-१७-संतवृक्ष किसे फलते हैं?
(ता.१७-९-१९३६)
उपासकों! ईश्वर कोई अप्राप्त वस्तु नही है, वह तो सबके लिए
प्राप्तही है, बल्कि वह तो अपनेमेही व्याप्त है। वह वस्तु पुरुषसे भिन्न होती तो इसका जीवित एक क्षणभी नही रहता। ईश्वर वस्तु जितनी हमारे नजदीक है उतनी कोईभी वस्तु नजदीक नही है। और कोईभी वस्तु उससे दूर नही है। उसे जो आँखें देखना चाहती हैं उन आँखोंकी देखनेकी शक्ति
उसी ईश्वरकी प्रभा है। वह आँखोंसे नहीं दिखाई देता, बल्कि आँख उसीसे दिखाई देती है। ईश्वरको देखनेका चष्माही अलग होता है। हम तीरथमूरत देखते मगर यहभी विषयदर्शनही है, ईश्वरदर्शन नही। सच्चा
ईश्वरदर्शन संतोंकी कृपासे अंतरंग दृष्टि पानेपरही हो सकता है। सत्संग बडी अमोल चीज है। मगर वह धनदौलतसे, सत्तासम्मानसे खरीदी नही जा सकती। दृष्टान्त सुनिए! एक शहरके नजदीक एक कुटिया में एक महात्मा रहता था। उसके पास कईं शिष्य अध्ययनमनन करते हुए रहा करते थे। बडा परिवार था; मगर उनमेंसे कोई भीख नही माँगता था। लोगोंको बडा अचरज लगता था कि इन सबका निर्वाह
कैसे चलाया जाता? उस महात्मासे किसीने पूछा, तो जवाब मिला-*भाई! ईश्वरकी दयासे अपने आप गुजरान चलती है!* इसका रहस्य आखिर क्या है? किसीकी समझमें नही आता था।
फैलते-फैलते यह बात राजातक जा पहुँची। राजाने प्रधानको भेजा। महात्मासे पूछा गया कि, *आपके पास ऐसी कौनसी किमया है,हमें बता दो!* महात्माने कहा- *मेरे पास सुवर्णसिद्धि है; मगर मैं किसी बडे । आदमीको वह कभी बताऊँगा नही। * प्रधानजीने प्रलोभन दिखाया, डरायाधमकाया मगर कुछ लाभ न हुआ। उसने राजासे सबकुछ कह दिया। राजा खफा हुआ और उसने उस महात्माको जेलमें डाल दिया। वहाँभी महात्मा । मजेसे दिन काटता था। राजाने वहाँ जाकर प्राणदंड की धमकी दी, तो महात्मा हँसने लगा। राजा निराश हुआ। उसके सारे उपाय बेकार साबित हुए थे। आखिर राजाने उस महात्माके एक शिष्यसे पूछताछ की। शिष्यने कहा- *महाराज! आप बडाई छोडकर उस महात्माके पैर पकड लीजिए। गरिबी धारण कर उनसे याचना कीजिए। तभी आपकी मनोकामना पूरी हो सकती है।* राजाने फटेहाल व्यक्तिका रूप लेकर उस महात्माको जेल जा प्रणाम किया और कहा- *स्वामीजी ! मैं आपका और प्रजाका सेवक हूँ। सबके कल्याणके लिएही आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे सुवर्णसिद्धि बता दीजिये।* और उस महात्माने तुरंत उसे बता दिया।*... दूसरे दिन सम्मानसे राजाने उस महात्मा को दरबार में लाया और कहा- *स्वामीजी!
अतमें आपने मुझे अपना मर्म बताही दिया।* महात्मा बोले- *नही भाई!
मैंने राजासे नही, रंकसे बतला दिया है।*.. तात्पर्य यही कि सन्तकी
कृपा विनम्र सद्भावसेही पायी जाती है।
* * *