-२६ - वेदान्त और व्यवहार
(ता.२६-९-१९३६)
उपासकों! साक्षात्कारी संतों और वेदशास्त्रोंकी वाणी का जब हम विचार करते हैं तो दुनिया एक मायाकी जादुगरीही मालूम होती हैं। *रज्जसर्पाकार भासियेले जगडंबर* ऐसा यह विश्वसंसारका दृश्य रस्सीपर साँपके समान केवल भ्रमसे दिखाई देता है, ऐसा उनका कहना है। एकही कुत्ता काँचके महलमें खडा हो तो चारों तरफ उसे हजारों कुत्ते
भासमान होते हैं। वह किसीसे प्रेम करें तोभी मिथ्या और द्वेष करे तोभी मिथ्या। एकही तत्त्वपर अनेकताका भास हुआ और उस हर एक भासमान जीवका मायाने ऐसा भाव बना दिया कि मैं औरोंसे भिन्न हूँ। फिर वह प्रेमद्वेष, काम-क्रोध आदि बातोंमें उलझ गया और सुख-दुखका अनुभव करता चला गया। वास्तवमें देखा जाय तो न *मैं* हूँ, न *तू* है और न यह जगत् है। है तो सिर्फ एकही तत्त्व और उसपर फैला हुआ मायाका जादू।
यह वाणी अनुभवी पुरुषोंकी हैं, परन्तु क्या वह हमारे पल्ले पडती है? हमको तो नाशमान पदार्थभी सत्य भासमान होता है, फिर वह चाहे दूसरेही क्षण नष्ट हो जाय। हम खाते-पिते, रोते-हँसते, चलते-फिरत तो क्या इसे मिथ्या कहना उचित हो सकता है? जब हम घर-व्यवहारको सत्य मानते तो विश्वको मिथ्या कहना यह हमारा ढोंगही नही तो क्या हैं? भाई!
बिना अधिकारके ज्ञानचर्चा तो केवल शब्दोंके बुलबुलें हो जाते है, उसमें
सार कुछभी नही मिलता। *ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या* कहनेसे हमें क्या लाभ हो सकता है? *बोलाचीच कढी बोलाचाचि भात। जेवोनिया तृप्त कोण झाला?* अर्थात् सिर्फ शब्दोंके पक्वान्न खाकर कौन सुखी हो सकता है?
मतलब यह कि हम लोगोंको बडी बडी बातें करनेसे पहले क्रमशः अपनेमें सुधार लाना होगा। अपने आचारविचारोंमें उचित परिवर्तन लाना होगा। अपने खानपिने और पहनने आदिमें सात्त्विकता और संयम बरतना होगा। हम तो चैन और रुचिके पिछे दौडते हैं, वह छोडकर हमें रुचिको अपनी तरफ खींच लाना होगा। देखो, मिठास न तो जिव्हामें होती है और न खडीशक्करमें। वह होती है अपनी इच्छाशक्तिमें, अपने माननेमें। तो इच्छाशक्तिको अपने काबूमें लाओ, अपने मनको अपना दास बनाओ। जबतक इसतरह अपनेको ऊँचा नही बनाओगे तबतक बडी-बडी बातोंका पसारा व्यर्थ चला जायगा। इसलिए पंडितोंकी बातें पंडितोंको सौंप दो और पहले अपना अधिकार बढाते जाओ।
दृष्टान्त सुनो, एक महापंडित था। उसकी विद्वत्ताकी चारों तरफ कीर्ति थी। उसी गाँव में नाम सप्ताह हुआ तो (कलेवा) काले का कीर्तन उसी महापंडितने किया था। बडी रसीली वाणी थी। श्रीकृष्ण-दर्शन के लिए निकली बावरी-गोपियोंका विषय था। पंडितजीने सुनाया था कि प्रेमभक्तिमें मतवाली गोपी भगवानका नाम लेकर जमुनाजीमें कूद पडी और तैरती हुई श्रीकृष्ण-दर्शनके लिए चली गयी। नामसे तो भयानक भवसागरसेभी पैलीवर। जाना मुश्किल नहीं होता, फिर नदीनालेमें क्यों नही तर सकेंगे?....
एक अनपढ गँवार ग्वालन मार्गसे जा रही थी, तो उसके कानोंमें पंडितजीके ये शब्द पहुँचें। श्रद्धा उमड आयी। सिर झुकाते हुए वह आगे बढी। सोचा कि रोजाना मल्लाहको एक-एक पैसा देना पड़ता है तब कहीं
वह नावसे नदीपार पहुँचा देता है। अब इतने बडे गुरुमहाराजने सीधी राह बतायी तो वह झंझट कौन मोल लें? उसने भगवानका नाम लिया और गंगाजीमें पैर डाला। ईश्वरके प्रति दृढश्रद्धा, विश्वास और इच्छाशक्ति
के बढ जानेसे वह नदीके पार चली गयी। फिर तो रोजाना दहीका हंडा लेकर वह नदी-पारके गाँवमें दही बेचने चली जाती थी।...
एक दिनकी बात। उसी महापंडितकोभी नदी-पार किसी कामसे जाना था, पर वहाँ मल्लाहका पताही नही था। पंडितजी मल्लाहके नामसे चिल्लाएँ जा रहे थे। इतने में वह अनपढ गँवार ग्वालन आयी। नमस्कार करके बोली- *महाराज! क्या नदी-पार जाना है?* पंडितजीने *हाँ* कह
दिया, तो बोली- *फिर बैठे क्यों महाराज? चलो चलेंगे।* पंडितजी बोले* क्या इतनीबडी नदीमेंसे वैसेही जा सकेंगे?*ग्वालन नम्रतासे बोली- *हाँ महाराज! तुमनेही तो कहा था, नामके सहारे सागरसेभी तर सकते हैं, फिर
इस मामूली नदीकी क्या बात ? मैं तो रोजाना इसे पार कर लेती हूँ।*
पंडितजी घबरा गये और साथही चकितभी हुए। उस भावुक ग्वालनने उन्हें पूरा विश्वास दिलाया और उस नाव की रस्सी निकालकर कमरमें बंधा ली। उसने भगवानका नाम लिया और उस महापंडितको वह खींचती हई नदीके उस पार ले गयी। महापण्डित बडे शर्मिंदा होगये कि
हम तो खाली शब्दोंके फौवारें उडाते हैं और ये अनपढ लोग शब्दोंको सच कर दिखाते हैं. यह कितनी अजीब बात है! सबको बासुंदी परोसनेवाले चम्मचके पेटमें बासुंदीका पता कहाँ ?
मित्रों! ऊँची बातोंकी खाली चर्चा न करो तो छोटी-छोटी बातोपर पहले अमल करना सीखो। अपना, अपने घरका, अपने राष्ट्र और जगत् का जिन बातोंमें कल्याण निहित हों. वे बातें नियमपूर्वक आचरणमें लाओ
और अपनी आंतरिक शक्ति बढाओ, तो निश्चयही बेडा पार हो सकता है।
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