- २४ - भक्तके अंदर भगवान का आविर्भाव !
( ता . २४ - ९ - १९३६ )
 उपासकों ! भक्त जब अपने भगवानके प्रति अत्यंत भक्तिसंपन्न होता है तब वह विभक्त नही रह जाता ; यानी उसके अंदर भगवानके सारे लीलाचरित्र प्रवेश कर जाते हैं । भगवानके चरणोंमें भक्त का दिल जब विलीन होता है तब भगवानकी शक्तिका भक्तके अंदर संचार हो जाता है , उसकी सारी लीला उसके जीवनमें छा जाती हैं । जिसवक्त तन - मन


धनसे भगवानसे प्रेम हो जाता है तब भगवानका सामर्थ्यभी उसके । अंदर पहुँच जाता है । इसीसे संत कहते है कि भक्त और भगवान में कोई भेद नही रह जाता ; सन्तही भगवन्त बन जातें । सन्त या भक्त इनकी उपाधि । यद्यपि भगवानकी उपाधिसे छोटी हुआ करती हैं , फिरभी उनकी जाति एक होती है , प्रकारका नही । भक्तमें भगवान के कार्यकी छटा प्रकट होती , इसका अर्थ कोई ऐसा न करें कि भगवान श्रीकृष्ण दूधमक्खनकी चोरी करता था , बाँसरी बजाता था और गोप - गोपियोंके साथ रास रचता था , इसलिए श्रीकृष्णका भक्तभी वैसाही करने लगेगा । कोई भक्त कहलानेवाले अगर ऐसा कहते हों कि * मैं भक्त हूँ इसलिए मुझमें भगवान श्रीकृष्णके वे सारे लीलाचरित्र प्रकट होनेही चाहिए तो समझ लो कि वे भक्त नही , ढोंगी साधू हैं और उनसे भ्रष्ट कोई नही । * न देव - चरितं चरेत् * ऐसा जो कहा गया है वह ऐसीही देशकालानुरूप हुई विशिष्ट लीलाओंका अनुकरण कोईभी न करें इसीलिए ! जिसके अंदर भगवानकी सच्ची छटा छा जाती है , जो सच्चा भक्त होता है , वह अपनी भगवद्रूपता कभी नही दिखाता । ऐसे भक्त तो गोस्वामी तुलसीदासजी के समान मौसम कौन कुटिल खल कामी *ऐसी दीनताही प्रकट करते रहते हैं । इसलिए जो भक्त कहता हो कि मुझमें ईश्वरकी छटा प्रकट हुई है , उसको तो दूरसेही रामराम ठोको ।
सच्चे भक्त के अंदर भगवानकी छटा प्रकट होती है , इसका अर्थ उसके कार्यमें अवतारकार्यका प्रतिबिंब नजर आने लगता है , यही है । राम कृष्ण आदि अवतारोंका कार्य क्या था ? सच्चे धर्मका पालन , सज्जनोंका रक्षण , अधर्मका विनाश और दुर्जनोंका दमन यही अवतारकार्य होता है


स्वरूपस्थितिपर आरूढ रहकर निष्कामभावसे किया जाता है , जिसको  लिप्तता रंचमात्रभी लग नही सकती । यही स्थिती और यही कार्य भक्तजीवनमेंभी दिखाई देने लगते हैं । ज्ञानजागृति , आत्म तदाकारता षडविकारविनाश आदि बातें भक्तमेंभी होती हैं । भक्तकी कार्यशैली  कूछ अलग होती है और उसमें कुछ सीमाएँ रहती हैं , परन्तु भक्तके द्वाराभी अवतारकार्यही प्रकट होने लगते है । इसीसे संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराज कहते है - * देवासी अवतार भक्तासी संसार । दोहींचा विचार एकपणे । ।* देव और भक्तकी यह एकरूपता देखनेयोग्य होती है । फर्क यही कि एक बड़ा होता है तो दूसरा छोटा , परन्तु दोनोंका कार्य एकसाहो है । 
    दृष्टान्त सुनो ! बिलकुल छोटे भक्तकी हम याद करेंगे जिसने बडा  कार्य किया है । महाबलशाली रावणने जब सीतासती का अपहरण किया  था, तब उस अरण्यमें सीताजीकी चीखपुकार सुनकर जटायूपक्षी दौड आया । रावणके हाथ तलवार थी और उसकी ताकतभी बहत बडी थी । उसके हाथोंमेंसे निरपराध अबलाको छुडाना तो असाध्यसा थाही । परन्तु उस पक्षीके दिलमें जब सत्य प्रकट हआ तो पर्वतप्राय संकटसेभी वह कहाँ डरनेवाला था ? क्या वह समझता नही था कि इस लडाईमें मेरीही मौत होगी ? परंतु उसे चिन्ता अपनी मत्युकी नही , एक निरपराधको बचानेकी थी । उसने निर्भयतासे आवाज दी - *अरे दृष्ट ! तू एक पतिव्रताको भगाये जा रहा है , इस देवी को छोड दे ! * रावणने दहाडकर कहा - * अबे हटजा , नही तो मर जायेगा । *जटायू बोला - * प्राण भलेही जाये , पर हटुंगा नही । * और उसने अपनी ताकतसे उड्डाण भरकर रावणके मुँहपर अपने पंखकी थप्पड जमा दी , अपने नाखूनोंसे उसका मुँह नोच लिया । . . . .
प्राणप्रणसे लडनेवाले जटायूके आक्रमणसे तो रावणभी घबडा गया   


लेकिन उसने असत्यका सहारा लेकर जटायूके पंखोंको काट डाला , जिससे जटायू कुछ कर न सका । . . . सच्चे भक्त अन्याय के विरोधमें अपने प्राक लडा देते हैं परन्तु वह कभी पिछे नही हटते । उनका वैराग्य ऐसा सक्रिय होता है । अपनी पूरी ताकत लगाकर कार्य करनेवाले भक्त , कार्य सफल हो या विफल इसकी पर्वाह नहीं करते और अन्तमें शान्तिपूर्वक प्रभुस्मरण कर लेते हैं । ऐसेही भक्तको जटायूके समान आखिर प्रभुकी गोदमें जगह मिलती हैं । स्वयं प्रभुभी उसका एहसानमंद होता है ।
मित्रों ! जैसा भक्त भगवानको पूज्य समझता है वैसा भगवानभी भक्तकी पूजा करता है । परन्तु कैसे भक्तकी ? जो मनको विषयादिसे हटाकर ,वस्तुओंका वस्तुपन दूर कर भगवानको हर जगह देखता है और सत्य के लिए जीवन व्यतीत करता है ; प्राणोंकी पर्वाह न कर अन्यायोंका प्रतिकार करता है और दीन - दखियोंकी सेवाही अपना पूजापाठ समझता है । हम छोटेभी हों , मगर जी - जानसे सत्यके लिए डटे रहेंगे , सारा जीवन न्यायनीति और सद्भाव - भक्तिमें व्यतीत करेंगे , चौबीसों घण्टे अपनी पवित्र वृत्तिपर अटल रहेंगे और जटायू जैसे प्रभुकार्यके लिए मरेंगे तो अपना अंतिम ध्येय ब्रह्मतादात्म्य हमें जरूर प्राप्त होगा । 
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