहा किसि भाईने- *क्या जहाज को भी चलाओंगे?।
*हाँही कहा,बैठा,चलाया,प्रभु! न क्या कर जाओंगे?"।।
३२५
सोचा नहीं मैने कभी, जाकर सभा में क्या कहँ?।
यादी किया नहिं कागजोंपर,किस विषयको ले बहूँ?॥
फिरभी प्रभुने आज तक भी यश दिया हर बातमें!।
इससे पता चलता मुझे, हर वक्त वहि है साथ में।।
३२६
लाखों भरे हो आदमी, कुछ डर मुझे लगता नहीं।
मैं जानता हूँ, ये हमारे-वासते आये नहीं।।
मैं हैं खिलौना नाथ का,यदि हँ अनाथ तो क्या हआ?।
गुरुदेव ही सब कर रहा,उसकी हि है सब वाहवा!॥
३२७
प्रभु की दया से साथि भी मझको मिले निर्मल गडी।
थोडे मे वे सन्तुष्ट हैं, नहि वासना उनकी बड़ी॥
घरबार भी वे देखते, और साथ भी देते हमें।
ऐसी गुरू की है दया, विश्वास पूरा है हमें।।।
३२८
जिनसे भी जितना कार्य हो, उन से वही लेते है हम।
भगवान की बेहद कृपा से कुछ पडा हमको न कम।।
जितना किया संकल्प उतना पा गया प्रारब्ध से।बाकी न बचने पायगा, यहि बोलता सर्व से।।
३२९
मुझमें न डर कभु भी रहा, बेडर हूँ मैं निर्मोह से।
झगडा नही किससे किया,हरदम अलग था द्रोह से।।
किसको न मेरा बोझ था, थी चाह मेरे प्यार की।
अब आखरी निभ जायगी, भारी कृपा करतार की।।
-----------
*साधुसन्तों और धर्म-पंथों में*
*जाति-पंथातीत व्यक्तित्व*
. .३३०
गुरुवाक्य ही है मंत्र, जपतप, यज्ञयागादिक सभी।
गुरुदेव सब से श्रेष्ठ है, यह मानते देवादि भी।।
गुरुदेव नहि है जाति भी, ना पंथ भी, ना देह भी।
गुरुज्ञान ही अपरोक्ष है, अनुभव-खजाना है सभी ।।
३३१
मै पक्ष का नहि पंथ का, नहि धर्मका-परधर्म का।
मै हूँ निरामय लक्ष्य का, हुँ सत्यमार्गी वर्म का।।
पोथी मुझे नहि ज्ञान दे, है ज्ञान मेरी अनुभूती।
जो साच हो जहाँ भी मिले,करता हूँ मै उसकी स्तुती॥
३३२
हूँ पंथविरहित और अशिक्षित,यह भी मुझसे कह गये।
देहाती हूँ, हीनजाति हूँ मैं, यह भी कहते रह गये।।
*संस्कृत नही अवगत तो फिर *साधूहि कैसा हो गया?*।सबकुछ कहा मुझसे,मगर सबने मुझे अपना लिया।।
३३३
हर किस्मके हर रस्म के, हर धर्म के है आदमी।
हर जात के हर बात के, हर पंथ के है आदमी ।।
हर पाप के सन्ताप के, जप-जाप के है आदमी ।
मै प्रेम ही करता रहा, उस में न पडने दी कमी।।
३३४
विद्या-विनय-संपन्न ही पाते प्रतिष्ठा देश में।
चाहे भले धनहीन हो या हो किसी भी भेष में।।
सम्बन्ध जाति-अजातिका कुछभी यहाँपर है नहीं,।
जो विनयशील सुबुद्ध हो,उससे हि झुकती है मही।।
३३५
यदि मै किसी से प्रेम करलूँ तो मुझे प्रेमी*कहें।
गर दुश्मनी होगी किसीसे हम भी *दुश्मन* बन गये।।
इसही लिए कहता हूँ मैं,मिलजुल के काटो जिंदगी।
अपना बिगडता है कहाँ? यदि सबसे करवू बंदगी ॥
३३६
ऐ पंडितो और साधुओ! तुमने कमाई जो करी।
जीवन तपस्या में गमाया तब प्रतिष्ठा ले भरी।।
इस दासने तो नम्रता से सबको अपना-सा किया।
परमार्थ पद भी पा लिया,गुरुभक्ति भी करवा लिया।।
३३७
अब तुम भले ही चित्र या चारित्र्य को सजवा सको।
पर बात सच्ची है यही, ना पा सको ना गा सको।।
जिसकी लगन प्रभु से लगी,उसकी न बोली बात है।
ना अंग है ना रंग है, ना भेष अरु ना जात है।।
*जातिधर्म का मूल्य कहाँ?*
३३८
जनता-जनार्दन जोरसे बहता हुआ चल आ रहा।
लाखों भरे हैं आदमी, अंदाज-बाहर जा रहा।।
कारण है इसका एकही, यहि इष्ट है यह स्पष्ट है।
उसिको बताना हर्ष से, जो कार्य का उद्दिष्ट है।।
३३९
बातें बडी तुम कह रहे, पर समझ में नहि आ रही।
जनता उदासिनता लिये वापस सभी घर जा रही।।
इतनी समझ तो चाहिए कि मोड उसको दीजिए।
समझे वही सीधी-सरल बातें यहाँपर किजिए॥
३४०
सब पंडितों की, साधुओं की, पंथियों की मौत है।
जाना उन्होने धर्म नहि था, क्या हमारी बात है।।
दनिया न किसकी है बँधी, वह बढ़ रही, आगे चली।
तुम रह गये जहाँ के तहाँ, करके तुम्हारा है बली।।
३४१
सब बात लेकर के पुरानी काम यहाँपर लाओगे।
इस आज के बदले जमाने को कहाँ सिखलाओगे? ॥
सब मूल्य बदले पाप के और पुण्य,गुण-धर्म के।
सिद्धान्त है *जीओ-जिलाओ* साथि हो इस वर्म के॥
३४२
बदलो, बदलना चाहिए, जैसी बखत आ जायगी।
आगेहि बढना चाहिए, तब जिंदगी सध जायगी॥
पिछली सभी बातें हमेशा चल नही सकती कहा।
अभी यह समय देता यादहा।।
३४३
हर आदमी होता, पुराना, यहहि ना दुनिया कहे।जो आजकी पोथी-किताबें,वे भी तो कल ना रहे।।रचना समाजों की बदलती,मूल्य भी है बदलता।
जो आजके हैं पाप-पुन,वे भी न कल के सर्वथा ।।
३४४
यह ऊँच-निच का द्वेष जिसने आज-कल फैला दिया।
