-२७ - विवेकहीन धर्माचरण में पाप!
(ता.२७-९-१९३६)
उपासकों! मनुष्यको चाहिए कि उसके सत्यमार्ग में बाधा
डालनेवाली जो भी बात आडी आती हो, उसे वह बिलकुल स्वीकार न करें और जरूरत हो तो उसका बेशक विरोध करें। बाधा डालनेवाली असत्य बातें कभी प्रेम या मोहबतका रूप लेकर आडी आती हैं, लेकिन निष्ठुरता धारण करते हुए मनुष्य उसे परे हटा दे। कभी धर्मका रूप लेकरभी यदि
अनुचित बातें मनुष्यका सन्मार्ग रोकने लगे, तो भी उनकी पर्वाह न करें। इसपर शंका की जा सकती है कि, क्या धर्मभी सन्मार्ग में आडा आ सकता है? हाँ, यह कोई अनोखी बात नही है। भक्त अर्जुनको अपने आत्मीय लोगोंका जो मोह पैदा हुआ था वह इसी भावनासे कि अपने भाईबंदों या गुरुजनों पर शस्त्र चलाना अधर्म है और उनकी रक्षा करना धर्म है। परन्तु भगवान श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा कि, भाई! सत्यन्यायही धर्म है और उसका विरोध करनेवाले कोईभी आत्मीय हों, उनको दण्ड देना यही धर्मकार्य है।* संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराज कहते है कि *नारायणी जेणे घडे अंतराय। हो कां बाप-माय, वर्जावी ती॥ प्रल्हादे, जनक, बिभिषणे बंधु। त्याज्य माता निंद्यु, भरते केली॥* *न मानावे ऐसे गुरूचे वचन। जेणे नारायण, अंतरे जो॥
आड आला म्हणुनि फोडियेला डोळा। बळीने आंधळा, शुक्र केला।।* माता-पिता और बंधुजनोंका आज्ञापालन करना धर्म है परन्तु वह
आज्ञा अगर ईश्वरप्राप्तिमें बाधक होती हो तो वही अधर्म होती है। क्योंकि ईश्वरप्राप्ति तो परमधर्म कहा गया है। इसीलिए प्रल्हादभक्त ने अपने बापकी, भरतभक्त ने अपनी माँकी और बिभीषणभक्तने अपने बड़े भाईकी आज्ञाका उल्लंघन किया। बलिराजाने सन्मार्गमें आडे आनेवाले अपने गुरू शुक्राचार्य की भी पर्वाह नहीं की। इसका अर्थ यही निकलता है कि श्रेष्ठ धर्मके लिए कनिष्ठ धर्मका त्याग कर देना यही पुण्यकर होता है। इसीलिए भगवानने कहा है- *सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज* अर्थात् सभी धर्मोको छोडकर एक प्रभुकेही शरणागत हो जाओ। क्योंकि वही सर्वश्रेष्ठ
धर्म होता है!
इस मार्गमें जो बाधक बनते हों, उन्हें प्रेमसे समझाओ, शान्तिसे कोई रास्ता निकालो। परन्तु वह संभवही न होता हो तो निष्ठुरतासे पेश आओ। यहाँ किसीको शंका जरूर होगी कि, संतोंने तो कहा है- *दया, क्षमा, शांति। तेथे देवाचि वसती।।* फिर परमार्थ मार्गमें निष्ठरता क्या? इसपरभी सोचना जरूरी है। याद रक्खो, दया वही ठीक होती है जो सच्चे दीन के प्रति की जाती हो। भिखारीका पार्ट बनाकर समाजको लूटनेवाले व्यसनी जूआखोरोंपर दया करना पुण्य नहीं, पाप होता है। *दया तिचे नाव भूतांचे पालन। आणिक निर्दालन कंटकांचे।।* अर्थात् दुर्जनोंको दंड देना यहभी दयाही होती है। अपात्र पुरुषके साथ दयाभावसे बर्ताव करना
कभी कभी साँपको दूध पिलाने जैसा पाप हुआ करता है।
क्षमाकाभी यही हाल है। दुष्टोंको क्षमा कर देनेसे उनका हौसला बढ जाता है और वे दसरोंपर ज्यादा हाथ डालने लगते हैं। क्षमा का मतलब होता है साँपको समाजमें छोड देना और इसका नतीजा अच्छा नहीं निकलता। कोई कुछभी गंडागर्दी करें और हम उन्हें माफ करते रहें तो इसका
