-१२- तत्त्वनिष्ठ बनो , संप्रदायनिष्ठ नहीं !
( ता . ०२ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! कल मैंने कहा था कि , निसर्गतः स्वतंत्र मार्गसे जिस महापुरुषने परमात्मरूपका अनुभव साध लिया उसी सहज - मार्गको सही मार्ग समझकर उसका अनुसरण अथवा आचरण आगेके लोग करते चले गये और उसीको विशिष्ट पंथ या संप्रदायका नामाभिधान दिया गया इसीप्रकार अनेकों महापुरुषोंके अलग - अलग स्वाभाविक पंथ भिन्न - भिन्न संप्रदायोंका रूप धारण कर बैठें । ऐसा होनेमें कोई दोष है ऐसीभी बात नहीं परंतु आगे चलकर इसमें दोष पैदा हो सकते हैं । जैसे - हमाराही पंथसंप्रदाय सच्चा है और बाकी सब झूठे हैं ; तरेंगे तो हमही - बाकी सब डूब जायेंगे ऐसी दुरभिमान की धारणा सांप्रदायिकोंके दिलमें घुस जानेका संभव रहता हैं । अपना संप्रदायप्रवर्तक जैसी वेषभूषा करता था , जो माला जपता या गाँजा पीता था , उसीका अनुकरण सही - सही करनाही अपने संप्रदायकी विशेषता है , ऐसा भ्रम पंथवालों में दृढमूल हो जाता है ; बल्कि वे दूसरों का कुछ सुनना भी पाप समझते हैं । कितना बड़ा धोखा है यह !
एक बात यहभी सोचनेकी है कि किसी संप्रदायका मूल प्रवर्तव या ज्येष्ठ प्रचारक जिन बातोंका अधिकार रखता था , वे बातें उसके सांप्रदायिकोंमें , सभी अनुयायीयोंमें क्या सचमुचही रहा करती हैं ? यह तो असंभव बातें हैं भाई ! फिरभी उस संप्रदायकी बाहरी वेषभूषा या बहिरंग आचार - उच्चार - उपासनारीति आदि अपनानेसे उन सबको एकहीसा समझा जाता है , यह कहाँतक उचित है ? इन लोगोंकी अवस्थानुसारभी क्या भिन्न
भिन्न साधनमार्ग देनेकी आवश्यकता नहीं होती ? क्या उनका विकास एकही सांप्रदायिक चौखटमें बिठा देनेसे रुक नहीं सकता ? ऐसेही दोषोंके कारण आगे चलकर संप्रदायोंमेंसे मूलतत्त्व निकल जाते हैं और खाली निर्जीव ढाँचेकी पूजा चलती रहती है । आज हम इस दृष्टिसे देखें तो कईं पंथ संप्रदायोंमें उत्सव - महोत्सव , दान - दक्षणा , गांजा - मालपुआ , अभिमान और द्वेषभाव ऐसी बातोंकाही धूमधडाका नजर आता हैं । उन संप्रदायोंके खाली नाम चल रहे हैं और सच्चा तत्त्व या मर्म उनमेसे बह गया है ।
वास्तविक बात तो यह है कि जिस किसी मार्गसे या साधनसे अथवा किसीभी तरहसे सत्तत्त्वकी - ईश्वरकी प्राप्ति हो सके वही सच्चा संप्रदाय है , खाली भेख या बहिरंग आचारही संप्रदाय नही हो सकता । जिस मार्ग से ईश्वर मिलें वह संप्रदाय न होते हुए भी संप्रदाय है और जिस मार्गसे विकार बढे वह संप्रदाय होते हूएभी संप्रदाय नहीं है । ख्याल रखो ! जिन बातोंसे तूम्हारे जीवनमें सात्विकता बढती हो , तुम्हारे दिलमें सच्ची शान्ति या समाधानकी ज्योति चमकने लगती हो , जिनसे तुम अपनी वृत्तिको पवित्र , निश्चल और हरवक्त उन्नत बनाते जा सकते हो , उन्ही बातोंको सच्चा पंथ - संप्रदाय समझ लो । किसी पंथ - अखाडे का संकुचित अहंकार मत रखो । एकही पंथ - एकही गुरु और एकही मंत्र यह बंधनभी हटा दो । एकनिष्ठता जरूर रखो , लेकिन तात्त्विकतासे । एकनिष्ठा का अर्थ व्यक्तिनिष्ठा नहीं , तत्त्वनिष्ठा है । जो आदर्श तत्त्व दूसरी जगह नजर आता हो वहाँभी हमें नतमस्तक हो जाना चाहिए । सच्ची बात को परायी समझकर हटा देना और सांप्रदायिक अभिमान कायम रखना , यह एकनिष्ठता हरगीज नही हो सकती । जिससे सद्द्विवेक बुद्धिका गला घोटा जाता हो , वह कहाँकी एकनिष्ठा ? वह तो कोरा हठवाद है । इसलिए अपने गुरुमहाराजकी
जगह तुम जितना पूज्यभाव रखते हो उतनीही पूज्यदृष्टिसे हरएक अधिकार संत - महात्माको देखो । सभी पंथ - संप्रदाय केवल एकही ईश्वरप्राप्तिके लिए हैं , इसलिए सभीमें पवित्र भावना रखो । जो दूसरोंकी निंदा या द्वेष करता है वह खुदभी निंदाद्वेषका पात्र बन जाता है । तुम यदि अपना उद्धार चाहते हो तो किसीकी अवहेलना न करो ।