इस भारतीयुग का उसीने अन्तही करवा दिया ।। ना जाति होती नीच है, हैं नीच होते कर्म ही।
सत्कर्म किसि में भी रहें, है पात्र आदर का वही ।।
३४५
कुलवंत हों कुलहीन हों, श्रीमंत हो या दीन हों।हो शूद्र या अतिशूद्रभी, या ऊँच हो या हीन हों।।भजते प्रभूको जो सदा, उनपे प्रभू की है दया।है भाव का भूखा प्रभू,नहि और कुछ जाने गया।।
३४६
मैं तो सदा यूँ ही कहूँगा,घृणित से कर लो घृणा।तुम तो सिरफ जातिहि समझकर कर दिया करते मना ।।भगवान भी तो कर्म देखे प्रेम देखे मोहते।तुम तो गधे होकर भी, ऊँची जात* करके ही छूते ।।
३४७
है धर्म छूआछूत में, है खान में या पान में।ऐसा न नर! माने कभी, मत भूल इस अनजान में।।
ये तो पडी है रूढियाँ, कइ रोज से चलती रहीं।*बस है यही मेरा धर* मत भूल के कहना कहीं।।
३४८
रुढी सनातन है नहीं, बदले समय-अनुसार है।
स्थल काल आदिक भेद से बन जाय सार-असार है।।
पर तत्त्व जो है सत्य के वह धर्म, तू जाने नही।
*बस है यही मेरा धरम* मत भूलके कहना कहीं।।
३४९
सुविवेक बुद्धी प्राप्त कर, सत्ग्रंथ अरु सत्संग से।
कर खोज सत्यासत्य की, माता न जा हठ-भंग से।।
नवमत रहे या हो रूढी, ले सत्य चुन-चुन के सही।
*बस है यही मेरा धरम* मत भुलके कहना कहीं।।
३५०
कहते *धरम* लगती शरम, ना सत्य है ना ज्ञान है।
पोथीमें है वह ही करो, नहि तो मरो अनजान है*।।
मेरा तो दिल माने नही, मैं चाहता हूँ सुधार हो।
सिद्धान्त हों पक्के, मगर शुभ सत्य का निर्धार हो ।।
३५१
आचार तो दिखता नही आचार्य के भी पास में।
तो पण्डितों की क्या कथा? नहि सत्य दिखता खासमें॥
ब्राह्मण अरू क्षत्रीय वर्णाश्रम-पिछाना ना रहा।
सब शूद्रद्दू का ठाठ है, अरु शूद्र-महिमा छा रहा ॥
३५२
हाँ जी! इसे मैं मानता हूँ, काम है सबके जुदा ।
है बुद्धि किसकी, हाथ किसके, यंत्र किसके है जुदा ॥
पर एक सबमें है परिश्रम, जिस तरह कूवत बढे।
सब साथ आदर से रहो, खाओ-पिओ, मत हों चढे ।।
३५३
थी बात पहले उन्नती की, सब मिले सबही करे।
कोई न हो अनपढ यहाँ, विद्या-कलाएँ सब धों।।
सबकी तरक्की शौर्य में, उद्योग में, आरोग्य में।
सब भाग लेंगे धर्म में, सत्ज्ञान में और यज्ञ में।।
३५४
देखो समय ने खालिया पलटा, सम्हलता है नहीं।
जो ऊँच माने थे यहाँ, वह अब ठिकाने है नही।।
जिनको हि हमने नीच समझा था किसी गत कालमें।
वे उठ गये, उन्नत हुए, तुम देख लो फिलहाल में।।
*सब का सार *सेवामय कर्मयोग*
३५५
पीछे गये दिन याद करना कुछ नही है काम का।
आगे सुधर कर्तव्य करना, साथ हो हरिनाम का॥
तो ही मिलेगी शान्ति इस संसार के जंजाल में।
आरम्भ हम खुदसे करे, फिर आज क्या फिलहाल॥
३५६
पोथी पढी गीता पढी, सब पढ लिए है वेद भी।
लादा भराभर बोझ, नहि कुछ कार्य की उम्मीद भी।।
पढना हि जिसका शौक है, बोझा लिये फिरता यहाँ।
कुछ काम का नहि देश के, है मान लो पश ही रहा।।
३५७
जो *पंथ-पंथ* हि बोलता, सच ज्ञान को नहि खोलता।
गुरु भक्ति उसको ना मिली, मेरा यही दिल बोलता।।
गुरु-भक्त तो सेवा करे, अति नम्र प्राणीमात्र से।
गिनता न जाति-अजाति को, निर्मल रहे सर्वत्र से।।
३५८
अब तो उन्हीं की वाहवा होगी जो सब के साथ है।
*हम है-हमारा देश है *सबके हि मुख में बात है।।
तूम साधु हो पंडीत हो, इस में हि हम को ज्ञान दो।
सब वीर हों हारो नही, बस राष्ट्र को ही मान दो।।
३५९
संसार की कीमत करो, जब जन्म है संसार में।
झुठा नही कहना इसे, अच्छे रहो व्यवहार में।।
नेकी हि इसका है शिखर, बद्दी हि इसका नर्क है।
सब से करोगे प्रेम, सेवा, तब दुजा क्या स्वर्ग है? ।।
३६०
वेदान्त ऐसा है नही, कर्तव्य की हानी करे।
वेदान्त ऐसा है नही,संस्कार-हिरसानी करे।।
वेदान्त का नहि अर्थ यह, मत उ ती अपनी करो।
वेदान्त कहता सब करो, लेकिन करनपन ना धरो॥
.३६१
जो कर्म होगा देह से, हो वित्तसे या चित्तसे।
सब विश्वमय व्यवहार हो, हर जीवही सुख ले जिसे ॥
जनही जनार्दन खास है, अर्पण उसे सब कर्म हो।
परमार्थ सुख पाता वही, यहि यज्ञ गीता-धर्म हो! ॥
३६२
मै कर्मयोगी हूँ, मुझे बेकार से होती घृणा।
सन्यासि हो या धनिक पंडीत हो श्रम के बिना।
सबकोहि करना कार्य है, अपने उचित कर्तव्य से।
सुंदर बनाना देश को, भगवान खुश होंगे उसे ॥
३६३
साधु हुआ तो क्या हुआ?नहि काम को जीता कभी।
नहि काम है, नही राम हे , फिक्र में जाते सभी ।।
इस पेट के पीछे लगा, दर-दर भिखारी बन गया।
नहि राम का सुमरन किया, कपडे रँगे साधू भया ।।
३६४
हो बाेझ अपना क्यों किसीपर अर्थ का या देह का?।
