१० सर्वसाक्षी प्रभु से प्रेमभक्ति
( ता . ३१ - ८ - १९३६ )
उपासकों ! ईश्वर सभी जगह व्याप्त है ; सबका साक्षी यानी सर्वज्ञ है ; घटघटकी बातें जाननेवाला है । वह सृष्टिसे कहीं दूर बैठा हुआ है , ऐसी बात नहीं है । वह सृष्टिका अंतर्यामी है । इसी बातको धर्मग्रंथों में इस रूपमें चित्रित किया गया है कि सूर्य - चंद्र , रात - दिन , सुबह - शाम , काल या यमराज आदि ईश्वरदूत हमारे पापपुण्यको देखते हुए उनका लेखाजोखा रखते हैं ; चित्रगुप्त हमारी हर अच्छी - बुरी बातको बहीखातेमें लिख देते है । हमारे इर्दगिर्द में निवास करनेवाले देवता हमारे हरएक कर्मके गवाह होते हैं और वे सब हमारा पापपुण्य भगवानको बता देते हैं । इस रूपकका तात्पर्य तो यही निकलेगा कि अंतर्यामी परमात्मासे हमारी कोईभी भलीबुरी बात छिपी हुई नहीं रह सकती । और यह ठीकही है ।
मैं हरएक साँसमें क्या बिचार या कौनसा कर्म करता हूँ , यह अंतर्यामी तो जरूरही जानता है और फल देनेमेंभी वह समर्थ है । इसलिए
हरवक्त बडीही सावधानीसे , बुराईसे बचकर मुझे चलना होगा . यह सबको ख्यालमें रखनाही चाहिए । साथमें यहभी समझ लेना चाहिए कि और सच्चा प्रेम और बनावटीप्रेम , सकाम और निष्काम भावभक्ति , सहज सरलता और छलकपट ऐसी सभी बातें ईश्वरसे छिपी नही रह सकती और वह किसीके नाटकीय भावसे भुलावेमेंभी नहीं आसकता । ऊपरसे तुम बडीही न प्रेमपूर्ण भक्ति दिखाओगे और पाँच मिनटोंके लिएभी अंदरका विकृत संसार मन नहीं भुला पाओगे तो क्या ईश्वर अच्छा फल देगा ? वह तो बद्ध - पामर , आर्त - उपासक , मुमुक्षू - साधक और ज्ञानी - महात्मा इन सबकी अंदरूनी हालत भलीभाँति जान सकता है और उनकी श्रेणीके मुताबिक उनको अन न्यूनाधिक फलभी देता है ।
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् * यानी जो जिसे हो प्रेमभावसे पुकारेगा उसीके मुताबिक ईश्वर उसे जबाब या फल देगा , यही प्रेरणा ईश्वरकी * समानता * है ; यही उसका न्याय और यही दया है । भक्तिका नाटक रचाकर कोई उसे फँसा नही सकता । तुम उसे फँसानेकी कोशिश करोगे तो वह तो हरगीज नही फँसेगा , लेकिन तुमही बडे गढ्ढेमें गिर पडोगे । यह तुम्हें अगर मुक्ति पाना है या ईश्वरसे मिलना है तो तुम्हें हमेशा सावधानही । रहना होगा और प्रामाणिकतासे अभ्यास करना होगा । फिर तो सर्वांतर्यामी भगवान तुम्हारी पुकार जरूर सुनेगा । तुम किसी फलके लिए भक्ति करोगे । तो फल भलेही मिले , फलदाता नही मिलेगा । खिलौनोंमें खुश रहनेवाले बच्चे को माँ अपना दर्शन क्योंकर देगी ? मगर जो बालक माँके लिएही . रो उठेगा उसकी तरफ दौडती हुई माँ झठसे उसे अपनी गोदमें उठा लेगी । यही हिसाब भक्तिशास्त्रका भी है । इस बातपर एक दृष्टान्त सुनिए ।
मित्रों ! ईश्वरसे प्रेम ऐसा हो जैसा लैलाके प्रति मजनूका था ।
न वह राजा जानता था और न रंक । न उसे किसी दूसरी चीजका मोह था और न किसी विपत्ति से डर लगता था । जिधरभी देखता , एक लैलाही उसे भासमान होती थी । लैलाके बदलेमें सारी दुनियाकी बादशाहीभी कोई उसे दे डालता तो भी वह लेनेवाला नही था । कहते हैं कि एक दिन स्वयं ईश्वर उसको समझानेके लिए उसके पास आया और कहने लगा - *अरे मजनू ! कितना पागल है तू ? एक हड्डीमाँसकी नाशमान पुतली लैलाके मोहमें तू दिवाना होगया और अपना सारा सुखचैन , खानापिना तक भूल गया । अरे ! यही प्रेम अगर तू मुझे देता तो अमर सुखका मालिक बन जाता । अबभी चेत जा और अपने जीवनका सार्थक कर ले !
मजनूने हँसते हुए जवाब दिया - *परवरदिगार ! आपने मेहरबान होकर मेरेलिए तकलीफ उठाई , इसलिए मैं शुक्रगुजार हूँ । मेरा इश्क या प्रेम आपको इतना अच्छा लगा यह फिक्रकी बात है । मैंने सुना है कि आप चाहे सो रूप ले सकते हैं । फिर आपने मेरी लैलाकाही रूप क्यों नही लिया ? जिससे कि मैं पूरा प्रेम आपकोही दे डालता ।*. . . लैलाके बारेमें मजनूका यह एकनिष्ठ प्रेम देखकर ईश्वरभी दंग रह गया ।
सज्जनों ! लैला - मजनूका प्रेम एकनिष्ठ था , उत्कट था , इसमें शक भगवान के प्रति भक्तका प्रेम भी ऐसाही होना चाहिए । परन्तु लैला मजनू और भक्त - भगवान इनमें जो प्रेम होता है उसमें कुछ मूलभूत फर्क होताही है । भगवानके प्रति प्रेम तो वैसाही आत्यंतिक हो , परन्तु वह मावसयुक्त होना चाहिए , आशीक - माशुककी भावनासे वह न हो ।
सा लैलामय हो चुका था और सभी जगह उसे लैलाही नजर आती यह हालत भक्तकी भी होती है । उसे प्रभु हर जगह मौजूद दिखता लोकन यह बड़ी ऊँचे दर्जेकी स्थिति है । सत्प्रेमकी यह परिणत अवस्था
है । पहले - पहले यह भूमिका नहीं बन सकती और उसकी नकल उतारने काभी लाभ नही होता । प्रेम अगर सही है तो , कलिसे फूल बन जाता है अर्थात क्रमश : वह विकास पने आप हो जाता है । जबरदस्ती अगर कोई व्या भाव लाना चाहे तो शरीररूपी बर्तन बिगड जायेगा , वृत्तिकी स्थिती बोशित बन जायेगी , सांसारिक जीवन खराब हो जायेगा और ध्येयमार्गमेंभी विश्व पैदा होगा । इसलिए प्रेमका विकास आपने आप - सहजतासे - होता रहें यही धारणा हमें कायम रखनी चाहिए ।
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