- २५ - यहींपर भक्त भगवन्मय बनें !
( ता . २५ - ९ - १९३६ )
उपासकों ! महापुरुषोंने परमात्माका अनुभव लेकर जो उसकी व्याख्या ( परिभाषा ) की वह हम सबलोग सुनते आये हैं । उनका कहना है कि परमेश्वर व्यापक और एकरस है ; वह स्वतंत्र तथा स्वयंभु वस्तुतत्
है । वह सत्यस्वरूप , ज्ञानस्वरूप और आनंदपूर्ण है । वह अभेद तथा अलिप्त है । सब उसमें होते हैं , फिरभी वह कम नही होता और सबमें वह होता है फिरभी वह गुणदोषोंसे अलगही रहता है । हजारों वृक्ष बढते और मकान बनते फिरभी आकाशमें छेद नही होता या वह सिमट नही जाता , वैसाही परमात्मा विश्वके बननेपरभी न्यून नहीं होता या विश्वत्वको - कणत्वको प्राप्त नहीं होता । वह हमेशा एकरसही रहता है ।
उस परमात्माके अगर हम भक्त होते हैं तो हमकोभी उसीके समान बनना होगा । अनुभवसेही नहीं , व्यवहारसेभी वैसा बनना पडेगा । नही तो हम विभक्त *रहेंगे , * भक्त * नही । जैसा ईश्वर स्वतंत्र है वैसा हमकोभी स्वतंत्रताका बाना पहनना होगा । परतंत्र रहकर भक्त कहलाना कभी उचित नही हो सकता । स्वतंत्र विचारोंको दबाकर रूढिवादी बने रहना यहभी भक्तलक्षण नहीं हो सकता । स्वतंत्रताका अर्थ होता है आत्मतंत्र ! आत्मापर निर्भर रहना , * स्व * पर अवलंबित रहना , यही सर्वश्रेष्ठ स्वतंत्रता है । पर अपना देश , अपना देह , अपना मन आदिभी स्वतंत्र रहे यह भक्त के लिए जरूरी होता है । स्वावलंबनका स्वीकार तो पहली बात है । हमारा खानापिना तक स्वावलम्बी हो । नहानेके लिए दूसरेसे पानी खींचवाना पडे , यह अच्छी बात नहीं । कोई चाहे बडाभी हो पर दूसरे के माथातमें उसे अपने काम रखने पडें या पराधीन हो जीना पडे यह उचित नहीं होता ।
स्वयं अपने कष्टोंपर जीना चाहिए । इंद्रियोंसे रुचि हटाकर उन्हें पारश्रममे लगाना चाहिए । स्वावलंबी और परिश्रमी व्यक्तिही एकाग्र हो सकता है , एकाग्रतासेही बुद्धिकी स्थिरता होती है और स्थिरबुद्धिही ज्ञानका पा ॥ है । ज्ञानसे जो तदाकार होता है वही एकरस हो जाता है , स्वयंभ बन । जैसा ईश्वर एकरस है वैसा हमेंभी अपनी वृत्तिसे एकरस होना जरूरी
है । खानापिना आदि सभी व्यवहारोंमेंभी हमें एकरस होना चाहिए । सुख - का दुखमेंभी हमारी एकरसता भंग न हो । मेरा सही सुख शब्दस्पर्शादि विषयोंमें अटका हुआ है ऐसा माननाही परतंत्रता है और ऐसा परतंत्र व्यक्ति सुख - । दुखमें एकरस कैसे रह सकता है ? स्वानंदमें समरस व्यक्तिही सभी अवस्थाओंमें , सभी रसोंमें एकरसता कायम रख सकता है । खानापिना छोडनेकी जरूरत नहीं है , हर व्यवहारमें वृत्तिको एकरस रखें यही महत्त्वका है ।
ईश्वर व्यापक है तो हमभी दिलसे व्यापक बनते चले जायें । अपना । शरीर , अपना घर , अपने रिश्तेदार , अपनी जाति या पक्ष , अपना पंथ या धर्म - इन्ही बातोंके दायरेमें बँध जाना गलत हैं । ऊँचनीच , स्पृश्यास्पृश्य , अपना - पराया यह भेद हटाकर हमको *वसुधैव कुटुम्बकम् * यह वृत्ति धारण करनी चाहिए । सभी मानवमात्र को समान समझकर उसकी उचित सेवाके लिए आगे बढना चाहिए । यह व्यापकता आयेगी तभी सच्ची ईश्वर - भक्ति कही जायेगी ।
ईश्वर सत्स्वरूप है तो हमारे सभी व्यवहारभी सत्य होने चाहिए । और वह आनंदरूप है तो हमकोभी हर हालतमें प्रसन्न रहना सीख लेना चाहिए । वह अभेद यानी अद्वैत है ; इसलिए हमारे व्यवहारमेंभी द्वैतभाव या भिन्न भावका समावेश नही होना चाहिए । हमारा जीवननिर्वाहभी कमस कम वस्तुओंसे होना चाहिए और वह अहिंसकतासे चलना चाहिए । ईश्वर सर्वकर्ता होनेपरभी अभिमानरहित होता है ; वह सबमें भरा होनेपरभी सबसे अलिप्त रहा करता है । वही निरभिमानता और अलिप्तताको कायम रखत हुए हमकोभी विश्वव्यवहार सुचारुतासे चलानेकी कला प्राप्त कर लेनी चाहिए ।
इसतरह हम जब अपना जीवन परमात्माके गुणोंसे भर लेंगे तो हमभी परमात्माका बाना पहन लेंगे और उसके स्वरूपानंदका अनुभव प्राप्त
कर, इस जन्ममेंही धन्य हो जायेंगे। ब्रह्मरूपताको पायेंगे। यह सच्चा सायुज्य मुक्तिका अनुभव होगा।