निष्काम सबका क्षेत्र हो, व्यवहार हो सब स्नेह का।।
परमार्थ का नहि अर्थ यह जो दूसरोंपर ही जिओ।
*खाओ-पिओ परकष्ट से,यह पाप है* क्यों ना कहो? ॥
३६५
हर बात में भगवान डालो, और हम हों आलसी।
बेकार बनके टाल कूटो, यह नही प्रभु को खुशी।।
इन्सान हो तो अक्ल से और हाथ से खुब काम लो।
कर लो सुखी मानवप्रजा,भगवान का फिर नाम लो।।
*पंथों के झगडे क्यों?*
३६६
ऐ धर्मवालों! धर्म से तुमने किया बेपार है।
सब देवता करके अलग फैला दिया व्यभिचार है।।
इन्सान को हैवान कर, झगडा मचाया धर्मका।
सत् तत्त्व को भी दूर कर बन्धन लगाया कर्मका।।
३६७
जब एक ही भगवान है तब भिन्नता क्यों चाहिए?।
ये पंथभी क्यों चाहिए औ महन्त भी क्यों चाहिए ?॥
यह बीच की सारी दलाली व्यक्तिनिष्ठा पर लगी। भगवान तो पीछे रहा , सब पेट - पूंजी ही जगी ।।
३६८
मैने कहा है, धर्म के माने यथोचित कर्म है।
जो चाहिए *जीये सभी मिलके* यही सत्कर्म है ।।
अपने स्वभावों से उन्हे बतला दिया लिखवा दिया ।
करके मचा झगडा यहाँ, सब स्वार्थ ही अब रह गया ।।
३६९
इस पंथ का कारण हुआ है मार्गदर्शक सन्त ही।
व्यक्तित्व को आगे बढाकर कर दिया सब अन्तही ।।
इन पंथवालोंने बनाये लाखही भगवान है।
सीधा न भेजा मार्गपर, यहाँ घुस गया शैतान है ।।
३७०
भगवान की भक्ती पे जनता सीधी निर्भय भेजना।
यह है बडप्पन सन्त का, ना बीच में कहिं रोकना ।।
व्यक्तित्व के पीछे लगाकर जो फँसाते शिष्य को।
भगवान के विन्मुख बनाते खुद लगा ज्योतिष्य को ।।
३७१
सब सन्तने यहि कह दिया- *मेरे हृदय में है प्रभू* ।
इन्सान क्यों नहि बोलता?-*हमभी न भूलेंगे कभू* ।।
किसिको बनाकर शिष्य क्या तुम दे रहे भगवान है?।।
फिर क्यों फँसाते हो गरू बनकर किसी की जान है? ।।
३७२
ये पंथ सबके योग्य है. पर द्रोहता बिच रोग है।।
यह द्रोहता पीछे लगी. सब को लगाया भोग है।। यह भोग अपना छोड दो , कर्तव्य से सादर रहो । जो जोग सो उद्योग हो , पल भी नही बिछुडे रहो ।।
३७३
मै ना झकाऊँ सर कभी ये भेख बाहर देखकर।
सरको झकाऊँ हरघडी कुछ कर्म के उल्लेख पर ।।
जिस में कहीं ना धर्म हो अरु कर्म का है लापता।
जोगी हआ तो क्या हुआ? जोगीपना नहि जानता।।
३७४
हमने हजारों भेखवालों को निकट से पा लिया।
बिरलाद ही है उनमें सच्चे, कार्य से अजमा लिया।।
क्या भेखसेही साधु होते राय तुम्हारी है यही? ।।
जो नेक-सच्चे आदमी, उनसे न कमती है कहीं।।
३७५
जो धर्म को नहि जानते, क्या वे सभीही मूर्ख है।
जो भक्ति करते ही नही, क्या उन सभीको नर्क है।।
मैं तो कहूँगा, धर्मबिन या भक्तिबिन भी हो कोई।
गर सादगी और सत्य से रहता, वह इनसे कम नहीं।।
३७६
*भगवान* नहि बोला, परन्तू काम उसका ही किया।
चंदन औ माला है नही, पर झूठ पथ से ना गया ।।
तीरथ गया नहि, फेरभी उपकार नहि छोडा कभी।
*इन्सान* बनकर जी रहा, फल पायगा अच्छे सभी॥
३७७
है धर्मकी नीतिहि सदा, कर्तव्यपर आरूढ हो।
जिसको न समझे ज्ञान उसको साथ दो, यदि मूढ हो।।
तन-मन ओ धन की साफ-सथरी राह हो उत्साह हो। सेवा कर निष्काम, जबतक दम हो, बल की वाह हा॥
३७८
मैने तिरस्कारा नहीं किसि देवता या पंथको।
की जरूरत है मुझे, मैं चाहता हर सन्त को।।
पर काम सबके हो सही यहि हर जगह मैं बोलता।
झुठा न हो, ना भ्रष्ट हो, होगी उसकी महानता।।
३७९
मैं धर्मको भी मानता, अरु पंथको भी मानता।
हर सन्तको भी मानता, अरहन्तको भी मानता।।
मेरा मगर मतलब कहीं इन पंथ-संतोंसे नहीं।
है सत्य सबका एकही, ईश्वर भी सबका एकही।।
३८०
सबकी करे जो धारणा, वहि धर्म-ईश्वर खास है।
उसके मिलन की साधना, वह धर्म पंथ-अभ्यास है।।
जग-सौख्य मोक्षानन्द को पथ है सनातन धर्म ही।
तुकड्या कहे, बिन धर्म के होगी फना सारी मही॥
३८१
आओ सभी मिलकर करेंगे कार्य हम भगवन्त का।
कर्तव्य है यह पंथ का, हर सन्त और महन्त का॥
जब हम बढ़ेंगे हो इकट्ठा प्रेम से सद्भाव से।
तुकड्या कहे, संसार में तबही तो.सत् जुग आ बसे।।
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*विश्व-धर्म के रंगमंच पर*
विभित्र धर्मों का समन्वय
३८२
हर धर्म में भी सन्त होते, जाति में भी सन्त है।
हर पंथ में भी सन्त होते, देश में भी सन्त है।।
बन्धन नहीं है सन्त को किसि स्थान-मान विशेष का।
जो सत्य का अनुभव करे,वहि सन्त है हर भेष का।।
३८३
भाई! हमारे मगज में करना फकीरी की चलन।
ना है किसीसे बैरता अरु ना कोई है मित्रजन।।
सब एक ही घरके बने, माँ-बाप सबका है वही।
