४७३

सन्तोष है दिलमें हमारे, बीज हमने बो दिये।
धीरे पनपते ही रहेंगे, ये नही विस्था गये ।।
कितने खिले है आज भी, ऋतु में विरोधी काल के।
मर्जी प्रभूकी जो रही, वह कार्य सब हम कर चुके ।।

               ४७४

भगवान ही सब कुछ कराता,हम कहाँके? खाक है।
मै-मै किया तो कुछ नही, ऐसेहि मरते लाख हैं।
भगवान के दिलसे चले, तब पंगुभी गिरिवर चढे ।
बन्दर भी लंका जीत ले, गूंगे भी वेदों को पढे ।।

                   ४७५

काफी गयी थोड़ी रही, अब तो न थोखा पायगा।
हंकार बिन जीया हूँ में, अब तो अहं नहि आयगा ।।
होगी बिमारी भी तभी, गम से हि मैं सह जाउँगा।
जब मौत भी कभु आयगी, हँसते प्रभू-गुण गाउँगा ।।

                  ४७६

मेरे लिए संसार नहि, सब सार है, प्रभु प्यार है।
जो जो दिखे परिवार है, घरबार है, दरबार है।।
राजी हूँ मैं हरबात में, सुख में रहूँ या दुःख में।
यह देह-मन का धर्म है,फिर क्यों करूँ रूखरूख में? ।।

               ४७७

निश्चिंत हूँ मैं आत्म में, यह जीव मेरा सब करे।
ज्ञानेंद्रियाँ कमेंद्रियाँ सेवक समझ सेवा करे।।
सब ज्ञानके सत्संग से पाती खुशी हर बात में।
मैं सच्चिदानंदरूप ही हूँ, खेल में हर मेल में ।।
                          -----------------


*ब्रह्मनिर्वाण के पथपर* 

 *आत्यंतिक अस्वस्थता में-* 
                ४७८

है पेट छोटा भी तभी, कितना अभीतक खा गया।
है पैर छोटे भी तभी, कितने हि कोसों चल दिया।।
यह आँख कितनी छोटि है,फिरभी दिखा अस्मान है।
हे यार! छोटी जान ने, कर दी जगत में तान है।।

                ४७९

है अन्त और आरम्भ की एकी छटा तो दिख रही।
तब दुःख क्या? आनंद क्या? दोनों बराबरही सही।।
जब बाल-यौवन वृद्ध रूप में बादलों के दल चले।
तब छल-बिछल होता है जीवन,ज्ञान यहिं होना भले।।

                 ४८०

काया पुरानी होगयी तोभी, न मन माने जरा।
खाने-पिने को दौडता, पचता नही तो भी पुरा।।
है कौन जादूगर, मुझे जिसने यहाँ बहका दिया? ।
हे सन्तसद्गुरु! शक्ति दो,जब गोद में तुमने लिया।।

                  ४८१

मन चाहता है यों करे, पर देह तो चलता नहीं।
जिभली भली चाबे मगर, यह पेट पचवाता नहीं।।
कुछ पेटने भी सह लिया, पर मल निकल पाता नहीं।
ऐसी गती होती है जब, आरोग्य बिगडेगा सही।।


४९२

अजि! क्यों किसीसे याचना करके दया को माँगना?। यह आतमा निर्भय हमारा *दिनदुःखी* बोलना ?।।
हक से रहो, हक ही कहो,हक ही सभी का ताज है।
झुठा करो नहि काम कुछ,तब तो बनो *महाराज* है।।

               ४९३

कितना किया है तप? अगर तुम मृत्यु बस में चाहते।
क्या सिर्फ भीष्माचार्य की पोथीहि पढना चाहते? ।।
वह योगी था, था देवव्रति, था ब्रह्मचर्यो से पुरा।
इच्छामरण करके मिला, बिरलादही है दूसरा ।।

                 ४९४

जिसने न मनपर काबु कर विजयी करा दी आतमा।
वह मृत्यु कैसे बस करे? गर पापही होगा जमा ।।
निर्भय अटल श्रद्धा जिन्होंने प्राप्त कर ली सन्त से।
वे मृत्यु से भी डर नही सकते है, खेले अन्त से।।

         *मृत्युंजय सामर्थ्य!*

                 ४९५

हँसते कोई हँसता हूँ मै, रोते तो रोने भी लगूँ।
जैसा मिले साथी मुझे, वैसाहि दिखने भी लगूँ ।।
मेरे न मन में दुःख है, ना सौख्य है, ना भोग है।
आनन्द ही मेरा खजाना, अन्त का संजोग है।।

                  ४९६

*मर जाउँगा मर जाउँ* कहते हो-रो-रोकर कहीं।
है कौन रहता यार! दुनिया में? मुझे दिखता नहीं ।।
तनु पाँच तत्त्वों में विलीन होती है अपने मूल में। आत्मा अमर है नित्य है! फिर क्यों रहे हो भूल में? ।।


४८२

है यह मुझे पूरा पता, मृत्यू जलाती देह को।
फिरभी न छूटता मोह यह, आगे बढाता स्नेह को।।
चिन्तन भी करता ही हूँ मैं, सब झंझटे ये दूर हो।
हे सद्गुरु! किरपा करो, जिससे कि बल भरपूर हो।।

               ४८३

मेरे चरण और हाथ,सिर,सब हृदय पर ही जम गये।
बनता नही इस देह से, पर ब्रीद साथी बन नये ।।
किसिका बुरा हमने किया ऐसा हमें लगता नही।
जितनी बनी प्रभु-याद में सारी उमर सेवा रही।।

                 ४८४

सुनकर सुना जाता नही, कहकर कहा जाता नहीं।
दिखता, मगर कुछ भी नही, यह हाल होता है सही।।
निवृत्त वृत्ती हो रही प्रवृत्ति के गुण-धर्म से।
आसक्ति सारी जा रही है बाह्य सारे कर्म से।।

                 ४८५

नहि पैर धर सकते जमींपर, आसरा ही चाहिए।
नहि हाथ ऊठे आप से, लिखकरहि कुछ बतालाइए।।
कुछ बोलना भी हो नही सकता. जबानी क्या कहें? ।
अब तो यही लगता प्रभू! सेवा को आयेंगे नये।।

                  ४८६

दिखता नही है पास का, अब दूरदृष्टी होगयी।
अपना गया घरकुल सभी, है धर्म ही और देश ही।।
उसका भला अपना भला, यह दिल में लगता है सदा।
भगी, सूख-दूख दोनों ले बिदा।।


४८७

यह ले लिया वह ले लिया,लेनाहि मरने तक करें।
छोडोगे कब जो ले लिया?क्यों बोझही लेकर मरे।।
अब यह छुटा फिर वह छुटा,सब ही छुटा बिनराम के।
केवल छुटा नहि हरिभजन,दे मुक्तिफल आराम के।।

 *तुम फूल हो उस बाग के* 

              ४८८

तुम फूल हो उस बाग के, जिस से सभी दुनिया भरी।
हर किस्म है इस बाग में, मुरझे कोई है तरतरी।।
किसी फूल की ऊँची सुगंधी फैलती अस्सान तक।
चाहता उसे ईश्वर सदा, गोदी में रखता जानतक।।

                  ४८९

खुद जो न कुछ है चाहता,उसको सभी कुछ चाहते।
जो चाहता धन-मान, उससे चोर लूट उगाहते।।
हम इसलिएही साधुओं से नम्र रहते है सदा।
वह तो हमारेही लिए दिन-रात भोगे आपदा ।।

                     ४९०

शुभ कामना सबके लिए करता वही निष्काम है।
व्यक्तित्व से निबटा उसीका ख्याल रखता राम है।।
अपने लिए सुख-भोग चाहे, वह बडा आसक्त है।
जो विश्व को सुख चाहता,वह ही प्रभुका भक्त है ।।

               ४९१

हँसते रहो सुख-दुःख में, संग्राम-संकट-काल में।
सब यह लिला है नाथ की,छायी हर्ड कलिकाल में।।
आसक्त मत होना कहीं,कहना सभी कछ ठीक है।
गर मौत भी आगे खडी, माँगो न उससे भीख है ।।


४९७

जीता यहॉपर कौन है? मृत-सा सभी जग भासत।
नीचे-उपर चारों दिशा, नहि जीत की उल्हासत।।
जीते यहाँ वहि बन गये, जो मौत को पहिचानते।
मरना नही जीना नही, इस ज्ञानको नित छानते।।

                 ४९८

मर जायेंगे तो क्या द्दूआ?मरना हि तन का हक्क है।
आत्मा नही मरती कभी,इस में न हम को शक्क है।।
इस लोक की यात्रा हमारी सफलता से हो गयी!।
इच्छा-अनिच्छा कुछ नही, गुरुदेव की मर्जी रही!।।

