चित्त शुद्वि का महत्व और उपाय
                          (ता.२९-८-१९३६ 

 उपासकों ! मेरा रोजका विषय यही हुआ करता था कि घडेमें भरा हुआ मैला जल जबतक बाहर नही निकाला जाता तबतक किसीभी हालत में उसमें दूसरा पदार्थ नही समा सकता । फिर तुम कितनीभी चर्चा करते रहो मगर वह काम देनेवाली नही हो सकती । अपनी वृत्ति अज्ञान , कुविचार , या दुष्टसंकल्पविकल्पोंसे इतनी भरी हुई है कि रात और दिनमें एक मिनटभी हा ऐसा नही जाता , जब यह वृत्ति शांत या निर्विकार रहती हो । वृत्तिको इतनाही चंचल और गंदा रखते हुए अगर हम चाहे जितनेभी साधन करेंगे तो सच्च लाभ कैसे हाथ आ सकता है ? इसके लिये तो पहले देहाभिमानरूपी घटमें


छेद गिराकर धीरे - धीरे सभी कुविचारोको बाहर निकालना आवश्यक चरण और तभी सदविचारोंका समावेश उसमें हो सकता है , जो हमें सच्चा लाभ दे सकेगा । जबतक तुम अपने विचार नहीं बदल डालोगे तबतक सत्स्वरूपकी प्राप्तिसे कोसों दूरही रहोगे , इसे मत भूलना ।   
     मित्रों ! याद रक्खो । तुम जोभी सत्कर्माचरण या क्रियासाधन करोगे  उसीमें संतुष्ट मत हो जाना । ऐसा मत समझना कि हम बडे पारमार्थिक बन चुके हैं । ये साधन तो साधनही होते हैं , साध्य नही । यह तो मार्ग है , मुकाम नहीं । सब साधन तन - मनको अच्छी आदत गिराने - अच्छे मार्गपर मोड देने के लिए होते हैं । अपना असली ध्येय ( लक्ष्य ) तो बहुत  लम्बा दूर है - ऊँचे गडपर है । वह ऐसा है कि जहाँपर न तो इंद्रियाँ प्रवेश करती हैं और ना ही मन - बुद्धि पहुँच पाती है । वहाँ प्राण , जीव या प्रकृतिभी पैर नही मार सकती । ऐसे अपने उस विशुद्ध ब्रह्मस्वरूपको प्राप्त करना यानी अनुभवमें लाना बडाही कठिन काम है । मालूम नही कि उसमें समरस होने के लिए कितने जनम लेने पड़ेंगे । क्योंकि जबतक चित्तशुद्धि नहीं होगी तबतक ध्येयप्राप्तिकी बात करनाही फिजूल है ।
*मनकी गति है अटपटी , खटपट चले न कोय । मनकी खटपट मिट गयी , तो चटपट दर्शन होय । । *
ऐसा *मुश्किल*  और *आसान सबकुछ मनपरही अवलम्बित*  है । तुम अगर जल्दीसे अपने ध्येयतक पहुँचना चाहते हो तो पहले अपना अधिकार तैयार करो यानी चित्तको विशुद्ध बना लो । बिना अपनी वृत्तिको सुधारे चाहे जितनेभी तीर्थ - धाम , ग्रंथ - पंथ या कर्म - धर्म अपनालो अथवा वादविवाद करते रहो , कुछभी हासिल होनेवाला नही है । और यहभी समझ


लो कि , बिना कुविचारोंको हटाये वृत्ति कभी ठीकसे नही बनती कर्मकाण्डसे कुविचार नष्ट नही होतें । उसके लिए तो पहले प्रेम भक्ति कोही  सीखना होगा । क्योंकि प्रेमभक्तिही चित्तकी शुद्धताके लिए और सभी अन्य साधन प्रेमभक्तिमें सहजरूपसेही आजात है।
तो भाई ! बात सुनो ! जबजबभी फुरसत मिलेगी । बाकी सभी बातोंको भुलाकर दिलसे पश्चात्तापसंपन्न होते हुए ईश्वरका ध्यान -भजन या उपासना - प्रार्थना जरूर करते रहो । सद्भावपूर्वक ईश्वरसे को * हे भगवन ! मेरे सभी दोषोंको क्षमा कर और मुझे पापोंसे छुडा ले । आगे के लिए ऐसी सुबुद्धि मुझे दिया कर कि मैं झूठी बातोंसे ध्यानभजन दुर रहता  हुआ तेराही ध्यानभजन करता रहूँ । *. . . . ऐसी आर्तभावसे तथा प्रेमसे यदि प्रार्थना करोगे तो जरूरही तुम पापोंसे छूटकर पुण्यपथपर बढते हुए अपना उद्धार कर लोगे , क्योंकि यह प्रार्थनाही कुविचारोंको भस्म, करनेवाली चिनगारी और दिलको स्वच्छ करनेवाली दिव्य साबन है |
मित्रों ! ख्याल रक्खो । ईश्वर हर जगह मौजूद है । वह भले हि दिखता न हो , परन्तु अनुभवी सन्तोंने जहाँ वहाँ उसको पाया है और उसका नाम गाया है । सन्त कबीर महाराज कहते हैं - *चींटी के पाँव में धुंगरू बाँधा , वहभी अल्ला सुनता है । *देखो ऐसे सूक्ष्मही नही , सूक्ष्मतर वस्तुओंमेभी वह भरा हुआ है और वह हर बातका जानकार - सबका साक्षी है । आकाश शून्यवत् दिखता है मगर चातकके लिए उसीमे से वर्षा होती है , इसीप्रकार आर्त जीवोंकी प्रार्थना का फल ईश्वर जरूर देता है ।निष्काम प्रार्थनासे चित्तशुद्धि जरूरही होती है । इसीलिए सच्ची श्रद्धासे युक्त हो कर उसका भजन हमें जरूर करना चाहिए । भजन या प्रार्थना करतेवक्त सभी विचारोको पहले हटा देने चाहिए और


