- ११- सभी पंथों को मानो ! स्वयं संप्रदाय बनो ! !
( ता . ०१ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! आपने प्रेमभक्तिके बारेमें सुना है । हमारे देशमें भक्तिसंप्रदाय अनेक हैं । भक्तिके बारेमें उनके विधिविधान या तरीकेभी । अलग - अलग हैं । आडा चंदन , खडा चंदन , तुलसीमाला , रुद्राक्षमाला , सतकी माला , चंदनकी माला ऐसी भिन्नभिन्न बातोंका अभिमान अलग अलग पंथ - संप्रदाय लेते हैं और वह अन्य पंथोंसे अपनेको ऊँचा समझते हैं । परंतु वास्तविकता यह है कि पंथोंकी यह विभिन्नता प्रेमभक्ति में बाधक । होनेकी कोई गुंजाइश नही । बाहरी वेषभूषामें अथवा उपासनाकी सहायक । चीजोंमें चाहे जितना फर्क हो , लेकिन प्रेमभक्तिमें फर्क होनेका कोई कारण नही है । श्रद्धा या प्रेमकी न कोई जाति होती है और न कोई पंथ । हरव्यक्ति के दिलमें ईश्वरविषयक प्रेम तो एकसाही हूआ करता है । फिर वह वीणामृदंगपर उसे प्रकट करें या पत्थरके टाल कूटकर ।
उपासकों ! ईश्वरकी लगनही प्रेम है , फिर वह प्रेम वात्सल्यभावका हो , दास्य या सख्यभावका हो । प्रकृतिके अनुसार जिसे जो अच्छा लगे, सगम प्रतीत हो , वही उसके लिए उचित है । लेकिन दूसरेका रास्ता गलत । है ऐसा कहनेका उसे बिलकुल अधिकार नहीं दिया जाता । जो सच्चा प्रेमी हो वह इसतरह किसीके साथ तुलना करही नहीं सकता । *मेरे तो गिरिधर गोपाल , दूसरो न कोई * कहनेवाली भक्तिमती मीराबाई दूसरोंको भलाबुरा कहही कैसी सकती है ? . . . हाँ , एक बात आवश्यक है कि हमारा प्रेम राजस - तामस न हो ; हमारी उपासना सात्विक होनी चाहिए । भगवान उद्धवजीसे कहते हैं - *सत्त्वगुणकी वृद्धि तन - मनमें होनेसेही उपासक मेरी ओर आ सकता है । *बिना सात्विक प्रेमसे उद्धार नही हो सकता , फिर वह संप्रदाय कोईभी हो ।
सज्जनों ! संप्रदायोंकी भिन्नतासे कुछभी बिगडता नही है । पंथों या साधनोंमें अनेकता आनेका कारण यह है कि पात्रताभेद या उपाधिभेदसे एकही उपाय सबके लिए समानतासे काम नहीं आता । त्रिगुणात्मक जगत्में एकही मार्ग कैसे कायम रह सकता हैं ? *पिंडे पिंडे मतिर्भिन्नाः * अथवा * भिन्न रुचिर्हि लोकाः *इत्यादि वचनोंसे स्पष्ट होता है कि लोगोंकी बुद्धि तथा रुचिमें बडी भिन्नता हूआ करती है ।*
*भिन्ना प्रकृतिरष्टधा * ऐसी बहुरूपिणी प्रकृतिनेही विभिन्न प्रकारकी खोपडियाँ बनायी हैं । * एकोऽहं बहुस्याम् * इसप्रकार विविधताकी इच्छा करनेवाला ईश्वरही विभिन्न
वाम नटा हूआ है । न एकसरीखे फूल खिले हैं और न एकसरीखे पत्तेही बने हैं । फिर बुद्धिरूपी झाड भिन्न प्रकारसे खिलने लगे तो आश्चर्यही क्या ?
एकका विचार या स्वभाव दूसरेसे नही मिलता , इससे मागेभी भिन्न - भिन्न और अनेक होगये हैं । एक टाल बजाता तो एक मुद्रा चढाता ;
एक वैष्णव है तो एक शैव । कोई पंचाग्निसाधन करता है तो कोई प्राणायाम । कोई हठयोगी है तो कोई राजयोगी । चाहे जो हो , लेकिन *हमारेही मार्गसे । ईश्वर मिलता है - दूसरे मार्गोंसे नहीं * यह अभिमान छोड दो । किसी मार्गसे लाखोंके बंधन भलेही टूट चुके हों , लेकिन अपनी वृत्ति या पात्रताको ना देखते हुए उसी मार्गको लेना चाहिए - यह आग्रहभी छोड दो । मैं अमुक संप्रदायका हूँ * इस संकुचित भावका बंधन त्याग दो और जिस मार्गसे सुगमतासे हमारी आत्मोन्नति हो सकती हो उसे अपने अधिकारोचित मार्गकोही पकड लो !
