३७६
पढके न बनता योग रे ! सच्चा गुरु ही चाहिये।॥
कई प्राण जय में मर चुके, क्‍या कष्ट वह बतलाईये ।।
कई मूढ बन बन घुमते, कई रोग से बेजार है।
गुरु के बिना सब है कठिन, समझे न सच्चा सार है।।

३७७
हट-योग-साधन के लिये, बलवंत तन मन चाहिये।
बैराग अरु अभ्यास की, मजबूत शक्ती छाईये ।।
लोकेषणा, मद, सिद्धियाँ, सब तुच्छ हरदम ह्रलेखना ।
गुरु के चरण में लीन हो,निज आत्म-सुख को देखना ।।

३७८
ले हाथ धीरज-ढाल को, बैराग की तलवार ले।
अभ्यास का चिल्खत चढा,अरु चष्म-सारासार ले।।
गुरु-ज्ञान की करके ध्वजा, चढ जा त्रिकुट के घाटपर ।
तुकड्या कहे, गढ जीत ले,उस नाद बूंद झलाट पर ।।

३७९
यम नेम, आसन, प्राणजय, अरु युक्त प्रत्याहार है।
कर धारणा, धर ध्यान को, पा ले समाधी सार है।।
है चित्त वृत्ति निरोध को, यह योग की सीढी विमल।
फिर ज्ञान से लवलीन हो, निज आत्म-पद में निर्विचल ॥

३८0
यम नेम से तनु मन शुची, स्थिर होत आसन -बंधसे।
उठवाय कुंडलनी भली, सम प्राण के संबंध से ॥।
षड़् चक्र का भेदन करे, बिजली गिरे, गरजे गगन ।
गटकाय अमृत-बूंद की, कर लीन जिन-पद में सधन।॥।

३८१
बिन ज्ञान के गर योग का, संपूर्ण मारग कर चुके।
सिद्धी हजारों भर चुके, कई वर्ष जीवन धर चुके।।
पर फोल ही वह जानिये, जबतक न आत्मानंद है।
लाखों ऋषी मुनी गिर चुके,बिन ज्ञान के सब मंद है।।


३८२
सत्‌- ध्यान कम मन रोधकर, संकल्प सारे छोडना।
कर शून्य में वृत्ती विलय, फिर ज्ञान में चित जोड़ना ।।
त्रिपुटी -रहित निज-रूप में, लवलीन हो जाना सही ।
तुकड्या कहे, तब योग की, परिपूण युक्ती छा गई ।।

*सम-दृष्टि*

३८३
भाई ! हमारे मग्ज में, करना फकीरी की चलन ।
ना है  किसीसे बैरता, अरु ना कोई है मित्रजन ।।
सब एक ही घरके बने, माँ-बाप सबका हे वही।
किस्मत हमारे है जुदा, करके सजा यह हो रही।।

३८४
अपनी जबाँ से क्या कहूँ? क्या में किसी से दूर हूँ?। .
क्या मार्ग मेरा है जुदा, तो आपसे न्यारा रहूँ।।
है योंहि सुनते आ रहे, *प्रभू तो सभी का एक है।
फिर द्रोहता क्यों चाहिये ?वह बाप,हम सबलेक है।।

३८५
*मैं ही चतुर* मत मान तू, मत कर तनू-अभिमान तू ।
मत दुसरे कर तान तू, *सब ही बराबर जान तू ॥।
रे मुढ़ ! विद्या पा गई, तो किसलिये ? यह जान ले।
पसम-भाव सब में रख सदा* ,इस तत्व को नित छान ले ।।

३८६
*ससर्वज्ञ सबके पास है* छोटा बडा फिर है कहाँ ? ।
गर है उजर छोटा बडा, तो किस रिती तुमने कहाँ ? ॥
अभिमान से जुदा हुआ* ऐसा पुकारा शास्त्र का |
अभिमान अपना छोड दो, माया-अविद्या-अस्त्र का।।


३८७
ऐ मित्र ! तुम हम एक है, दूजा यहाँ कोई नहीं ।
लाखों मरे तो एक है, कई आगये तो एक ही ॥।
जो पूर्ण है बह पूर्ण है, नहिं पूर्ण में है अन्यथा |
कई चल गये तो पूर्ण है, आये तभी भी पूर्णता ।।

३८८
मेरा स्वरुप ही हर जगह, हर वक्त में मौजूद है।
फिर कुफ्र हो, इस्लाम हो, हमसे नहीं वह हजूद है ॥।
यह भूल माया की जिन्हें, उनको जुदाई हो रही |
हैं मस्त हम अपनी जगह, तो तू नहीं अरु मैं नहीं ।।

३८९
में द्रोहता किसकी करूँ ? गर आप ही सर्वत्र है ।
मौजूद है ! हर वक्त है ! अणुमात्र है! चिन्मात्र है ॥।
मेरा मही सो भासता, माया रुपी इस काँच पर* ।
तुकड्या कहे, ऐसा करो -निश्चय, बनो फिरके निडर ॥

३९०
*जो है सभी मैं एक हूँ, मैं-तू पना भी झूठ है।
सम एकरस परिपूर्ण ही, स्वानंद की लयलूट है ॥।
समदृष्टि के अभ्यास से, कामादि होते लीन है ।
तुकड्या कहे बाहर भितर, आनंद ही स्वाधीन है ॥।


ससार में सार

३९१
संसार करता जाऊँगा, परमार्थ भी नित पाऊँगा।
लूटूँ गरीबों की गुजर, कुछ दान भी दे-जाऊँगा ।।
करता रहेँ में पाप भी, पर पून में चित लाऊँगा।
उसको गती नहिं पायगी, बेशक यही बतलाऊँगा ।।

३९२
निर्भय अगर होना चहो, तो दो थडी मत हो कभी ।
दे छोड माया-जाल को, झटकार इच्छायें सभी ॥।
मजबूत मन को कर सदा, फिरके विषय ना पायेंगे ।
कुजकी -समझ को डार दे, निर्भय-गढी चढ जायँगे ।।

३९३
व्यवहार में नहिं ठीक तो, परमार्थ केसे कर सके? ।
परमार्थ गर ना कर सके, तो ज्ञान कैसे भर सके? ॥।
गर ज्ञान ही ना भर सके, तो ध्येय केसे धर सके ? ।
इतना अगर नहिं ठीक तो, भव-सिंधु कैसे तर सके ? ॥

३९४
व्यवहार करता न्याय से, सुविचार सत्‌ आचार से ।
परमार्थ-पथ पाता वही, ले सार ही संसार से ॥।
सत्संग अरू भक्ति, दया, रखता सदा ही पास में ।
सो पार जाता है चला, फँसता नहीं जो आस में ।।

३९५
मत छोड भक्ती-पंथ को, मत छोड सत्‌ आचार को ।
मत दूर कर बैराग को, रख सांच ही व्यवहार को ॥।
अन्याय को मत छी कभी, हरदम उन्हें प्रतिकार दे।
बस, संत श्रेष्ठां के तले, अपनी मती निर्धार दे ॥


३९६
दुनिया भली -भाँती कहे, हो मूर्ख या हुशियार भी।
कोड न देता साथ फिर, भगते बगल के यार भी।।
रख याद सच्ची आदमी ! छूरी न छोडे ज्ञान की।
सीधा चला जा मार्ग से, मत बाँह धर अज्ञान की।।

३९७
मत पाप बुद्धी रख कभी, मत दुष्ट रखना आसना।
मत द्रोह कर गुरु संत से, मत काम्य की भर भावना ।।
नीती न छोडे शास्त्र की, प्रामाण्य मानो वेद को।
चालक वही है कर्म का, यह जान पूरे ४ भेद को।।

३९८
“करतार ईश्वर साक्ष है, मैं पाप करता या नहीं ? ।
कुछ पून करता या नहीं ? सद्गुण धरता या नहीं ।।
विश्वास है गर गुप्त पर, क्यों साजता बहिरंग से।
कर चष्म अपने साँच ही, निर्मल रहे निज अंग से।।

३९९
चलता इमानी से अगर, तो चीज पाती तीन है।
पहिले मिले सत्‌-प्रेम अरु, होती दया आधीन है।।
तीजे मिले औदार्यता, सब बरकती व्यवहार में ।
नर ! रख इमानी पास तो, तर जायगा संसार में ।।

४००
जिस हाल में तू होयगा, उसमें हि लाभ उठायगा।
गर सद्धिचारों से गडी ! अपना करम निभवायगा।।
जब झूठ है तेरी चलन, चाहे हजारों जोग ले।
पर भोग तो चूके नहीं, फिर लाख भी संजोग ले।।

४०१
दर्जी भया तो क्या हुवा ? क्या वह नहीं तर जायगा।
बेशक वही तर जायगा, गर काट को नहीं खायगा ॥
साँची नियत से कर्म कर, व्यवहार जो है साधता।
मेरे लिये वह धन्य है, सच्ची वही परमार्थता।।


