२२ मनेंद्रियों से सावधान !
( ता . २२ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! अपनी बाह्य कर्मेन्द्रियाँ वशमें करना , उनको अच्छे । मार्गपर चलाना , आवश्यक होता हैं । इसलिए महात्मा कबीरजी कहते हैं
* मन गया तो जाने दे , मत जाने दे शरीर ।
ना खींचे कमान तो , कहाँ लगेगा तीर ? *
इससे होता यह है कि मनमें बुराई आनेपर भी इंद्रियोंकी साथ न मिलनेसे प्रत्यक्षमें कोई अनुचित कर्म मनुष्य से नही बनता । परन्तु यहभी । ख्याल रखनेकी बात है कि , *मनः कृतं कृतं राम * यानी मनसे किया वही
सच्चा पापपुण्य है, ऐसा वसिष्ठ महर्षि कहते है। इन्द्रियोंका चालकभी मनही होता है। पाप या पुण्य मनमें हुआ करता है। इसकारण, बाह्य इंद्रियाँ भलेही खींचकर ताबेमें रखी हुई हो परन्तु अंतरिद्रियाँ यानी मनको यदि स्वैरतासे चलाया जाता हो तो उस साधकको भगवान गीतामें *मिथ्याचारी* अर्थात् ढोंगी कहते है। मन को इंद्रियोंपर स्वार न होने देना तो ठीकही है,
परन्त मनमेंभी बुराईके संकल्प या चिंतन न चले यह विशेष आवश्यक होता है। मनमें पापोंको पालते रहना और बाहरी इंद्रियों को समाज के डरसे सम्हालते रहना, इसीको *दंभ* कहा जाता है।
मित्रों! वैराग्य से मनको रोकते रहो, फिर इंद्रियाँ सहजही रोकी
जा सकती है। मनको रोककर इंद्रियोंको स्वैर होने देनाभी घातक हो जाता हैं। इंद्रियोंको एकदम से न रोको, उन्हें सात्विक विषय दो और साथही मनको विषयोंसे छुडाते रहो अर्थात् विवेक के बलसे। वही साधक आगे बढ सकता हैं। बाहरी साधनोंकी कोई कमी नहीं, परंतु मनको पलभरभी
शुद्ध तथा स्थिर नही रखा जा रहा है तो बारह बरस जपतप करनाभी वृथाही हो जाता है। मन जहाँभी जाये वहाँसे उसे खींच लाना और अपने ध्येयचिंतनमें लगाना यही साधकका काम है। तीव्र प्रारब्धके कारण कभी-कभी बड़े अभ्यासी लोगोंकाभी मन अनावर (बेकाबू) होजाता है और उसके विवेकका अंकुश असर नही करता। वह चाहे बडा तपस्वी हो या ऋषिमुनि, परन्तु प्रारब्धाधीन मनको जीतना
उसके लिएभी मुश्किल हो जाता है। आग से तपाहुआ लोहा जैसे आगसेभी अधिक जला सकता है वैसेही विषयासक्तिसे बेफाम हुए मनपर काबू कठिन हो जाता है और वह मन बुद्धिकोभी विकृत बना देता है। अविवेकही उसे विवेक मालूम होता है और वह अपनी पापवृत्तिका समर्थन करने लगता
है। ऐसे समयमेंभी मन और इंद्रियोंको सम्हालने की जी-जानसे कोशिश करते रहना चाहिए; नहीं तो बडोंबडोंको बडा दुख भुगतना पडता हैं। दृष्टान्त सुनिए। देवर्षि नारद मामुली व्यक्ति नहीं थे। वे तो ब्रह्मचारी थे। मगर एक दिन जंगलमें उन्होंने कोई शृंगारिक दृश्य देखा और। अभ्याससे दबायी हुई उनकी विषयवासना अचानक भडक उठी। ख्याल। रहें, विवेक और आत्मानुभवसे नष्ट हई वासनाही फिरसे उठ नही सकती; खाली अभ्याससे दब जानेवाली कामना फिरसे उठ जानेकी संभावना रहती है। नारदजीने खूब प्रयास कियें, पर कुछ न बना। आखिर ब्याह करनेका उन्होंने निश्चय कर लिया। मगर ऐसे फकीरको कौन अपनी लडकी देता? वासनाओंसे बुद्धिमेंभी अंधापन आ जाता है और किससे क्या नही कहना। चाहिए यहभी वह भूल जाता है। नारदजीने सोचा, भगवान श्रीकृष्ण को तो हजारों औरतें हैं। क्या वह *भांडवलशाही* अन्याय नही है! उन्होंने मुझे एक स्त्री दी, तो उनका क्या नुकसान होगा?