                ४९९

लाली चढी है लाल की, बुद्धी नही कंगाल की।
आशा न किसि जंजाल की,छायी नशा सत्ख्याल की।।
जीये-मरे पर्वा नही, आत्मा हमेशा मस्त है।
आनन्दघन गुरुदेव ही हृदयस्थ है! हृदयस्थ है।।

                  ५००

गुरुकी निगाही मोक्ष है, गुरुवाक्य ही है सम्पदा।
सेवा गुरुकी जो करे, पाता नही वह आपदा॥
सब संकटों पर मात करने की उसे शक्ती मिले।
गर मौत भी आवे तभी आनन्द ही फूले-फले॥

 *मोक्ष नही लीला-संवरण!* 

                ५०१

तुम क्या सुनाते यार! मेरे कान मैं है बन्सरी।
दिन रातही सुनता हूँ मैं, प्यारे कन्हैया ने धरी॥
ऐसी मधुर रंगदार लगती, होश मुझमें ना रहे।* सोहं * की वीणा बज रही,हर साँस में झनकार है।।


५०२

 मैंने रंगाया दिलको अपने बाहरी रंग फेक कर।
यी समाधी सहज ही, गुरुके चरण में झुक कर ।।
मूझको न लगता डर कहीं, मुक्ती मिले या ना मिले।
इस अमर आत्मा की चिरंतन ज्योत मस्ती में जले।।

                       ५०३

क्यों लोभ में मुझको फँसाते मुक्ति के और मोक्ष के? ।
दोनों भी है बेकार हमको, हम तो सेवा-पक्ष के ।।
भक्ती हमारा ब्रीद है, और देश-सेवा मोक्ष है।
चाहे जनम लाखों मिले, बिगडे नही यह लक्ष्य है ।।

                  ५०४

है लाख सालोंकी उमर, जब इस दिशा में मैं चला।
चाहे तनू बदले, मगर उद्देश्य से मैं ना ढला ॥
इस देहकी छोटी उमरसे ही मुझे सब ख्याल है।
करना न मुझको कुछ मेरा, मुझपर प्रभूहि निहाल है।।

            ५०५

अब लिख दिया मेरा जनम कैसा कहाँपर होयगा? ।
यह भी लिखा,इस जिन्दगी में कब कहाँ सुख पायगा? ॥
फिर तो हमारी आखरी भी तय हुई, कब मौत है? ।
*हम हम* करें पर कुछ नही, सब ही तुम्हारे हाथ है।।

               ५०६

लाखों दवाईयाँ भी दी, पर मौत थी हक की वहाँ।
जानाहि था सब छोड कर, फिर कौन पकड़ेगा यहाँ ।।
ऐसेहि सब प्रभु काम है, कंकर न खाली है कहाँ । पत्ता भी तो हिलता नही भगवान बिन, समझो यहाँ ।।


५०७

का भी मेरा बिगडे नही, यदि मौत हो या जन्म हो
हूँ मैं दरिद्री या धनी, पूरा रहूँ या न्यून हो।।
मन ही मेरा गम्भीर है, निश्चिन्त है सत् ज्ञान से।दूनिया हमारी है लिला, नाता सदा भगवान से।।

              ५०८

इस बन्ध से हम से नही नाता कभी तिहुँ काल में।
आये न हम संसार में, जकडे नही इस जाल में।।
यह प्रकृति का ही धर्म है, बन्धन तुम्हें जो भासता।।
मैं नित्य आत्माराम हूँ, नहि बन्ध से कुछ वासता॥
            
               ५०९

मेरे लिए नहि बन्ध है, नहि मोक्ष का भी है पता।
मुझसे न कोई भिन्न हे, है दृश्य-दर्शन लापता॥
मैं एकरस स्वानन्दघन,नही जीव - जग भी सर्वथा।मैं नित्य आत्माराम हूँ! नहि द्वैत जड-चेतन तथा॥

                    ५१०

है ज्ञान के आकाश में बादल जगत् का लापता।
स्वानंद के तारे विमल, है शान्ति की घनश्यामता॥
घनदाट सत्ता छा रही, है भ्रान्ति-रैना मिट गयी।
तुकड्या कहे सब द्वैत की जड झूठ माया कट गयो।।
                       ----------------


*_महासमाधि के पश्चात_* 

       शान्तिस्थान पंचवटी में-
                 ५११

जिस भूमि का हो सन्त जागा, भक्त भी वहिं जागते ।
सारा समाजहि जागता, जब प्रेम-दीपक जागते ।।
फिर सत्यता की क्या कमी? होगा सदाचारहि वहाँ ।
आनंदघन बरसे सदा, जहाँ सन्त से नाता रहा ।।

                ५१२

खल-कामियों की भी कभी बुद्धी न होती भ्रष्ट है।
ऐसे भी होते स्थान, हमने तो दिखाये स्पष्ट है ॥
जाते हि मन को मोड़ देते, नाम जपने के लिए।
बैराग होता, ज्ञान होता, स्थान ऐसे भी रहे ।।

                   ५१३

दनियाभरे का पापही उसने किया मैं मानता।
गर एक भी सज्जन कोई पीछे नही है छोडता ॥
जो सन्त होते सत्य, उनकी बागही लगती खुली।
इन्सान बनते है वहाँ, जो सत्यपर जाते बली ।।

               ५१४

मन्दीर तो बाँधा पडा, पर लोग ही आते नहीं ।
क्यों लोग आवे प्रार्थना? जब कुछ वहाँ पाते नही ।।
यों ही तमासा देखते, कुछ तो वहाँ समझाइए।
कीर्तन-भजन और भाषणों की ढेर ही लगवाइए ॥


५१५

शद्धाचरण और हरिभजन का मेल हो फल के लिये।
दोनों अगर होते अलग,तब है जगह छल के लिये।।
दोनों मिले तब ही समाधी का नशा यह छागया।
कण-कण वहाँ का नाम-जप से गुंज लग जायगा ।।

                  ५१६ 

अजि! सन्त की पूरी तपस्या सन्त के ही बार है।
जो भक्त उनके है सही, वहि कर सके आबाद है।।
जहाँ सन्त की होगी समाधी,धन्य वह ही स्थान है।
निर्मल बने वातावरण, जहाँ शान्ति को आव्हान है ।।

                    ५१७

सत् शिष्य की निष्ठा वहींपर, फूलती-फलती रहे,।
जहाँ सन्त की होगी समाधी, भक्ति ही चलती रहे।। हरिनाम-कीर्तन-ज्ञानकी ज्योती नही बुझ जायगी।
जबतक है निष्ठावन्त उनके शिष्य, शान्तिहि पायगी।।

 *_प्रेमियो! बुराइयोंसे बचो!_* 

              ५१८

भगवान! तू किसके कहे से मानता भी है कहीं?।
ऐसा नही देखा गया, ना सुन लिया हमने कहीं।।
फिरभी भगत रोकर सुनाते-“दे उसे हम फंद भी।
ऐसा नही चाहता था वह, हमने दिया है छंद भी" ।।

              ५१९

जो भी जहाँ भी दिल में आता, देखकर प्रत्यक्ष में।
आत्मा वही कहता मेरा,मैं लिख सकूँ कुछ साक्षमें ॥
चलती है तुझको देर भी, अंधेरे नहि भाता जरा।
इसके लिए कडुआ भी कहना ठीक है मित्रो! मेरा ॥


५२०

यह कौन कह सकता कि तुमने धर्म से क्या पा लिया।
कीसका भला जग में किया या तो किसीको ठग लिया? ॥
इस धर्म-परदे के पिछे कितने ऋषीमुनि हैं पडे।
और धर्म के ही नामपर कई डाकु - खूनी भी खडे।।

                ५२१

लिपटो न अपने मोह से, सावध रहो, हशियार हो।
भूल जाओगे गर कर्म, तो इस पार से उस पार हो।।
यह सोचना नहि कि, *हमी भगवान के दत्तक बने*।
बूरे करम से जो चले, बस खाक ही उनकी बने।।

                   ५२२

सच्चे रहो तुम रत्न हो, अनमोल गुण के पुत्र हो।
सब कुछ तुम्ही में है भरा, तप-तेज के भी छात्र हो।*।
नीचा करो नहि आत्म को, रखना नही दुर्भावना।
ऊँचा हि सोचो और बोलो, ऊँच की हो कल्पना।।

                ५२३

कइ बार तुम से कह दिया, न छुपो परस्पर तुम कहीं।
हर बात अपनी बोल दो, अच्छी-बुरी भी हो कोई।।
मिल के करो सल्लाह, हम को मार्ग ऐसा चाहिए।
धोखा न हो शत वर्ष भी, ऐसा हि साधन पाइए।।