४०२
नौकर हवा तो कया हुवा ? रख नेक हर दम साच रे |
चोरी न कर, करुणा पकर,वद सत्य ही तज लाँच रे ||
तन को लगा दे काम में, मन राम में धरता रहे ।
हो लीन पर मत दीन हो, सत्‌ ज्ञान को भरता रहे |।

४०३
बेपार भी करता रहे, चाणाक्षता के साथ में।
रख न्याय में हरदम नजर, मत जा असत के हाथ में ।।
जैसा पुरे वह ले नफा, दीन की कदर लेता रहे ।
करता रहे प्रभू का स्मरण, कभू झूठ ना देता रहे ।।

४०४
सत्ताधिकारी हो अगर, तो सत्यता नित पास धर ।
माता न जा, रख न्याय रे! लेता रहे दीन की कदर ।।
सामादि शासन पास हो, अरु सज्जनों का दास हो ।
सत्‌ धर्म में उल्हास हो, झूठे जशन का नाश हो ।।

४०५
श्रीमंत हो या साहुगर, उनके लिये खुब पंथ हे।
देना सहारा दीन को, *यह विश्‍व भी भगवंत हे।।
तेढी नजर को छोडकर, सत्‌ न्याय नीती धर्म हो ।
मत दर्द हो मजदुर को, अरु भक्ति जिनका कर्म हो ।।

४०६
नर! सत्यता धर पास में,अरु कर सभी व्यवहार को ।
चाहे भले चंभार हो, या और हो कुंभार को॥
हो झाडुगर या धेड भी, हम को सही बह श्रेष्ठ है।
पर सत्य ना पाले कहीं, हो ऊँच भी तो भ्रष्ट है॥

४०७
मत झूठ में ग्वाही भरो, या न्याय झूठा ना करो ।
अधिकार में मद ना धरो, या चाकरी में ना डरो।॥।
बेपार में ना हो असत, धनि या हकिम में हो कदर।
संसार में तब सार है, अपनी स्थिती में नेक धर।।


४०८
*सतधर्म नीती से रहे, नेकी कभी नहिं छोडता।
संसार में नहिं मग्न हो, उपकार को नित दोडता।। 
करता भजन अति प्रेम से, जितना बने साधे घडी।
सोही तरे संसार में, वह ही तपस्या हे बडी॥

४०९
मत बोल ब्रम्हज्ञान को, मत धर किसीके ध्यान को।
मत जा तिर्थ-निजधाम को,मत कर पुजा अरु स्नान को॥
रे कर गडी ! पहिले यही- *झूठा* कभी नहिं बोलना ।
सारे व्यसन को छोड्ना, बंधुत्व सबसे जोडना।।

४१०
आँखे लगाता है बडी-दिल में विषय-आशा बढी।
अभिमान से काया चढी-क्या हो गया पोथी पडी ?॥
रे शुद्ध कर दिल आदमी ! काहे करे सर बोडना?।
ले ज्ञान-झाडू हाथ अरु, बंधुत्व सबसे जोड़ना ।।

४११
काहे भगे नर ? तीर्थ में, गर शौक ही करता वहाँ।
मोटर फिडल, नाटक, सिनेमा ही सदा देखे तहाँ।
झूठा सदा व्यभिचार कर, पेसे उडाता जार में।
रे सत्‌-नियत रख आदमी, काशी मिले संसार में।।

४१२
बदनाम करता धाम को, जाता विषय के काम को।
पल भी न भजता राम को, खाता ही भक्ष हराम को।।
यह छोड़ दे चंचल-मती, जा संत के चरनार में।
रे सत्‌-नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में।।

४१३
नहिं स्नान संध्या घर करे, माथे न चंदन को धरे।
मुख धोन के पहिले भला ही, चाय पीने जा मरे।।
बीडी सिगारिट मुंह में, मत पी न रह बेकार में।
रे सत नियत रख आदमी, काशी मिले संसार में।।


४१४
पढता न मुख गीता कभी,हे शास्त्र का तिट्कार ही।
ठमरी, तमाशा, लावणी, बहता इसीके भार ही ।।
कभू श्रेष्ट से ममता नहीं, जलता सदा छल-खार मे ।
रे सत - नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में ।।

४१५
साधू नयन में देखते, होती जलन-तिहू-ताल में।
मत्सर करे परिवार में, हो यार में या चार में ।।
गंदा रहे आचार में, जाता न पल सुविचार में ।
रे सत्‌-नियत सख आदमी ! काशी मिले संसार में॥

४१६
नहिं शुद्धता कुछ देह में, मल-मूत्र रहता अंग में।
धोने नही फुरसत बदन, नित टहलता है भंग में॥
जूव्वा शराबी मस्त पी, कर्जा किया घरदार में।
रे सत्‌-नियत रख आदमी ! काशी पिले संसार में ॥॥

४१७
ऐसे परम पापिष्ट नर, जाते जहाँ निज-धाम को ।
पाते नहीं आराम को, करे जमा हि हराम को ॥
काशी अगर जाना किसे, मन खास हो प्रभू तार में।*
रे सत-नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में ॥

४१८
घर को नहीं पावित्रता, तो तीरथों में ना रहे।
बुद्धी नहीं सत्‌-ध्यान में, तो सत्‌-समागन क्या रहे?॥
तुकड्या कहे, पावे प्रभू, रख प्रेम ही मझँधार।
सत्‌-नियत रख आदमी ! काशी मिले संसार में।।


जन ही जनार्दन

४१९
मंदीर में क्या कर रहा ? आँखी लगाकर देखता ।
घंटी हलाकर देखता, मुंडी झुलाकर देखता।।
क्या है वहाँ पानी-फतर, भगवान उसमें है नहीं ।
वह भकत के घर रब रहा, कर दीन की सेवा तुही ।।

४२०
यह कर्म करना ठीक हे, पर कर्म की पहिचान क्या? ।
जिस कर्म में नहिं धर्म हे, उस कर्म का*अहिसान क्या? ।।
है कर्म का यह धर्म, अपनी-साँच को पहिचानना ।
जगदीश ही जग रुप है,* ऐसी खियालत बानना |

४२१
सेवा करो जड जीव की, विद्या पढावो अज्ञ को।
सब जीव में समता करो, यदि मानते सर्वज्ञ को।।
मैं ही भला, मेरा भला, ऐसा जहाँ पर कर्म है।
वह कर्म तो कुछ हे नहीं, पर जान लो सब धर्म है ।।

४२२
अपनी भलाई सब करे, सब की भलाई ख्याल दे। 
यदि तू मरा तो ठीक है, किसको डुबाना डाल दे।॥।
ऐसी समझ जब हो गयी, तब तू भलाई कर लिया ।
कुछ द्रोह मन में कर लिया,तो जो किया सो ना किया ।।

४२३
ना हस किसी के दु:ख को, एक दिन दुखी तू होयगा ।
यह खेल खिलकत का सभी,भर खाक में मिल जायगा
गर दुसरां का कर भला, तेरा भला फिर होयगा।
अपना सभी यह विश्‍व है* इस ख्याल में चढ जायगा।।


४२४
*छेडे गरीबों को सदा, पाले न कबह किव को।
इईश्वर-पुजन के नाम पे, बलिदान देता जीव को ॥।
अन्याय है यह घोर तम, ईश्वर खुशी नहिं होयगा।
भगवत्‌-स्वरुप सब जीव है, हो लीन सत्सुख पायगा ।।

४२५
पूजा करी अति थाटसे, पानी चढा फूलों चढा।
मंदीर से निकला हुवा, गाली बके हो भडभड़ा।।
मंदीर में खुब प्रेम है, पर जीव का दुश्मान है।
जाना नहीं सेवा-धरम, यह व्यर्थ ही अभीमान है॥

४२६
पूजा करे जगदीश की, तो पूज पहिले भाव को ।
श्रद्धा पकर, *सब में प्रभू है*, डाल देह-भाव को ।।
सबके बराबर प्रेम कर, कर द्रोहता-उत्थान रे।
*सत्‌-प्रेम ही भगवान है*, यह बात सच्ची जान रे ॥

४२७
गुजरान ऐसी कर सदा, किस जीव को  दर्द हो।
राजी रहे छोटा-बडा, बे-गर्ज हो या गर्ज हो॥
जितना बने धर प्रेम दिल में, *सब हमारे जान के।
तुम हम सभी यह विश्व है,लीला-स्वरुप भगवान के ।।

४२८
हिंसा कभी भी ना करो, मन से रहे या देह से।
हिंसा बडा ही पाप है, बचके रहो संदेह से॥
सच मूँह से नित बोलना, कडवी जबानी छोडना।
*मेरा सभी यह विश्व है*, यह ख्याल अपने जोड़ना ।।