किस्मत हमारे है जुदा, करके सजा यह हो रही।।
३८४
मेरे लिए अच्छा-बुरा दुनिया में कोई है नही।
*सब ही भरा गुरुदेव* ऐसी भावना मेरी रही।।
घट-घट में वह ही बैठकर लीला कराता सर्व से।
जो जानता नहि है उसे, वहि मर रहा है गर्व से।।
३८५
मेरा स्वरूप हि हर जगह, हर वक्त में मौजूद है।
फिर कुफ्र हो इस्लाम हो, हमसे नही वह जूद है।।
हैं भूल माया की जिन्हें, उनको जुदाई हो रही।
है मस्त हम अपनी जगह, तो तू नही अरु मैं नही।।
३८६
यदि तुम किसी को शत्रु मानो, पर वहाँ जाउंगा मैं।
अपना कथन गाउँगा में, रोना न बतलाउँगा मैं।।
समझे न समझे बात मेरी, मैं दखी नहि होउँगा।
मुझको न मानामान है, सच तत्वही बतलाउँगा।।
३८७
मेरी चलन तो है वही, सबही जगह में घूमना।
जिस चीज से होता भला, वह चीज वहाँ से चूमना ।।
हो धर्म या परधर्म भी, हानी नही करना कभी।
नर! सीख सच्चे ज्ञान को, अपना-पराया हो तभी।।
३८८
टूटा न जाये धर्म किसका, जब सचाई पे खडा।
बिगडा न जाये कर्म किसका, जब कि सेवा से जड़ा।।
भूला न जावे वर्म किसका, जो कि उन्नति पे चढा।
चूका न जावे मर्म किसका, जो इमानी से बढा।।
*सभी धर्मो मे मेरी प्रार्थना!।*
३८९
ये धर्म भी तो अनेक है, औ कर्म भी तो अनेक है।
जाती औ पक्ष अनेक है, लोगों के लक्ष्य अनेक है।।
कइ देश, भेष अनेक है, औ रंग-रूप अनेक है।
सब पंथ-संत अनेक है, इन सब में ब्रह्महि एक है।।
३९०
क्या रामही तू है सही, अल्ला-खुदा तू है नही? ।
क्या येशु प्रभु भगवान है और बुद्ध भी तू है नही? ॥
अरहंत ही ईश्वर बना, झरतुष्ट्र तू क्या है नही?।
तू कौन है जिसने पछाना, वह कहे *सब में तुही* ।।
३९१
इस्लाम के भी सन्त की कबरों में जा बैठा हूँ मैं,।
हिन्द धरम के सन्त के चरणों का रस लूटा हूँ मैं।।
कइ ख्रिश्चनों की भी सुनी गिर्जाघरों में प्रार्थना।
कइ बुद्धस्थानों में भी मैंने की प्रभू से वन्दना।।
३९२
एक दिन वलीयों की कबरपरभी चढाने को चदर।
मुझको निमंत्रण आगया, हाजिर हुआ मैं उरूसपर ।।
चद्दर उढादी प्रेम से और दे दिया भाषण वहाँ।
*तुमभी मुसलमानों! समाधीपर झुको जाके* कहा ॥
३९३
एक दिन मुझे ईसाइयों के चर्च में भी ले गये।
लाखो वहाँ ख्रिश्नच हि थे, बस प्रार्थना करते रहे।।
मुझ से कहा-क्या ठीक है?मैने कहा-*कहिं भेद ना।
मेरे लिए ये हिन्दु थे, फिर दूसरी क्यों प्रार्थना?* ॥
३९४
अजि! यह नही है बुद्धिमानी,राह किसकी मोड दें।
या धर्म किसका तोड दे और परधरम से जोड दें।।
सच्चा वही है आदमी, जो साचही बतलायगा।
*नेकी करो, अच्छे रहो*, उसिका *धरम* कहलायगा।।
३९५
मिलता हूँ मैं सब धर्मवालों से, मेरा दिल साफ है।
में जानता हूँ कि प्रभू सबका करे इन्साफ है ।।
झुठा न हो कोई प्रचारक धर्मनिन्दा जो करे ।सबको सिखावे प्रेम निर्मल, सत्य की सेवा करें। ।
४०१
मैं राजकारण-गुरु नही हूँ विधायक काम का ।
, सत् प्रेम का,मानव धरम का,रामका ।।
छल बल-कपट झूठा मुझे बिलकूलही भाता नही।
मैं इसलिए उस राजकारण में कहीं जाता नहीं।।
४०२
मैं राजकारण, पक्षपार्टी, मानता नहि हूँ जरा।
मैं सत्यका ही हूँ पुजारी, सत्यही प्रभु है मेरा।।
सब विश्वमानव एक करने का मुझे गुरु-मंत्र है।
इन्सान बनकर प्रेम करना ही हमारा मंत्र है।।
४०३
मेरा गुरु ही इष्ट है, सब देवता से प्रेम है।
जनता-जनार्दन की सदा भक्ती करूँ यह नेम है।।
हो देश का कल्याण, मेरी पूजना-आधार है।
मानव्यता हो विश्वव्यापक, यह मेरा निर्धार है।।
४०४
हर जीव को सन्मान दे,अभिमान से मत कह किसे।
बन्धुत्व रख हर जीव में, हो देशसे परदेश से ॥
*सब जीव प्रभु के हैं बनें ऐ आदमी! यह ख्याल कर।
उपकार ही करना सदा, ऐसी सदा की चाल कर।।
४०५
व्यष्टीधरम *सबके अलग है प्रकृती के हाथ में।
पर जो *समष्टीधर्म* है, वह है सभी के साथ में।।
*परमेष्टिधर्म* हि विश्व है, कुदरत उसीके साथ है।वहाँ भिन्नता किसिकी नही,सब ब्रह्म की ही बात है।।
४०६
अजि! विश्वपरिवारक हूँ में, सब धर्म से है दोस्ती।
किसका बुरा न चाहता, सतिया रहे या हो सती ।।
पर धर्म बदलाना नही, और खुद बदलना दोष है।
सबमें प्रभू ही है भरा, मेरा यही सन्देश है।।
--------------------
*साहित्यसेवा की कसोटीपर*
*मै कवि नही, करूणा हूँ मैं!*
४०७
गुरुदेव सद्गुरु आडकोजी ने कृपा-सिंचन किया।
*तुम भी भजन लिखते रहों आशीष यह मुझको दिया ।।
तबसे भजन-लेखन बढा, इस हाथसे सम्हले नही।
गंगा-प्रवाहित वाक्यरचना सहजही होती गयी।।
४०८
तोडा नही अक्षर कभी, फिर के न देखा बाच के।
