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 साधनों का राजा - * ज्ञान ! * ; लेकिन कब ?
        ( ता . ३० - ८ - १९३६ ) 

उपासकों ! परमार्थमें साध्य एक है मगर साधन अनेक हैं । ग्रंथोंमें भिन्न साधनोंका बडा माहात्म्य बखाना जाता है और लगता है कि मैं इनमेसे 


कौनसा साधन पकड लूँ ? क्या मैं सभी साधन कर सकता हूँ ? क्या इन सारे साधनोंकी हमें आवश्यकता हैं ? वास्तवमें अलग - अलग अधिकार ध्यानमें लेकरही अलग अलग साधन बताये गये हैं , परंतु अपना अधिकार क्या है ? सच तो यह है कि विभिन्न साधनोंका अभ्यास करनेके लिए हमारी आयुर्मर्यादा साथ नहीं दे सकती । हठयोगादि साधनोंके लिए न तो आज हम लोगोंके शरीरमें बल है और न तो हमारी वृत्तिही उस धारणाके लिए तैयार है । जपजाप्य या कर्माचरण के लिए जो शास्त्रानुरूप निर्दोष शुचिता चाहिये उसकाभी पता नहीं चलता । ऐसे घोर समयमें आखिर हम करें तो क्या ?
जप - तप - योगयाग , मुद्राप्राणायाम आदि साधनोंका सही अर्थमें । यह समयही नहीं है ; क्योंकि इस युगमें अब देह बहूत दुर्बल और दूषित हो चुके हैं । पुरातन युग में लोग स्वभावत : ऐसे थे जो बारह - बारह घण्टे एकही आसन पर बैठ सकते थे ; पाँच - पाँच मिनटोंतक आँखें एकही तरफ देखती रह सकती थी ; तीस - चालीस सालतक ब्याहशादीकी बात न करते हुए नंगे लडकोंके समान लोग घूमा करते थे । वह जमाना अब कहाँ है ? पाँच मिनटतक आसन , पाँच सेकंदतक दृष्टि और पंद्रह सालतक ब्रह्मचर्य कायम रखनाभी आज मुश्किल हो गया है । छोटासा लडकाभी आज पितासे कहता है *मेरी शादी बना दो , नही तो मैं चला जाऊँगा । *कर्मधर्म देखोगे तो शास्त्रानुसार एकभी नजर नही आयेगा । भूख लगी तो कैसाभी अन्न हो यज्ञकर्म बन जायेगा और प्यास लगी तो कैसाभी पानी हो आपोनारायण की पदवी पायेगा । वातावरण इतना दूषित बन गया है कि अब शास्त्रका विधिविधान तो जेबमेंही रख देना पड़ेगा । ऐसे बिगडे हूए वक्त में प्राचीन ग्रंथोंके बडे - बडे साधन क्या काम आ सकते हैं ?
 मैं तो पहलेसेही दृढतापूर्वक यह कह रहा है कि प्रेमभक्तिके सिवा


सुगम और श्रेष्ठ साधन अब दूसरा नहीं है । बिना प्रेमभक्तिके चित्त शुद्ध और एकाग्र नहीं हो सकता । सच्चे हृदयसे प्रार्थना करनाही प्रेमभक्ति आरम्भ है । देखो , गोस्वामी तुलसीदासजी जैसे बडे महात्माने भी *मौसम कौन कुटिल खल कामी* इसतरह अपने विकारोंका सर्वान्तर्यामी प्रभुके  सामने अनुतापपूर्वक निवेदन किया है । हमें मार्ग बताने के लिए सन्तों के वचन हुआ करते हैं । पश्चात्तापपूर्वक हम अपने दोषोंको प्रभुके सामने रखेंगे तो वे दोष धीरे - धीरे कम होही जायेंगे । साथही हम सच्चे भावस प्रभुका ध्यान करेंगे तो चित्तवृत्ति सहजही स्थिर होने लगेगी । शुद्ध तथा स्थिर चित्त में ज्ञानका उदय होना अर्थात् सन्तोंके बोधद्वारा सही ज्ञानकी प्राप्ति होना कोई कठिन बात नहीं होती और ज्ञानके होतेही हम भगवानसे चटपट थानास मिल सकते है । क्योंकि ईश्वर हमसे जराभी भिन्न नहीं हैं । वह तो हमाराही खास जीवनझरना है । इसीसे स्वामी मुकुंदराजने कहा है-
*नदी उगमी स्थिरावे । तरी सिंधूपण का न पावे ?  तैसे जीवे ब्रह्म का न व्हावे । ऐसिये स्थिती राहता ? *
सुनो ! नदी अगर अपने मूल उगममेंही स्थिर होकर रहेगी तो वह क्या समुद्र नहीं बन सकती ? उसीतरह जीवात्मा यदि अपनेही रूपमें स्थिर पिने हो जायेगा तो क्या वह ब्रह्म नहीं बन सकता ? जरूर बन सकता है । यहाँ नदीका मूल उगम पर्वत कहनेसे समुद्र कहना अधिक यथार्थ होगा । क्योंकि भगीपरे समुद्रजल सूरजकी किरणोंसे भाफ बनकर पहले आकाशमें चला जाता है , गिडगिट वहाँ वायुकी संगति और ठंडकसे जलबूंद बनकर भूमिपर गिर जाता है , 
और जहाँजहाँ भी गिरता वहाँसे झरनी - नाला - नदी आदिका रूप लेकर फिर समुद्रमें समा जाता है । जीवकी दशाभी यही है । वह परमात्माका अशहा सकता है , लेकिन प्रकृतिकी करामातसे बिलकुल दूसरे रूपमें भासमान होता है । यदि