नारदजीने भगवानसे अपनी इच्छा कह दी। भगवान तो उस इच्छा का नतीजाभी जानते थे। उन्होंने खुशीसे कहा- *नारद! मेरी हजारों औरतोंमेंसे कोईभी तुम ले सकते हो। जिसके घरपर मैं न रहूँ उसे तुम खुशीसे ले जाओ। *नारदको बडा हर्ष हुआ। वे श्रीकृष्ण की पत्नियोंका एक-एक घर ढूँढते चले गये। लेकिन वे जहाँ जहाँ जाते वहींपर श्रीकृष्ण मौजूद नजर आते थे। कहीं वह गैयाका दूध निकालते हुए, तो कहीं झूला झूलते हुए, ऐसे कईं काम करते पाये गये। नारदजीको बडी चीढ आगयी। *कामात्क्रोधोऽभिजायते* यह तो नियमही है। खाली एकही मकान ऐसा था, जहाँपर श्रीकृष्ण नही थे। वह था नारदजीकी मुँहबोली बहनका। इससे तो आगमें औरभी घी पडा। मारे चीढके नारदजी पसीना-पसीना होगये और उन्होंने
सोचा कि अब नहानेके बाद भगवानसे बातचीत करेंगे।
नारदजी गंगामें डुबकी लगाकर जब ऊपर निकले तो बडा अचरज स्वयं नारदही औरत बन गये थे। अब नारदजीको बडी शर्म आवेगी। वह नारदी शामतक जगलमेंही इधर उधर घूमती रही। संध्यासमय नजदीकके खेडेका जवान लडका रास्तेमें उसे मिला। पूछताछसे पता चला कि वह उस छोटेसे गाँवका पटेल था। उसका रूप तो भगवाननेही ले लिया नारदीने कहा- *आप मेरे रहनेके लिए कुछ जगह दे सकेंगे?* उसने *हाँ* कहा और वह नारदीको अपने घर ले गया। भगवान ने नारदीको अपनी मायाका चमत्कार दिखाया। कामातुर नारदीको एकही रातमें साठ हजार लडके हूयें और उनका रोनाधोना, खिलाना-पिलाना, इन बातोंमें नारदी बेहद त्रस्त होगयी। वह पश्चात्तापसे बावली बन गयी और आत्महत्त्या करने गंगाकी ओर दौड पडी।
जैसेही नारदीने गंगामें छलांग मारी वैसाही उसमें विवेक जागृत हुआ, बुद्धिमें मानो दिव्य प्रकाश फैल गया। विकारकी जगह वैराग्य उमड आया। नारदी जलसे बाहर निकली तो वह नारद बनी हुई थी। नारदजी *नारायण* की धून गाते हए भगवान श्रीकृष्णके दरबारमें पहुँचे, तो भगवानने बडे प्यारसे कहा- *आओ देवर्षि नारद! कहाँ गये थे?* नारदजीने सब हाल सुनाया और कहा- *भगवन्! मैं क्या से क्या होगया!* भगवान बोले -*भाई! आप जैसे देवर्षिकी भी यह हालत तो सामान्य जीवोंकी बातही क्या? विकारही तो हैं जो ब्रह्मको जीव बना देते हैं! लेकिन यह सब सपना था ऐसा समझकर भूल जाओ और अपने भजनमें मस्त रहो।*..
सज्जनों! श्रीसंत एकनाथ महाराज कहते- *थट्टेने हरविली बुद्धी। कली नारदाची नारदी॥* और *नारद बडा जगत् भारी औरत माँगे दान|
साठ संवत्सरके लडके कियें होगययें दानादान।।* अर्थात् नारद नारीध्यानके कारण स्वयं नारदी बन गये और उनको साठ लडके होगये। यह रूपकभी। हो सकता है; परंतु ध्यान देनेकी बात यह है कि जब कोई वासना बेफाम हो।
जाती है तब विवेक पंगु बनता है और उसी ध्याससे तनमन तदाकार होकर उसीमें आदमी डूब जाता है। मनका असर तनपरभी प्रत्यक्ष रूपमें पडता है। एक बात और। नारदजीको भगवान जब हर घरमें नजर आते तब उनकी वासना वहाँपर अपना जाल फैला नही सकती। इससे यह संकेत
मिलता है कि हम जब भगवानको सभी जगह देखनेका अभ्यास करेंगे तो हमारी वासना-कामना निर्बल बनने लगेगी। *तुझे सगुण रूपडे पाहतमनास वाटे मजा। होय ते विकार अवघे वजा* अर्थात् सर्वत्र भगवत्दर्शन यहभी विकारोंको जीतनेका अच्छा अभ्यास है; मगर ज्ञानके।
अनुभवसेही *जिधर देखता हूँ, उधर तूही तू है।* यह भाव प्रभावी हो सकता है, इसे मत भूलो और वह सच्चा ज्ञान सन्तोंसे प्राप्त करके प्रारब्धजनित सुख-दुखोंसे परे चले जाओ। मनको विवेक के साथ सही भजनमें लगा दो, तभी बेडा पार हो सकेगा!
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