- २१ - मनोजय का महत्त्व और उपाय
( ता . २१ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! आत्मरूपसिद्धिको प्राप्त करनेके लिए वायुगतिसे लाखों गुना ज्यादा गतिमान मनको प्रवास करनेसे रोककर केंद्रिभूत करना पड़ता । मन अतिचंचल है , आत्मा एकरस है । जबतक मन केंद्रिभूत नहीं करते , मनोजय नही किया जाता , चित्त को एकाग्र नही बनाया जाता , तबतक कईं दर्गोंके अंदर बैठा हुआ मकान - मालिक दर्शन नहीं दे सकता । राजाका दर्शन करना हो तो सुशोभित वेषभूषा करनी पडती है , कुछ मर्यादा सीखनी पडती है ; कुछ भेंटवस्तु लेकर नम्रता धारण करनी पड़ती हैं । आत्मदर्शन
के लिए बाहरी चीजोंकी जरूरत नही होती । यहाँ तो अहंकारकी भस्म रमानी पडती है ; चंचलताको मर्यादा लगानी है ; ज्ञानकी माला लेकर नमन करना पडता है । नमन का अर्थ *जहाँ मनही न हो । *
मनका अमन होना तो बादकी बात है , परंतु पहले मनको काबूमें लाना - काबीज करना अति आवश्यक है । मनको बिना कब्जेमें किये कोईभी आत्मपुरमें प्रवेश नही पा सकता , फिर आत्मसिद्धि कैसे मिलेगी ? इसलिए मन जब अंकुररूपमें उठता है तभी उसे काबीज करना जरूरी है । उस अंकुरको विषयोंकी हवा दोगे तो वह बेतहाशा बढेगा और उसने पेडका रूप लिया तो उसे काटना बडा मुश्किल हो जाएगा । देखो , मनको कभीभी अनावर ( अनियंत्रित ) मत होने दो । वह बेफाम हुआ तो सारे प्रयत्न बेकाम हो जाते हैं । मनका पल्डा भारी हुआ कि इंद्रियाँ बावरी बन जाती हैं । पल्डा तो बुद्धिका - विवेकका भारी होना चाहिए । भगवान गीता में कहते हैं कि , *वायु वमिवाम्भसि * - हवाके झोंकोंसे नैया जैसी समुंदरमें झकोरे खाती और कहींसे कहीं निकल जाती , उसी मुताबिक विषयोंकी हवासे मन बेकाबू होकर दुर्गतिकी ओर बढ़ जाता है । इसलिए मनको विषयोंकी तरफसे खींचतें जाओ । विकल्पों या बुरी कामनाओं की तरफ बढनेकी उसे फुर्सतही मत दो । नहीं तो बडे बलवानकीभी वह एक नही सुनेगा और उसे *चितपट * कर देगा ।
दृष्टान्त सुनो ! एक राजाके दरबारमें एक सौदागर गया और राजासे बोला - *महाराज ! एक जादुई नौकर मेरे पास है । वह इतना बलवान है कि हजारों आदमियोंका काम चुटकी बजातेही अकेला कर डालता है । * राजाने पूछा - *कहाँ है भाई वह नौकर ? *सौदागरने कहा - * इस छोटीसी डिब्बीमें बंद है । उसे बाहर निकालतेही वह बढ़ जाता है और हर किसमका काम चुटकीमें कर देता है ; उसकी शर्त एकही है कि मुझे हमेशा काम चाहिए ।
जबभी काम नही मिलेगा , मैं छातीपर बैठकर खून पी जाऊँगा । *राजाने शर्त मंजर की । उसे लगा कि अपने पास कामोंकी क्या कमी ? उसने मुँहबोले दाम देकर वह डिबिया खरीद ली ।
राजाने जब डिबिया खोली तो उसमें से ढेर सारा धुआँ निकला और वह जादुई नौकर एक लंबेतडगे शैतान के रूपमें साकार हुआ । उसने राजाको प्रणाम करके काम माँगा । राजाने कहा - * भाई ! राजधानी के निकट जो बडा पहाड हैं उसे खोदकर समुंदर में डालके आजा । *वह जादुई नौकर उसीक्षण काममें जुट गया और राजाने शांति की साँस ली । मगर अचरज यह हुआ कि हजारों मजदूरोंका हजार दिनोंका काम उस जादुई नौकरने एक दिनमें पूरा किया । राजाके आश्चर्यकी सीमा नहीं थी । राजाने उसे बताया कि * भाई ! अब पर्वतमय प्रदेशोंमेंसे गुजरनेवाली महानदी को लोगोंकी