             ५२४

संकल्प सब के एक हों, काया-वचन-मन से सदा।
तब देवता भी कर सकेंगे दौडकर ही साह्यता।।
तुम आपसी में फूट करके तट कहीं गिरवाओगे। तो याद रखाना ,बीच में शौतान भी भर पाओगे ।।


५२५

कोई सभा में भी हमारे दुष्ट नायक हों नही।
या आश्रमादि स्कूल में भी दुष्ट शिक्षक हों नही।।
किसि भी समय किसि दुष्ट का अधिकार हमपे ना चले।
हम सत्य के और सज्जनों के बल सदा फूले-फल।।

                    ५२६

बूरे विचारों से सदा हम दूरही रहते रहे।
बूरे न बोले शब्द भी, बूरा नही करते रहे ।।
बूरा न हो स्वामी हमारा, हम न उसकी हों प्रजा।
हम सत्य है बलवीर है, सत् पर हमारी है ध्वजा।।

                ५२७

हे नर! नराधम से कभी तू मिल न जा और डर नही।
ऊँचाहि रह चारित्र्य से, किसिका बुरा तू कर नही॥
संकट पडे, तुफान हो, लडताहि जा अन्यायि से।
तब कीर्तिध्वज तेरा उठेगा ऊँचा सब अनुयायि से।।

                ५२८

चलते रहो चाहे अकेले, फिरभी पर्वा ना करो।
अपना हृदय ही साक्ष दे, वहि है कृपा दिल में धरो॥
संकट भलेही मार्ग रोके, दिलमें घबडाना नहीं।
संघर्षमय जीवन सदा ही यश कमाता है सही।।

               ५२९

अन्धेर है चारों तरफ, पर एक घर जलता दिया।
भगवान सबका साक्षि है, अच्छा किया बूरा किया।।
सबको बराबर देखकर वह न्याय देता है सही।
देरी हुई तो हर्ज क्या? पर भूल तो जाता  नहीं।।


*_आत्मविकास करो!_* 

            ५३०

मेरे भरोसे मत रहो, मैं खुद नही अपना रहा।
गुरूदेव मेरा इष्ट है, यह बोलता हूँ जहाँ-तहाँ ।।
अपने हि साधन से बढो, तुम प्राप्त करने इष्ट को।
उपदेश-सम्बल साथ लो, टालो सभी संकष्ट को ।।

             ५३१

जो कार्य अपना आपबल पर कर नही सकता खडा।
तब जानिये के उसके आगे है बडा धोखा पडा ।।
इन्सान वहि सुख पायगा, जो ना पर-स्वाधीन है।
अपनी लगन से कार्य करता, निश्चयी औ लीन है।।

                ५३२

जबतक महात्मा का हि कोई अनुकरण कर जायगा।
तबतक महात्मा नहि बनेगा, चाहे वह मर जायगा ।।
हम तो महात्मा के कहेपर ही चलेंगे अन्ततक।
आज्ञा उन्हींकी सरपे लेकर धन्य होंगे सन्ततक।।
     
                 ५३३

सत्संग करना तो बजारों में भी होता है खडा।
पर सद्वचन उनके निभाना पर्वतों से है बडा।।
जो अंतरँग में ज्ञान को फुलवायगा फलवायगा।
वहि धन्य होगा शिष्य उनका, नाम जगमें छायगा।।

                 ५३४

किस के बनाये मत बनो, जो कुछ बनो खुदही बनो।
इस अन्तरात्मा की झलक ऊँची उठाकर ही बनो।।
किसका सिखाया बोलना, प्रगती न खुदकी है सही।
उद्धार कैसा होयगा? जब आत्मको जाना नही ।।


५३५

अजि! दूसरों के बोझ लेकर तुम नही तर जाओगे।
अनुभव जहाँतक खुद न लोगे,अन्त में पछताओगे ।।
यदि सन्त हो तो क्या हुआ और पंथ हो तो क्या हुआ।
जबतक न आत्मा ऊँच होगी,कोई ना देगा दुआ ।।

              ५३६
 
सुन्दर बदन, ताजा है यौवन, सुन्दरी सुकुमार ।
धन भी लबालब है भरा, फुलबाग भी ढबदार है।।
बलभीम जैसे पुत्र है, और हाथ सत्ता-डोर है।
सब है,मगर प्रभुकी कृपा बिन स्वप्न क्षणभंगुर है।।

            ५३७

सिर कीर्ति का भी छत्र है, देशी-विदेशी मित्र है।
व्याख्यान-वक्ता योग्य,परिचय कार्य भी सर्वत्र है।।
पदवी, महन्ती, धन अतुल, सत्ता भी झुकती पैरपर नहि आत्मसुख-परमात्मसुख,तोशान्ति नहि पावेकिधर।।
          
               ५३८

प्रवृत्ति ऐसी बढाइए निवृत्ति को जो मान्य हो।
प्रवृत्ति नहि तो बन्द हो और मुक्तिही सन्मान्य हो।।
प्रवत्ति का रुकना असम्भव है बिना अभ्यास के।
प्रवृत्ति सत् बढवाइए, निवृत्ति तब तो पा सके।।

                ५३९

नेता हि सब बन जायेंगे, तब काम करने कौन है?।
सब साधुही बनने लगे, तब कौन सेवकभी रहें? ॥
हमको तो श्रम करता औ कहता वहहि नेता चाहिए।
घर-घर  घुमे, जनता जगावे, सोहि साधु बताइए।।


५४०

 नही भेखसे कुछ काम है, नहि भेख से कछ द्रोह भी।
अलमस्त तू निर्द्वद है, चल छोड भ्रम संमोह भी।।
ले आत्मका ही भेख तू, अरु आत्मका ही पंथ रे!।
तुकड्या कहे हुशियार हो, तू एकमेव अनन्त रे! ।।

 *_आशावाद और आशीर्वाद_* 

                    ५४१

तारीफ तो काफी सुनी, अच्छी-बुरी बातें कई।
इसमें मेरा दिल अब कहीं भी मानता बिलकुल नही ।।
मैं चाहता हूँ, सन्त के कुछ कार्य आगे बढ सके।
इससे खुशी होगी मुझे, यह धर्म ऊँचा चढ सके ।।

                ५४२

*अब होयगा, फिर होयगा* यह कौन सुनता है भला? ।
जो होयगा अब ही करो, करने की गर होगी कला ॥
मुरदा बनोगे आलसी होकर यहाँ, तब तुम नही ।
करके दिखावेगा कोई, बस जिंदगी उसकी रही।।

             ५४३

सब कुछ बनेगा जो कहो, पर साच ही गर कह सको।
अंदर में कुछ बाहर में कुछ,ऐसा अगर ना रह सको ।।
आवाज अपनी ही बुलन्द हो, साथ बल हो आत्मका।
तब क्या न होगा भाइयो! यदि हो भरोसा स्वात्मका ।।

                 ५४४

आये हो इतनी दूर, तब जाना नही वापस अभी।
पाये हो सत्संगत यहाँ, तब छोड दो कुमती सभी।।
बिन भाग्य के कोई यहाँतक पहुँचते तो है नही।
गुरु-ज्ञान की मंजील सम नहि भाग्य है दूजा कोई ।।


५४५ 

सबसे प्रथम तो वृत्ति का संकल्प हो दृढ भाव से।
पीछे चले हम कार्य करने, बैठकर जन-नाव से।।
जय जय* पुकारे दश दिशा, मंगल बने पानी - हवा ।आवाज गुंजेगी   सदा- *हो वाहवा! हो वाहवा!*।।

              ५४६

रँग लग गया जब है तुम्हे,तब तो न भँग कर इसे।
संग आगये हो सन्त के, जैसे पतंग हो दीप से।।
अब तो डुबो गुरु-ज्ञान में, माया-नदी को पार कर ।
तुकड्या कहे निर्धास्त हो, नैया न रुकती मार्गपर,।।
                        ---------------

 *_भारत की दुर्दशा का भीषण हृद्रोग_*
 
            *_सत्ता का हैदोस_* 

                  ५४७

बिरलाद ही देखा है घर, जो घर कहाने योग्य है।
बिरलाद ही देखा है मन्दर, सर झुकाने योग्य है।।
बिरलाद ही देखा है मेला, मेल मेरा बन सके।
सर्वांग उन्नत हो जहाँ, वहाँही मेरा सर झुक सके।।

                ५४८

हैदोस है इस जिंदगी का, बाजिगर ने कर दिया।
शैतान सत्ता में चढा, मदिरा का हण्डा भर दिया।।
व्यभिचार की बन्सी बजी, सब लोग उसमें नाचते।
सद् धर्मी  तो बन्दर बने, मन के हि मन वे खाँसते।।