याद रखो ! विभिन्न वृत्तियोंके कारण अनेक मार्गोंका होना स्वाभाविक है , लेकिन श्रेष्ठपुरुषोंको सबका ख्याल होता है । रजोगुणी व्यक्तिके लिए क्या , सात्विक के लिए और तमोगुणीके लिए क्या आवश्यक है ? बद्धके लिए कौनसा और मुमुक्षू या साधकके लिए कौनसा उपाय जरूरी है ? अनपढके लिए , पढत - मूर्खके लिए और पंडितोंके लिए किस साधनका उपयोग होगा ? ये सब बातें सत्पुरुषोंको मालूम होती हैं और वे अनेकोंके लिए अनेक मार्ग उपयोगमें लाते हैं । दुनियाकी सभी वस्तुओंका औषधिउपयोग होता है ; परंतु सबका उपयोग सबके लिए नहीं होता । देशकालमान और प्रकृतिमान देखकरही सच्चा वैद्य औषधि निश्चित करता है । सन्तभी यही दृष्टि रखते हैं । इसलिए हमको किसी पंथ संप्रदायका हठ पकडके रहना उचित नही कहा जा सकता ।
प्रभुकी व्यापकताको ख्याल में रखते हुए सच्चे प्रेमभावसे प्रार्थना करते रहना और विकल्प खडा होतेही तुरंत उसे तोड डालना यही उपासकोंके लिए पहले आवश्यक है । विकल्प विकाररूप बनकर बढ़ गया तो फिर उसे हटाना बड़ा मुश्किल होता है । जैसे कि वृक्ष बढ जानेपर उसे दबाया
नहीं जा सकता । इसलिए अंकुरकी दशामेंही दुर्विचारवृक्षको काटना हितावह होता है और तभी प्रेमलता बढने लगती है । आगे चलकर स्वयं भक्तही प्रेमरूप बनता है , बल्कि आत्यंतिक प्रेमसे भक्त भगवानमय हो जाता है ।
कहते हैं , लैलामय बना मजनू आगमेंभी नही जलता था । लेकिन किसीने लैलाको अगर मारापीटा तो वह आघात मजनूके शरीरपरभी होता था । भागवतमें कहा गया है कि तमोमूर्ति शंकरजीका ध्यान करनेसे विष्णु *गननसदृश्य*
नीलेरंगके होगये और सत्वमूर्ति विष्णुका ध्यान करनेसे शंकर *कर्पूरगौर * बन गये । इसी हिसाबसे आत्यंतिक प्रेमके कारण भक्तभी भगवानस्वरूप बन सकता है । भगवानकी लीला भक्तजीवनमें छा जाती है ।
*जब आशिकपे आशिक वो सनम होता है ।
तब दोनों का रुतबा एकी रकम होता है । । *
इसी दृष्टिसे भगवान श्रीकृष्ण भक्त - उद्धवसे कहते हैं - *प्यारे ! सुनो ! जो सच्चा भक्त होता है वही भगवद्रूप होता है । यानी भक्तही मानो भगवान बन जाता है । मतलब यह कि शुद्ध प्रेमभक्तिसे प्रकृतिके परे जो शुद्ध ब्रह्मतत्त्व है उसकी प्राप्ति सुगमतासे होती है । *अर्थात् भगवत् प्राप्तिके लिए एक प्रेमभक्तिही सबसे सुलभ और निष्कंटक साधन है ।
अलग - अलग महात्माओंके कुछ अलग - अलग अनुभव होते हैं । जिससे उनके संप्रदाय अलग - अलग बन जाते हैं । परन्तु संप्रदाय बननेपर उस एक महात्माकाही अनुभव उसके सभी सांप्रदायिकोंके मत्थे मढ़ दिया जाता है , यह बात ठीक नही होती । इससे दूसरे व्यक्तिका विकास रुकभी सकता है । कट्टर सांप्रदायिकता मनुष्यको अंधाभी बना सकती है । इसलिए किसमें क्या तत्त्व है , इसे खोजते हए खुले दिलसे सोचकर अपने
अधिकारानुरूप मार्ग तय करनाही लाभदायी होता है । एक दृष्टान्त सनिये।