खेतीके उपयोगके लिए मैदानी प्रदेशमेंसे बहा दे ; देखना किसीका नुकसान न हो । *और यह कामभी उस नौकरने फौरन पूरा कर डाला । इसतरह राजाने उस नौकरके हाथों बड़ी - बडी ईमारतें खडी करली ; पूल बनवा लियें ; सडकें तैयार करवा ली ; कुएँ खुदवायें और ना जाने कितने कठिन से कठिन काम करवा लिये ।
उस नौकरकी काम करनेकी गति अजीब थी और अब काम तो बहुत कम बचे हुए थे ; इसकारण राजा चिन्ताग्रस्त हो गया । इस शैतानको जिस दिन मैं काम न बता सकूँगा उसीदिन वह मेरी छातीपर सँवार होकर मुझे मार डालेगा और वह समय अब दूर नहीं है इसी चिन्तामें राजाका खानापिना । कम हो गया , नींद हराम हो गयी । वह पीला पडकर सूखने लगा । राजाकी यह हालत देखकर सभीको रोना आता था लेकिन इसपर दवाही क्या थी ? अकस्मात एक संत - महात्मा उस नगरीमें आये तो राजाकी जानमें
जान आगयी । महात्माका बडा भावभीना स्वागत करके राजाने प्रार्थना की * महाराज ! मैंने इस जादुई नौकरके हाथों कई मकान बनवायें , पूल बनवायें हजारों काम करवा लिये । इसकी ताकतही कुछ ऐसी है कि महिनोंका काम वह निमिषमें कर डालता हैं । अब मैं अगर इसे काम न दूँ तो वह मुझे खा डालेगा । अब काम लाऊँ तो कहाँसे ? *महात्माने हँसकर कहा * राजा ! चिन्ता न कर । मैं कल सुबह तुझे मार्ग बता दूंगा । *
और दूसरे दिन स्नान आदिसे निवृत्त होकर राजाने उस संत महात्मा के चरणोंका वंदन किया और विनम्र भावसे इलाज पूछा । तब महात्माने कहा - * राजा ! ध्यान देनेकी बात यह है कि यह तेरा नौकर है , मालिक नही । मगर तूने इसे मानो अपना मालिकही बना रक्खा है , यही भूल है । अब इससे डरना छोड दे और इससे चाहे जितने अच्छे काम करवा लें । जब कोई कामही न हो तो एक नया काम इसे हमेशा के लिए बता दे । तेरे तीन हजार तिफनके बगीचेमें लोहे का एक बडासा खंभा गाड दे । यह कामभी उसीके हाथों ठीक करवा ले । और उसे बता दे कि भाई ! जबभी फुर्सत मिले और कोई काम न रहें तबतब इस खंभेपर चढता जा और उतरता जा , बस यही तेरा काम है । *. . . राजाने वही उपाय किया और वह चिन्तामुक्त हो गया !
भाइयों ! * बिना सन्तके जगति नहीं *यही सत्य है । ख्याल रखो , यह जीवात्माही राजा है और मनही जादुई नौकर है । मनकी संगतिसे चतन्याभास जीवात्मा लाचार हो गया है । संसारमें उसकी दशा कुत्तेके जैसी हुई । उसे संवारनेके लिए मनको धीरे - धीरे वशमें करना जरूरी है । मनको अच्छे कामोंमें लगाना और जब काम न हो तब साधनाभ्यासमें जुडा देना ,
चिन्ता - दुख मिटानेका उपाय है । सद्सद्विवेक , सद्ग्रंथविचार
न्यायनीति और सेवाका कार्य , भजन - चिंतन इत्यादी कामोंमें मनको लगानेवालाही प्रगत होता रहता है । परन्तु मनको जब कोई अच्छा काम नहीं दिया जाता , तब कहते हैं उजाड मकानमें शैतान वास करता है । मनकीभी वही हालत होती है । श्वासनलिका के खंभेसे मनको जोड देना . अजपाजप में उसे लगा देना , बडा उपयुक्त प्रतीत होता है । अजपाजपकी जगह नामजपभी उपयोग में लाया जा सकता है ।
याद रक्खो ! बंधन और मोक्ष मनपरही अवलंबित है । संसार और परमार्थ मनकेही माथे हुआ करता है । इसलिए मनमें जब किसी बुराईका अंकुर पैदा हो तभी विवेक - वैराग्यसे उसे छेद डालो । मनको जीतते जीतते मनातीत अवस्थाको प्राप्त करो । मनका समाप्त होनाही आत्मरूपका प्राप्त होना है । अर्थात् संकल्प विकल्पको निर्मल करोगे तभी आत्मतादात्म्य की स्थिति को पा सकते हो ।