५४९

से धर्म-गुंडे, राज-गुंडे, लोग-गुंडे बढ़ गये।
घसखोर गुंडे, चोर-गुंडे, साव-गुंडे चढ़ गये।।
बेपार-गुंडे, प्यार-गुंडे, बात-गुंडे अड गये।
सब जगह गुंडागर्दी से ये राज ठंडे पड गये।।

                  ५५०

गैया कटे, मदिरा बढे, सीनेनटों का जोर हो।
व्यभिचार भी खूला चले,घर-घर भले घुसखोर हो।।
गुण्डा हि मर्द कहा गया, साधू पे पत्थर-गालियाँ।
वाह रे तुम्हारा राज! फिर,रावणको भी लजवा दिया ।।

               ५५१

गैया उधर खाने लगो और नाज सडवाने लगो।
इस देश को रेहन रखो, कीमत भी बढवाने लगो।।
ये वीर लडते मर गये, तुम दान देते देश को।
वाहवा तुम्हारा राज है! मौका मिला हैदोस को।।

              ५५२

चिल्लायगा उसका भला, शान्ती रखे वह मर गया।
कुछ संगठन हो तर गया, यदि हो अकेला हर गया ।।
धनवान को उल्ल बनाकर कुछ घडी दे मान है।
जबतक न गुंडा हो कोई, बचती नही अब जान है।।

            ५५३

अजि! सरल सात्विक व्यक्ति को जीना यहाँ मुश्कील है।।
सब स्वारथी,सत्तार्थलोलुप,यहि चली चिलबील है।
अपना भला हो इसलिए चाहे भी हो डरते नही।
सब से बडे होंगे  तभी, शुभ ख्याल ही करते नही।।


५५४

बीती बितायी है हमींपर, *हाँ *कहे पर ना करे।
विश्वास दे करके गला काटे, सदा धमका करे।।
शासक भी उनका साथ देकर ही भरेगा जेब है।
भगवान! तेरे बिन यहाँ सत् काम सब गायब रहे।।

              ५५५

बस हद्द है इस कलह की,नहि सभ्यता बाकी रहे।
सत्ताधिकारी देश के लडते है कुर्सी के लिए।।
धन को गमाकर मान पाने *वोट* खुद को माँगते।
क्या देश का होगा भला? सज्जन नही यह जानते।।

                ५५६

अपनी ही माला बाँटकर स्वागत कराते लोग में।
कितनी खुशी है *वोट* की, इतने फँसे है भोग में।।
सेवा जरा बनती नही, पर मान पूरा चाहते।
ये क्या करेंगे लोकशासन? खुद मरे जन मारते।।

               ५५७

सबको लगी है चोट अब हम*चऊ हो,अधिकारी हो*।
उसके लिए सब कुछ करें,फिर झूठ हो या चोरी हो।।
यह गरीब माराही गया, सुनता न कोई बात है।
नेतागिरी के फंद में सब ही बने एकजात है।।

           *जनता! तू कहाँ ?* 

              ५५८

वाहवा! तमासा खूब है, जो-वह *सभी बिगडा* रहे।
खुदको सभी है छोडते, और पाप दसरों पे बहे ।।
तुम तो कहो कितने हो अच्छे?क्या तुम्हें दिखता नही? ।
कुछ कर दिखाओ बाद बोलो,लोग तब समझे सही।।


५५९

इस देश के कई आदमी पीकर नशा गाली बके।
है वीर ऐसे भी यहाँ, प्रतिकार करना ना सिखे ॥
ये वीर नहि नादान है, जिनकी जबाँ फुटती नही।
बहु बेटी पर हमला करे, पर आँख भी उठती नही ।।

               ५६०

भाई! सभी पढते -पढाते यह समय आया दिखा।
संस्कार बिगडे बाल-बच्चों के सहित पाया दिखा।।
अजि! जो पढाना था सही, सब छोड़कर पढवा दिया।
बस पेट-खातिर जिंदगी को मौतसे लडवा दिया ।।

                 ५६१

ये छात्र भटकाये गये, यह आज ही दिखता तुम्हें ।
मैं तो जनम से देखता, यहि समझ मिलती है उन्हें ।।
सब से बडे दोषी हो तुम, उनका न तुमको ख्याल था।
शिक्षा न उनको धर्म की दी, तो दुजा क्या हाल था?।।

                  ५६२

झगडा-तमासा देखने को भागता दिल शौक से ।
कोई मिटाते है नही, बल्के बढाते खौंफसे ॥
ऐसी चली दुनिया बढी, शैतानी घर में आगयी।
ईश्वर-भजन या प्रार्थना सब भूलती ही जा रही ॥

               ५६३

दुर्भाग्य है इस देश का, उलटा हि सब कुछ हो रहा ।
नहि मेल अपने आप में, शत्रू इसे बहका रहा ।।
प्रादेश बनवाये कि अपने आप की हो उन्नति ।
पर अब नजर आने लगा, बेछट है उनकी मति।।


५६४

प्रान्तीयता, भाषीयता, जातीयता की हद हुई।
टुकडे गिराये भूमि में और आदमीयों में कई।।
इन्सानही इन्सान का बैरी हुआँ बिन काम का।
तुम हो अलग हम है अलग,सम्बन्ध तोडा प्रेम का।।

                 ५६५

हो एक व्यक्ती तो भली, कहीं दो हुए शंका चली।
जब साथ चारों की मिली,कुछ भी नही फूली-फली।।
ऐसा हमारा देश है, इस में बडा ही रोग है।
परदेश में ऐसा नही, उनका बडा संजोग है।।

               ५६६

करना कराना दूर है, पर बात ही जमती नही।
हर खोपडी लडती है, बुद्धी एक हो थमती नही ।।
जैसे जमा पानी मगर वह खेती में जाता नहीं।
चारों तरफ है फूटता, कुछ काम में आता नहीं।।

                ५६७

जो लाच लेगा घूस लेगा भाग उसके जग गये।
पकडा गया तो क्या हआ? इज्जत तो बेचेही गये।।
लाखों कमाओ जेल जाओ, एक या दो बार भी।
दिलपर असर कुछ भी नही,अजि! फाँसी तो मिलती नहीं।।

                ५६८

इज्जत बगल में मारकर हम है खडे बाजार में।
चाँवल में कंकर डालते, पानी मिलाते दूध में।।
हर चीज में करके मिलावट, बेचते कुछ बाँटते।
ऐसा दुकाने खास मरने को ही मानो थाटते।।


५६९

खाना नही अच्छा रहा, सब में मिलावट है मिली।
कइ रोग उससे बढ़ रहे, यह साक्ष लाखों की चली ।। ये ग्रामवाले 
 भी नही अपना. घरेलूपन सधे। सब भागते है शहर में, वह माल चाहे भ्रष्ट दें।।

              ५७०

वाहरे! शहर क्या कर रहे? लयलूट है सब झूठ की।
है *चोरपर भी मोर* पाते छूट अपने गुट्ट की।।
घर-घर किसानों के यहाँ से माल लूटा जा रहा।
दाना नही उसके यहाँ वह *हाय तोबा!* रो रहा ।।

               ५७१

संसार से तंग हो गयी, जनता बडी दुःखी हुई।
हर घर मची बेबूधशाही, शान्ति तो दिखती नही।।
इस की कमी उसकी कमी,सब कुछ कमी ही पड़ गया।
जब पेट ही भरता नही, माँ-बाप-बेटा लड गया।।

               ५७२

भर पेट नहि खाना मिले, घर भी नही रहने मिले।
कपडा नही है बदन पे, अवसर नही कुछ सीख लें।।
बच्चेहि पैदा हो रहे, संयम नही ना अक्ल है।
कैसे जियेगा देश भारत? सब गमाया तोल है।।

 *_काल - प्रवाह का उत्तरदायी कौन_* ?
                   ५७३

इस पेट के खातीर ही सब धर्म छोडे जा रहे।
जो प्रेम करता पास लेता, उसहि को *अपना* कहे।।
इस काम में लाखों ईसाई धन औ म देने लगे।
पर हिन्दओ के साधु तो दिखते नही आगे जगे।।


५७४

परमार्थ का कर नाम, सारे स्वार्थ अपना कर रहे।
वैकुंठ, मुक्ती के भरोसे जेब अपनी भर रहे।।
कहते नही बनता कि *सब अच्छे रहो सच्चे रहो*।
कैसे भी हों पर दान दो, मरके रहो बच के रहो।।

                ५७५

मरने का डर मुझको नही, पर दीन-दुःखी क्यों मरे?।
ये लडनेवाले चाहे लडलें, बीच क्यों नाहक फिरे? ।।
साहित्य-लेखक शब्द के भोगों में उडते हो यदि।
जनता बिना सत् संग के पावे नही जग में सु-धी।।