रंग में लिखा, जन में सिखा, आनंद पाया नाच के।।
साथी मेरी है खंजरी, और मित्र है पागल गडी।
पशु-पक्षि से भी प्रेम है, है साधना मेरी बडी।।
४०९
मेरे उपर आरोप है, मैं काव्य नहि हूँ जानता।
मुझको बडी इसकी खुशी, चाहे न कोई मान्यता ।।
पर लोग तो सब समझते है, मैं जहाँ गाने लगुँ।
लाखों किताबें जा चुकी, यहि प्रेम में पाने लगुँ ।।
४१०
तारीफ मैं अपनी करूँ, यह तो बडी ही मूर्खता।
पर लोग जब घर-घर में सुनते,और क्या हो मान्यता ? ।।
बच्चो-जवानों और बूढों के भी मुख में है वही।
*गाओ भजन गाओ भजन* चाहे भले तुम हो कही।।
४११
मै शब्द की खैरात हूँ, सब शब्द मेरे पास है।
मुर्दे जगा दुँ शब्द से, होता अशुभ का ऱ्हास है ।।
मै नहि किसे पहिचानता, मुँह देखके नहि बोलता।
सत् क्या असत् क्या सोचकर ही बात अपनी खोलता।।
४१२
स्वर गुनगुनाते है सभी, पर शब्द बिरले खोलते।
कइ बडबडाते शब्द भी, पर बोल बिरले बोलते ।।
है बोलनेवाले मगर, वह ताल सबको है नही ।
जो ताल दे अरु बोल दें, बिरलाद है प्यारे! कहीं।।
४१३
मैं कवि नही,करुणा हूँ मै उन दुःखियों की दीन की।
मै साधु नहि, मैं साधना हूँ प्रेमकी-सत् नेम की॥
ना शान्ति है मुझमें हूँ मैं पिछडे जनों की भावना ।
इन्सान बनने जो चले, मैं उनकी हूँ शुभ कामना ।।
४१४
कविराज मैं तो हूँ नही, साहित्य-लेखक भी नही ।
*मैं हूँ प्रभू का भाट, मेरा ठाठ है बस एक ही। ।
दिल में उमंगे जब उठी, चलती है मेरी लेखनी । गुरु के चरण से जो बनी ।।
४१५
हर आदमी ही है कवी , जिवन बनाता काव्य से ।जैसी निगा वैसेहि वे हो सव्य - से अपसव्य - से ।। संसार ही है काव्य यह ,देखो सुनो , करते रहो । आसक्ति मत रखना कवी ! सहते रहो बहते रहो।।
४१६
जब मन गडेगा दुःख में,कविता भी दुख की होयगी।
जब मन रहेगा सौख्य में, कविता खशी कर जायगी।।
जब मनहि ब्रह्मानन्द में रममाण यह हो जायगा।
तब ब्रह्मलीला का हि सारा काव्य वह लिख पायगा।।
४१७
यह मन हि मेरा है कवी, कविताहि रचता हर घडी।
लिखता है मेरा हाथ, यह आदतहि उसको है पडी।।
श्रोता हैं मेरे कान, आँखे बाचती, होती खुशी।
मैं साक्षि आत्मा हुँ सभी का, है सदा स्थिति एक-सी।।
४१८
हूँ तो कवी पर हूँ अशास्त्री, भावभक्तिहि से भरा।अक्षर कहीं भूले हो पर, झूठा नहीं अन्तर मेरा ॥है लक्ष्य मेरा सत्य, उसका नृत्य करता हूँ सदा।गाता औ लिखता-बोलता,होता न गुरु-पद से जुदा ॥
४१९
मेरी फकीरी ऐसी है, लिखती भी है जगती भी है।
आसक्ति करती विश्व की,और सद्गुरु भक्ती भी है।।सब देश अपने बल रहें,दुश्मन न किसिका हो कोई। हो मीत्रता जगमें सदा यहि भावना मेरी रही।।
४२०
मैने लिखा नहि कुछ कहीं, लिखना तुम्हार हाथ है।
मैं ही नही मेरा कभी, फिर लेख की क्या बात है? ||
सब कुछ समझने बाद ही मैंने इसे समझा-बुझा।
नाहक न कर बदनाम तेरा ही बजा है अलगुजा।।
४२१
सूने महल को यार । तूने साज से सजवा दिया।
पुंगीसरीसे बाँस को हर तान से बजवा दिया।।
खत के सरीसी भूमिको ज्योतिस्वरुप बनवा दिया।
तुकड्यासरीखे मूढ को प्रभू! नाम में मनवा दिया।।
*साधू की जरूरत ही क्या ?*
४२२
अब ही पढा अखबार में, लिख दी किसीने खबर है।
*साधू नही अब चाहिए, यह देश में ही जहर है।।
*पूजा औ पाँती सन्तकी, इनकी, प्रतिष्ठा ना करो।
मैंने कहा मंजूर है, जब काम उनका तुम करो॥
४२३
अखबार,लेखक और साहित्यिक यह बोझा हाथ लें।
*इन्सान सच्चा बन सके *ऐसी प्रतिज्ञा साथ ले॥
फिर काम क्या किसि सन्तका,मठका,पुजारी,पोथिका?।
सब कुछ लगे उद्योग में, हो काम चाहे खेति का॥
४२४
साधू अगर बिन काम का,बिन ज्ञान का घूमे कही।
संसारियों की उन्नतीमें साथ गर देता नही।।
गर देश अपना ठीक करने की न उसमें है फिकर । बेशकही साधु नामको होना नही है देशपर॥
४२५
पर बात है सच्ची यही है कोन उसका काम ले ?।
रोटीपे जीये और अपना देश-धर्महि थाम ले।। घर-घर
में जावे प्रेम से, सबको गुणीजन कर सके।सारा जिवन ही त्यागसे भारत के आगे धर सके ।।
४२६
जैसी वकीली, डाक्टरी, मजदूरि हो या नौकरी।
वैसाहि है यह सन्तपन, यह बात बिलकुल ना खरी ।।साधु तो अपने आप को कर खाक घुमता है सदा ।जल - बुँद सम निर्मल रहे वहि सन्त होता सर्वदा ।।
४२७
मजदुर है हम धर्म के, करते है कष्ट प्रचार के।जाते है उन गरिबों के घर, होते है उस परिवारके ।।
आरोग्य उनका ठीक हो, हो रहन उनकी उच्चतर ।उघोगी हो जीवन सदा, श्रद्धा बढाते धर्मपर ।।
४२८
जह सन्तपन उपकार नहि, यह. है खुदी संवेदना ।सब आदमी उन्नत बने, होती यही है कामना ।।