४२९
पावित्रता मन में रखों , अरु हीत सबका चाह लो।
... किसको बुरा मत बोलना,जग की हँसी को साह लो ॥
जो दीन है, धनहीन है, उनकी सदा सेवा करो।
तो साधना बिन राम का, घर बैठकर दर्शन करो॥


 ४३०
हर जीव को सन्मान दे, अभिमान से मत कह किसे।
बंधुत्व रख हर जीव से, हो देश से पर-देश से।।
*सब जीव प्रभू के हैं बने* ऐ आदमी! यह ख्याल कर।
उपकार ही करना सदा, ऐसी सदा की चाल कर।।
४३१
*उपकार हरदम कीजिये, पीडा न किसको दिजिये* ।
यह धर्म है सबके लिये, सब शास्त्र-मत सुन लिजीये।।
सब संत का मत है यही, हर जीव की करना दया।
सोही पुरुष इस लोक में, सत धर्म से मोटा भया ॥
 
४३२
आलस्य मत कर भूल भी, सेवा करन को जीव की।
हर जीव ही है ब्रम्ह रुप यह बातमी है शिव की॥
चाहे सदाशिव लोक तो, संदेश उनका ध्यान दे।
अपने बराबर जान सब,इस मंत्र को दिल ठान दे।

४३३
*आदम-मजुरी देखकर, निष्काम कुछ तो दान कर।
गुरु संत के निज वाक्य को, प्यारे! हमेशा मान कर।।
बेदों तथा ये शास्त्र की, बातें भली अजमास कर।
तो पार बेड़ा होयगा, ऐसा सदा अभ्यास कर ।
४३४
बदला न ले किसि चीज का, करता रहे उपकार तू।
हो बात में या जात में, सबसे समझ ले हार तू ॥
मैं नीच से भी नीच हू, ऐसी समझ मन मान ले।
तब चीज होता है जनम, यह बात सच्ची जान ले।।
४३५
प्रीती न कर कभू गर्ज से, हो आप्त से या लोक से।
गर प्रीत गर्जी होयगी, तो दुःख होगा शोक से।।
नर ! प्रीत तो निष्काम कर, ये सब प्रभू के जानकर।
दुश्मन न रख तू एक भी, नित प्रेम की जड छानकर ।।


४३६
सत्‌-भाव से दो दान तो, कंका लखों के भार है।
लाखों बटो अभिमान से, नहिं एक कवडी -भार है ।।
ऐ मस्त! कर तू दान पर,आशा न कर फल मान की ।
सेवा समझकर दान दे, उद्धार होगी जान की ॥

४३७
जो कष्ट करते मान को, वह श्रेष्ठ भी फँस जात है।
फँसते नहीं वह कष्ट से, अपनी भलाई पात है ॥।
हे यार! तू कर कष्ट पर, मत भोग में आसक्त हो।
प्रभू-भक्ति की सेवा करन को,काम तज,अनुरक्त हो ।।

४३८
मत बोझ किस पर दे कभी, हो देह का या स्नेह का ।
उपकार ही करना सदा, हो कष्ट का या चाह का ।।
फिर सुख हो या दुःख हो, दोनों बराबर जानना।
सब बोझ लेकर आप ही, अपना धरम है मानना ॥

४३९
रहता अलग संसार से, पर भी रहे संसार में ।
करता नहीं अपने लिये, करता हि पर-उपकार में ।।
जो जानता ऐसा धरम *उपकार हो महापुण्य है।
पर-पीडना यहि. पाप है सो भक्त शिरसामान्य है ।।

४४०
ऐसे पुरुष के दर्श से, मै मुक्त होता तूर्त ही।
*जहाँ दीन देखे आँख से, वहाँ दौड आता तूर्त ही ।।
सेवा करन को दीन की, जो देर ना पल भी करे* |
भगवान भी उस भक्त की, महिमा सदा गाया करे ॥।

४४१
जो कर्म होगा देह से, हो बित्त से या चित्त से |
सब विश्वमय व्यवहार हो, हर जीव ही सुख ले जिसे |
जन ही जनार्दन खास है, अपण उसे सब कर्म हो।
परमार्थ-सुख पाता वही, यहि यज्ञ गीता-धर्म हो! |।


४४२
बलवान होते है वही, जो दीन से भी नप्र है।
सेवा करे नित देश की, हक में रिझावे उम्र है।।
*सब जीव को नित सौख्य हो*,ऐसा जिन्हों का प्रेम है।
तुकड्या कहे,उन श्रेष्ठ को, मेरा नमन सप्रेम हैं।।

सदाचार

४४३
नर ! गुण ऐसे चाहिये, कोई पुकारे नाम से।
चाहे सदा जन-लोक भी, दौरे सभी ही काम से॥। .
सत्कीर्ति मरने -बाद भी, लाखों पुकारे होयगी।
ऐसी कमाई कर सही, कीमत तभी ही पायगी।।

४४४
साँची रहन रख आदमी ! हो भीतरी या बाहरी।
साँचा सदा व्रत ले तभी, होगी पुनित यह वैखरी।।
साँचे पना ही कर श्रवण, हो कर्म सुनने साँच ही।
बिन साँच के मत रख जुदा,झूठी न रह दे आँच ही।।

४४५
मानुज गुन्हे को पात्र है, पर जो गुन्हे को बोलता।
रखता जबानी *साँच ही, वहि ऊँच गड पे डोलता।।
सब दोष से निर्मुक्त हो, वहि आखरी फल पायगा।
गर दोष ना बतलायगा, तो डूब के मर जायगा।।

४४६
साफल्य करना है जनम, तो ख्याल रख इस बात में।
 हिंसा न कर, *अस्तेय धर,रख धीरता निज-ज्ञान में।।
रे आदमी ! मत वीर्य को, कोई जगह में डाल तू।
भरके रखे गर थाल तु, होगा जगत्‌ में लाल तू!


४४७
वाणी तथा मन से सदा, सीदा रहा कर लोक में।
तो मौत में यार ! तू, भूले नहीं फिर शोक में ॥।
दुनिया चहेगी जन्म भर, कीर्ती रहेगी लोक में ।
यदि साँच मन वाणी करे, सुख पायगा पर-लोक में ।।

४४८
है पाप ऐसी चीज ! वह, क्षण में बताती सुख को ।
फल-भोग मिलता आन जब, आजन्म देती दुःख को॥
पूरी सताती यार ! जब, इन्कार भी लाखों करे ।
ब्याजों सहित लेती कमा, तू पाप फिर क्योंकर करे ? ॥

४४९
सब छोड दे कुविचार को, सुविचार का कर संच रे।
सुख का यही सत्पंथ है, मत झूठ रह दे ह्ररंच रे॥
धर सत्य का ही ध्येय तू, अरु सत्य ही साधन करे ।
होगा सफल नर जन्म यह,रख ख्याल में हर वक्‍त रे ॥

४५०
हो काम, क्रोधरु मान भी,हिंसा, असत्‌,पर युक्त हो ।
घर ना जले-सो अग्न हो, जो रोशनी-उपयुक्त हो ॥।
जिहूँ धान्य-रक्षा के लिये, है युक्त काँटि खेत को ।
वैसे सभी कु-विचार भी, हो ध्येय-रक्षण-हेत को ।।

४५१
मैं क्रोध ही हूँ चाहता, जिन क्रोध में हो नीतिया।
बिन क्रोध के नीती नहीं, तो क्या पुरुष ऐसा जिया ? ॥
उससे भले बीमार है, तो ठीक है मर-खाट पे।
गर सत्य ना रखता गडी, किस काम का सब थाट पे ॥
४५२
झूठा कपट करके कहीं, धन को कमाना छोड दे।
तेढी नजर से देखना, बूरी जबानी तोड दे॥।
निंदा किसी की ना करे, व्यभिचार-मारग खोड़ दे।
सब के अलग रहता भया, प्रभू में सदा मन जोड दे ।।


४५३
खाना जरा खा नेक का, मत खा कभी बद नेक का । 
मत योग कर,बिन-भेख का,मत धन पचा संजोग का |
रे आदमी ! कर कष्ट को पचता सदा धन माल वो।
पावे हरामी का अगर, पूरा करे बे-हाल वो ॥ 

४५४
भक्ति करो पर काम भी-तो हाथ रहने दो भला। 
गर ना करो कुछ काम ही, हो बंद खाने की कला ॥ 
कुछ पेट को तो चाहिये, ऐसी समझ को मानते।
तो काम भी करते रहो, यदि देह धर्म पछानते ॥ 

४५५
*कर कष्ट हर दम आदमी ! हो पैर से या हाथ से।
तो खा कमाई  शेर की, मिल जा उसीके जात से॥
गर मुफ्त का माँगे कहाँ, तो गीध सम हो जायगा।
नहिं सुख तो होगा कभी, पर दुःख में भरमायगा ॥