               ५७६

है धूम जैसी साधु की वैसीहि तो नेता की है।
अखबार भी तो खूब है, अच्छे-बुरे ज्ञाता की है।।
साहित्यकारों की मजल ऐसे ठिकानों पे लगी।
इन्सानही हैवान हो, फिरभी नही आँखे जगी।।

                    ५७७

यह देश जलता जा रहा, संग्राम आगे आ रहा।
सौजन्य मिट्टी में मिला, घुसखोरही मस्ता रहा ।।
ऐसे जमाने में भी सीने-नाच की कमती नहीं।
भरमार दिन पे दिन चले, क्या काल की महिमा नही? ।।

              ५७८

मैं स्पष्ट हूँ इसही लिए, सब नष्ट होते देखता।
मानव-जीवन भी दिन दुना यह भ्रष्टसा है भासता ॥
किसिपे किसी का बोझ नहि,आजाद ही सब है गडी।
धर्मादि बन्धन है नही, किसको सुधारों की पडी? ॥


५७९

मँझधार बहती जोर से, वैसा समय है पाप का।
रोका न जाता वेग यह, अग्नी जले सन्ताप का ।।
शान्ती कहाँ से आयगी इंद्रीय-लोलुप के लिए? ।
हो धर्म की ही बाग, तब तो लोग ये सारे जिये ।।

                ५८०

कभी धर्म की वृद्धी रहे, कभी भोग-सत्ता की बढे ।
दोनों भी हों एकी जगह, तब देश उन्नति पे चढे ।।
अब तो धरम की बाह ही, लकवा हआ ढीली पडी ।
यह धुंद सत्ता की चढी, है काल की ऐसी घडी ।।

                 ५८१

बेछुट आया है जमाना, शासकों का पाप है।
ये तो भले मर जायेंगे, दुनिया को तो सन्ताप है ।।
लोहा अगर तप जाय तो जल्दी न ठंडा होयगा ।
वैसीहि दनिया बिगड जाये तो पता लग जायगा ।।

                  ५८२

शासक बिचारा क्या करे? वह समय का हि गुलाम है।
जितना बना उसने किया, फिर भी वही बदनाम है ।।
भूकम्प यह औ काल पडना हाथ जिसके होयगा।
उससे हि कहते क्यों नही? जो काल यह बनवायगा ।।

                 ५८३

मालूम होता है उन्हीको, जो चलाते राज को।
तुम भी यही कर जाओगे, जब हाथ लोगे बाग को ।।
दुनियाहि ऐसी बन रही है, क्या करेगा आदमी? ।
मालुम नही किसने बिगाडी मुल्क की एकादमी? ।।


५८४

लाखों गुरु और सन्त है, जाओ उधर दिखते सदा।
फिरभी तो भारत की दिनोदिन बढ रही है आपदा।।
कारण है इसका एक ही, सब सन्त मंन्दिर में अड़े।
जाते नही घर-घर कोई,तब धर्म किस कारण बढे ? ।।

              ५८५

ऐ साधुओं! तुम स्वस्थ हो,इसका हि यह परिणाम है ।
बन्दर बनी सारी प्रजा, खाना-पिना यहि काम है।।
अच्छे भी सज्जन है कोई, वे भी घरों में छिप गये।
किसके भरोसे जी सकेंगे धर्म औ सत्कर्म ये?।।

       *शान उतरेगी क्रान्ति से।* 

              ५८६

कितना भी संशोधन करो, पर जानने को कौन है?।
कितना भी कानून पास हो, पर मानने को कौन है?॥
अब धर्म-मन्दिर तुच्छ है, सीने क्लबों की शान है।
जब बाढ यह जावे निकल, तब सत्यता का मान है।।

                 ५८७

हे यार! जब जाता शहर, तब डर यही होता मुझे।
*कहि मैं नही इनके सरीखा हो चलूँ लगता मुझे॥
जो शान इनकी बढ रही, वह आज-कल मुड जायगी।
जब जिंदगी सादी-सरल होगी, ठिकाने आयगी।।

             ५८८

गप्पे हि खाली मारकर नेतागिरी करते रहो।
चूसो गरीबों का हि धन, इस पेट को भरते रहो।।
कुछ ना करो और ना कराओ जब यहाँ निर्माण है।
तब याद रखना, अब उतारी जायगी सब शान है ।।


५८९

चिंतित हूँ मैं इस बात पर, आगे जमाने के लिए।
 अच्छा - बुरा  नहि सोचते, ये सोचते गट के लिए ।। *मेरा
गधा भी ठीक है, घोडा भी किसका ना चले*।
यह तो जमाना जायगा, यह सोचते नहि ये भले ।।

                  ५९०

किस किस को *बंद* करते हो तुम?है कौन तुम जैसा बसा? ।
तमभी तो शायद वह हि हो,तुम को भी है अपना नशा ।।
हाँ एक बात जरूर है, लाठी तुम्हारी हो बडी।
तब तो तुम्हारे नाम की महिमा रहे कुछ दिन खडी ।।

                 ५९१

हम भी वही तुम भी वही, सब ही नकल चलने लगी।
फिर तो तमासा ही चले, जब असलियत हिलने लगी।।
फिर एक ही रह जायगा,जिस का ही बल सब से बड़ा ।
वह चाहे जो भी कर सके, जबतक न फूटेगा घडा ।।

                 ५९२

कितने हि ऐसे लोग है जो पाप करके बच गये।
उनको बडप्पन है मिला जो दुष्टता ही रच गये ।।
कारण है इसका, भोग उनका और भी बाकी रहा।
जब पाप का हण्डा भरे, कोई न छोडेगा कहाँ ।।

               ५९३

जो देश को बरबाद करनाभी समझते धर्म है।
*पर हम न सत्ता छोडते*l ऐसा हि जिसका वर्म है।।
उनको अगर जनता हि सीधा कर सके तो कर भले।
अवघड बना यह कार्य,बिन भगवान के ना बस चले ॥


५९४

जनता भी अपने बल नही ऊँचा करें आवाज को। डरती सदा वह जान को, कुलकी प्रतिष्ठा-मान को।।ऐसे समय भगवानही इस देश का वाली बने ।नही दूसरा साधन कोई क्रान्तीबिना अब सामने।।

                 ५९५

हाँ-हाँ नतीजा हमसे पूछो, क्या यहाँ हो जायगा?।
आपस में कट मरनाहि है, कोई नही सुन पायगा ।।
मजदूर-गरिबों का बुरा है हाल जब देहात में।
बिगडे हुए उनके हि दिल क्रांती करेंगे बाद में ।।

                ५९६

उलटा रवैया हो गया अब देश का औ ग्राम का।
सत्ता-बला पीछे लगी, डंका बजाते नाम का ॥
सहकार तो कुछ है नही, सरकार बनना चाहते।
सुधरे अभी तो ठीक है, नहि तो गुलामी है मथे।।

                 ५९७

क्या राज ऐसा ही चलेगा भीखपर परदेश के? ।
क्यों छात्र नहि होवेंग तँग अभिमानी जो इस देश के? ।।
ऐ राज्यकर्ताओ! तुम्हारी नीति को सुधरो अभी।
नहि तो बडी क्रान्ती हि होगी,क्या सधरोगे तभी? ।।


*भारत के लिए अन्तिम तारकमन्त्र* 

   कर्तव्यनिष्ठा और श्रमप्रतिष्ठा

५९८

आता तो मन में खूब है, कुछ 
बोल , दिल खोल दूँ।
पर क्या करे? सत्ता बिना होगा नही जो भी कहूँ ।।
ऐसे अनेकों रत्न है, दिल में हि रोते काम को।।पर वक्त उनका है नही, बस याद करते राम को।।

           ५९९

ईश्वर ने भी माया रची, जीवों को जीव हि भोगता।
पशु-पक्षि में, सबही जगह, बल्के किड़ों में यह प्रथा ।।
मानव तो शक्तीमान है, सब बुद्धि उसके पास है।
फिर क्यों वही छोटा बने? जो विश्व कर ले दास है।।

              ६००

अग्नी लगी घरमें तो क्या रोनेहि से बुझ जायगी? ।
कुछ तो करोगे या नही? वर्षा उपर से आयगी? ।।
दौडो, पुकारो लोग को, सारे मिलो तब घर बचे।
वैसेहि जलते देश को, जागो, करो जैसा जँचे ।।

                    ६०१

लाखों जदी बीमारियाँ, एकी दवा कैसे चले? ।
वैसी प्रकृतियाँ भिन्न है, एकी रहा कैसी मिले? ।।
तब जो जिसे सधता वही करना भलाई के लिए।
पर लक्ष्य एकहि हो जगत में, हम भले बनकर जिये ।।


