बनाकर रजोगुणी पुरुष अपनेही में मशगुल रहते हुए दिन बिताते हैं । * ईश्वर । अरे तू जिंदा है या मरा ? * यह पूछनेके लिएभी उसे अपने व्यापार - व्यवहार मारे फुरसत नहीं मिलती । कभी कीर्तन - भजन या ईश्वर - महिमाक कथापुराण सुननेका मौका आही गया तो अच्छीबुरी बातें वहींकी वर्ग डालकर वे जैसे थे * बन जाते हैं । ऐसे रजोगुणी पुरुषों का उद्धार होना बड़ा कठिन है , ऐसा भागवत में कहा गया है ।
भगवान तो यहाँतक कहते है कि - *हे उद्धव ! मैं सत्त्वगुणीकाही । नही , तमोगुणीकाभी उद्धार कर लूँगा ; लेकिन रजोगुणी पढतमूर्खको किसी हालतमें नही तरा सकता । चाहे वह यज्ञदानादि कर्म करें अथवा वेदका पाठ करें , लेकिन वह कचरदाना *पक नही सकता । क्योंकि सोये हए । आदमीको जगाया जा सकता है , मगर सोनेका बहाना करनेवाला कैसे जगेगा ? उसे तो पीटनाही पडेगा ! *
रामायणमें हम देखते है कि कुम्भकर्ण तमोगुणका पुतला है तो बिभीषण सत्त्वगुणकी मूर्ति है । बिभीषण को प्रभु - रामचंद्रने अपना सख्यत्व देकर राजा बना दिया है । मगर रावणको तोखत्मही करना पड़ा । वास्तवमें रावण महाविद्वान था । वेदोंका भाष्यभी उसने लिखा था । परंतु स्वभावस वह साक्षात्  रजोगुणीही था ; जिससे उसकी पंडिताई या भावभक्ति जराभी काम नही आयी । जो खुदही जानबूझकर कीचडमें फँसना चाहे , उसे कौन उबार सकता है ? ।
इसलिए अपना उद्धार चाहनेवालोंका यह कर्तव्य होजाता है कि वह राजस - तामस गुणोंको अपनेमेंसे कम करते रहें और प्रतिदिन पुण्यमय सत्त्वगुणकी पूजा बढाते रहें । वृत्तिको सत्वशील बनानेके लिए खानापिना , देखनासुनना , गानाबजाना , रहनसहन , श्रवणपठन आदि सभी बातें सात्त्विक होनेकी आवश्यकता होती हैं । सभी रजो - तमोगणी चीजों या बातोसे दूर


 १४       सत्वात् संजायते ज्ञानम् ! 
                 ( ता . ०४ - ९ - १९३६ )
          
 उपासकों ! किसी बहती हुई नदीमें एक प्रवाह ऐसा होता है जो बडाही चंचल हुआ करता है । दूसरा एक प्रवाह ऐसाभी होता है कि जो गंदेपानीसे भरा रहता है और तीसरा प्रवाह बिलकुल शान्त दिखाई देता है । हमारी चित्तवृत्तिभी ऐसीही एक नदी है । उसमें अगर गंदगी भरी हुई हो तो वह हमारे विकासमें बाधक होगी । उसमें अतिचंचलता पायी जाती हो तो वहभी कहींसे कहीं ले जाकर पटक देगी । परन्तु उसकी धार निर्मल और शान्त हुई हो तो उसमें हम अपना रूपभी देख सकेंगे । वृत्तिकी चंचलता रजोगुण , गंदापन या जडत्व तमोगुण और शान्त सुनिर्मलताही *सत्त्वगुण* कहा जाता है । रजो - तमोगुणके मारेही लोग हैरान हो रहे हैं । इसलिए सावधानीसे इन दोनोंको कम करना होगा , तभी तीसरा गुण बढेगा और तुम सच्चे पथसे जाकर अपना अन्तिम परमात्मध्येय प्राप्त कर सकोगे । क्योंकि गीता में भगवान निश्चितरूपसे कहते हैं - * सत्वात् संजायते ज्ञानम् ! * अर्थात् सत्त्वगुणसेही ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है ।
सज्जनों ! तमोगुणका काला पर्दा तो त्याज्य हैही , लेकिन रजोगुणकी सुनहरी प्रभाभी कम खतरनाक नही है । वह तो अपनी सुन्दरतामें फँसाकर बरबाद कर देती है । रजोगुणका प्रभाव बडा विचित्र होता है । रजोगुणी लोग बाते बडी चातुरीसे करते हैं । देवधर्मका आडम्बरभी खडा करनेमें नही चूकते । कुछ विषयस्वार्थवश नामभी गाते हैं । लेकिन विषयविलास या मानपानके रंगमें दबी हूई वृत्ति आगे पैर डालनेकी इच्छाही नही करती । ईश्ववर - नामका कोई तत्त्व है और वह सन्तोंकेही कामका हैं  , ऐसी धारणा 


रहना पडता है। आचार, विचार, उच्चार, संगति आदि सब सात्विक हो। इसकी सावधानी रखनी पडती है। ऐसा करनेसे रजोतमोगुण कम होते जाते। हैं और जो बचते है वह सत्त्वगुणके अधीन होकर रहते हैं। जीवनको इसतरह
शुध्द बना लिया कि रजोतमोगुणी व्यक्तिभी भगवानको प्रिय हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए अंत:करण पश्चात्तापयुक्त हो और बुद्धि निश्चयात्मक बनती चली जाय, इसकी नितान्त आवश्यकता है। यह कैसे होगा? इसके लिए सच्चे दिलसे भगवानकी प्रार्थना करनाही पर्याप्त है।
प्रभुसे किसी सांसारिक चीजों की माँग न करते हुए उसे सद्गुण और सदाचार बढनेकी, सद्भक्ति और सुविचार बढनेकीही याचना तडपते हुए दिलसे करते रहना चाहिए। साथही अपने दुर्गुण-दुर्विचारोंको झटकते रहना चाहिए और वृत्तिको सावधानीसे निर्मल बनाते रहना चाहिए। ऐसे अभ्याससे वृत्ति
निर्मल तथा पवित्र बनती जायेगी तो उतनाही ज्ञानका प्रकाश अंत:करणमें प्रकट होने लगेगा। ज्ञानके लिए फिर शास्त्रकीभी जरूरत नहीं पड़ेगी। चकमक या गारगोटीके घिसने से जिसतरह चिनगारी उठती है, उसीतरह अपनेही
अंदर ज्ञानप्रकाश फैलने लगेगा।
मित्रों! बिना ऐसा यत्न किये जन्मभरभी साधुमहात्माकी लंगोटी धोते रहोगे तो कोई लाभ नही होगा। अपनी वृत्तिमें कुछभी फर्क न किया और खाली चर्चाकाही बाजार गर्म करते रहे तो क्या फायदा? केवल जीवन निर्वाहके लिए झूठी बातोंमें न मरो। जीवन चलानेके लिए आवश्यक व्यवहार जरूर करो, लेकिन अनासक्त वृत्ति रखते हुए; सत्यत्व और भजनभाव
धारण करते हए। ऐसा उचित कर्तव्यका पालन करते हए काल व्यतीत करोगे तो जरूरही तुम स्वानंदस्वरूपी परमात्मध्येयको प्राप्त कर सकत हो!
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