मित्रों ! संप्रदाय कैसे बन गये हैं , इसकी एक झलक मैं तूम्हें कि हैं । एक पुरुष नदीकिनारे सहजभावसे बैठा था । वह आँख चढाकर , उस कुछ तीव्र करके देखने लगा । देखते देखतेही उसे लाल - पीले आदि कई रंग दिखने लगे । वह सोचता था कि सभी इंद्रियोंके द्वार तो बंद है , बाहरका दृश्य तो । सामने हैही नही , फिर यह क्या दिख रहा है ? उसे इसका कुछ पता नहीं चला , लेकिन उसमें मन रम गया । वह बारबार वही अभ्यास करने लगा । कभी निचेकी तरफ दृष्टि लगायी तो कभी ऊपरकी तरफ नजर जमायी और । इसमेंभी उसे रंगोंके वलय दिखने लगे । इस अभ्याससे उसने अपना अनुभव । निश्चित और समृद्ध बनाया । निरीक्षण कर सोचते हुए इस अनुभवकी जड ( मूल ) वह खोज रहा था । . . . आखिर एक दिन उसके विचारने पलटा खाया और जान लिया कि मैंही इन रंगोंका मूल हूँ , दृष्टिका अधिष्ठान हूँ , अनुभव का साक्षी हूँ । फिर वह अपने आपमें मगन होगया । इसप्रकार * मुद्रा * का संप्रदाय प्रकट हुआ और *आत्मस्थिति * पानेका मार्ग तय होगया ।
देखिए , उस पुरुषको यम - नियम , जप - तप , ध्यान - धारणा , कर्म उपासना आदि किसी बातकाभी सहारा नही था । वह किसी पंथ संप्रदायकाभी नही था । मगर देखते - देखते . सोचते - सोचते . परी खोजबिन करते - करते सहजगतिसे निर्विकार वृत्ति होनेसे उसे ब्रह्मानंदकी लहरें मालूमना हईं । यह स्थिति कैसी और क्या है इसकी भी उसे खबर नही थी । जब । एकबार वह कहीं सत्संगमें गया तो पता चला कि ये रंग तो पंचतत्त्वक हैं , जिनमें जीवतत्त्व भरा हुआ है । बडी महत्त्वकी बात है यह । उसने प्रश्न पूछा कि - *महाराज ! मुझे यह क्योंकर दिखायी दिया ? * जबाब मिला कि,
* अनजानेही क्यों न हो , तेरी वृत्ति विकाररहित हुई - एकाग्र हुई और तूने आँखोंके अंदर रंग पाया । सोचते - सोचते रंगोंके साथ रंगियाकाभी पता पाया और विवेकसे तुझे स्वयंप्रकाश आत्माके भी दर्शन होगये । *
आत्मप्रतीतिके साथ गुरुप्रतीतिका मेल बैठा तो उसीमेंसे ग्रंथभी तैयार हुयें । ऐसे सहजानभवसे वह पुरुष विषयनिवत्त होकर प्रशान्त होगया । इसके लिए क्या उसने ग्रंथपठन या साधनोंकी खटपट की थी ? कभी तो नही । हाँ , यह कह सकते हैं कि उसमें कुछ पूर्वसंस्कार तो अवश्य कारण होंगे । फिरभी कुछ न करते हुएही निर्विकार हो जानेसे उसने अनमोल अनुभव पाया और फिर वही संप्रदाय स्थापित कर दिया । वास्तवमें वह स्वयंही अपना संप्रदाय था । अन्य लोगभी स्वयं अपना संप्रदाय बन सकते थे । ऐसेही अन्य पुरुषोंने प्राणायाम , अजपाजाप , कुंडलिनी उत्थान , नामजप इत्यादि तरह - तरहके मार्गोंद्वारा अनुभव प्राप्त करके विभिन्न पंथ स्थापित कर दिये हैं , इसमें शक नही ।
परन्तु ध्यान देनेकी बात यह है कि एक आदमीने जो किया उसीका अनुकरण करते रहना यह गलत बात है । किसीकेभी पिछे मत जाओ । अपने लिए जो उचित हो , वही मार्ग चुनलो या अपने लिए स्वयंही मार्ग निर्माण करो । किसी पंथमतका तो क्या , शास्त्रवेदकाभी कहना आँख मूंदकर मत सुनो । विवेकका सहारा मत छोडो । यथार्थ वस्तु परमात्मा सभी जगह मौजूद है और उसीका अनुभव तुम्हें जरूर पाना है , तो पहले असत् बातोंको छोडना होगा और प्रभुको सच्चेदिलसे रिझाना होगा - यह ख्याल मजबूत बना लो । नही तो मेरा - तुम्हारा प्रयास सब व्यर्थही चला जायेगा ।