१६ ईश्वर का स्वरूप और लोकोन्नति
( ता . ०६ - ९ - १९३६ ) .
उपासकों ! ईश्वर घटघटमें व्यापक है , अर्थात् वह अपने पासभी मौजूद है , ऐसी सन्तवाणी है । सन्तका मतलब होता है सत्यतत्त्वका साक्षात्कार करनेवाले पुरुष ! वे अपने अनुभवके बलपर कहते हैं कि बिना इश्वरके दुनियामें कहीं रोमभर भी जगह खाली नही है , जहाँ वह तत्त्व नहीं हो। यद्यपि हम उसे आँखसे नही देख सकते और तर्कसे नही दिखा सकते , सन्त अनुभव करते हुए कहते हैं कि - *पुष्पमध्य जिहुँ गंध बसत
है* उसीप्रकार *व्यापक ईश्वर है जगमाँही। जिहुँ पयमें नवनीत समाई।।* जैसे दूधमें मक्खन कणकणमें भरा हुआ रहता है, उसीतरह सारे विश्वमें सच्चिदानंद विश्वंभर परिपूर्ण व्यापक है।
सन्त-वचनपर विश्वास रखना तो हमारा आद्यकर्तव्य है। अगर
वे अपने फायदेके लिए-स्वार्थके लिए कुछ कहते तो न माननाही उचित था। मगर वे हमारे फायदेके लिए कह रहे हैं। केवल अविनाशी स्वरूपानंद सभी को प्राप्त हो यही उनकी निर्लोभ सदिच्छा है, फिर हम क्यों न मानें और जो पुरुष स्वयं पूर्णानंद स्वरूपसे मिल चुके हैं ऐसे महात्माओंको अन्य
स्वार्थभी कौनसा रह सकता है, जो तुमसे साध लेंगे? *तुका म्हणे आता। उरलो उपकारापुरता।।* ऐसे केवल परोपकारके लिएही तो उनका उर्वरित जीवन काममें लगा रहता है। उपकारका मतलब होता है नजदीक करना, भगवानके निकट पहुँचाना। इस काममें लगे रहनेवाले सन्त दुनियाको
फँसानेकी बात क्योंकर करेंगे? इसीलिए उनके सद्वचनपर विश्वास धारण करते हुए उसे अनुभवमें लानेकी कोशिश करते रहना यह हमारा विशेष कर्तव्य हो जाता है।
मित्रों! सन्त-सद्गुरु बारबार और जोर देकर कहते हैं कि *ईश्वर
है, वह हरवक्त हर जगह व्यापक है! चिरंतन ज्ञानस्वरूप तथा परमानंदरूप चैतन्यघन यह उसके लक्षण हैं! उस सत्यस्वरूप परमात्मतत्त्वका अनुभव करना-उसे पाना यही मानवका परम कर्तव्य है और तभी मनुष्यजीवनका साफल्य हो सकता है- अन्यथा नही!* तो भाई! नरदेह जैसा अमोलिक हीरा पाकर वह क्षणभंगुर संसाररूपी काँचके बदलेमें खो देना यह बुद्धिमानी नही होगी। इस जनममें परमेश्वर प्राप्तिका यत्न करते जाना यही मुख्य
हो सकती है। अपनी उन्नतिमें बाधा डालनेवाले जागतिक प्रेम को दूर रखते हुए हमे कर्तव्यमें डटे रहना चाहिए।पल-पल बीत जानेवाली इस आयुको सच्चे सुखकी राहमें व्यतीत करना चाहिए। विचारोंको आचारमें परिणत करनेकी कलाको सीख लेना चाहिए।
अरे भाई! कितने दिन क्षुद्रताका बाना पहनोगे? कितने रोजतक पराधीन बनें रहोगे? जिन पदार्थोंको तुम अपना आधार समझ रहें हो, या तो एक दिन वे तुम्हें छोड देंगे, या तो तुम्हें उन्हें छोडनाही पडेगा। ये हमेशा तुम्हारें काम तो नहीं आयेगे न? फिर इनमें भूले रहकरही अपना जीवन
बिताना ठीक होगा क्या? गोस्वामी तुलसीदासजीके बारेमें हम सुनते हैं कि अपनी रूपवती पत्नीमें वे बडे आसक्त हुए थे। आधी रात में, काली घटाएँ छायी हुई थी, बिजली चमक रही थी, नदी में बाढ आगयी थी; फिरभी अपनी पत्नीसे
मिलने उन्होंने नदी पार की और आपत्तियाँ झेलकर साँपको रस्सी समझ वे खिडकीसे अंदर पहुँच गये। अपने पतीका यह मोह, यह साहस देखकर रत्नावली अचंभेमें पड गयी। उसने अपने शब्दोंसे पतीकी आँखें खोल दी।
वह कहती थी *अस्थिमाँसमय देह यह, तामें जैसी प्रीती।
तैसी जो श्रीराममहँ, होति न तो भवभीति।।*
अर्थात् मेरे चमडेके देहपर जो प्रेम आप कर रहें, वही अगर प्रभुरामसे करते तो क्या से क्या बन जाते!... उसकी बातें सुनतेही तुलसीदासजी की आँखोंका परदा हठ गया। वे निस्सीम रामभक्त बन गये और भक्तिका प्रचार कर उन्होंने लाखों जीवोंका उद्धार किया। वे तो अपनी पत्नीकोही
जैसे गुरू मानने लगे थे। कहते थे
*कटे एक रघुनाथसँग, बाँधि जटा सिर केश।
हम तो चाखा प्रेमरस, पत्नीके उपदेश।।*
उपासकों! अपना मोह जीतेबिना क्या कोई महापुरुष बन सकता है? सोचो, समझो और अपने अंदरकी तेजोमय शक्ति प्रकट करो; तभी तुम्हारा जीवन सफल हो सकेगा!