अर्थ यही होगा कि हम समाजमें उपद्रव बढानेका दुष्कर्म कर रहें हैं। इसीलिए। तो भगवानकोभी शस्त्र उठाना पडता है।
शान्ति यह सन्तोंका लक्षण जरूर है, पर शान्तिका उपयोग कहाँ करना चाहिए, यहभी समझना आवश्यक होता है। अपने ध्येयमार्गमें अन्यायद्वारा कोई अडंगा खडा कर दें और हम शान्तिका मंत्र जपते रहें तो वह शान्ति नही, भ्रान्ति होगी। कोई भक्ति छोड देने और शराब पिने या व्यभिचार करनेके लिए हमपर दबाव डालता हो तो हमारी मुर्दार शान्ति
क्या कामकी? हम शान्तिका व्रत पालेंगे, फिर कोई भलेही पाप करते रहें ऐसी दुर्बुद्धिके शिकार मत हो जाओ। तुम्हारी शान्ति षड्विकारों को बढानेवाली कभीभी साबित नही होनी चाहिए। लोग अजीब होते हैं। परमार्थ-साधक की वे चाहे-जैसी निंदा करते हैं। सत्कार्य करनेवाले ध्येयवादी को वे भलाबुरा जरूर कहते हैं। उनकी निंदाबद्दीके कारण तुम
विचलित न हो जाओ और शान्ति रखो। लेकिन कोई तुमपर अन्याय करता हो या तुम्हारे मार्ग में रोडे डालता हो तो उसका प्रतिकार अवश्य करो; वहाँ शान्तिसे काम नही चलेगा। इसीलिए संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराजने कहा
है- *शान्ति, क्षमा, दया। तीही नको पंढरिराया!*
तात्पर्य यही है कि, हमको लकीरके फकीर बनकर नहीं चलना चाहिए; तो हर बातमें तारतम्यदृष्टिसे सोचकर कदम डालना चाहिए। प्रमुख बात यह है कि हमको अपने ऊँचे ध्येयकी प्राप्तिका मार्ग बडी निष्ठा और
सावधानीसे तय करते रहना चाहिए और उसमें जो गुण सहायक हो उन्हीका पालन प्राणप्रणसे करना चाहिए। स्वावलम्बी वृत्तिसे इंद्रियदमनपूर्वक मनःशक्ति बढाते जाना और विवेकसे बुद्धिबलको बढाते हुए आत्मतत्त्वकी
अनुभव प्राप्तिको साध लेना, यही हमारा जीवितकार्य होना चाहिए। सभी
व्यसनों को कडाईके साथ दूर करते हुए अपने आचार-विचारोंको शुद्ध रखना, हर व्यवहारमें परतंत्र वृत्तिको फेंक देना, ध्येयके लिए सदा जागृत रहकर उसमें बाधा डालनेवाली बातोंका निष्ठुरतासे त्याग करना, येही व्रत
हमको धारण करने चाहिये।
कोई कहते हैं कि साधुओंको शान्ति और वीरोंको शूरता जहाँवहाँ दिखानी चाहिए। परन्तु ऐसा रूढिवाद उचित नहीं होता। कोई व्यभिचार करावे तोभी शान्ति रखना और कोई नम्रता दिखावे तोभी शूरत्व दिखाना यह तो मूर्खता होगी। समयानुसार साधुकोभी शूर बनना पड़ेगा और वीरकोभीसाधुता दर्शानी होगी। इसके लिए हर जगह विवेकदृष्टि जागृत रखनेकी
जरूरत होती है।
जो पुरुष सिद्ध हो जाते उनके लिए किसी प्रकारका पथ्या-पथ्य नही होता। उनका आचरणही स्वयं शास्त्र बन जाता है। ऐसोंके लिएही कहा गया है- *को विधि: को निषेधः।* परंतु जो साधक होते हैं उनको
तो अपनी खेतीकी रक्षाके लिए काँटोंका कम्पौंड लगानाही पडता हैं। सत्य न्यायसे अपनेको सम्हालते हए ध्येयमार्गके विघ्नोंको बडी तीव्रतासे हटाते जाना उनको बहत आवश्यक होता है। वृत्ति ध्येयमार्गपर स्थिर रहें, यही उनके लिए क्षमाशान्ति है!