- १५ - आजका युगधर्म - प्रेमभक्ति !
( ता . ०५ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! जिस काल या परिस्थितिमें लोगोंकी जैसी शक्ति के उसी मुताबिक मार्ग खोजना पडता है । खाली एकही मार्ग सभी देशकाल परिस्थितिमें उपयुक्त नही हो सकता । वैसे तो एकही कालमें पात्रभेदानसार कई मार्ग उपयोगमें लाये जाते हैं : परन्तु वह विशिष्ट अधिकारयुक्त व्यक्तिक लिएही होते हैं , सर्वसाधारण समाजके लिए नही । जो मार्ग सामान्यत : सबके लिए उचित होता है , उसकोही उस युगका धर्म यानी *युगधर्म* कहा करते । हैं । आजके कलिकालमें बहूजन समाजके अधिकारको देखकर परमात्म प्राप्तिके लिए मनकर्मवाणीसे भक्तिमार्गका स्वीकार करनाही विशेष हितप्रद ठहराया गया है ।
एक समय था , जब कठिन तपस्या या पंचाग्निसाधन जैसे कायाक्लेशी मार्ग उपयुक्त समझे जाते थे । पंचाग्निसाधनका मतलब था चैत्रादि मासके धूपकालमें दुपहरीकी कडी धूपमें , जब आदमी भूमिपर पैरभी नही रख सकता था ऐसे वक्त , अपनेसे हाथ - दो हाथ की दूरीपर चारों ओर अंगार सिलगाते हुए साधक बिना लंगोट लगायेही बीचमें बैठ जाता था । आजूबाजूने चार धूने और ऊपर सूरजकी धूप , ऐसी पंचाग्नियोंके बीचमें बैठा हुआ वह मंत्रोच्चारद्वारा वृत्तिको स्थिर बनानेका अभ्यास किया करता था । ऐसेही भिन्न - भिन्न तपस्साधन बडे कठिन होते थे । अभ्यास यानी आदतसे सहनशक्ति बढ जानेपर उसमें कठिनाईकी गुंजाइश नही रह सकती है , परन्तु इससे कोई रोग तो अवश्य हो सकते हैं । और फिर इतने क्लश
बढानेकी जरूरतही क्या है? इसीलिए सन्तोंने सामान्य जनताकी अवस्थाको देखकर भक्तिमार्गही प्रशस्त बना दिया है। हठयोगादिकीभी यही हालत है। आज उनके लिए न तो बाह्यपरिस्थिति उपयुक्त है और शारीरिक शक्ति तथा आंतरिक दशाही उचित है। इसीसे ऐसे मार्गका अवलम्ब करनेवालों में से ज्यादातर लोग पतंगोंके समान भस्म होते देखे गये है। यज्ञयागादि कर्ममार्ग या मंत्रानुष्ठान आदिके लिएभी शास्त्रके अनुसार यथा योग्य द्रव्यसाधन या विधिविधान निर्दोषरूपमें
प्राप्त नहीं होतें। सच बात तो यह है कि हरएक युगकी परिस्थितिके अनुसारही एक-एक मार्गको विशेषकरकें महत्त्व दिया जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- *कृतकर योग करहि नर प्राणी।* कृतयुगमें योग जैसे कठिन
साधनोंसेही लोग कृतार्थ होते थे। आगे चलकर लोग उस अधिकारसे क्रमशः निचे उतरते गये, वैसा साधनमेंभी फर्क किया गया। जैसे- *त्रेता जतन करहि तपखानी। द्वापारहि करि हरिपदपूजा* और *कलिकर नही योगविज्ञाना। नामप्रताप प्रगट कलि जाना।*
साधन सुगम होनेसे साध्यप्राप्तिमें कोई फर्क नही होता। इसीलिए श्रीभागवत में कहा गया है कि *कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः। द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् हरि-कीर्तनात्।।*
सत्ययुगमें जो फल प्रभुके योगध्यानसे, त्रेतामें यज्ञ-तप आदिसे