किसीभी संप्रदायके सदाचारी भक्त - संत - उपदेशक हों उन्हें अपने लिए गुरुही मान लो । उनकी निंदाबद्दी यह अपने गुरुकीही निंदा समझनी चाहिए ; क्योंकि गुरू कोई शरीर नही है । जहाँ जहाँ सद्गुण , सद्भक्ति , सत्कर्म और तत्त्वबोध या सत्यसमाधान हों , वहींपर गुरुत्व होता है ; उसीको वंदनीय समझो । सबसे वंदनीय एक परमात्मा है और वही सबका ध्येय है , तो निश्चयपूर्वक सद्भावसे उसीके चिंतनमें चित्तको रंगाओ । निश्चय करो , एक परब्रह्म परमेश्वरही अपना है , यह संसार अपना नही है । साक्षात् यह शरीर भी नाशमान है , न जाने कब छूट जाये । परमात्मा हरजगह मौजूद है और वह हमें हरवक्त देख रहा है । हम केवल उसके हैं और निरपेक्षतासे सेवा करनाही हमारा फर्ज है । इसी भावनासे सच्चाईके साथ उसकी प्रार्थना करो और रो - रोकर अपने दोषोंके लिए क्षमायाचना करो । ख्याल रहें , तुम्हारे
इस संभाषणको मित्रभी सुन न सकें , ऐसी गुप्ततासे साधन करो । गुप्त साधनही सुफल देता है । अगर तुम भजन का आडम्बर खडा करोगे तो वहाँ रजोगुण पैदा होगा । लोकेषणादि वृत्तियोंसे कियेहुए भजन - साधन व्यर्थ हो जायेंगे । इसलिए संभलकर सावधानीसे अपने सद्भावकी रक्षा करो । जोभी फल - फुल मिलें उसे अर्पण कर दो । नीति तथा विवेकपूर्वक व्यवहार करके वहभी उसे समर्पण कर दो । ऐसी प्रेमभक्तिसे वृत्ति निर्मल होगी और इस सहज - स्वाभाविक मार्गसेही तुम्हें प्रभुकी प्राप्तिभी होगी ।
सज्जनों ! यह मत भूलो कि पानीकी दशा स्वयंही पानीको आगे बढा देती है । उसके लिए किसी पंथ - अखाडेकी जरूरत नहीं होती । महत्त्व होता है भावका , भेखका नही । कीमत होती है उद्देश्यको , ऊपरी कार्यको नही । श्रेष्ठता होती है तत्त्वमें , किसी पंथमें नहीं ।
दृष्टान्त सुनो ! एक नदीके किनारे किसी पंथका एक साधु कुटिया बनाकर भगवानकी पूजाअर्चा और ध्यानधारणा किया करता था । नदीके दूसरे किनारेपर गाँव बसा हुआ था । उस गाँव में रहनेवाली एक वेश्या थी , जिसका मकान साधुकी कुटियाके सामनेही पडता था । वह साधु जब देखता था कि उस वेश्याके मकानमें कईं लोग आते - जाते और नाचगाना देखते सुनते हैं , तो उसके दिलमें उस औरतके बारेमें बडी घृणा पैदा होती थी । उसे लगता था कि कितना पाप करती है यह अभागन ! * द्वारं किमेक नरकस्य नारी * इस वचन के मुताबिक यह स्त्री न केवल नरकका द्वार है , बल्कि यही साक्षात् नर्करूप है ! और वह साधू थूक देता था ।
वह वेश्या उस साधुमहात्मा का दर्शन करनेकी बडी इच्छा रखती थी । वह भगवानसे प्रार्थना करती कि , * भगवन् ! मैं कितने गंदे जीवनमें फँसी हूँ ! मुझे इससे उबारले ! धन्य है वह महात्मा ! जो रात - दिन तेरा ध्यान भजन करता है ! मुझे तो नर्क - में भी जगह नही मिलेगी । अब मैं करूँ तो क्या ? " और पश्चात्तापसे रोती कलपती थी । . . . कईं साल बीत गये और उस गाँव में हैजा का प्रकोप हुआ । वह साधु और वह वेश्या दोनों एकही दिन मर गये ।
दोनों जीव भगवानके दरबार में पहुँचे तब भगवानने फैसला सुनाया कि इस महिला को स्वर्गधाम पहुँचा दो और इस साधुको नरकमें डाल
दो । साधु संतप्त हुआ । कहने लगा - *प्रभु ! यह तो सरासर अन्याय होगा । मैंने तो सारा जीवन तुम्हें अर्पण किया था और यह तो जीवनभर पापकर्म करती रही थी , फिर यह उलटा फलदान क्यों ? "ईश्वरने जवाब दिया " भाई ! तूने तिलकभस्म तो जरूरही मेरा लगाया था , परन्तु तेरा दिल उस वेश्या के दरवाजे पर पडे - हूए जूते गिनने में ही लगा रहता था । और यह बेसहारा औरत विवश होकर बुरा जीवन बिताती जरूर थी , मगर उसका दिल तो हमेशा मेरीही यादमें रोता - कलपता था । पश्चात्तापेन शुद्धयति पापम् इस वचनके अनुसार उसके पाप कट गयें । और तूने दुनिया छोडी लेकिन पापका चिंतन नहीं छोडा , इसलिए वे सब तेरे सिरपर बैठ गयें । हमारे दरबारमें तनसे अधिक मनके कर्म देखे जाते हैं , इसे मत भूल !
कहनेका तात्पर्य यह कि , ईश्वरप्राप्तिके मार्गमें संन्यासी होने या घरबारी रहनेका कोई फर्क नही देखा जाता । किसी भेख - पंथ आदिका भी सवाल नहीं उठता । वहाँ तो सच्चा प्रेमभावही महत्त्वपूर्ण माना जाता है , जिससे चित्त निर्मल , निश्चल और अंतर्मुख हो सकें ।