५५६
खाना पिना, रहना, पहनना, सात्विकी करना सभी ।
हो नेक हर दम साँच ही, मत झूठ से भूले कभी ॥
पावित्रता आचार में, दिल से वही संकल्प हो।  
तब ही मिलेगा सत्य सुख, कुमती जहाँ नहिं अल्प हो ।।

४५७
भोजन नहीं यह यज्ञ है, ब्रह्माग्नि में है आहुती।
नर ! शुद्ध-चित सेवन करे, तब ब्रह्म ही होती मती ।।
ऐसी किया कर भावना, अर्पण किया कर ब्रह्म को ।
कर फेर भोजन प्रेम से, सत्‌-बुद्धि पावे धर्म को ॥

४५८
आठों प्रहर शुद्धाचरण, दिल शुद्ध करने के लिये।
वह ही श्रवण वह ही कथन,खुद विश्व तरने के लिये ॥
प्रात:समय, भोजन-समय, निद्रा -समय औ हर घड़ी।
हो ईशका ही चिंतवन, यही ही तपस्या है बड़ी॥


४५९
जो श्रेष्ठ का सत्पंथ है, वह तू हमेशा ख्याल कर।
खुद कर वहीसा आचरण, झूठा करन सब डालकर |
व्यसन सब फूक दें, उपकार कर, तज लालसा |
व्यवहार कर सत-न्याय से,ईश्वर भजन की ले नशा ||

४६०
मत बांध रे ! मंदीर मठ, जो है उसीको ठीक कर |
कर जीर्ण का उद्धार तू, मत कर नवीनों की फिकर ।।
नर ! एक में तो ध्यान दे, निष्काम मारग छानकर |
नहिं तो फुकट जावे सभी ,यदि द्रव्य लाखों दान कर |।

४६१
ऐ दोस्त! क्यों चिल्ला रहा? झगडा-फिशादी छोड दे |
बहुमान्य जिनका कर्म है, अपनी  रहा बहि जोड दे |
यह शूरता तेरी अलख के-पलख में गम जायगी ।
तो मिल बड़ों के साथ में, आबादि हर दम पायगी |।

४६२
भरके रखा माता उदर में, पिण्ड यह नव-मास भर |
करके रखा सुंदर स्वरुप, अंदर सभी तैयार कर ॥।
दिल जान से कर कष्ट को,पैदा किया जग में *जिन्हे ।
कितनी हमारी मूढता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।

४६३
नहिं दांत थे जब ओठ में, तब दूध को पिलवा दिया ।
अनजान थे खाने पिने, तब चोंच से खिलवा दिया ।।
नहिं याद थी दुनिया जबाँ, हर लब्ज से पढवा जिन्हे ।
कितनी हमारी मूढता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।

४६४
कर कष्ट दूसरों के सदा, विद्या पढाना कर दिया।
उपकार उसका है बडा, खुब अक्ल हम में भर दिया ।
काशी हमारी है वही, पावन किया गुरु से जिने।
कितनी हमारी मुढ़ता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।


४६५
भूले नहीं कभी यार तू, उनके कदम शिर मान कर।
हर दम भला वह चाहती, बालक हमारा जान कर।।
तुकदया कहे माता पिता,ईश्वर नहीं माना जिन्हें।
कितनी हमारी मूढता ? आखर न सुख दीना उन्हें ।।

 ४६६
माता, पिता, गुरु, देव, सज्जन से सदा ही नम है।
आचार में नित शुद्ध जिसकी, यों चली सब उम्र है ॥
फसता नही है वह कभी, किसी -दूष्ट के हथियार से । 
तुकड्या कहे वह तर गया, इस काम-लाटों -धार से ॥


*निष्काम -कर्मयोग*


४६७
पाया जनम कर्तव्य से, कर्तव्य हरदम हाथ ले।
मत रो कभी संचीत से, संचय-खजाना साथ ले ॥ 
जो होगया सो होगया, फल के उपर ना ख्याल कर ।
अपने उचित कर्तव्य को, शास्त्रोक्त रीती चाल कर ॥

४६८
संसार में नीती रखे, संसार है जो साधता। 
आसक्त होता है नहीं, सो ही परम-पुरुषार्थता ॥
अपना -पराया एक है, ऐसी समझ मन मान कर । 
अपने उचित कर्तव्य को, शास्त्रोक्त रीती चाल कर ॥

 ४६९
पर्वा न कर सुख दुःख की, हो लाभ की या हान की।
लपटा रहे कर्तव्य से, दे त्याग इच्छा मान की ॥ 
कर्तव्य -भूमी साफ कर, सीधा चला जा न्याय से।
होगा सुखी संसार में, बच जायगा अन्याय से ॥


४७०
आसक्त मत हो कर्म में, अरु कर्म तो करता रहे।
करता रहे प्रभु का स्मरण, दुर्गुण से डरता रहे। |
निर्भय सदा सत्‌-संग धर, यदि जो बने सो दान कर ।
चिंता-चिता को भूल जा,यहि मार्ग अपना ध्यान कर ।।

४७१
यह * मैं-हमारा* मानना, यदि आड आता पाप है।
गर *मैं* नहीं हो आड तो, सब मिट गया संताप है।।
अभिमान *मै* का छोड दे,अरु ईश का सब मान ले।
तो मस्त हो प्रभु नाम में, अपनी जगह पहिचान ले ।।

४७२
*गुरुदेव ही है सर्वतर, सबके बनाते है वही।
जितना हमें यह दिख रहा, गुरु के बिना सत्ता नहीं ।।
ऐसी किया कर भावना, तब शांति आवे पास है।
गर खुद करे अभिमान तू, होगा तनू का नाश है।।

४७४
करतार है प्रभु विश्व का, सत्ता उसीकी सब जगा।
क्यों आदमी ! भूला उसे, अभिमान में जाके लगा ।।
सब वस्तू है विश्वेश की, सुख दुःख सम जो भासती ।
अपने उचित कर्तव्य से, मिलती रहे जैसी मती ।।

४७४
*म और मेरा छोड दे, सत्ता प्रभु की जान कर।
तेरे सहित यह विश्व सब, है ईशमय पहिचान कर ।।
कर्तापना को भूल जा, कुर्बान प्रभू से पूर्ण हो ।
निष्काम होकर कर्म कर, प्रभुरुपमय संपूर्ण हो ॥

४७५
हर हाल में रहता हुवा, आनंद अक्षय मानना।
 फिर सुख हो या दुःख हो, दोनों बराबर जानना ।।
कर्तव्य तन को है लगा, कर्तव्य से नाता नहीं।
तू सर्वथा निष्काम है, मरता नहीं, जीता नहीं ।।


४७६
गुजरी हुई मत ख्याल कर, मत रो कभी गुजरान को |
कर्तव्य कर निष्काम से, रख सर्वदा प्रभु ध्यान को।|
ऐसी अगर हो जिंदगी, तो सब कमाई पा गयी ।
घर बैठ मुक्ती आ गयी, सच्ची नियत मन भा गयी ।।

४७७
गीता सुनाती है हमें, आसक्त मत हो कर्म में।
अरु कर्म तो करते रहो, तब ही रहोगे धर्म में।।
जो नर अनासक्ती धरे, अरु कर्म -धारा जायगा।
कबहूँ न डूबी खायगा, आखिर प्रभु पद पायगा।|

४७८
जो कर्म ही करता नहीं, वह भी नहीं निष्काम है।
करते करम जो छोडता, वह भी नहीं निष्काम है।|
जब कर्म की आसक्तता, वह कर्म में ही ना रहे।
सो ही पुरुष है श्रेष्ठ यह, श्रीकृष्ण गीता में कहे।।

४७९
इंद्रीय मन स्वाधीन कर , जो आत्म में संलग्न है।
है धीर अरु गंभीर, निश्चल चित्त से प्रभु मग्न है॥
सो कर्म करता ही रहे, नहिं कर्म से कुछ बाध है।
नहिं कर्म-बाधे एक पल, सब बंध से आजाद है॥

४८0
अभिमान तन का है नहीं, आशा नहीं संसार की।
परिपूर्ण निश्चय हो गया, छाई नशा है सार की॥
कर्तापना ही चल गया, फिर कर्म ही निष्कर्म है।
आनंदमय निर्मल सदा ; यहिं योगहूँ का मर्म है॥

४८१
ज्ञानी, महात्मा, संत भी, सत्‌-कर्म को करते गए ।
क्रियमान भी यदी था नहीं, तो भी जगत हित को लहे।।
जब तक जीवन हैं ज्ञान का, तब तक कराम धरना ही है।
वह देखकर सब जान करे, यह बात अनुसरना ही है।।

   