६०२

इस देश को खींचो उपर, पहिले तो बुद्धी डाल दो।
जो हो चुनिंदे आदमी, उनको समझ का ख्याल दो ।।
फिर काम करने दो उन्हें,घर-घर में ज्योती दो जगा ।
भारत न हो अब आलसी, कर्तव्य-तत्पर हो निगा।।

                     ६०३

लाखों करोडों हाथ से क्या हो नहीं सकता यहाँ।
पर ठीक नीयत की जरूरत होती है सबकी वाया।।
मुँह मोडकर गर आदमी आलस्यही करता रहे।
तब कौन पाले औ सम्हाले? चाहे वह मरता रहे।।

                      ६०४

सब ज्ञान हममें है भरा, पर काममें आलस्य है।
छोटे-बड़ों में, हर जगह, देखा यही सब दृश्य है।।
उपभोग सारे चाहते, पर कष्ट बिरला ही करे।
ऐसी हि आदत रह गयी, तब देश पूरा ही मरे।।

                  ६०५

हो देश में भूखा न कोई, प्रथम यह ही ख्याल दो।
चाहे उसे तुम काम दो, बेकार कोई न डाल दो।।
हैं दूसरी बाते यही-शिक्षा मिले, कपडा मिले।
हो जिन्दगी अच्छी, तभी यह राज फिर फूले-फले।।

               ६०६

गर कष्टवालों को न रोटी देयगी सरकार यह।कैसी जगेगी देश की खेती? बढा भूभार यह॥लेना किसी से है तो देना ही पडेगा पेट को।मरजाये गर मजदूर तो क्या चाटना इस ऐंठ को?॥


६०७

पर्याप्त है भूमी, नदी-तालाब से भी काम लो।
 गैया न मारो, बैल पालो, दूध खाद औ चाम लो ।।
बिन कष्ट के खाना नही ऐ भारतीयों! सीख लो।
यदि जान जावे तो सही, परदेश से ना भीख लो ।।

                 ६०८

रे ! प्रेम से ही काम लो *इज्जत करो मजदूर की।
वे भी तो अपने भाई है, सोचो जरा तो दूर की।।
भारत हमारा एक है हम है सभी भी भारती।
दिल से रहो मिलकर, करो मालिक औ नौकर आरती ।।

 *सुसंस्कार और सदाचार* 

                ६०९

कितना बढा जाता है भारत? सालमें हि करोड से।
इतनी नही है भूमि इसकी, गर मिलावे जोड से ।।
इसके लिए ही कह रहा हूँ, रोकिए सन्तान को।
बस एक-दो ही पुत्र हों, कुलदीप सुख दें जान को ।।

               ६१०

इन बालकों का प्यार करना पक्षि-पशु जानते ।
पर बालकों को ले सुधरना, सब नही करते फते ।।
इसके लिए ही गुरुजनों का, चालकों का मेल हो।
संस्कारी बालक बन सके, ऐसा हि सबका खेल हो ।।

               ६११

जो खुद नही अपने उपर शासन चलाता नेम का।
वह हो नही सकता है आजादी के कोई काम का।।
आजादी का मतलब नही जो मनमें आवे सो करें।
चोरी करें और घर भरे, व्यभिचार करके जा मरें।।


६१२

सुन्दर कला शिल्पादी याद देते है सदा।
खोये हए भी आदमी का फर्ज करत ह अदा।।
ऐसी भी बाते चाहिए इतिहास रखने के लिए।
जिनको निरख नृतन ये बालक वीर बनकर ही रहे।।

             ६१३

पर एक भूल है छात्र की, वे तोल अपना छोडते।
राष्ट्रीय अपना माल भी सारे हि मिलकर तोडते।।
नुकसान होता है उन्हींका, ख्याल उनको है नहीं।
लडना मुझे है मान्य, पर नुकसान ना होवे कहीं।।

                  ६१४

नारी रहे या हो पुरुष, बल-बुद्धि में नहि भेद है।
जैसा दिया अभ्यास वैसा कार्य होगा सिद्ध है।।
बल्के पुरुष से शक्ति ही आगे बढ़ेगी काम में।
संगत औ शिक्षण ना मिले, दोनों भी है बदनाम में।।

                  ६१५

जो आजके है छात्र वेही देशके आधार है।
उनको बताओ आजतक का क्या रहा व्यापार है।।
परदेशियों को साथ लेकर घर सभी बतलाओगे।
तब क्या तुम्हारी शक्ति है जो देश-धर्म बचाओगे? ।।

                ६१६

छात्रो! जरा तो सोचलो, परदेश के मत दास हों।
जो कुछ करो*भारत हमारा* मानकर, उन्नत रहो।।
सब विश्व के भी *वाद* का भारत हि मूलाधार है।
पढ लो जरा अध्यात्म तो होंगे नही बेजार है।।


६१७

इन सब विदेशीयों को अपनी काबू में लाना चहो ।
अध्यात्म का बल भारतीयों को बढाने को कहो ।।
चारित्र्य-नीति-सुधर्म ही इनको बँधावे बन्ध से।
पर भारती चंचल हुआ, लगता न सच्चे छंद से ।।

              ६१८

प्रिय भावुको! श्रद्धा तुम्हारी काम लगनी चाहिए।
यह देश ऊँचा हो, यहाँ इन्सानी बढ़नी चाहिए ।।
घुसखोरी काली कारवाही नष्ट हो, यह स्पष्ट हो।
तबही सफलता पायगी, मिट जायँगे सब कष्ट हो ।।

              ६१९

गर है स्वदेश सुधारना तो साधुओं से ही करो।
मंत्री-महामंत्री सभी आदर्श जीवन आचरो ।।
सबही ढकेले *लोग* पर, खुदपर न कोई ध्यान दे।
तब देश सुधरेगा नही, चाहे कोई व्याख्यान दे ।।

                   ६२०

लिखते रहो पढते रहो, फिरभी न होता काम है।
जबतक न वैसा आचरो, सब ही बने बेकाम है ।।
लिखना औ पढना तो सही, पर हद्द इस की चाहिए।
ऐसा न हो सब देश डूबे, आप लिखते जाइए।।

 *जाति-धर्म-पक्षातीत राष्ट्रीयता* 

                  ६२१

ऐ देश के अधिकारियो! इस पर तो थोडा ध्यान दो।
हिंदधरम को परधरम से, ठेस मत पहूँचाने दो।।
तुमको सभी गर है बराबर, तो यही क्या न्याय है।
लाखों करोडों हिंद ख्रिश्चन हो गये, दुखदाय है।।


६२२
हम संघटन करके पुरा पूछेगे शासक को यही।
तमको धरम औ संस्कृती की तो न पर्वा है कहीं ।।
हम भारती है गर सभी, कानून तब क्यों भिन्न हो? ।
हिन्दू रहे, इस्लाम हों, ख्रिश्चन रहे या जैन हो ।।

                  ६२३ 

हर एक अपनी ही पुरानी बात गर कहने लगे।
तब तो लिखा नहि जायगा, स्याहीभरा सागर लगे ।।
इस के लिए जिस वक्त की सत्ता कहे सब के लिए।
वहि सोचना, यह धर्म है सारी प्रजाओं के लिए।।

.                     ६२४

उस राज्य का आदेश था *मंदर बने तीरथ बने*।
इस राज्य का आदेश है *सड़के बनें, सब घर बने ।।
खेती बने, शिक्षण बने, और सामुहिक जीवन बने।
इसी ख्याल के कारण सभी मेला बने, चेला बने ।।

              ६२५

सम्बध सबका एक है, इस संस्कृती से देश में।
निर्मल सभीके हृदय हों, कोई न पहँचे द्वेष में॥
पर जो कहे अपना भला, और दसरों का हो बुरा।
मैं मानता, उस व्यक्ति से यह देश बिगडा है पुरा ।।

                        ६२६

यह पक्षबाजी राजसत्ता में अमल करने लगी।
तब जानिए वह झूठकी भी टेक निभवाने लगी।।फिर पक्ष जिसका हो बडा, बदलाहि लेगा हरघडी ।
निरपेक्ष न्याय नहि है यहा, जनता मरेगी ही बडी ।।


६२७

मै पंथका हूँ, ग्राम का हुँ, नाम का हूँ मत कहो।
जाती-अजाती को मिटा दो, शुद्ध होकरके रहो।।
यो सत्य हो वह ही  कहो, जो नित्य है उसमें रहो।
आनन्द की लहरे बताकर, दुःख जितना हो सहो।।

