-२३सच्ची प्रार्थना और दिखावा
(ता.२३-३-१९३६)
उपासकों! अपनी आयु का एक-एक पल हम कैसा व्यतीत कर रहे हैं? यहाँ हम जिस कार्यके लिए आयें उसको कहाँतक निभा रहे हैं? हम जो कार्यक्रम कर रहें उनका उद्देश्य जिम्मेदारीके साथ हम कितना पूरा कर रहे हैं? ये बातें तुम्हें रोजाना सोचनी चाहिए। आरती-प्रार्थनाके वक्त तुम आँखें तो
भींच लेते हो, परन्तु तुम्हारे दिलमें क्या प्रार्थनाकीही भावनाएं रहती हैं या और और कल्पनाएँ उठती हैं? यह तो स्वाभाविक है कि तुम्ह कई वस्तुएँ याद आती होगी। दिनभरेमें किये भलेबुरे व्यवहार या गुणदोष दिलमें उठते होंगे। परून्तू उनके साथ यदि पश्चात्ताप नही जगता होगा तो प्रार्थना-उपासनाका
उद्देश्य कभी सफल नही हो सकेगा। खाली आँखें तो मुसाफिरखानेमें गधेभी लगाकर बैठते हैं, फिर उनमें और हममें फर्क क्या हआ? प्रार्थना तो तब सही प्रार्थना होगी जब हम अपने अनुचित कामों और कुविचारोंके लिए पश्चात्ताप करते हए गुरुदेव-भगवानसे क्षमायाचना करेंगे और साथही कलसे सावधानी रखकर सत्य बातोंपर अमल करनेकी
प्रभुके सामने प्रतिज्ञा करेंगे। अगर ऐसा न किया तो भलतीही वृत्तियाँ हमारे दिलमें ताण्डव करने लगेगी और हमारी गतिभी नारदसरीखी हो जायेगी। इसलिए अपराधोंके बारेमें क्षमाप्रार्थना और सद्विचार ठाम बनानेकी प्रतिज्ञा
प्रार्थनाके समयही नही सोतेवक्तभी हमको हररोज करनी चाहिए। काशीमें जाकरभी यदि दुर्विचारोंमें वृत्ति पडी रही तो वह जगह गंदी समझनी चाहिए और अपने घरमेंभी यदि पवित्रता पनपती हो तो वह जगह तीर्थ समझना
चाहिए। हम आश्रममें आते हैं तो इन्ही पवित्र विचारोंके लिए और यहाँ स्थिरचित्त करनेका समय दिया जाता है तो वहभी झूठे आचार-विचारोंको हटाकर सच्ची भक्तिमें रम जानेके लिए। इस मौकेसे लाभ उठाकर अगर हम प्रामाणिकतासे अपने दिलको सुधारेंगे तो कहाँसे कहाँ बढे चले जायेंगे; लेकिन ऐसा न करते हुए खाली ऊपर से दिखावा करते रहेंगे तो कुछ दिनोंके बाद यह पॉलिश उड जायेगा
और सच्चाई सामने आने लगेगी, जिससे हमारी बदनामी होगी। ख्यालरखो, दबे या छुपे विषय कभी-न-कभी प्रगट होही जाते हैं और वे
अध:पतित बना देते हैं। इसलिए इस सुवर्णसंधिको सफल बनाओ, जिससे आगे चलकर सुखही मिलेगा, दुख नहीं।
मित्रों! दृष्टान्त सुन लो। एक राजा के दरबार में एक अच्छा गवैया आया। उसका गायन इतना मधुर और आकर्षक था कि दरबारी लोगही। नही, स्वयं राजाभी रातके एक बजेतक तल्लीनता से गायन सुनता रहा। रातको नींदकी जगह राजाको गानसमाधीही लग गयी थी। राजाकी यह
हालत देख राणियोंने पूछा तो राजाने उस अलौकिक गायनकलाकी तारीफ की। राणियोंने कहा- *महाराज! क्या हमाराही नसीब खोटा है?*
राजाने बात मान ली और उस गायक सूरदासको रनिवासमें बुला लिया।। चींकके पर्दे डाले गये थे। राणियोंने गायन सुना तो वेभी बेहद खुश हो गयीं। फिर तो हररोज गाना सुननेकी राणियोंकी इच्छा हुई। राजाने कहा- *सूरदासको
राजमहलमेंही एक स्वतंत्र कमरा दे दो। अंधा है बेचारा।* सूरदासने कहा*महाराज! मैं अंधा हूँ इसलिए मेरी मदद करनेवालाभी कोई दिया जाय।* रनिवासमें किसी सेवकको तो रखा नही जा सकता था। इसलिए एक दासीको
उसकी मददका काम सौंपा गया। भाई! किसी बडे के घर अन्न ग्रहण करना मुश्किल होता है। वह बडे विचारोंसे या परिश्रम करनेसेही पचाया जा सकता है। मगर सूरदास न तो कुछ परिश्रम करता था और न तो उसके विचारही बडे थे। उसम बस वह गायनकला बहुत अच्छी थी, मगर दिलमें गंदगी भरी हुई थी। वह वास्तवमें अंधाभी नही था, यह तो उसकी एक चाल थी। अब ता उसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी; परन्तु वह सम्हल-सम्हलकरही कदम बढा रहा था। उसकी मददके लिए जो दासी दी गयी थी, वहभी बडी चतुर थी। उसने थोडेही दिनोंमें उसका दंभ भाँप लिया और उसका सही स्वरूप
प्रकटानेके लिए उसने उपाय सोचा । एक दिन सूरदासने दासीको बगीचेमें ले चलनेकी आज्ञा दी । वहाँ जानेपर वह कहने लगा - * मुझे कुर्सी दे ! *दासीने अदबसे कहा - * सूरदासजी ! यहाँ आजूबाजूमें कुर्सी हैही नही तो कहाँस ढूँ ? सूरदास चिढ गया । वह बोला - अरी पगली ! कैसी मूरख है तू ? वह देख , मेरी आँखोंके सामने तो कुर्सी पडी है ! और उसने लाल आँखें निकाली । दासीने झठ राणीके पास जाकर भंडाफोड कर दिया और राजाने जते मार मारकर उसे निकाल दिया । गोस्वामी तुलसीदासजीने उचितही कहा है कि
* उघरे अन्त न होहि निबाह ।
कालनेमि जिमि रावण , राहू । । *
ढोंग टिक नही सकता । आखिर तो वह दुर्गतिही बना डालता है । । इसलिए हमें प्रामाणिकतासे जीवन बिताना चाहिए । अपने विकारोंको - सचमुचही काबूमें कर लेना चाहिए और सावधानीसे परमार्थपथपर आगे बढते जाना चाहिए । ऐसा अगर हम दिन - दिन बढते जायेंगे तो परमात्मपदको पाना कोई मुश्किल बात नही है । इसलिए सावधान !