प्रपंच में प्रारब्ध और परमार्थ में प्रयत्न
( ता . ०३ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! मैंने कहा था कि ईश्वरमिलनके लिए कईं साधनमार्ग हैं . पर मेरा विशेष विश्वास है प्रेमप्रार्थनाके मार्गपर ! चाहे जिस परिस्थितिमा होते हए भी हररोज समय निकालकर दृढ श्रद्धाभावसे , पवित्र अंत : करणसे , पश्चात्तापपूर्वक हमें प्रभुकी प्रार्थना करनी चाहिए और अन्य समयमेंभी
ईश्ववरका ख्याल रखना चाहिए । फिर तो संसार में रहते हुएभी हमारा उद्धार हो सकता है । हम किसीभी पंथ - संप्रदायके रहें या न रहें , भवसागरसे पार होते हुए भगवानको पा सकते हैं ।
अनंत संस्कारयुक्त प्रारब्धके अनुसार संसारमें सुख - दुख तो आताही रहेगा । चाहे जंगलमेभी बैठो , भोग चुकनेवाला नही है । फिर जंगलमें जाकरही ऐसा कौनसा विशेष लाभ पल्ले पडेगा ? अपनी प्राप्त परिस्थितिमेंही सुख - दुखका सामना करते हुए भगवद्भावके सहारे समाधान कायम रखना
और अपनी प्रगतिका मार्ग आक्रमण करते जाना यही अधिक उचित होगा । किसी दूसरेका सुख देखकर हमें उसकी लालसा रखने , मत्सर करने या अपनी अवस्थापर दुखी होनेकी जरूरत नही है । हमको तो सच्चे सुखका मार्ग तय करना है , तुच्छ सुखोंका नहीं । और हमारे चाहनेसे ही सांसारिक सुख मिल सकते हो ऐसाभी नहीं हैं । अन्न धन मान । हे तो प्रारब्धा आधीन इस वचन के अनुसार भौतिक सुख वैभवका आधार केवल हमारे प्रयत्नही नही होतें , तो उसके लिए प्रारब्धयोगभी आवश्यक होता है । साथही यहभी ख्याल करनेकी जरूरत है कि सिर्फ भौतिक सुखोंके लिए । यत्न करेनमेही अगर हम अपनी शक्ति और आय बरबाद कर देंगे तो सच्चा जीवनध्येय कब साध्य करेंगे ? और ये भौतिक सुख पा लेनेपर उनका नाश होगाही नही , यह गॅरण्टी कौन दे सकता हैं ?
इससे तो यही मान लेना पारमार्थिक साधकके लिए हितावह होगा , सभी लोग अपने - अपने कर्मोंकेही फल खा रहें हैं । *ढाक के तीन पात इस कहावतके मुताबिक कहींभी जाओ , उसमें फर्क होनेवाला नही हा प्रपंच छोडकर जोग लेनेसे . महाभयंकर अरण्य या हिमालयम समुदरपार जानेसेभी कर्मभोग नही टलेगा । इसलिए *दाने दानेपर लिखा
है खानेवालेका नाम । रोटी तेरी ढूँढत आये दिलमें पाव विश्राम * यही वचन साधकको अमलमें लाना चाहिए ।
भाई दृष्टान्त सुनो ! एक राजा था । किसी कारणसे उसे वैराग्य हूआ और वह जंगलमें चला गया । एक पर्वतकी टेकडीपर उसने आसन जमाया और वह अपने साधनाभ्यासमें मगन रहने लगा । स्थान या अवस्था बदलनेसे कर्मभोग नहीं बदलता । इसीकारण लोगोंने राजाकी खोज की और बडी तादाद में वे उस टेकडीपर दर्शन करने जाने लगे । उसका राजवैभवका प्रारब्धभोग वहाँपर भी प्रकट हूआ । लोग अच्छी - अच्छी चीजें लाकर उसे अर्पण करने लगे । उसकी कुटिया भी सुंदर बन गयी ।
बैराग लिए हए राजाके पास रोजाना आनेवाली घी - चपाती देखकर एक दरिद्ध आदमीने सोचा - * दिनभर रो - धोकर मैं कडे परिश्रम करता है . लेकिन भरपेट सादा भोजनही नहीं मिलता और यह देखो ! साधु बनकर माल उडा रहा है । ठीक है ! अब यही भाग्यका उपाय मैं भी करूँगा । साधुसंन्यासी बननेमें अगर ऐसा मजा है तो संसारका बोझा कौन ढोए ? * बस , विचार आतेही उसीदिन उसने सारे बनमें भस्म रमाया और नजदीकही दूसरी टेकडीपर धूना सिलगाकर वह बैठ गया । मगर प्रारब्ध की बात , लोग उसकी निंदा करने लगे कि यह तो नकली साधु है । कोई दो - चार भोले भगत वहाँ गयें भी , लेकिन फूलपत्ती और फुटाने लेकर । इससे वह साधु मारे चीढके कहने लगा - *कैसे मूरख लोग हैं ये ! उसके पास तो घी चपाती ले जाते और मेरे पास फुटाने ? आखिर मैं उससे किस बातमें कम हूँ ? . .