जो जो मिले प्रेमी बने, सब विश्व मेरा मित्र हो।
यह धारणा बढती जहाँ, वहि सन्त है, सज्जन कहो।।
४२९
अखबार सुधारेगा जगत्,तब साधुओं का काम क्या? ।
झगडा मिटावे लोगही,तब कोरटों का काम क्या? ।।
पर-शत्रु से धोखा नही तब फौज क्यों और शस्त्र क्यों? ।
सब लोगही अच्छे चले, तब राज्यशासनयंत्र क्यों? ।।
४३०
आरोग्य से बरते जगत, तब डाक्टरों का खर्च क्यों,।
आपस मेंसब कुछचल रहा,तब पुलिस अफसर व्यर्थक्यों?।।
सब मिलके नीति-धर्म चलता, तब यहाँ मन्दीर क्यों।
सबकी व्यवस्था ठीक है, तब चोर-शोर मुजोर क्यों?।।
४३१
अजि! शब्द के बेपारि ये कर्तव्य भारी बोलते।
मखसे न यदि बोले कही पर भाग है वहि खोलते।।
ये शब्दवाले पोल भी भरते है अपने शब्द में।
पर काम से लगते है जो, परिणाम करते स्तब्ध में।।
४३२
हर चीज में कुछ तत्त्व है, इसके लिए वह धन्य है।
जो तत्त्वहिन हो जायगी,किसिको नही वह मान्य है।।
साधू हुआ तो क्या हुआ? पण्डीत है तो भी रहे।
पर कुछ नही करता है जो,फिर यह रहे ना वह रहे।।
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*सर्वस्व का समर्पण*
* *हम तो अकिंचन मुक्त है!* ४३३
नहि गंध हो कुछ दाम का,वहि भक्त है प्रभु-काम का।
कान्ता जिसे रुचती नही, वहि मार्ग पाया रामका॥
भूले नही लोकेषणा में, ना जरा अभिमान है।
ऐसे परम भोले भगत पर दे प्रभूजी प्राण है।।
४३४
संग्रह मुझे भाया नहीं, जब देखता डरता सदा।
छोडा तनू का वस्त्र भी, घर भी नही दिल दौडता ।।
देना उसे जो योग्य हो, यह दिलमें आता ख्याल है।
अब भी वही मन बोलता,भूली गयी नहि चाल है।।
४३५
सोचा नही हमने कभी *कुछ हाथ लो,कुछ साथ लो*।
*जो मिल गया सो ले चलो *मत सोच लो,आगे चलो।।
जो रहा गया रहनेहि दो, सत् काम करने सौंप दो।
बचने न दो कुछ पास में,निर्मल रहो,सत् बोध दो।।
४३६
देनाहि देना है हमें, लेना भी उसके ही लिए।
उपकार का संग्रह बने, इसके लिए तो है जिये ।।
गंगा का जल भर ला रहे, पूजा भी गंगा की करें।
इसमें खुशी हम मानते, चाहे भले जीये-मरें ।।
४३७
जो आगया बाँटा सभी,फिर माँगने का पाप क्या? ।
सारेहि अपने हो गये फिर रह गया सन्ताप क्या? ।।
जब जर नही तब डर कहाँ? सत्ता न तब संगर कहाँ? ।
आसक्ति ना तो घर कहाँ? इच्छा न तो मरमर कहाँ? ।।
४३८
कितना भी करलो धन जमा,आशा अधिक ही माँगती।
र्खर्चो! अगर सत काम को, तो और खर्चा चाहती।।
दोनों भी बन्दर ही बनाकर गम नही धरते कभी।
सच्चा गुरूका पुत्र वह, जो बाँटता इच्छा सभी।।
४३९
हमने कमाया लाख भी और दे दिया लाखों सभी ।।
है फाक बैठे आजभी, दिलमें नही है लाज भी।।
क्यों के लिया उपकार को, बाँटाभी पर-उपकार को।
हम है अकिंचन मुक्त है, खेले चले उस पार को ।।
४४०
धन तो हमारा है नही, तन भी हमारा है नही।
मन-बुद्धि, ज्ञान-विवेक भी, कुछ भी हमारे है नही ।।
हम भी हमारे है नही, तुम भी हमारे हो नही।
है साक्षि हम सब के यहाँ, लीला सभी यह हो रही।।
४४१
निर्धन हमी है एक, अब भी पास में धेला नही।
है धन मिला गुरु-शक्तिका, उससे यह दिल हीला नहीं।।
लाखों-करोडों से भी ऊपर आगये जन-धन सभी।
ऐ मातभू और धर्मभू! तुझ को किया अर्पण सभी॥
**सबसे अलग मै हो गया*
४४२
गुरु आडकोजी का बना मंदर बडा ही भव्य है।
भारी सभामंडप भी है, और मुर्तिभी अति दिव्य है।।
हरदिन पुजा और उत्सवोंकी भी व्यवस्था कर दिया।
कुछ पंच-ट्रस्टी कर दिये, सबसे अलग मै हो गया।।
४४३
*गुरुदेव सेवा मंडल* का व्याप भारी बढ़ गया।
खेती कहीं, शिक्षा कहीं, आरोग्य-मंदिर बन गया।।
संगीत-मंदिर, भजन-मंदिर, प्रार्थना-मंदिर बना।
उसमें भी सचालक बनाकर, मैं अलग चलता बना।।
४४४
*सब विश्व-हिंदकी परिषद* श्रेष्ठ, भारत में बनी।
हिंन्दू धरमकी दिव्यता अरु भव्यता लेकर गणी।।
आदर्श संमेलन हआ कुभ प्रयागी क्षेत्र में।
उसका भी मैं अध्यक्ष था, अटका नही पर सत्र में।।
४४५
इस देशके साधू हजारों संगठित होकर रहे।
कुछ काम करने धर्मका भारी प्रचारक बन गये ।।
यह *भारती साधू-समाज भी एक मंचपे आगया।
मझकोहि सारे संतने अध्यक्ष पहला ले लिया।।
४४६
ऐसी अनेकों व्याप्त संस्था की चली अध्यक्षता।
आया समय, सब छोडकर धारण करूँ फिर स्वस्थता ।।
सल्लाह ही देता रहँ, ऐसी बनायी धारणा।
अध्यक्षपद को त्यागकर उन सबको दे दी चालना।।
४४७
मै मानसे अधिकार से अब तो बडा ही दूर हूँ।
आशा नही इस बात की, मै तो पका पत्ता कहूँ।।
कब टूटकर गिर जायगा, उसमें नही अब मोह है।