                  ६२८

यह जातियों की विकृती ही बीच में दीवार है।
रोडा हुई है उन्नती में, फँस गयी मँझधार है।।
जबतक न इनको एक होना कोइ भी सिखलायगा।
तबतक तो भारत का सदा ही हास होता जायगा ।।

                 ६२९

हर जात उन्नत होयगी, तब तो उठेगा देश यह ।
इसके लिए करनाहि होगा संगठित सबका समुह ।।
हर कौम का हो लक्ष्य अपने देश का औ धर्म का।
रोडा न बनने जाय, फल जो *मै  बडा  इस भर्म का ।।

                  ६३०

अपना हि घर जिसको दिखें,वह क्या किसी का हित करे? ।
नेता वही यदि बन गया, फिर तो प्रजा नाहक मरे ।।
ऐसी समझ जबतक न हो, जन-जागरण कैसे बने? ।
निःस्पृह हि नेता जब चुने,कलिकाल मे सतजुग बने।।

               ६३१

कौडी नही है पात्रता और मान राजा का मिले।
चह चाहनेवाला तो पागल ही कहा जावे भले ॥
जनजागृती इसके लिए भरपूर होनी चाहिए।
*लायक नही तो चल पिछे* यह बोलकर समझाइए।।


६३२

मैं मौन हूँ इस बातपर, कोई चुनो कोई बनो।
मैं काम अच्छा चाहता, इस देश का अच्छा गुनो।।
दंगल लडो आगे बढो, जो जीत ले सो है मेरा।
मैं काम उससे चाहूँगा, जिन्दा रहे या हो मरा ।।

                ६३३

मुझमें नही है कुछ बदल, मैं पक्षबाजी ना धरूँ।
सेवा करे ईनाम से, मैं मान उसका ही करूँ।।
चाहे भले तुम ऊँच हो, अधिकारि हो, नेता रहो।
यदि लोकप्रियता है तुम्हें तब खुश रहो जीते रहो।।

 *_स्वावलम्बन और समयज्ञता_* 

              ६३४

सब माल परदेशी भरो, माँगो उन्हीको यंत्र भी।
उनकी सलाहे लो सदा, आदर्श लो उनका सभी।।
आजाद कहने की शरम भी आगयी कुछ साल में।
ऐ भारतीयो! सोच लो, फँसना नही इस जाल में।।

               ६३५

मैं जानता हूँ मुश्किलें आती है सच्चे काम में।
पर ख्याल होना चाहिए,भूले न हम इस जाम में।।
जितना भी अपने पैरपर यह देश होता जायगा।
वह अन्त में सुख पायगा, स्वाधीन *तबहि कहायगा।।

                 ६३६

ना हो समय अनुकूल तबतक शत्रु सिर पर लीजिए।
जब बल हो अपने पास, तब तो पैर सिर पर दीजिए।।
यहि नीति होती राज की,उसके बिना चारा नही।
नहि तो गुलामी आयगी, आजादी को थारा नही।।


६३७

 मोटर  चली  बडी तेज से, मोडे न टर्निग पर कहीं।
तब तो समझना आज का जीना भरोसे का नही ।।
समय को देखकर आदत नही सुधरोओगे।
क्या कहे,तुम जीओगे या तो कही मर जाओगे? ।।

                      ६३८

जब बुद्धि का औ शक्ति का तारुण्य है तब मौज है।
बुढे हुए दोनों कहीं, तब शत्रु लाता फौज है ।।
मानो कही तब ठीक है, नहि तो खतम है जिंदगी।
यही रीति व्यष्टी औ समष्टी की सदा रह जायगी।।

                   ६३९

यहाँ तो विचारों की जवानी तीर सम बहती सदा ।
समझो तो भागो साथमें, नहि तो पडो बनके गधा ।।
यह आजका रंग कल नही,कलका न परसों मिल सके।
बहती हि दुनिया से मिला, जीवन तभी यह रह सके।।

                 ६४०

सेना तुम्हारी है बडी, पर शस्त्र बिन क्या कर सके? ।
गर शस्त्र भी होंगे बड़े पर ध्येय बिन क्या तर सके? ।।
हिम्मत है काफी फौजमें,पर ध्येय नहि हो सत्य का।
फिर तो लडाई व्यर्थ है, ठेकाहि है आपत्ति का।।

 *एकात्मता और सजगता* 

                   ६४१

ऐ भारतीयो! आँख अपनी खोलकर देखो जरा।
चारों तरफ से शत्रुगण अब द्वार पर आके भरा ।।
तुम आपसी मतभेद को इस वक्त बढवाओ नही।
सब एक हों सावध रहो, इस देश को जागो सही।।


६४२

हे यार! छोडो पक्षबाजी, देशवासी एक हो।
शत्रु खडा है द्वारपर, अपने लिए तो नेक हो ।।
वह तो गनीमी चाल से है मारने को आ रहा।
तुम होशमें हो या नही? फिर क्यों तमासा हो रहा ? ।।

                 ६४३

रो देशभक्तो! देशकी कुछ आखरी तो सोच लो।
अपने तो पहिले दिल मिलाओ, फेर आगे हो चलो।।
तममें कोई गद्दार हो, पहिले उसे फाँसी पे दो।
सोचो नही मामा औ भांज्या, देशको देखे चलो।।

                  ६४४

अजि! दुष्ट करनी से हि होते, और तो सब एक है।
जो देशको धोखाहि दे, तो फिर कहाँ से नेक है? ।।
बैमान पकडा जाय, फिर तो छोड़ना नहि जान से।
बिच्छु की पूजा है वही, मारो उसे पदत्राण से।।

                 ६४५

उपदेश ऋषियों का यही,व्यसनी न हो अपना कोई।
सत् के लिए हम मर मिटें, सब एक हो ना हो दुई।।
कोई हमारी गुप्त बाते शत्रु ना सुन पा सके ।
फल एकभी बिगडेकहीं,अच्छेभी फल बिगडा सके।।

                ६४६

गर देश अच्छा ही बनाना है, तो मेरी मान लो।
छोडो नहीं उन दोषियों को, दो सजा पहिचान लो।।
टेढा अगर है वृक्ष तो काटो उसीकी बाँह को।
सीधा बढेगा फिर वही, सुन्दर लगे, दे छाँह का।।


६४७

बाहार बताकर मित्रता अंदर जहर को फेंकना।
जर तो है शत्रु से भी बढ़कर आग घरमें झोंकना।।
ऐसे जहाँपर लोग है क्षण एक भी न पचाइए।
पोखा भी हो तो साफ हो, पर आग मत घर लाइए।।

                   ६४८

वाणी समंगल, कर्म निर्मल और उज्ज्वल भावना।
चारित्र्य ऊँचा, बुद्धि ऊँची आत्म की हो साधना ।।
हो कर्मयोगी हम सभी, उद्योगशाली वीर हों।
हो देश-रक्षक ईश-सेवक, निश्चयी रणधीर हों।।

               ६४९

हम सब परस्पर मिलके बोले, कार्य भी मिल के करें।
जो सोचना हो मिलके सोचे, सबके मन एकी धरें।।
अधिकार के फल सबहि ले और धर्म को सन्मान दे।
कलजूग में तारक यही, इस बातपर जब ध्यान दें।।

*संभाव्य महान युद्ध और विश्वशान्ति* 

       भारतीय वीरों! सावधान !!
                     ६५०

रणगर्जना सुनता हूँ मैं, जो आरही औ गा रही।
भारी क्षती पहुँचा रही, सब देश में है छा रही।।
इस देश को मैदान करके दोगले ही लड रहे।
अपना भला वे चाहते, पर सिर हमारे पड रहे ।।


६५१

हम जानते है तुमहि हो, तुम जानते हो हम हि है।
मरगे-लडैया दूसरा है, यह न किसको सुध रहे।।
वह दूर-देशों से हमें पागल बनाता नाचते।
युग की कुटिल नीती हि खिलती अब हमारे सामने।।

                          ६५२

अब तो लडाई आयगी, मुरदे पडेंगे देश में,।
शत्र बडा ही क्रूर है, देगा गिरा वह क्लेश में।।
हशियार होना है अभी, सब साथियों से बोल दो।
अन्तर-कलह सब छोड दो, ये भेद-पडदे खोल दो।।

                       ६५३

सौ बार हमने कह दिया है, युद्ध होना है यहाँ।
हशियार वीरों! हो रहो, कसके करो तैयारियाँ।।
डरना नही इस मौत से, हिम्मत से आगे काम लो।
तलवार लो, बन्दूक लो, या तोप, बम नापाम लो॥

                  ६५४

रणचंडिका रण में खडी है, देर उसको है नही।
डरकर छुपे जो भागते, जाहीर कायर वही॥
ऐसे दगाबाजों पे पहिले वार करना धर्म है।
जो वीर लडने को डटे, सच्चा उन्हीका कर्म है।।