ञलटाा


४८२
नहिं सावधानी से सदा, ज्ञानी करेगा कर्म को |
तो अन्य बिगड़े जायेंगे, भले पड़ेंगे धर्म को ॥
ये श्रेष्ठ जन को श्रुत रहे, यह याद दी श्रीकृष्ण से ।
गीता बताती है यही, उपलब्ध अर्जुन-प्रश्न से ।।

४८३
*कर्तव्य है ना कर्म से, फिर भी न त्यागे कर्म को |
है सहज वृत्ती कर्म हो, नहिं भूलते यह मर्म को * ॥
जो श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ तर-श्रीकृष्ण यों कहते सदा |
अर्जुन ! करो निष्काम को, जनता करे तब सर्वदा ॥

४८४
निष्काम -निरहंकार से, सत्‌ कर्म कर हरगीज ही ।
कर कर्म हरि-उद्देश्य से, या ईशमय निर्वीज ही ।।
शास्त्रानुकूल ले न्याय को,क्या कर्म ?कौन अकर्म है।
सीधा चला जा मार्ग से, यहि विश्व तारक धर्म है ।।

४८५
शास्त्रोक्त करना कर्म का, होता कठिन ही मान लो ।
समझे नहीं वह,क्या करे, किस किस तरह ?वह जान लो ।।
*गहना गति:* गीता कहे, उन कर्म के संसर्ग को ।
बस ,सतगुरु बिन पार ना, उन गुह्म सर्ग-विसर्ग को ।।

४८६
अभिमान अरू आसक्ति ये, निर्मूल जब हो जाएगी।
सच्ची तभी निष्कर्मता, नीर्लेपता दिल छायगी।।
तुकडया कहे बिन ज्ञान के, नहीं योग आवे हाथ में।
बस सतगुरु बिन पार ना, नहीं मर्म साधे बात में।।


सत्संग -प्रकाश


४८७
ईश्वर मिलन की साधना,हमको बता दो जी ! कहीं |
इच्छा हमारी है मगर, मारग कहाँ दिखता नहीं ||
जो वह कहे हमरा बडा है, पंथ ईश्वर पाय को |
लेकिन गया तो कुछ नहीं,हम पा गये हि अपाय को ||

४८८
भावूक जनों ! इस भाव को, अंधे न राखे रख रहो |
सत्‌ या असत्‌ पहिचान लो, फिर भाव में जागे रहो ।|
जब नाव पत्थर की बनी, तब पार केसे जावोगे ? |
यहाँ भी नहीं, वहाँ भी नहीं, बिच मे अटक भरमावोगे |।

४८९
अदमी पिछे हर पंथ है, हर एक वृत्ती है जुदी।
मिलता न मेला एक से, तन को बडे कहते खुदी।।
साधु महंती गर्व में, रमते सदा कलि-काल में ।
लेकिन भला नहीं होयगा, ऐसी समझ के हाल में ।।

४९०
सब पंथ को देखा मगर, अभिमान ही रखते बड़ा ।
गुरुजी कहे मेरा बड़ा, चेला कहे मेरा बड़ा।।
नहीं जानते को है बड़ा ?क्या तू बड़ा, कया मै बड़ा ।
जो है बड़ा, अनुभव चढा, यह देह तम से ही पडा ॥

४९१
अपना भला समझे गाड़ी! यदि झूठ ही तो है तभी।
दूजा अगर हो साँच भी, तो भी न कहता साँच भी।।
ऐसा जहाँ अभिमान है, उस धर्म से मै दूर हूँ।
चाहे भले वह पंथ हो, इससे सदा मागदुर हूँ।।


४९२
कइ जादूगर होते गुरु, फूँका किया करते सदा ।
ठाने ठुने बतलायके, दुनिया किया करते फिदा ॥
पर याद रखना भाईयों ! ये गुरु नहीं, गुरगुर्र हैं।
कुत्ते तभी कुछ ठीक है, पर ये लुबाडे -शूर हैं ॥

४९३
लाखों गुरु है जगत में, पर एक भी नहिं काम कां।
सब स्वारथों के आसरे, डंका बजाते नाम का ॥
विश्वास का गुरु एक हो, बाकी नहीं कुछ ध्यान दे ।
जो *खास की पहचान दे , ऐसे गुरु पर जान दे ॥

४९४
सहवास बिन बनती नहीं, परतीत प्राणीमात्र से ।
*सहवास ही है मुख्य तर, देता प्रचीती शास्त्र से ।|
हर एक अंतर-हेत भी, सहवास से पा जायगा।
सहवास बिन प्रीती करे, तो आखरी दुःख पायगा ॥

*साधुओं को सन्देश*


४९५
मैं ना झुकाऊँ *सर कभी, ये भेख बाहर देख कर |
सर को झुकारऊँ हर घडी, कुछ कर्म के उल्लेख पर ॥
जिसमें कहीं ना धर्म हो, अरु कर्म का है लापता ।
जोगी हुवा तो क्या हुवा ? जोगीपना नहिं जानता ॥

४९६
था तो गृहस्थी ठीक था, था प्रेम भूतों मात्र से ।
झूठा हि साधू हो गया, अन्‌ जानते वह शास्त्र से ॥
दुनिया लगाकर के पिछे, सब दोष से मटका भरा।
पहला गृहस्थी ठीक था, साधू भया भटका मरा ॥।


४९७
साधू हुवा तो क्या हुवा ?नहिं काम को जीता कभी।
नहिं काम है नहिं राम है, दिन फिक्र में जाते सभी।।
इस पेट के पीछे लगा दर दर भिखारी बन गया।
नहिं राम का सुमरन किया, कपडे रंगे साधू भया।।

४९८
भगवान तुमको पालता, भगवान से रहते छगे।
तुम तो विषय के जाल में, भूले पड़े बन के ठगे।।
नहिं काम भी पूरा करा, आखिर फकीरी ले लिया।
नहिं राम है,नहिं काम है,बिरथा जनम को खो दिया।।

४९९
सब लोक से सेवा करे, यह बोझ छाती जोडता।
शक्ति नहीं कुछ पास में, सब पाप माथे ओढता।।
है दुःखमय ये भोग, तुझको क्या ? सभी से भोवता।
रख याद सच्चे बात की, तेरा भला यदि चाहता।॥

५००
उपकार तो बनता नहीं, अरु भीख किसको माँगना।
मेरी समझ में है बडा ही, दोष सिर पे जानना।।
सेवा अगर बनती नहीं, तो राम की नित याद कर।
बह राम सब को दे रहा, देगा तुम्हें घर लाय कर।।

५०१
ऐ भेख के अभिमानवालों ! भेख परदा छोड़ दो।
मोजूद है वह यार "साखी* दिल उसीमें जोड दो।।
मन को रंगावो ध्यान में, अरु ज्ञान से तल्लीन हो।
क्यों भूलते अपना करम ! बस धर्म में लवलीन हो।।

५०२
ये पंथ सबके योग्य है, पर द्रोहता बिच रोग है।
यह द्रोहता पीछे लगी, सबको लगाया भोग है।।
यह भोग अपना छोड दो, कर्तव्य से सादर रहो।
जो जोग सो उद्योग हो, पल भी नहिं बिछुडे रहो।।


५०३
साधूहि बनना चाहता, तो साध ऐसे ख्याल को ।
सब भोग अपने त्याग दे, कर दूर आशा-जाल को ।।
अपना -पराया भेद सब, अज्ञान-आँधी दे हटा |
हो चेतता बैराग से, सब रंग भंग को दे कटा ॥

५०४
साधूहि बनना चाहता, तो सत्य को मत भूलना |
यदि प्राण जाता तो सही, मत झूठ की कर पालना ॥
वाणी तथा मन काय से, सदसत्‌ हमेशा जान कर |
कर सत्य पालन नित्य ही, *मै सत्य हूँ" यह मान कर ।।

५०५
साधूहि बनना चाहता, तो साधना ऐसी पकर |
अध्यस्त को कर बाद, अपने ईश को पहिचान कर ।।
 लागे-लगो उस ज्ञान में, दूजा कभी ना ध्यान दे।
रंग जा ख़ुदी के भंग में, सबको वही रंग छान दे ।।

५०६
गंगा-किनारे जा रहो, फल -फूल सब दिन खा रहो।
फिर जीत हो, या हार हो, इस पार हो उस पार हो |।
प्रभु का स्मरण करते रहो, मद-काम से डरते रहो ।
करते रहो, साधू बनों, नहिं तो हुजर मरते रहो ।।


*उपदेशकों को इशारा*

 

५०७
है शिक्षकों की राह यह, खुद ही न झूठा बोलना।
फिर शिष्य गण को मार दे, साँची नियत पट खोलना ||
घर के भले भाईं सभी, गर झूठा झूठा बोलते।
तो बाल केसे साँच हो ? गर चाल झूठा छोलते ॥