दो - चार दिन ऐसेही निकल गये , लेकिन हालात सुधरे नहीं । ऐसा क्यों ? वह सोचता रहा तो उसके दिमागमें एक बात आगयी । वह झठसे । उस राजाके पास गया और कहने लगा - साधुराम ! तुम्हारे - हमारेमें ऐसा
फर्क क्यों भला ? तुम्हारे पास कोई मंत्रसिद्धि तो नही है ? * वह साधुस्वरूप राजा बोला -
*भाई ! इसमे मंत्रसिद्धिका कोई हाथ नही है । संचित हमेशा जिसके उसके साथ रहता है और उसीमेंसे भोगोन्मुख प्रारब्ध सामने आता है । जैसा जिसका प्रारब्ध वैसा उसका भोग । भेख या स्थल बदलनेसे कर्मभोग नही बदलता । हीन प्रारब्धवालेको राजमहलमेंभी दरिद्रता भुगतनी पडती है और ऊँचे प्रारब्धवालेको मरघट या जंगलमेंभी वैभव प्राप्त हो सकता है । इसमें दूसरे किसीकाभी दोष नही होता । मगर एक बात है - सुख हो या दुख , लाभ हो या हानी , ये सब अपनेही अच्छेबुरे कर्मोंके फल तो अवश्य हैं , परन्तु यह कोई स्थायी बात नहीं है । हमको तो चिन्ता करनी चाहिए अमरसुखकी , जो अपने प्रयत्नोंसे सबको मिल सकता है ; फिर उसका प्रारब्ध अच्छा रहें या बुरा - उससे कोई सरोकार नहीं रहता । इसलिये सुख दुख आदि में समाधानवृत्ति से रहकर अपने उद्धारका प्रयत्न करना चाहिए । *
सज्जनों ! यही बात उचित है और बड़े महत्त्वकी है । अटल कर्मभोग भोगते हुएही मनमें समाधान रखकर प्रभुप्राप्तिका प्रयत्न करते रहना जरूरी है । इसमें भी कर्मानुसार विघ्नबाधाओंके आनेसे समय कमज्यादा लग सकता है । कई महिनेमें जो बात साध्य कर सकता है , वही दूसरा वर्षों में कर लेता है । अपनी - अपनी संस्कारबुद्धिकी पात्रताके भेदसेभी ऐसा हो सकता है । वास्तवमें सभी मार्ग सुलभ हैं और सभी अल्पावकाशमेंही ध्येयप्राप्ति करा देनेवाले हैं ; परंतु अधिकारभिन्नतासे तथा कर्मभोगकी बाधाओंके कारण उनमें कठिनता महसूस होने लगती है ।
संत तुकाराम महाराजने उपाय बताया है कि - *जेथे जावे तेथे कपाळ सरिसे । लाभ तो विशेषे संतसंग । अटल है , परन्तु संत - संगतिमें उसकोभी हम जा लाभ तो विशेषे संतसंगे । *यानी कहींभी जाओ कर्मभोग सत - संगतिमें उसकोभी हम जीत सकते है । क्योंकि संत
कबीरजी कहते हैं - * कर्मकी रेखपर मेख मारनेवाले संत होते हैं । *
मित्रों ! ख्याल रक्खो ! संतभी हमारी भूमिका , हमारी पात्रता देखा करते है और उसमें हमें अपनी शक्तिसे सहायता पहुँचाते हैं । बिना अधिकारके कोईभी बात किसीभी मार्गसे प्राप्त होना कठिनही नही , असाध्यभी हो सकती है । लेकिन अधिकारभी एकाएक नही बन सकता , करते करतेही बनता है । सन्तोंने कहाभी है-
पुण्य पाहिजे बहुत । पूर्व जन्मीचे संचित । आला असेल करीत । तरीच होय अधिकारी तो । ।
जन्मान्तरके सुकृत होनेसेही अधिकार बनता है , यह बात यथार्थ है । परन्तु कल हमने सुकृत नहीं किया था , तो क्या आज करही नही सकते ? | हमने सुना है कि महापातकी ( वाल्मिकी ) वाल्याभी एकही जन्ममें महर्षि ।
बन सका । इसका अर्थ यह है कि हम अगर सच्चे दिलसे प्रयत्न करेंगे तो इसी जन्ममें ऊँचे अधिकारी बन सकते है । जितनी तीव्रता हमारे दिलमें हो उतनीही जल्दीसे हम अपने ध्येयको पा सकते है । वृत्तिको शुद्ध किये । बिना तो किसी हालतमें परमार्थका अधिकार बन नही सकता इसे याद
रक्खो । खाली ऊँची बातों में दिन बितानेसे , किसीभी मार्गसे क्यों न हो ,
अपनी वृत्तिकी ऊँचाई बढाते रहना परम आवश्यक है । विवेक और प्रार्थनासे हम अवश्यही आगे बढ़ सकते है । दुर्गुणोंको कम - कम करनेका निश्चय करो ; सद्विचारोंको आचारमें परिणत कर लो और सद्भावोंका नशा व्यवहार करते हुएभी कायम रखनेका अभ्यास करो ; तो ज्ञानप्रकाशके पातेही । तुम्हारा बेडा पार हो सकता है ।
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