वैसा मेरा मन मस्त है, सेवाहि अब संभव रहै।।
४४८
आश्रम दिये सन्तोंने मुझको, वे भी वापिस कर दिये।
लना कहाँ किसका हमें? हम ही सभी के हो गये।।
आनन्द का अक्षय खजाना नित हमारे पास है।
तुकड्या कहे सबको लुटा , बस यही एक आस है।।
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*सफल*जीवन की संध्याबेला में*
*नैराश्य के आघात*
४४९
महाराष्ट्र इस परम-पावन पंढरी में दिल लगा।
हर साल चालीस वर्ष से प्रभुने मुझे दे दी जगा।।
उन वारकरियोंमें बसा, बोला भजन-भाषण वहाँ।
छूटा नहीं है प्रेम अब भी, अंतही होगा यहाँ।।
४५०
चारों तरफ इन धर्मवालों की भली हलचल मची।
अनशन पे साधू आगये सब छोड मंदर की रुची? ॥
गौएँ अगर कटतीहि है, तब हम जिये किस वासते? ।
बलिदान से शासन जगे, यहि तो है तप के रास्ते ॥
४५१
*कइ सैकडो बहुबेटियाँ पकडी-भगायी जा रही।
हिन्दू धरम की ये पुकारें नित्य सुनने आ रही ॥
शासन कहाँ सोया हुआ है? जब नही रक्षा करे ।
तब हमभी क्यों जीयें यह दिल दिनरातही रोया करे ॥
४५२
हर बात सत्ता से बनेगी, यह तमासा हो गया ।
सज्जन भले ही रोके कह दें, तो भी वह न सुना गया ।।
उनकी चले-सत्ता मिले, चाहे चरित्र बुरा लगे ।
जीना भी ऐसे देशमें है! शर्म यह मुझको लगे ।।
४५३
सुनते किसी की बात है, करते किसीका साथ है।
ले तिलक किसके नाम का धरते किसीका हाथ हैं।।
जिनके भरोसे जी रहे, उनके बचन नहि मानना ।
ऐसे जमाने में कहाँ रहना? मुझे बतलाओ ना ।।
४५४
कितने बसे है घर हमारे मित्र के सद् भाव से? ।
पर काम के कितने वहाँ? बोला न जाता नाम से ।।
हम कुछ कहे वे कुछ करे, ऐसाहि चलता आ रहा।
हम ही हुए बदनाम, साथी उन्नती नहि पा रहा ।।
४५५
मेरे भी बनकर चूसते, मुझको बनाकर बावला।
अपने लिए घर-घर मुझे घुमवा रहे कहकर भला ।।
मैं सोचता हूँ, है न इनमें आत्मबल-अध्यात्मबल ।
बेकार है यह जिन्दगी, होवेगी कैसी यह सफल? ।।
४५६
जग जाइए, लग जाइए अभ्यास करने के लिए।
सूरज डुबा अब जा रहा, थोडेहि दिन तो है रहे ।।
अंधियार जब छा जायगा, तब क्या करोगे उन्नति ।
बाकी बची जो आयु है, अब सीख लो कुछ सन्मति ॥
४५७
मैने किये बहु यत्न, कुछ तो मूर्ख को अच्छा करूँ।
पर आजतक का फल मिला,किसको बताऊ या धरूँ ।।
जितने मिले, खाये-पिये, मुझकोहि मुर्ख बना गये।
मैं हाथ मलते रह गया, वे सरपे हाथ घुमा गये।।
४५८
जो मित्र थे सब दूर भागे, भोग में बैठे है वह।
मैं ही रहा ओसा फकिर,अब दिल से भी छूटे है वह।।
है भोग मेरा नाम-सुमरण, रोग है बैराग का।
मुझ में नशा है शान्ति का,सम्बल है मेरा त्याग का।।
४५९
बीमार मै हूँ यार! कबका, रोग से बेचैन हूँ।
दुनिया भले दिखती मगर मैं तो खुदी बिन नैन हूँ।।
गर आँख मुझको थी कहीं तो ब्रह्म केसे छूपता?।
सबमेंहि पाता राम और हराम होता लापता।।
४६०
वाहरे! दया सिरपर चढी, निर्दोष के सीने खडी।
आश्चर्य होता है हमें, हम भूल कर बैठे बड़ी॥
ऐसा न आवेगा समय, करके हुशारी सीखिए।
किसको न धोखा दिजिए,पर भूल भी ना कीजिए।।
४६१
लिख-लिखके काला हो गया कागज ओं मेरा दिल सभी।
उमटा नही किसिभी जगह,जब थक गये संकल्प भी॥
लगता बिनाही समय हमने यह तो पागलपन किया।
भगवान की मर्जी चले तबही फले सब पे दया।।
४६२
बस हाथ धोये कर्म से, इससे कहो उससे कहो।
अब एकही दिल बोलता.भगवान से ही सब कहा ।।
*उसकाहि सारा खेल है,इसका पता अब लग गया।
*सोया हुआ जब यह जिवात्मा ज्ञान लेकर जग गया।।
४६३
हम थक गये, सब बक गये, अब है निराशा हाथ में।
सुनते सभी करते नही, अनुभव यही हर बात में ।।
पर छोडकर जाना कहीं यह भी नही बनता हमें।
अपना किया करना अदा, जो फर्ज है हर बात में ।।
*चलता ही आगे जाऊँगा*
४६४
मरना हि है मुझको तो क्या मैं जहर खाये मर चलूँ? ।
यह जिंदगी झूठी है तो फिर आग इसमें धर चलूँ? ।।
सब छोडनाही है अगर तब पाप करके छोड दूँ? ।
बिलकुल हि मुझसे ना बने जो राह बूरी जोड दूँ ।।
४६५
*इतना किया उतना किया,कितना किया तो क्या किया? ।
जबतक सफलता मिल नही सकती तो सब बिरथा गया ।।
ऐसा नही मैं मानता, है जागृती पल-पल मुझे।
चलता हि आगे जाउँगा, जबतक न तन पूरा झिजे ।।
४६६
विश्राम मत सोचो कभी, यह तो लढाई है खडी।
जब देह खुद थक जायगा तब नींद आवेगी बडी।।
कर्तव्य हरदम आतमा को शुद्ध रखता झूंझ से ।
आलस्य से सोना, बडा ही दोष मानो तुम उसे ।।
४६७
उत्साह ही बल है बडा, जो आलसी को डाँटता।
हर बातकी दारिद्रता का अन्त ही कर छोडता ।।
लाखो धनी होंगे मगर, उत्साह जब नहि काम का।