५०८
बदनाम सबको फेर कर, पहिले तू ही बदनाम है।
हे यार ! कर नीती ख़ुदी, क्यों हो रहा बे-फाम है ? ॥
*खुद पाप तो छोडे नहीं, अरु ज्ञान सब को बोलता ।
करके नहीं सुनता जगत, यह बोल बिरला तोलता* ॥

५०९
कैसे भला कोई सुने, यह ठाठ इनका देख के।
बातें सुनाते है भली, किसी जोगियों के भेख के ॥
खुद तो बुरा ही चष्म है, है शौक दुनिया झोंक का ।
करके भरोसा है नहीं, अब ऐसियों पे लोग का।।

५१०
अपना भला तो कर गडी ! सबका भला फिर होयगा।
जब जानता नहिं खास को ,तो क्या किसीसे रोयगा ? ॥
अपनी नियत को खोज लो, करते रहो ऐसी चलन।
तो सबहि करने आयेंगे, है साँच का ऐसा दलन ॥

५११
मत संत का ले पार्ट तू, दोषी महा कप हो जायगा।
लाखों जनम में पाप ही के, आसरे भरमायगा।।
जो साँच हो बतलाइये, तो मोक्ष का फल पाईये।
दोषी हुवा तो हर्ज क्या? झूठा नहीं कहवाइये।।


५१२
मत कर अखाड़ा तू कहीं, मत शिष्यागन को कर जमा।
मत बांध मठ मढ़िया कहीं, मत दक्षिणा यहाँपे कमा ।।
निष्काम कर उपदेश को, सेवा समझ कर ईश की।
सच्चा अनुग्रह कर सदा, चोरी न कर संदेश की।।

५१३
नहिं तो कहीं ऐसा न हो, जग लोभ से भुलवायगा।
खुद स्वार्थ में दिल डाल के, सबको पतन बतलायगा ।।
रे! साँच कर अपनी जबां, अरु न्याय से उपदेश कर।
कर नाश अपने मोह का, मत चाहडी लवलेश कर।।

५१४
मत दुष्ट को कह दुष्ट तू, रख प्रेम उससे आदमी |
ला सुष्ट करने की तरह कर दूष्टता से वह कमी ।।
सहवास से जब दूष्टता, उसकी भली -भाँती गईं।
तो दुष्ट कहने की उसे, कोई जरुरत ना रही ।।

५१५
मत रोक किसके भाव को, सीधा हि जाने दे भला ।
जिसमें जिसे मिलता प्रभू, वह मार्ग उसका है खुला ।।
*मैं बोलता हैँ एक है, उसकी खुशी तो एक है*।
यह सोच करना चाहिये,प्रभु-रूप सच हि अनेक है।।

५१६
भोले भगत्‌ के भक्ति की, निंदा न हो किसी ज्ञानि से।
गर निंदियाँ करने लगे, तो भ्रष्ट होगा ज्ञान से।।
उस भक्त के सत्कर्म को, पुष्टी बता दे भाव की।
पाखंड नहिं कहना उसे, यदि हो गती सद्भाव की।।

५१७
कहना सभी का देखता, रहना नजर आता नहीं।
रहने बिगर आचार से, कहना हमें भाता नहीं।।
कहनी सहित रहनी रहे, सो भक्त सिरसामान्य है।
कहता भला सिद्धान्त तो, होता नहीं कभु धन्य है।।


५१८
वेदान्त मुख से कह दिया, क्या वेद का हभेदी बना?।
बिन भेद जाने वेद का, वेदान्त कहना है मना॥
कहता जबानी *ब्रह्म हूँ* अरु कर्म सारे अन्य है।
कहता यदि सिद्धान्त तो, होता नहीं कभु धन्य है। ।
५१९
बतला न किसको आदमी ! क्ररता रहे हर दम खुदी।
सब आप ही ले-लेयेंगे, ना वक्त हो कोई जुदी ॥
तू खास सत्-हेतू पकर, अरू कार्य अपना कर सदा।
तो लोक भी माने कहा, यदि ठीक है तो सर्वदा। ॥
५२०
गर लोग को -पढवाव तो, खुद भी करो ऐसी चलन।
सो धन्य! सिरसामान्य है! करता चलन, धरता मनन।।
निज ध्यास है जिनका लगा, निज आत्म प्राप्ती के लिये।
उनका पढाना योग्य है, अधिकार है उनको दिये।॥
५२१
अपना करम करता नहीं, अरु दूसरे ना दे करन।
ऐसे पखंडी से कभी, ईश्वर ! न संगत दे धरन ॥
संगत हमें उसकी सदा दे, जो करे खुद आचरण।
जिसके सदा सद्भाव से, हो आर्त का जलदी तरण।॥
५२२
संगत उन्हीं की योग्य है, है योग्य उनका अनुसरण ।
हो बोध, चलना, देखना, रहना, सभी करना ग्रहण ।।
*काया-वचन-मन एकमय, मर्मज्ञ, जग-हित-बुद्धि है।
तुकड्या कहे उन श्रेष्ठ की, सेवा सुखामृत-सिद्धी है।।


५२८
रहता फकीरी हाल मे, दिल बादशाही से भरा।
खाने नहीं मिलता कभी, हिम्मत सदा रखता पूरा।
नहीं देह पर कपड़ा मिले, पट्टे उपर रहता सदा।
पर मस्त है अपनी जगह, जो ज्ञान में रहता फिदा।।

५२९
है ज्ञान जिसको आत्म का,वह शांत अक्षय हो गया।
सब योग-यागों कर लिया,निज धाम अपने सो गया।।
नहिं वासना रहती खड़ी, संसार के यह जाल की।
अविषय-विषय पाया उसे,टूटी प्रथा जग माल की ॥

५३0
क्या काम दुनिया में रहा ?जब शौक से मन धो लिये।
जिसने प्रभू के नाम में, तन-मन-वतन को खो दिये।।
जीते रहे तो ठीक है, यदि मर गये तो ठीक है।
अच्छे रहे तो ठीक है, दुःखी रहे तो ठीक है।।

७३९
दुनिया है गोली गेंद की, है खेल आशक छंद की।
बैठे न पद निर्द्वंद की, पहुँचे न घर आनंद की।।
जो *भक्त* हैं उस रुप के, समझे नहीं इस भोग को |
हैं मस्त अपने राम से, टाले न दम संजोग को ।।

५३२
भूमी बिछाना मस्त का, आकाश तंब दे रखा।
परकोट पर्वत का बना, सागर कुवा घट में लखा।।
बुझे नहीं मशयाल चंदा, और सूरज है खडा।
सारी जहाँ में *मस्त* का, दौरा अलख गाजे बडा॥

५३३
चौदा भुवन, सातों तत्छा, तिहूँ लोक में देखा नहीं ।
चहुँ धाम, चौन्याशी पुरी, छे शास्त्र में लेखा नहीं ।।
देवल तथा मसजीद भी, ढूंढ पता ना पा गया।
देखा वहाँ ही हर घडी, वह *मस्त* के घट छा गया*


 ५३४
संतुष्ट अपने आप में, नहिं मान है, अपमान है।
बंधन नहीं कामादि का, निर्मोह जिसकी जान है ॥।
सब वासनाओं को हटा, निर्मूल बैठा स्वात्म में ।
भेदी न वृत्ती है कभी, पर-आत्म में *अपरात्म में ।।

५३५
नहिं दुःख में उव्दिग्न हो, नहिं सुख में सुख मानता ।
भय क्रोधसे होके अलग, निवृत्तता दिल छानता ॥
ऐसे विवेकी धीर जो, बिरलाद कहँपे पाय है।
पावे बडे ही भाग्य से, जो *स्थितप्रज्ञ* कहाय है ॥

५३६
तिलमात्र नहिं आसक्त जो,कोई अशाश्वत स्थान में ।
शुभ हो कहीं या हो अशुभ, बदले न अपने भान में ।।
शुभ में मजा नहिं मानता, अशुभे न दुख उठाय है ।
पावे बडे ही भाग्य से, जो *स्थितप्रज्ञ* कहाय है ॥

५३७
रुखी-सुखी को खायकर, गुजरान करने यों लगा |
फाटी चिंधडियाँ पहनके, प्रभु याद में हरदम जगा ।।
आशा नहीं किसि काम की, निष्काम हो बैठा भला ।
ऐसे *फकीरों" के लिये, है मोक्ष का दरगा खुला ॥

५३८,
माँगे नहीं, लेता नहीं, जो है उसी में मस्त है।
पीवे नहीं कुछ भी नशा, अरु आप मे अलमस्त है ॥।
नहिं शत्रु है, नहिं मित्र है, सबसे सदा रहता मिला ।
ऐसे *फकीरों* के लिये, है मोक्ष का दरगा खुला ।।

५३९
सब जग उन्हीं को एक-सा, बस्ती रहे, जंगल रहे ।
सब काल उनको एक-सा, गर्मी रहे, सर्दी रहे ॥।
सब लोक उनको एक-सा, छोटा रहे, या हो भल्ता ।
ऐसे *फकीरों* के लिये, है मोक्ष का दरगा खुला ॥।
 ५४०
वहीं मोक्ष के साथी सदा, जो मुक्त बंधन से भये।
अपने लिए तो मर गए, जग के लिए जीते रहे।
करना नहीं उनको कहीं, अपना भला इस लोक में।
केवल बने उपकरवत,इस लोक में पर लोक में।।
 
५४१
करना नहीं, पाना नहीं, ना हैं विधी न निषेध है।
 *स्वच्छंद है ! निर्द्वंद है ! जिनको न बाँधे वेद है।।
पर भी जगत्‌-हित के लिये, रखते सदा सत्‌ नेम है।
निष्काम से सत्कर्म कर, करते सभी का क्षेम है।।

५४२
है संत ईश्वर एक ही, नहीं कार्य उनका है जुदा ।
करते जगत की पालना, दुष्कर्म की हर आपदा ||
सत्धर्म की संस्थापना, जड जीव का हो उद्धरण !
तुकड्या कहे उन संत के, दिल से सदा पकडो चरण ।!

