- १९ - प्रपंच में परमार्थ - लाभ !
( ता . १९ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! मनुष्य - जीवनमें ब्रह्मसाक्षात्कार कर लेना यही सर्वोत्तम ध्येय या लक्ष्य होना चाहिए । इसके लिए संन्यास लेने या अरण्यमें जा बैठनेकी जराभी जरूरत नही होती । मनुष्य जिस किसी स्थितिमें पैदा हुआ
उसी स्थितिमें सत्यको चुनकर असत्यको छोड देना यह कार्य संभव हो सकता है , फिर बाहरी स्थिति बदलनेसे क्या लाभ ? मनुष्य वही जो ध्येयको निश्चित करके उसकी तरफ सावधानीसे बढ सकें । और सबका अंतिम ध्येय तो एकही है - परमार्थ ! हमारे सभी सांसारिक लाभ तो क्षुद्र है , परम अर्थ नहीं । सबसे परम अर्थ है अविद्याको हटाकर आत्मसाक्षात्कारको प्राप्त कर लेना । इस अर्थ या लाभसे दूसरा श्रेष्ठ लाभ होही नही सकता । सभी लाभ इसी लाभमें आ सकते हैं ।
ज्ञानकी बातें करना या ब्रह्मकी स्तुति गाना यह परमार्थ नही है । अपनी आत्मशक्ति , उसकी व्यापकता , उसकी दिव्यता का अनुभव करना यही परमार्थ है - यही मानवमात्रका ध्येय है । सिर्फ सुखचैन , नाचगाना , रंगरेलियाँ , विषयोपभोग , सैंकडों व्यवहार - इसीमें जीवन बितानेवाला तो मनुष्य कहलाने योग्यभी नही होता ; फिर ध्येयकी बातही क्या ? ध्येयवादी पुरुषको संसार छोड देना चाहिए ऐसा इसका अर्थ नही है । संसारकी आसक्तिको छोडनाही परमार्थ का रास्ता तय करना होता है । वासनाओंका नाश यही सच्चा संन्यास *कहा जाता है । अरण्यमें जानेका उद्देश्य त्यागही था और सच्चा त्याग घरसंसारमें रहकर भी हो सकता है । क्योंकि उसका संबंध दिलसे होता है , बाहरकी चीजोंसे नही । इसीसे संतग्रंथोंमें *धन्यो गृहस्थाश्रमः *कहा गया है । श्रीसंत तुकाराम महाराज जैसे सन्तोंने कहा है कि *नका सोडू रांडापोरे । *
कोई संन्यासी हो या गृहस्थाश्रमी , विद्वान हो या अविद्वान , राजा हो या रंक , स्त्री हो या पुरुष - वह अगर बुरी बातें छोडकर सच्चाईपर अमल करता हो , मनको जीतकर ईश्वरकी खोज करता हो तो अपनी - अपनी अवस्थामेंही उत्तम हो सकता है ; परमार्थध्येय को पा सकता है । कोई
लकडीका काम करता हो या लोहेका , पूजा का काम करता हो या भंगीका , उसकी ध्येयप्राप्ति में उसका वह काम बाधा नही डाल सकता । ऐसा छोडना या पकड़ना , इसकी कोई जरूरतही नही होती । जरूरत होती है खाली ईमानदारीसे सच्चे विचारोपर अमल करने की । प्रपंच सेवारूप बनानेकी और ऋषियोंके समान अपनीही अवस्थामें पंचतत्त्वरहित शुद्ध तत्त्व पानेकी ।
दृष्टान्त सुनिए । एक ऊँचे वर्णका संन्यासी हिमाचलके अरण्यमें बारह सालसे तपस्या कर रहा था । वह नदीकिनारे एक बडी शिलापर बैठा हआ सोचने लगा कि क्या अभीतक मुझे तप : सिद्धि नही मिली होगी ? उसीवक्त ऊपरसे एक बगुला उडता चला जा रहा था जिसने उस संन्यासी के बदनपर बिट ( विष्ठा ) कर दी । संन्यासी गुस्सा होकर देखने लगा तो वह बगुला भस्म होकर निचे गिर पडा । संन्यासीको बडा संतोष और अभिमान होगया कि , मुझमें अब सिद्धिशक्ति आगयी है , अब दुनियामें मुझे कोई नही जीत सकेगा । उसने अपनी गुंफासे डंडा - झोली उठा ली और जटाजूट - कौपिनधारी वह संन्यासी चला गाँवोंकी ओर ।
