- २८ - विवेकहीन वैराग्य में धोखा!
(ता.२८-९-१९३६)
उपासकों! संसारकी हरएक वस्तु परिवर्तनशील है, नाशमान है।प्रत्येक व्यक्तिही जनम लेता, बढता, जीर्ण हो जाता और मर जाता है।
जीवितकालमेंभी उसे कई रोगभोग सतातें, त्रिविधताप त्रस्त कर देतें और असमयमें ही कभी मौत उसको खा लेती। यहाँके सारे पुतलें ऊपरसे भलेही सुंदर दिखते हों परन्तु गोबरमिट्टी के मिठूके जैसे अंदरसे सब घिनौने हैं, खोखले हैं। ऐसी इन क्षणभंगुर वस्तुओंपर जो आसक्ति रखें, इन्हें अपने
सुखका आधार समझकर इनपर भरोसा करें, वहभी वैसाही नाशमान होगा यह स्वाभाविक है। देखो, सूर्य जैसे-जैसे घूमता जाता है वैसाही सूर्यफूलभी। घूमने लगता है और अंधेरा छाया कि म्लान बन जाता है। नाशमान वस्तुओंकी आशा ऐसीही दुखदायी होगी, इसमें आश्चर्यही क्या?
पदार्थ नष्ट होनेवाले हैं तो उनपर आसन जमानेवाले तुमभी नष्ट हो जाओगे, ऐसा बराबर संतजन कहते आये हैं। किसी डगमगानेवाली चीजपर खडा हो जाना, क्या धोखेकी निशानी नही है? झूठकी आशा लगाये बैठोगे, नश्वरकी उपासना करते रहोगें तो बुद्धिभी वैसीही बनेगी, इसलिए
ऐसी चीजोंमें न फँसो! जुगनू इकट्ठा कर लेनेसे कभी दिया नही जल सकता; इसलिए सही प्रकाश खोजो। दुनियामें एकही वस्तु शाश्वत है, अविनाशी है, सत्य है, वह है- आत्मतत्त्व! बचपन-जवानी-बुढापा या जन्म-मृत्यु
ये बातें उसको छूभी नही सकती। वही ज्ञानका सागर और आनंदका केंद्र है। उसीका सहारा मनुष्यको सुखी, शान्त तथा अमर कर देता है।
मित्रों! पत्थरकी नावपर बैठकर कोई तैर नही सकता। उसीतरह अशाश्वत संसारकी आसक्तिसे कोई सुखी नही हो सकता। यह मनुष्यजनम शाश्वत सुख पानेके लिएही मिला है। क्षुद्र विषयादि सुखोंका लाभ तो अन्य योनियोंमेंभी था। यह जनम मिला है ज्ञानकी साधना करके आत्मप्राप्ति
कर लेनेके लिए। कोटि-कोटि जनम लेकरभी कोई वह लाभ पा नही सकता सिवाय इस नरजन्मके। इसलिए यह अनमोल घडी मत गमाओ। एकपलभी
व्यर्थ मत जाने दो। वैराग्यभाव धारण करके नामस्मरणादि साधनोंद्वारा मनको पवित्र और स्थिर बनाओ। सत्संगद्वारा ज्ञान प्राप्त करके आत्मानंदका अनुभव कर लो। आत्मसुख की प्राप्तिमें दशेंद्रियोंकीभी तृप्ति हो जाती हैं, इसे मत भूलो।
साथही यहभी ध्यानमें रखो कि सन्तोंकी ऐसी बातें सुननेसे दिलमें एकाएक वैराग्यकी लहर पैदा होती है और उसीके झोंकमें आदमी घरबार छोडकर जंगलमें चला जाता है, परन्तु उससे कोई लाभ नही होता। वैराग्य यह स्मशानवैराग्य जैसा क्षणकाल टिकनेवाला भाव नही होना चाहिए, तो वह विवेकसे धीरे-धीरे बननेवाला स्वभाव हो। तात्कालिक वैराग्यसे जो कोई घरबार त्याग देता है, वह उस वृत्तिमें टिका नही रह सकता और पछताता हुआ फिर किसी-न-किसी रूपमें संसार खडा करही लेता है।
दृष्टान्त सुनो! एक युवकको घरमें रहते हुए कईं संकटोंका सामना करना पडा और दुनिया नाशमान है, इस विचारने उसे उद्विग्न बना दिया। वैराग्यवृत्तिसे घरबार छोड वह जंगल चला गया। एक नदीके किनारे कुटिया बनाकर वह रहने लगा। नजदीकके गाँवमें जाकर वह ॐ भिक्षादेहि* करता था और लंगोटीपर दिन गुजारता था। लेकिन जंगलके चूहोंने उसकी एक लंगोटी कुतर डाली, तो उसे चिंता हुई। लोगोंसे उसने आपबीती सुनायी; तो किसीने बिल्ली पालनेकी सलाह दी। वह चूहोंके उपद्रवोंसे बचनेके लिए बिल्ली पालने लगा. तो उस बिल्लीके खाने-पिनेका सवाल पैदा हुआ।
उसके लिए लोगोंने उसे गैया पालनेकी सलाह दी और गायभी दे दी। अब उसका दूध स्वयं पीकर वह बिल्लीकोभी देने लगा। मगर गाय के लिए चारेका सवाल था। लोगोंन उसे कुछ जमीन दी और खेत जोतनेकी सलाह दी। वहभी उसे ठीकही मालूम हुई।
मगर गैयाकी देखभाल, खेतीबाडीका काम अकेला आदमी कैसे करेगा? कुछ भोले भक्तोंने कहा- *महाराज! एक अच्छीसी लडकी देखकर आप शादी कर लें तो सारी झंझटें मिट सकती हैं। रोजाना भीख लेने घरघर घूमनेकेभी कष्ट मिट जायेंगे।* उस वैरागीको यह बात अँची और उसका
पूरा प्रपंच खडा हो गया। ऐसा क्यों हुआ? यह सोचनेकी बात है। सच तो यह है कि सारा प्रपंच बीजरूपमें उसके दिलमेंही दबा हुआ था। प्रपंचकी बुराई साधुसन्तोंसे या उपदेशग्रंथोंसे सुनकर वह क्षणैक वैराग्यके फंदेमें पडा
और चला गया अरण्यमें।
यह उसका तात्कालिक वैराग्य स्थायीभी बन सकता था अगर उसे सही सत्संगति मिल जाती और विवेकसे उसका दिल भर गया होता। मगर उसे खाने-पिनेके सिवा दूसरा कामही क्या था? उसका जीवन तो लक्ष्यहीन था। प्रपंचको छोडनेके साथही परमार्थ को पकड सकता तो वह *महात्मा* बन सकता था। परन्तु बिना सत्संगसे ऐसे कईं बैरागी व्यर्थ हो । जातें, बिगड जातें। इसलिए त्याग-बैरागके बारेमें जल्दी करना उचित नहीं है। क्रमश: नींव पक्की करते रहो। चलते रहो ; शुद्ध बनो। फिर अंतिम पदकोभी तुम जरूर प्राप्त कर सकोगे।
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