और द्वापरयुगमें पूजानुष्ठानसे प्राप्त होता है, वह कलियुगमें केवल नामसंकीर्तन यानी भक्तिमार्गसे मिल जाता है। कलियुगमें भी पुराने तीनों युगोंके अधिकारी परुष होते हैं लेकिन बहुतही कम। बाकी लोग तो सामान्य
अधिकारके हुआ करते हैं । आज परमार्थी तो दूर रहा , संसारकीभी अक्ल अब मुश्किलसे मिलती है । ऐसी दशामें सामान्य जनसमूहके उद्धारके लिए .सन्तोंने हरिभजन *का मार्गही कारगर मान लिया है । सभी महात्माओं यही घोष किया है कि - *कलौ भक्तिर्विशिष्यते ! * अर्थात् आजके जमाने में नामभजन या भक्तिमार्गसे अधिक महत्त्वका कोई मार्ग नहीं ।
भक्तिमार्गमें सभी मार्ग आगये हैं । उसमें ध्यानके रूपमें योग आया है और संयमके रूपमें तप । समर्पणभावके रूपमें यज्ञ आया है और नामजप रूपमें मंत्रानुष्ठान । भक्तिमें शुद्धाचार की जरूरत होती है , इसलिए उसो धर्म तो आही जाता है । आचार - विचार गंदे रहें तो भक्ति कैसे हो सकती वह तो भक्ति में * अपराध * माना जाता है । नाममात्रा लेनेवाले को पथ्यपालनकी जरूरत तो अवश्य होती है । मगर ख्याल रक्खो आचारविचार शुद्ध रखोगे और नामजप या भजनकीर्तन आदि बहिर साधनभी करते रहोगे , परन्तु सच्चा प्रेमभाव अगर दिलमें न होगा तो व भक्ति नही हो सकती । झाँज बजाना या माला पहननाही भक्ति नही है । खाली टाल कूटनेसे अगर उद्धार हो जाता तो ताँबापीतलके बर्तनवाले दूकानदार कबके तर जाते ! भस्म रमानेसेही अगर उद्धार होता तो गधोंकाभी भाग्य खुल जाता और जटा बढानेसेही अगर साधुत्वकी * डिग्री * बढती है । रीछकोभी महात्मापन मिलता । मगर ऐसा हो नहीं सकता ।
मतलब यह कि बाहरी पदार्थोंसे भजन नही होता , वह तो दिल शुद्ध प्रेमभावसे होता है । बिना विशुद्ध प्रेमभावके बाहरी कसरत कितन भी करते रहो लेकिन ध्येयप्राप्ति नही हो सकेगी । धनसंपदा व वैभवप्रदर्शनसेभी ईश्वरको रिझाया नही जा सकता । अकिंचन सुदामा कोभी प्रभुकी प्राप्ति हुई , क्योंकि *भक्तिप्रियो केशवः *यह उसका ब्रीद है
व्यावहारिक सुंदरताका भी प्रभुको मोह नही है , इसीसे कुब्जा जैसी कुरूपा नारी का उसने उद्धार किया है । जातिवर्ण या कुलकी भी उसकी दृष्टिमें कोई किमत नही है और न वह विद्वत्ता या कुशलताकाही कायल है । इसीसे
- गोपीका , गोपाल , गणिका - अजामिल , चोखोबा - कान्होपात्रा आदि सभी भक्तोंका उसने प्रेमपूर्वक स्वागत किया है । बाहरी तालतंबूरा , मालामुद्रा आदि बहिरंग साधन ये भक्तिमें सहायक हो सकते हैं , वृत्तिको एकाग्र या प्रेमयुक्त बना सकते हैं , तो उनका उपयोग जरूर करो ; लेकिन किसीभी उपाधिको असली चीज मत समझो । असली तो है शुद्ध अंत : करणकी प्रेमपूर्णता , वही तुमको ध्येयप्राप्ति करा दे सकती है । और तुम्हारा सच्चा ध्येय है परमपिता परमात्मा ! याद रक्खो
* बिना प्रेम भवसिंधु * रज * को करि है निरवार ? प्रेम नावपर जो चढे , प्रेम लगावै पार । । *