एक देहातके छोटेसे मकानके सामने उसने आवाज लगायी - * ॐ भिक्षादेहि । *दरवाजा बंद था । एक पतिव्रताने जबाब दिया - * महाराज ! थोडी देर ठहरो , मैं अपने बीमार पतीकी सेवा में हूँ । * . . . थोडी देर बाद संन्यासी फिर पुकारने लगा और फिर वही जबाब पाकर वह आगबबूला हो गया । बोला - *तुम जानती नही हो , मैं कौन हूँ ? *उस पतिव्रताने दरवाजा खोलते हुए कहा - *महाराज ! आँखोंसे आग मत बरसाओ । मैं वह जंगलका गुला नहीं हूँ जो तुम्हारी आँखोंके प्रतापसे भस्म हो जाऊँगी । सुनतेही सन्यासी आश्चर्यमें डब गया । अरण्यमें उस घटनाको देखनेवाला तो काई । नहीं था , और फिर इतनी दूर रहनेवाली यह घरबारी औरत उस बातको
कैसी जान गयी ? क्या इसके पास ऐसी कोई सिद्धि है ? - ऐसा सोचते । हुए वह पूछने लगा तो उस पतिव्रताने कहा - *महाराज ! मेरे पती बीमार हैं और उनकी सेवामें रहना जरूरी है । इसलिए यह माधुकरी ले लो और मुझे जाने दो । तुम्हें यह बात जानना आवश्यक मालूम होता हो तो काशीमें जाकर धर्मव्याध नामके कसाबसे पूछताछ करो । *
कसाब और ज्ञान ? संन्यासी और चकरा गया , लेकिन दूसरा उपायही क्या था ? वह सीधा काशीजीके बाजार में गया । खोज करनेपर उसे उस कसाबकी माँस बेचनेकी दुकान किसीने दूरसे दिखा दी । वहाँ जान की हिंमत नही पडती थी लेकिन वह जिज्ञासावश कुछ आगे बढा , तो स्वयं । धर्मव्याधनेही कहा - * स्वागत हो संन्यासीजी ! उस देहाती बाईनेही आपको मेरी तरफ भेजा है ना ? तो चलिए , मैं दुकान समेटकरही आता हूँ । आपको यहाँ अच्छा नही लगेगा । * . . . संन्यासीको औरभी अचंभा लगा कि इस आदमी को मुझे किसने भेजा यह कैसे मालूम हुआ ? यह कैसा तारायंत्र है ?
धर्मव्याधने दुकान समेटकर घरकी राह ली । अपनी घिनौनी दुकान एक कमरेमें बंद कर दी और नहा - धोकर वह पेड - तले खडे संन्यासीके पास आया । संन्यासीने डरते - डरते उसके मकानमें प्रवेश किया तो देखा कि बडा साफसुथरा मकान है । सडासंमार्जन करके तुलसीवृंदावनके पास रंगोलियाँ निकाली हुई है । बैठकमें अगरबत्तीकी सुगंध भरी हुई है । वृद्ध माता - पिताको प्रणाम करके और संन्यासीको आदरके साथ आसनस्थ करके धर्मव्याधने कहा - *संन्यासीजी ! आप यही पूछना चाहते हैं ना कि एक मामूली औरत आपकी बगुला भस्म कर देनेकी घटना कैसे जान गयी ?
और मैंने आपके आनेका कारण कैसे समझ लिया ? कौनसी वह सिद्धि है ; जिससे हम दोनों सामान्य जीव यहाँतक पहुँच सकें ? *
तो सुनिए । धर्मव्याध बोला - *तपस्या किसी अरण्यमें जाकरही नहीं करनी पडती ; वह तो घरमेंभी अपने व्यवहार - व्यवसायमेंभी की जा सकती है । मैं न तो माँस खाता हूँ और न किसी प्राणीका वध करता है । परंपरागत व्यवसायके नाते मैं खाली खरीद - बेचका व्यापार करता हूँ , वहभी । नेकीसे - ईमानदारीसे । नापतौलमें या कीमतमें मैं जराभी असत्यता नहीं बरतता । सत्यता , अक्रूरता , अनासक्ति और शांतिसे मैं अपना जीवन बिताता हूँ । तीर्थरूप समझकरही अपने माता - पिता की सेवा करता हूँ । और वह पतिव्रताबाई अपने पतीकी सेवामेंही * स्वर्ग * समझती है तथा आदर्श जीवन बिताती है । इसी तपस्याके बलसे चित्तशुद्धि होकर हमारा आत्मबल बढा है , और कुछ नहीं । *. . .
मित्रों ! इसका तात्पर्य यही है कि जंगलमें जानेसेही हमारा उद्धार हो सकेगा ऐसी बात नहीं है । सत्य - त्याग - अहिंसादि सदगुणोंको अपनाओगे और सेवाभावसे अपना कामधंधा ईमानदारीसे करोगे तो घरमें रहकरही तुम परमार्थप्राप्तिके अधिकारी बन सकोगे । इसके लिए होनी चाहिए अपने ध्येयकी लगन ! फिर तो किसीभी हालतमें हम आगे बढ़ सकते हैं ।