- १८ -  अवतारी पुरुष और वासनाधीन जीव
      ( ता. १ ८-९-  १९३६ )                                                
        उपासकों ! मनुष्यका स्वभाव जो बचपन में होता है उसमें जवानी और बुढापेमें परिवर्तन आ जाता है । आजके विचार चार - छ : महिनों में भी बदल सकते हैं । शरीर तो पलपलमें धीरे - धीरे बदल जाता है । हर एक उत्पन्न हुई वस्तुमें चुपकेसे सदैव परिवर्तन आता रहता है । सारी सृष्टिही इसतरह बदलनेवाली है । एक परमात्मतत्त्वही ऐसा है जो कभी बदलला नही है ; इसीसे उसको * सत्य * कहते हैं । उसपर देश - काल - द्रव्य आदिका कोई असर नहीं होता ।
      उस सत्तत्त्वमें समरस हुए महात्माओंकोभी वही नियम लग सकता  है । जैसे अवधूत , श्रीकृष्ण आदि अवतारी महापुरुष आदिसे लेकर अन्ततकभी एकरसही हुआ करते हैं , भलेही वे न्यूनाधिक स्वरूपकी हजारो लीलाएँ दिखाते हों । मगर सामान्य जीवात्माओंमें हमेशा परिवर्तन आता रहता हैं , फिर वह अच्छा हो या बुरा । सत्संग , सद्ग्रंथ आदि बातोसे मनुष्य में अच्छा परिवर्तन होने लगता है ।

 अवतारी पुरुषोंके बारेमें आप कहेंगे कि क्या राम बचपन में कुछ अलग और तारुण्यमें कुछ अलग नही थे ? उनके व्यवहारोको ही लीला क्यों कहा जाय ? भाई ! बालत्व , तारुण्य , अशक्तता , बलाढ्यता आदी के कारण ऊपरसे कमजादा दिखाई देना तो स्वाभाविक है , परन्तु उनके ज्ञान में कभी अन्तर नही आता । अपनी स्वरूपावस्थाको भुलाकर वे कभी भी कार्य नहीं करते । अवतारी पुरुषका बालत्व हो या तारुण्य सभी मे एक 


अलग छटा नजर आती है जो औरों में नही दिखाई देती । उनके हर कार्यमें विशेष उद्देश्य होता है , जो औरोक कल्याणके लिए हुआ करता है ; उनकी वह कृति *लीला * मानी जाती है । अन्य लोग तो * प्रारब्ध के प्रवाह में बहनेवाले पराधीन जीव होते हैं ।
       बालत्वसे लेकर जो जो काम मनुष्य जीवनभर करता है , जो कुछ सुनता और अनुभव करता है , उसीके संस्कार उसके अंत : करणपर होते हैं । व्यवहारोंके संस्कारोंके साथही वैरविरोधकी भावना , हर प्रकारकी इच्छा इन बातोके भी संस्कार मनपर अंकित हुआ करते हैं । तीव्र इच्छा कोहि वासनाए कहा जाता है । मनुष्य जब मरने लगता है तो उसके मामुली संस्कार तो गल जाते है , लेकिन तीव्र संस्कार वासनाओंके रूपमें खडे हो जाते है I
उसकी प्रमुख वासनाही सारथी बनकर जीवात्माको दूसरे जन्म या अन्य योनिमें ले जाती है । विद्वान बुवाकोभी वह नही छोडती । बलिष्ठ वासना हर एकके प्राणोंपर सवार हों उसे अपने प्रिय वस्तुओंके ठिकाने खींच ले जाती है ।
       ख्याल रक्खो । आज सुबहसे शामतक तुमने कोई पाँचसौ मुखडे देखे होंगे , परंतु संध्यासमय या सोतेसमय क्या वे सबके सब तुम्हारी आँखोंके सामने खडे हो जायेंगे ? नही ! जिनका तुम्हारे दिलपर कुछ विशेष प्रभाव पडा हो या जिनकी कुछ चिंता तुम्हें मालूम हुई हो वेही मुखडे तुम्हारी आँख लगनेके साथ तुम्हें दिखने लगेंगे । इसीतरह सारे जीवनमें अनंत काम करोगे तोभी जिन कामोंका विशेष असर या आसक्तिभाव तुम्हारे दिलमें रहा होगा , वेही काम वासनारूप धारण कर अंत समयमें तुम्हारे सामने खडे रहेंगे । साधारण जीवकी तो बातही क्या , ऋषि - मुनियोंकोभी यह नहीं चुकता ।