उनको न जनता चाहती,होता न प्रिय वह राम का ।।
४६८
अजि! दीपपार जैसे पतंगा जान देता दौडकर।
वैसे प्रभु-प्रेमी प्रभूपर मस्त है कुर्बानि कर।।
नहि एक पल भी जी सके भक्तीबिना सेवाबिना।
वहि धन्य है मानव जिवन में,कार्य सब उसका बना ।।
*आत्मसन्तोष का बल*
४६९
दिलमें खटकती बात इक,इतना किया तो क्या हआ? ।
नैतीकता चारित्र्य ऊँचा दिख सके तब वाहवा! ।।
फिरभी खुशी इस बातकी,जितना बना सचही किया।
ढोंगीपना पंडीतबाजी पास नही आने दिया।
४७०
मुझको कभी कमती नहीं पड़ने दिया भगवान ने।
संकल्प पूरे होगये हर बातमें हर शान में।।
अब आखरी की बात है-*भारत न भूखा हो कहीं।
शिक्षा मिले सद्धर्म की मनमें यही इच्छा रही।।
४७१
सब कामना हो पूर्ण ही, ऐसा नहीं है आदमी।
इच्छा समस्त अपूर्ण हो, ऐसा नही है आदमी ।।
सद्भावना यदि कुछ फले, तब तो बडा माना गया ।
दुर्भावना में फँस गया, शैतान ही वह हो गया ।।
४७२
असफल-सफल होना जीवन का नत्य है और कृत्य है ।
दोनों नही रह जायँ तब तो जिंदगी यह स्तुत्य है ।।
यह ज्ञान सद्गुरु की कृपा से पायेंगे विश्वास है।
विश्वास गुरुपर ही जडे, ऐसा सदा निजध्यास है।।
४७३
सन्तोष है दिलमें हमारे, बीज हमने बो दिये।
धीरे पनपते ही रहेंगे, ये नही विस्था गये ।।
कितने खिले है आज भी, ऋतु में विरोधी काल के।
मर्जी प्रभूकी जो रही, वह कार्य सब हम कर चुके ।।
४७४
भगवान ही सब कुछ कराता,हम कहाँके? खाक है।
*मै-मै* किया तो कुछ नही, ऐसेहि मरते लाख हैं।
भगवान के दिलसे चले, तब पंगुभी गिरिवर चढे ।
बन्दर भी लंका जीत ले, गूंगे भी वेदों को पढे ।।
४७५
काफी गयी थोड़ी रही, अब तो न थोखा पायगा।
हंकार बिन जीया हूँ में, अब तो*अहं* नहि आयगा ।।
होगी बिमारी भी तभी, गम से हि मैं सह जाउँगा।
जब मौत भी कभु आयगी, हँसते प्रभू-गुण गाउँगा ।।
४७६
मेरे लिए संसार नहि, सब सार है, प्रभु प्यार है।
जो जो दिखे परिवार है, घरबार है, दरबार है।।
राजी हूँ मैं हरबात में, सुख में रहूँ या दुःख में।
यह देह-मन का धर्म है,फिर क्यों करूँ रूखरूख में? ।।
४७७
निश्चिंत हूँ मैं आत्म में, यह जीव मेरा सब करे।
ज्ञानेंद्रियाँ कमेंद्रियाँ सेवक समझ सेवा करे।।
सब ज्ञानके सत्संग से पाती खुशी हर बात में।
मैं सच्चिदानंदरूप ही हूँ, खेल में हर मेल में ।।
-----------------
*ब्रह्मनिर्वाण के पथपर*
*आत्यंतिक अस्वस्थता में-*
४७८
है पेट छोटा भी तभी, कितना अभीतक खा गया।
है पैर छोटे भी तभी, कितने हि कोसों चल दिया।।
यह आँख कितनी छोटि है,फिरभी दिखा अस्मान है।
हे यार! छोटी जान ने, कर दी जगत में तान है।।
४७९
है अन्त और आरम्भ की एकी छटा तो दिख रही।
तब दुःख क्या? आनंद क्या? दोनों बराबरही सही।।
जब बाल-यौवन वृद्ध रूप में बादलों के दल चले।
तब छल-बिछल होता है जीवन,ज्ञान यहिं होना भले।।
४८०
काया पुरानी होगयी तोभी, न मन माने जरा।
खाने-पिने को दौडता, पचता नही तो भी पुरा।।
है कौन जादूगर, मुझे जिसने यहाँ बहका दिया? ।
हे सन्तसद्गुरु! शक्ति दो,जब गोद में तुमने लिया।।
४८१
मन चाहता है यों करे, पर देह तो चलता नहीं।
जिभली भली चाबे मगर, यह पेट पचवाता नहीं।।
कुछ पेटने भी सह लिया, पर मल निकल पाता नहीं।
ऐसी गती होती है जब, आरोग्य बिगडेगा सही।।
४७३
सन्तोष है दिलमें हमारे, बीज हमने बो दिये।
धीरे पनपते ही रहेंगे, ये नही विस्था गये ।।
कितने खिले है आज भी, ऋतु में विरोधी काल के।
मर्जी प्रभूकी जो रही, वह कार्य सब हम कर चुके ।।
४७४
भगवान ही सब कुछ कराता,हम कहाँके? खाक है।
मै-मै किया तो कुछ नही, ऐसेहि मरते लाख हैं।
भगवान के दिलसे चले, तब पंगुभी गिरिवर चढे ।
बन्दर भी लंका जीत ले, गूंगे भी वेदों को पढे ।।
४७५
काफी गयी थोड़ी रही, अब तो न थोखा पायगा।
हंकार बिन जीया हूँ में, अब तो अहं नहि आयगा ।।
होगी बिमारी भी तभी, गम से हि मैं सह जाउँगा।
जब मौत भी कभु आयगी, हँसते प्रभू-गुण गाउँगा ।।
४७६
मेरे लिए संसार नहि, सब सार है, प्रभु प्यार है।
जो जो दिखे परिवार है, घरबार है, दरबार है।।
राजी हूँ मैं हरबात में, सुख में रहूँ या दुःख में।
यह देह-मन का धर्म है,फिर क्यों करूँ रूखरूख में? ।।
४७७
निश्चिंत हूँ मैं आत्म में, यह जीव मेरा सब करे।
ज्ञानेंद्रियाँ कमेंद्रियाँ सेवक समझ सेवा करे।।
सब ज्ञानके सत्संग से पाती खुशी हर बात में।
मैं सच्चिदानंदरूप ही हूँ, खेल में हर मेल में ।।
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