केवल वह ईश्वर तथा स्वयं प्रार्थना करनेवाला वे दोनोंही रहेंगे ऐसी एकतान भावना रखनी चाहिए । उसीतरह अपने सभी व्यवहार या कर्म करतेवक्ता उसीका ख्याल करना चाहिए कि वह सब जगह बसा हआ परमात्मा मेरे सभी पापपुण्यको जानता है , इसलिए हरदम बचकर चलनाही मेरा धर्म है । इस रीतिसे विकारोसे बचकर सदाचरणपूर्वक प्रेमभावसे तम उपासना करोगे तो जरूरही चित्त शुद्ध होकर अपने सच्चे ब्रह्मानंद - गडपर चढनेके तम अधिकारी हो सकोगे । उसके लिए बडे बडे कठिन व्रतसाधनोंकीभी जरूरत नही पडेगी ।
दृष्टान्त सुनो ! एक राजाके महलमें सबसे अति सुन्दर चित्र बनानेवाले एक चित्रकार को राजाने नियुक्त किया था । तभी एक चीथडे पहननेवाला गरीब आदमी वहाँ आया और राजासे प्रार्थना करने लगा * महाराज ! यह चित्रकार जितना सुन्दर चित्र निकालेगा उतनाही सुंदर चित्र मैं भी बना सकता हूँ । विशेषता यह कि इसे कीमती रंग और ब्रश इत्यादी चीजें आप दे रहें , मगर उनकी भी मुझे जरूरत नहीं होगी । खाली एक दो कौड़ियाँ और गोंद - पानीसेही मेरा काम चल जायगा । *राजाकी उत्सुकता बढी और उसने दोनों चित्रकारोंको अपने - सामने की दीवारें चित्र बनानेके लिए मुकर्रर कर दी । बीचमें एक बडासा पर्दा डाल रक्खा , और चारों ओर पहरेदार खड़े किये । . . .
पंद्रह दिनोंके बाद पहले चित्रकारने राजाको खबर कर दी कि मेरा चित्र देखने कृपया पधारिए । दूसरा चित्रकारभी तैयार था । राजाने जब पहले । का बयान चित्र देखा तो वह बडा प्रसन्न हुआ । रामपंचायतन का रंगीन चित्र अतीव सुन्दर बना था , मानो सजीव पतले हों । दूसरे चित्रकार का चित्र देखनेके लिए राजाने पर्दा हटा लिया तो सामनेका चित्र देखकर वह


अचरजमें डूब गया । वहभी रामपंचायतनका ही रंगीन चित्र था और वह पहले चित्रसेभी अधिक सुंदर , सजीव तथा चमकदार बना हुआ था । राजासे पहरेदारोंने कहा -  महाराज ! एक बूंदभी रंग इस चित्रकारने नही लगाया । यह खाली कौडी - पानी और ( गोंद ) डीगकाही उपयोग करता था ।
राजाकी समझमें कुछभी नही आ रहा था । बडे आश्चर्य भावसे । उसने उस गरीब चित्रकार को उसकी कला का रहस्य पूछा तो उसने कहा * सरकार ! मैंने वास्तवमें चित्र बनायाही नही है । गोंदका पानी दिवालपर मलते हुए कौडियोंसे उसको घिसता था ; जिससे यह दीवाल काँचकी तरह चमकने लगी और सामने की दीवालपर बना हुआ चित्र आपसे आप इसपर प्रतिबिंबित हआ । *उसकी यह करामात देखकर राजाने बडी खुशीसे उसको इनाम दिया ।
मतलब यह कि साधनोंका बहूत बडा आडम्बर खडा न करते हुए भी , सिर्फ उपासना - प्रार्थनासे ही अगर हम अपने मन की दिवाल को स्वच्छ - पवित्र बनाते रहेंगे तो सद्बोधभी हमारे पल्ले आपने आप पडेगा । प्रार्थनाके सुगम मार्गसेही हम अपने अंतिम ध्येयतक खुशीसे पहँच सकेंगे । तो अब निश्चय करो और ऐसी सुविचार की घडी मत गमाओ । हरदम मनपर ख्याल करते रहो ; यही सच्चा उद्धारका पथ है ।
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