सत्संग महिमा

५४३
है संत दुनिया में जगे, तब ही रही दुनिया खडी |
उनके प्रतापों से अभी तक ही नहीं नीचे पड़ी ।।
कितना जगत्‌ में पाप है, अंदाज के बाहर चला |
पर संतही का पून है, जो आज तक जग ना ढला॥

५४४
है वेद मेरे संतही, सब बोल वेदों की ऋचा |
जो हुक्म दे अपनी , मै पालता हूँ जो सचा ।।
कर के अमल उन के उपर अनुभव हमें मिल जायगा।
विश्वास मेरा हे यही , सन्मार्ग संत बतायगा ।।


 ५४५
बडे भाग पाये आज मैं, सत्‌ का समागम पा लिया ।
चहूँ धाम, चौन्याशी पुरी, सातों समुंदर नहा लिया ॥।
जो कुछ करम के दोष थे, इस दर्श से ही टल गये ।
अज्ञान के ढग हल गये, निज ज्ञान के पट खुल गये ।।

५४६
वे संत मेरे प्राण है,वे संत मेरे जान है। 
वे संत मेरा ज्ञान है, वे संत मेरा ध्यान है ॥।
जिनके प्रभावी शब्द से, दिलका भरम सब हट गया |
था वज्र जैसा पाप भी, पल दर्श से ही कट गया ।।

५४७
जब बाण छूटे शब्द के, लागे हृदय थर-कापने |
हर रोम से ज्वाला उठे ख्यालात पहुँचे आपने ॥।
ऐसी नशा जब हर घड़ी, सत्‌ शब्द की मिल जायगी |
तब वज्र जैसे धीर की, वृत्ती प्रभू गुण गायगी ।।

५४८
हो बद्ध नास्तिक, आर्त भी, साधक, मुमुक्षू हो कहीं ।
सत्संग सबको योग्य है, जिससे चढे वृत्ती सही ।।
जिनके प्रभावी बोध से, जड़ जीव भी तर जाय है।
आनंद के उत्कर्ष से, सब विश्व ही भर जाय हे ॥

५४९
गंगा धुलावे पाप को, अरु ताप को वह चंद्रमा ।
विद्या करे बुद्धी विमल, संतोष कुछ देती रमा ॥
पर संत के सत्संग में, पूरे सभी मिल जाय है।
आनंदमय भगवान का,  नुर आप ही खिल जाय है ॥।

५५०
मिलना कठिन है संत का, बड़ भाग से पाते कहीं ।
गर पा गये संजोग से, तो संगती मिलती नहीं ।।
सत्‌-संग जिनको पा गया, तो जन्म का साफल्य है।
अधिकार क्या उनका कहूँ ? वह शानशा के तुल्य ह
 ५५१
आओ चलो मिल जायेंगे, सत जात है अपनी जहाँ।
झूठे नहीं किसी काम के, भुलवायेंगे आखिर यहाँ। 
सत्संग सम ना संग है, कोई जगत में पाएगा।
नर! साँच जाती है वहीं, जो साँच घर पहुंचायगा।

५५२
पोथी पढ़ो, या वेद भी, हो शास्त्र भी, परच्छेद भी।
अन्वय अगर हो अर्थ भी, पढ़ स्वार्थ, या उच्छेद भी।
लाखों कवीता कर कभी,*लघु व्याकरण के साथ हो।
बिन संत-संगत के किये, पाता नहीं कुछ हाथ हो ॥

५५३
देखी कितांबें लाख भी, वेदान्त ओ सिद्धान्त की |
तो भी मिले नहिं राह यह,यदी कष्ट हो बहु शांत की ॥
बिन सत्‌गुरु की हो दया, अनुभव कभी ना आयगा।
अनुभव उसीको पायगा, जो सत्‌गुरु गुण गायगा |।

५५४
अवधूत से भी दत्त को, चौबीस से अनुभव मिला |
तब और की है क्या कथा, अपरोक्ष को जाने भला ॥
बिन सत्गुरु की हो कृपा, नहिं पार कोऊ पायगा |
सारे जगत्‌ के बीच में, सो ही रहा बतलायगा ॥

५५५
है पाँच बापों से बना, माया-नदी तब तिर गया ।
ना डर किसी का है उसे, वेकुंठ की जहागिर गया ।।
इक बाप तो है जन्म का, तिहूँ बाप हैं सस्कार के ।
है पाँचवा वह बाप जो, दे मंत्र कट भवधार के ॥

५५६
गुरु की कृपा बिन झुठ है, चाहे हजारों जोग ले |
स्वानंद तो नहिं पायगा, यदि भोग लाखों भोग ले |!
गर शात होना है गड़ी ! मद-मोह भंडा फोड दे।
गुरुबोध-अंजन प्राप्त कर, निज गुप्त हंडा जोड दे।।
 ५५७
भ्रम के किंवाडे खुल गये, अज्ञान के ढग हल गये।*उर के फँवारे चल गये, दूही-निशाने भुल गये ॥।
बाकी नहीं कुछ भी रहा, वाकीफ-गड पे चढ़ चुके ।
गुरु की कृपा जब हो चुकी, साकी -मजा से लढ़ चुके ।।

५५८
इत शुन्य के उत शुन्य में, जो शुन्य की निज नैन है।
सौ नेन ही पावे जहाँ, वह धन्य है ! जग-मान्य है॥।
फिर चेन को बाकी नहीं, *साखी* उसीने पा लिया |
तुकड्या कहे, वह गुरुकृपाबिन, कोड ना दूजा दिया ॥

*आर्त का कर्तव्य*


५५९
गुरु नाम से क्या रो रहा ? अपनी भूमी तो साफ कर |
कर ग्रंथ पालन सत्य के,क्या देखता हि इधर उधर ॥।
सीधा हि चल उस मार्ग से, जिस मार्ग से मोटे गये ।
अपना भला ही कर गडी ! गुरुनाथ जब आखीर है ।।

५६०
आचार अपना खोज लो, खुद बुद्धियों के बोध पर ।
सतशास्त्र की मर्जी तभी, होती रहे आचार पर ।।
होती दया प्रभू की तभी, जिन शास्त्र की मर्जी लिया |
गुरु की कृपा उनपे रहे, जिनपे प्रभू की है दया ॥

५६१
नियमित रहना चाहिये, आलस्य अपना छोड कर।
शुद्धाचरण करना सदा, दुर्गुण सारे खोड कर ।॥।
ये इंद्रियाँ स्वाधीन कर, अभ्यास हरदम कीजिये।
तब ही हमारे नाथ से, पूरी दया भर लीजिये ।।
५६२
सशय न कर प्यारे! कभी,सतशास्त्र सुनने के लिए।
बाकी कहीं नहिं छोड़ना, वह राम रटने के लिए।
पलपल बिता यह जा रहा, इस बात पे तू ख्याल दे।
कर मस्त* की सेवा सदा,नौकर न बन कोई लाल दे।।

५६३
हम पागलों के साथ में, आना नहीं प्यारे ! कभी ।
मुश्कील होगा किस घडी, खाना, पिना, रहना सभी ।
मेवा कहीं, मिष्टान्न है, खाने कहीं ना अन्न है।
जंगल कहीं बस्ती कहीं, ऐसा पडे संमन्न है।।

५६४
सहवास से भी मुख्य तर, सत्‌ बोध पे करना अमल |
कर्तव्य अपना खोज कर, कर यत्न हरने चित्त-मल ॥
सीधा सुपथ यह छोड कर, खाली करे जो संगती ।
पाता न पुरा लाभ वह, मद मोहमय जिस की मती ||