दृष्टान्त सुनो । एक बडे प्रसिद्ध महात्मा थे । हजारों चेले थें उनके । वे स्वयं तीन जन्मोंका ज्ञान बताते थे । वे सख्त बीमार हुए तो चेले चिन्ताकुल होकर रोने लगें । और तो और , स्वयं वे महात्माभी रोने लगे तो कुछ शिष्योंने कहा - * महाराज ! आपका दुख हमें दीजिए । *महात्माने कहा - *जिसका संचित उसीके साथ । एकका प्रारब्ध दूसरा कैसे भोग सकता है ? गुरुके दैवका फल शिष्यको कैसे मिलेगा ? लेकिन मेरे रोनेका कारण कुछ अलग है बेटों ! मैं साधु तो हूँ लेकिन मेरा अगला जन्म सूअरकी योनिमें होनेवाला है । वहाँसे मुझे मुक्त कौन करेगा ? *
       शिष्योंने आश्वासन दिया और तफसील पूछा । महात्माने कहा कि * अमुक स्थानपर अमुक तारीखको सफेद पट्टेवाला सूअर का बालक जनम पायेगा , उसे खोजकर तुरंत मार डालोगे तो मैं उस योनिसे मुक्त हो जाऊँगा ॥ * . . . महात्माके निर्याणके बाद निश्चित स्थान तथा समयपर शिष्योंने देखना शुरु किया । उस सूअरके बच्चेको देखतेही वे पकडने दौडे तो वह बच्चा जान बचाने भाग निकला । शिष्योंने उसे पकडही लिया तो वह जी - जानसे चिल्लाने लगा । उसे मानवी वाचा फूट निकली और वह कहने लगा - * बेटों ! मुझे मारो मत । अब तो मुझे इसी योनिमें अच्छा है । मुझे जीने दो । यहाँका सुमधुर दूध पिने दो । *

      सज्जनों ! बडे बडोंको वासनानुसार जन्म लेना पडता है तो तुम्हारी बात अलग कैसे हो सकती है ? इतनाही है कि योगभ्रष्ट पुरुष किसी कारणस  जब अन्य योनियोंमें जनम लेते हैं तो वे अपनी अवस्थाको भूलते नहीं । जैसे हनुमान , गजेंद्र , काकभृशुंडी आदि । उनमें मानवी वाचाभी प्रकट हो सकती है । राजा भरत सर्वस्वका त्याग करनेके बाद भी हिरनके बच्चे मे


आसक्ति दृढ हो जानेके कारण उसके शोकमें मर गये और उसी वासनासे हिरनका जन्म पानेपरभी अपनी - अपनी अवस्थाको नहीं भूले । इसीलिए बादमें जडभरतका रूप लेकर मौनपूर्वक जीवन बिताने लगे और उचित समयपर राजा रहूगणको उपदेश करने लगे , ऐसा भागवत में कहा गया है ।
* जडभरत राजा हरणीगर्भा गेला । घाला तो घातला वासनेने * ऐसा उदाहरण देते हुए सन्त तुकाराम महाराजने सिद्धान्त बताया है कि * वासनेच्या संगे जन्म घेणे लागे । * ( नाथ . ) वासना जो भी हो उसी मुताबिक हमको जन्म लेना पडता है । इसलिए मित्रों ! वासनाओंके बारेमें हमेशा सावधान रहो । यह मानवजन्म इसलिए हमें नही मिला है कि हम नीच योनियोंमें चले जायँ ; बल्कि इसलिए मिला है कि हम अपना उद्धार कर लें , परमात्मासे तादात्म्य प्राप्त कर लें । अपना ध्येय प्राप्त करने के लिए पहले अपने मनको सुरक्षित रक्खो । अपनी वासनाओंको शुद्ध सात्विक बनाते रहो , सत्संग तथा सद्ग्रंथद्वारा सुविचार प्राप्त करके वासनाओंको जीतते रहो । छलकपट , दंभद्रोह , आलस - अनीति आदिमें भूलो मत । पलपल यह ख्याल रक्खो कि हमें ईश्वरके पास जाना है , तभी तुम अच्छी प्रगति कर सकते हो ।
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