वह समुद्रजलके माफिक समुद्रमेंही टिका रहा , यानी अपने स्वरूपमेंही कायम रहा , तो वह परमात्मामेंही समरस हो जानेसे स्वयं परमात्माही होकर रहेगा । जीवको परमात्मामें समरस होनेके लिए कहीं जाना नही पडता ; क्योंकि परमात्मा सबमें व्याप्तही है । उसे ईश्वरको प्राप्त नहीं करना पडता ; क्योंकि वह प्राप्तही है । लेकिन यह व्याप्ति या प्राप्ति ख्यालमें नही आती , इसीलिए ज्ञानकी आवश्यकता होती है । इसका मतलब यह हआ कि ज्ञानही सच्चा साधन है ।
दृष्टान्त ख्याल रख्खो । एक बडा राजा था , जो सभी प्रकारके वैभवोंमें जीवन बिता रहा था । संपत्ति थी , संतति थी , कीर्ति थी , आरोग्य था , सेनासंभार था । एक दिन हीरेजडित सोनेके पलंगपर राजा सुखकी नींद ले रहा था और सपनोंकी सैर कर रहा था । तो राजाने देखा , शत्रुसेनाने चारों तरफसे राजमहलको घेर लिया और घमासान लडाई शुरू होगयी । लेकिन शत्रुकी ताकत अधिक थी । राजाकी बेसावध सेना टिक न सकी । सारी नगरीही नही , राजमहलभी शत्रुओंके कब्जेमें गया । राजाकोभी कैदी | बनाकर तहखानेमें डाल दिया गया । राजा के दुखकी सीमा नहीं थी । खाने पिने - पहननेकी तो बातही क्या , उसे शुद्ध हवाभी नही मिलती थी । वह सूख गया , रोगी बन गया , मौतका इंतजार करने लगा । ऐसी हालतमें उसे भंगीपुरेमें ले जाकर पटक दिया गया । वह चलभी नही सकता था । रोते गिडगिडाते हए वही भीख माँगने लगा । मैं कैसा था और कैसा हो गया हूँ , इसका ख्याल करते हुए छाती पीटपीटकर रोने लगा । कितना दर्द था उसे !
उसका यह दुख - दर्द दूर करनेके लिए कौनसा उपाय किया जा सकता था ? . . . इतनेमें हुआ यह कि , राजमहलके एक सेवाधारी सिपाहीने


जोरजोरसे आवाज देते हुए उस राजाको हिलाडुलाकर जगा दिया ! तो राजाने । देखा कि मैं तो अपने राजमहलमें उसी शानसे सोनेके पलंगपर सोया हुआ हूँ । जो भी संकट आयें , दुख - दर्द हुआ , वह तो सभी सिर्फ सपना था । मेरा राजापन तो ज्यों का त्यों अबाधितही हैं । . . .
मित्रों ! इस दृष्टान्तमें राजाको अपना राजापन जो फिरसे प्राप्त हूआ वह किस साधनसे ? क्या जपतप , पंचाग्निसाधन , मुद्राप्राणायाम आदि साधनोंका उसके लिए कोई उपयोग था ? वहाँ तो केवल जाग जानेकी यानी अपनी अवस्थाका यथार्थ ज्ञान पानेकीही वास्तवमें आवश्यकता थी । उसी मुताबिक जीवको अपना स्वानंदसाम्राज्य पानेके लिए एक ज्ञानही काफी है ; अन्य साधनोंकी जरूरत नहीं है ।
मगर ज्ञानकी प्राप्तिके लिए हमारे चित्तशुद्धिकी विशिष्ट पात्रताकी भी तो आवश्यक होती है । कहते हैं कि बिना सुवर्णपात्रके शेरनीका दूध टिक नहीं सकता , उसी मुताबिक बिना चित्तशुद्धिके ब्रह्मज्ञान भी अपना असर दिखा नहीं सकता । इस चित्तशुद्धिके लिए श्रेष्ठ साधन है प्रेमभक्ति ! प्रेम और ज्ञानसेही हमारा बेडा पार हो सकता है । इसलिए सभी क्षुद्र कामनाओंको छोडकर केवल स्वरूपानुभवके लिएही ईश्वरकी प्रार्थना करना उचित है । वैसे तो हजारों लोग ईश्वरसे प्रेम लगाते हैं , लेकिन उस प्रेममें पुत्र - धन मान आदि कई विषयोंकी कामनाएँ हआ करती हैं । अर्थात् वह प्रेम ईश्वरका नही , उन विषयोंका होता है । निष्कामभाववाला पुरुष तो हजारोंमें बिरलादही कोई मिलता है और उसीको सच्ची प्राप्ति होती है ।
तो भाई ! संसारकी आसक्तिको फूंककर , राग - द्वेष और ऊँच नीच भावको छोडकर तथा क्रमश : अपने दोषोंको घटाते जाकर


पश्चात्तापपूर्वक बडेही प्रेमसे प्रभुकी प्रार्थना करते रहो । स्वयं शरणागत भक्त और एक गुरुदेव - ईश्वर इनके सिवा वृत्तिमें कुछभी न रक्खो । ऐसी एकाग्रतासे एक घटकाही नहीं , एक मिनटभी यदि प्रार्थना हई तो वह बहूतही लाभप्रद सिद्ध होगी । तो जब जब अवसर मिले तब तब , संसारका कार्य करते वक्तभी और जहाँभी रहो वहींपर यदि ऐसी प्रार्थना - भजन करते रहोगे . तो सुगमतासे अपना ध्येय पा सकोगे , इसे मत भूलो !
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