- २० - द्वैत और अद्वैत ब्रह्मदर्शन !
       ( ता . २० - ९ - १९३६ ) 
उपासकों ! अविद्यासे नानात्व भासमान होता है जिससे अपना वास्तविक आत्मस्वरूप प्रतीत नहीं होता । फिरभी मजेकी बात यह है कि उस अविद्याको प्रकाशित करनेवाला स्वयं आत्माही होता है । शरीरमें अगर


आत्मवस्तु न होती तो शरीरको चलाता कौन ? विद्याको विद्यारूपसे कौन प्रकट करता ? इंद्रियों के व्यवहारोंका कौन निरीक्षण करता ? उन इंद्रियोंका साक्षित्वभी कौन करता ? मनकी चंचलता किसके ध्यानमें आती ? बुद्धिकी  निश्चयात्मकता या जानकारी कौन जानता ? निर्विकल्प अवस्थाका अंत : करण किसको समझता ? निद्रा या मूर्छावस्था में मनबुद्धि तो काम नही देती , फिर उस अवस्थाका साक्षी कौन होता ? जो स्फूर्ती पैदा होती । है उसका स्थान या स्वरूप किसे मालूम पडता ? - मतलब यह कि अपना । आत्मतत्त्वही यह सब करता है और अपना आत्मतत्त्व *इतना कहनेकीभी गुंजाइश नही रहती , क्योंकि वह आत्मतत्त्व स्वयं हमही ता हैं !
यह आत्मतत्त्व एकही विशिष्ट स्थानपर होता है और बाकी जगहोंपर उसका अस्तित्व नही होता , ऐसीभी बात नही है । रोमरोम और कणकणमें वह भरा हुआ है । यहाँसे वहाँतक वही व्याप्त है । सारा विश्वसंसार यह आत्मतत्त्वपरही दिखनेवाला एक आभास है , दृश्य है , दिखावा है । अध्यासके कारण वह विश्वरूप नजर आता है ; वास्तवमें आत्माके अतिरिक्त कुछभी वस्तु शिल्लक ( शेष ) नही है । सभी जगह एक वही है यह जो जान लेता है उसके लिए किसी मार्ग या पंथकी , धारणा या साधनकी कोई जरूरत नही रहती । जबतक वह ज्ञानप्रकाश नहीं मिलता तबतक साधनाभ्यास आवश्यक होता है । सभी जगह ईश्वरदर्शन जो ज्ञानसे करता है , उसके लिए अन्य ग्रंथोंकीभी जरूरत नहीं होती । वस्तुको देखते हुए वस्तुत्व छोडकर आत्मरूप का दर्शन करनाही साधनोंकी अंतिम गति । है । *तस्य कार्यं न विद्यते * । उसका कोई कर्तव्यही बाकी नही रहता ।
*खांबसूत्रीची बाहुली । जये पुरुषे नाचविली ।
तो पुरुषचि बाहुली हे बोली । घडे केवी ? । । *


गड़ियोंको नचानेवाला स्वयं गुडियाँ नही होता । बढैया खंभा बनाता है लेकिन वह खंभेसे अलग रहता है । ये बातें ख्यालमें लेकर कोई कह सकते हैं कि दुनियाके झगडे - तितंबे खडा करनेवाला परमात्मा स्वयं दुनिया कैसे हो सकता है ? भाई ! आरंभसे यह द्वैतवादही समझनेमें सुगम हुआ करता है ; विशेषरूपसे जँचता है । लेकिन अनुभवकी कमान बढ जानेपर तो अद्वैतकी अवस्था आपसे आप प्राप्त होती है । फिर *जगत् का प्रकाशक ईश्वर हैं* यहाँतकही पहुँच नहीं रहती तो *जगत् ईश्वरकाही प्रकाश हैं*  यह अनुभव हो जाता है । अर्थात् जगत् का अलग अस्तित्वही नही रहता , एक चित्प्रकाशही अनुभूत होता है । सब वस्तुओंका वस्तुत्व समाप्त होता है और एक आत्मत्व - ब्रह्मत्वही प्रतीत होता है । यह ख्याल या ज्ञान होनेपर फिर मंदिर - मसजिद आदि बातोंकी जरूरत कहाँ ?
प्रश्न पूछा जा सकता है कि अगर ब्रह्मईश्वर सभी जगह है तो दिखाई क्यों नही देता ? इसका उत्तर यही है कि , भाई ! आकाश तो सभी जगह है , परन्तु क्या वह नजर आता है ? ऊपर जो अथाह नीलिमा दिखती है उसीको लोग आकाश कहते हैं परन्तु यह गलत है । आकाश अवकाश भकास ऐसा समर्थ रामदास कहते है वही ठीक है । वैसे तो योगी आत्माकोभी नालत्वसे देखते हैं । सच तो यह है कि आत्मामें कोई रंगरूप नहीं होता । *रूप तो कल्पनाविलास है । वास्तवमें ब्रह्मरूप को तो देखाही नही जाता । सन्तोने कहा हैं - * कसे बोटाने दाखवू तुला ? घे अनुभव गुरुप ना कहा है - *तोचि लच्च्यामाजी भला । म्हणे देव म्या दाखला । ।
प्रश्न आ सकता है कि * अगर ब्रह्मदर्शन नही होता तो हमारी पूर्णता कैसे होगी ? बिना ईश्वरदर्शनसे मुक्ति कैसे मिलग इसका उत्तर


यही है कि ब्रह्मदर्शन अन्य वस्तुओंके जैसा आमने - सामनेसे नही हो सकता ; त्रिपुटिके रूपमें नहीं हो सकता । परन्तु *देव पाहायासी गेलो । तेथे देवरि होऊनि ठेलो *ऐसा एकरूपतासे वह दर्शन होता है । जो * दिखता *नहीं उसका *दर्शन* कैसे होगा ? जो देखनेवाला * है वही होकर रहना यहाँ जरूरी होता है । मतलब यह कि वहाँ अनुभवकीही पहुँच होती है , न कि दृष्टिकी ।
सज्जनों ! उस अनुभवका ज्ञान सत्संगमेंही प्राप्त होता है , जिससे हम शुद्ध स्वरूपमें मिल सकते हैं । वह ज्ञान इसी जन्ममें पाया जाता है । इसलिए जिस संगतिमें , जिस स्थलमें , जिस साधनद्वारा हमको वह मिल सकता है , वहाँपर सावधानीसे हमें दौडते हुए जाना चाहिए , जैसे बच्चा माँकी तरफ दौडता है । तभी हमारे जीवनका साफल्य हो सकता है । यह ख्याल रक्खो ।