                         ६५५

संकट में धरता धीर और लडता है हिम्मत से गडी।
सत् को नही है छोडता, यदि मौत भी आकर खडी।।
जब तक न ऐसे वीर आगे आयेंगे इस देश में।
तबतक यह भारत भी सुखी होगा नही लवलेश में।।


६५६

हम तो बुरा नहि चाहते किसि मित्र का या शत्रू का।
सबका भलाही सोचते, परमार्थका व्यवहार का।।
करता बुरा कोई उसे सच्चा बनाने को भले।
हर बात से शिक्षा मिले, नीती हमारी यह चले ।।

 *_भारतीय संस्कृति का पुनरूत्थान_*
                   ६५७ 

हर रोज ही कहता हूँ मैं, यह काल बदला जा रहा।
हर बात में दिखता फरक, कुछ आजभी तो हो रहा ।।
आगे जमाना आयगा, निश्चित वही अच्छा रहे।
जबतक सहन करना है यह, भारत यहाँ सच्चा रहे।।

                 ६५८

मेरी रही जो मान्यता हिन्दू धरम के वासते।
जो *सामुदविक प्रार्थना*ढूँढी बढ़ायी आसते ॥
अब भी मेरा विश्वास है वह सद्धरम बढ जायगा।
*गुरुदेव सेवाश्रम* की शिक्षा और दीक्षा. पायगा ।।
                         ६५९

तुम आततायी बनके माँगो जो उचित-अनुचीत है।
उसका मिलेगा फल अभी, पर समय जावे बीत है ।।
एक शक्ति ऐसी आयगी, सब एक ही होना पड़े।
भारत के टुकडे ना करो, नहि तो पड़ोगे जो चढे ।।

                   ६६०

गर मर मिटो पर कर नही सकते धरम का नाश तुम ।।
वह बीज है भगवान का जाने हुए है खूब हम ।।
पत्ता झडेगा वृक्ष का, यह नाश ना समझे कोई।
वैसी शितलता धर्म की पनपे बिना रहती नही।।


६६१

इस संस्कृतीने वीर भी और सन्त भी बनवा दिये।
अवतार भी इसमें हूए है, तत्वज्ञानी भी किये ।।
विज्ञान की चोटीपे भी जब शस्त्र-अस्त्रादिक किये।
तब आज अंतर्गत हमारे कलह भी मचवा दिये ।।

                ६६२

इस संस्कृती के पथप्रदर्शक अब नहीं दिखते यहाँ।
जिस संस्कृती ने विश्व में अध्यात्म को फैला दिया ।।
सब एक है मानव, जहाँतक चंद्र है औ सूर्य है।
यह ज्ञान जिससे मिल चुका, मिलना अभी अनिवार्य है।।

                  ६६३

फिर जागती-सोती भी है, आदतहि उसको है लगी।
आनन्द उसका है यही कभी रात दिन बन जायगी।
इतिहास के पन्ने पढ़े तब लक्ष्य आता सामने।
वंहि राम भी और कृष्ण भी, सब देवता वह ही बने ।।

               ६६४

फिर जागती है भारती, ऊठी न पीछे जायगी।
आपस का बूरा कूडा-कचरा आग से हटवायगी।
घुसखोर जातीवादी सब मिटने को आये आखरी।
मानव बनेगा एक अब, बजती है देखो बाँसुरी।।

                ६६५

स्वाधीन भारत-संस्कृती, यह पूर्वजो की देन है।
आलस्य होता जब कभी, वीरत्व होता क्षण है।।
फिर जागती ज्योती बने, दिव्यत्व अपना खोलती।
वैभव-शिखरपर डोलती, सब विश्व पूजे भारती।।


*विश्व-संहार या विश्वशान्ति* 
                    ६६६

लिख तो रहा हूँ गीत, पर बातें पुरानी हो गयी।
विज्ञान का युग लग गया, अब धर्म समझे ना कोई ।।
अब तो चलेंगे ट्रक ट्रॅक्टर, बम तथा राकेट है।
संहार की खेती पकेगी, वक्त नहि अब लेट है ।।

               ६६७

हालत बुरी है दिन पे दिन,घरकी औ देश-विदेश की।
सबको लगी चिन्ताहि है अपने जीवन-अवशेष की।।
विज्ञान तरने को बताते है, मगर है नाश ही।
संसार जलने लग गया, ज्वाला में दिखता हास ही ।।

                ६६८

चाहे कोई अस्मान भी काबू में ले तो क्या हुआ? ।
नीयत तो होती दम दिखानेकी हि मन में वाहवा! ।।
उसके लिए भगवानने भी वीर पैदा ही किया ।
पलमें करेगा खाक वह, मालूम नही किसने किया ।।

                  ६६९

रणराज अब सब को बुलाता,सोच लो हशियार हो।
लडनाहि होगा विश्व को,करना बदल सब को कहो ।।
तुम बात से और शान्ति से बिलकूल सुधरोगे नहीं।
इसके लिएही बम बने, राकेट भी बोले यही ।।

                  ६७०

सर सर चला जाता है सूरज, अब अंधेरा आयगा।
इसका पता सबकोहि है पागल को नहि लग जायगा ।।
वह तो सुरज के सामने कंदील धर टट्टी करे।
वैसे हमी कुछ हो गये, मालुम नही कितने मरे? ।।


६७१

जलके बिना,कहिं बाढ से,भूकम्प से,कहि आग से।
बीमारियों से, डाकुओंसे, आपसी रणराग से ।।
चाहे किधर से क्यों न हो, शस्त्रास्त्र से, तूफान से ।
जब नाशही करना है शिव को,पल नही लगता उसे ।।
                ६७२

धरती भी अब, थरथर करे, इतना बड़ा है पाप यह ।
अच्छे भी पीसे जा रहे, ऐसा बढा संताप यह ।।
गलती किसी की हो रही, यह भी सभी नहि जानते ।
जाता नही पकडा कोई, भगवानही पहिचानते ॥

                 ६७३

कोई सुनाता बोल हम से, देख लो तो सामने ।
अंगार कैसी आ रही है, तुम लगे किस काम में? ।।
यह काल का हथियार है,चमचम चमककर आयगा ।
कर प्रार्थना भगवानकी,तो कुछ समय बच जायगा ।।

                ६७४

है कौन इनको रोक दे? जो होनहारहि होयगा।
आया है भरता पाप जब, तो कौनसा सुधरागया ? ।।
आकाश से बादल बने, बादलहि जल बन जात है।
वैसी प्रभू-लीलाहि वह, यह भी स्वरूप बदलात है ।।

                   ६७५

ऐ शान्तिदूतो! क्यों उधम करते हो दुनिया रोक के? ।
जाने दो उसकी मर्जी से आँसू न सींचो शोक के ।।
कलजूग को बोलो भला, जो प्रेरणा देता इन्हें ।
सत्ता है उनके हाथ, तुम लो मौन, तब शान्ती बने ।।


६७६

आया जमाना हुक्म पालन कर रहा कलजुग का।
तुम भूल करते हो यहाँ, जपते हो मन्तर मूल का।।
जुग-जूग की बाँधी लडाई का मजा तो सीख लो।
कलजूग केसे नाचता, सतजुगवालो! देख लो ।।

                ६७७

मंथन किया हर धर्म का, हर पंथ का, हर देश का।
निकला यही मेरी समझ में सार शुभ संदेश का ।।
अब विश्वमानव मित्र बनकर पास सबके आयेंगे।
शांती तभी वे पायेंगे, नहि तो खतम हो जायेंगे ।।

              ६७८

गुरूदेव! ऐसी हो दया, जग का अंधेरा दूर हो।
सद् धर्म - सूरज की प्रभा से दम्भ सारे चूर हो ।।
अध्यात्म औ विज्ञान के संयोग से सब हो सुखी।
सहयोग-समता से यही सृष्टी करें हम स्वर्ग की।।

                  ६५९

मिट जाय हिंसाचार सब, मानव* बने सबकेहि दिल ।
हिंसा पशूवत् कर्म है,यह कह सके सब साथ मिल ॥
ऐसा अनुग्रह हो सभी घर-घर में साधू-सन्त का।
तब शान्ति होगी विश्व में,तुकड्या कहे पथ अन्त का ।।

 *अध्यक्ष हूँ मैं विश्व का* 

              ६८०

प्रक्षुब्ध यह अंबोध में, विश्व नावे चल रही।
मन वायु की प्रेरी हुयी, मुझ सिन्धु में हलचल नहीं।।
अध्यक्ष हूँ मैं विश्व का, और विश्व मेरा कार्य है !
फिर भी न मुझ में विश्व है, आश्चर्य है! आश्चर्य है !!

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