५६५
संसार के भावी जनो, इस भाव पर नित ख्याल दो।
सारे अभवी कर्म को, अपने मगज से डाल दो।
करते रहो सत्संगती, जितनी बने इस वक्‍त में ।
फिरके मिले नहिं यह घडी,अब जोर है कुछ रक्त में ॥

५६६
 बरखा बरसती है सदा, निज ज्ञान के झंझार की।
संसार के भावी जनों ! भीगो करो हुशियार की॥
 ऐसी घडी नहिं आयगी, फिर तो गटारा साथ है।
नेकी करो बद से डरो, हरदम रखो खयालात है।।

५६७
न्हावो सदा गुरुज्ञान में, मैला धुला लो काम का।
करके सदा दिल दाग को, छावों नशा उस राम का।।
जंजीर तोडो आस की, काटो व्यथा नव-मास की।
टालो बला चौरयास की, हो लगन प्रभु उल्हास की।।
 ५६८
सत्संग हरदम साधिये, सत्संग का मिलना कठन।
सत्संग में नित जागिये, करना श्रवण आदी पठन।।
निंदा, प्रशंसा छोड़ कर, नित आर्तता को धारिये।
सत्‌ के अनुग्रह प्राप्त कर, श्रद्धा पकर उच्चारिये।।

५६९
मानो बचन नित श्रेष्ठ का, तब श्रेष्ठ ही होती मती।
*जैसी मती वैसी गती* यह संत की है संमती।।
निर्धार सत्‌ के वाक्य का, मत भूलना प्यारे ! कभी।
तब पार बेडा होयगा, सन्देह वह जावे सभी ॥

५७०
आनंद के दरबार में, नहिं हेतुओं से काम है।
गर काम होता हो खड़ा, मिलता नहीं आराम है।।
आराम को मिलवा रहो, तो जा बसो निष्काम है।
नित ज्ञान की चर्चा सुनों, पा जायगा विश्राम है॥

५७१
आनंद का सागर भरा, लहरा उठे खुद से भली।
नहाते रहो नित श्रवण से, खुलती रहे कलियों कली।।
हर एक कलीयों में भरा, अमृत जैसा प्रेम है।
उस प्रेम को छीते रहो, टूटे जगत्‌ के नेम है।।

५७२.
आनंद का सागर सदा, देखे अमावस आर्त का।
जब आर्त होता हो खडा, चलता मजा सुख सूर्त का।।
लेना नहीं, देना नहीं, फिर ऐक्यता से काम है।
आनंद ही आनंद को, पाते बने बेफाम है।।

५७३ 
आनंद यह कैलास है, सत्संगती की टेकरी।
जिसकी चढ़े कई कल्पना, श्रद्धाहूँ से नीचे परी।।
देखा वहाँ इक शुद्ध ही, प्रेमा अरु सत्‌ नाम है।
आगे चले जो नग्न हो, सो ही चले सत्‌ ग्राम है॥


५७४
आनंद के मंजील में, जो द्रोह लेकर जा बसे।
यहाँ भी फसे, वहाँ भी फँसे,जहाँ वहाँ सदा जाते केसे।।
इक भाव को ले चल गये,वह काल का घर हल गये ।
मरना और जीना ढल गये, आनंद में ही मिल गये।।

५७५
आनंद का दरबार यों, आनंद से भरता रहे।
सत्‌ नाम की चर्चा चले, अरु प्रेम : फूँ झरता रहे।।
जिसमें नहीं कुछ द्रोहता, अधिकार से ही काम है।
ऐसी जगह उस राम का, हरदम रहे विश्राम है।।

५७६
आनंद के घर वो गया, आनंद का नहिं भान है।
आबाद में रमता भया, निष्काम जिस का जान है।।
ऊँचा नहीं, नीचा नहीं, निर्द्वंद जिसका प्रेम है।
उस पूर्णता के प्रेम से, छुटे गये तन नेम है।।

५७७
आनंद के भंडार मे सत्‌-चित्त के पकवान है।
सुविचार की ताटी रखी, निर्मोह का आसान है।।
शुद्धात्मता भोजन करे, फिर दान शांती दाम है।
ऊँची जगह विश्राम है, जहाँ सतगुरु-निजधाम है।।

५७८
आनंद के दरबार का, उसको मजा खुब पा गया
जो ज्ञान-बुटी छा गया, अपरोक्ष में रमता भया।!
ब्रह्मात्म जी के भाव को,अजमा लिया जिन ठाम है।
तुकड्या कहे, उस धन्य को, मेरा सदाहि प्रणाम है।।
*व्याख्याएं तथा न्याय

५७९
*अदमी* वही ठहरा गया, जो बंध से निर्मुक्त है।
है स्थीत अपने हक्क में ,स्वातंत्रय निश्चल-युक्त है ॥
किंचित नहीं परतंत्र है, भीतर रहे, बाहर रहे।
परतंत्र है जो भोग में, आदम कभी भी ना रहे ।।

५८०
सुख के लिये नित दौड़ता, अरु श्रेष्ठ आज्ञा मोडता |
सत्‌ कर्म सारे छोड़ता, अभिमान तन का जोड़ता ॥
संसार में आसक्तता, व्यभिचार करता अनुचिता |
गुरु से रखे जो द्रोहता, यह ही समझिये *मू्खता ॥

५८१
गाँजा, चरस के आसरे, रहता हुवा करता नशा |
अपनी सदा ही तानता, घर में रखे नित अवदसा ॥
चोरी -चहाडी हरघडी, व्यसनी सदा करता गडी ।
खुद भी मरे कर स्वार्थता ,यहि *मुर्खता* प्यारे ! बडी ।।

५८२
सिद्धान्त मन से जोड़ता, सत्‌-ग्रंथ को नहिं जानता ।
बैराग के बिन न्यास की, ठूमरी-कविता बाँधता ।।
अज्ञान को चाहे सदा, सत्‌-ज्ञान को माने नही।
नित पेट की चिंता करे, है मुर्खता* प्यारे ! यही ।।

५८३
उठता नहीं सूबो कभी, नहीं स्नान करता रोज भी।
पहले पिया करता चहा, पीकर हिं मुँह धोता कभी ।।
मुँह में तमाखू की नली; धूँवार-जैसी जा रही।
है *पाप काअवतार* ही, मुख गालियाँ सब छा रही ।।
 ७८४
*सुंदर* वही है आदमी, जिसका हृदय-पट शुद्ध है।
तनु चाम का सुंदर नहीं, कु-विचार से जो बद्ध है।।
दिखता यदी हो शुश्र पर, अंतःकरण मैला रहा।
तो कुछ नहीं है काम का, संगत न कर उसकी कहाँ ॥

८८५
*जीता* यहाँ पर,कौन है ? मृत-सा सभी जग भासता |
नीचे-उपर चारों दिशा, नहिं जीत की उल्हासता ॥।
*जीते* यहाँ वहि बन गये, जो मौत को पहिचानते।
*मरना नहीं, जीना नहीं* इस ज्ञान को नित छानते ॥

५८६
*बलवान* है वह ही गडी, जिसमें न चिंता रोग हो ।
लेता गरीबों की कदर, जिसका क्षमा उद्योग हो ।|
बिछुडे नहीं पल भी कभी, इस मोह के जंजाल में ।
हरदम रहे अलमस्त वह, हो हाल में, बे-हाल में ।।

५८७
संतोष-सा *धन* है नहीं, सारे जमाने बीच में ।
*निर्धन* वही है भासता, फँसता दुराशा-कीच में ।।
चिंता -गरीबी यार! जब से, मग्ज तेरे भर गई।
धनमालमत्ता ले गई, संतोष धीरज खा गई ।।

५८८
मोटा हुवा तो क्या हुवा ? मोटेपना नहिं पास में ।
लूटे गरीबों की गुजर, है बे-कदर हर श्वास में ॥।
अपना भला ज्यों चाहता, तो दुसरों की ले दया।
तुकड्या कहे वह लोक में, परलोक में *मोटा* भया ।।

५८९
संसार में सो *मर्द* है, डरता नहीं संसार को।
साची नियत रखता सदा, साचा करे व्यवहार को ॥
फिर दुःख हो या सुख हो, सब ज्ञान से देता जला।
रहता अलग आसक्तियों से, सो मुझे दिखता भला |।
 ५९०
है आप्त से भी *आप्त* वह, जो सत्य को बतलायेंगे ।
झूठे करम को छोड कर, सच की *रहा चालवायेंगे ।।
है एक ही घर के सभी, गर झूठ बतलावे +धड़ा ।
सो आप्त ना यह *शत्रु है, जिन संग से दुर्गुण बढ़ा ।।

५९१
*हाँजी*न कर किसकी कभी,नित सत्य व्रत को प्राप्त हो।
 राजा रहे या रंक हो, या और भी तन आप्त हो ॥।
हाँजी* उसीकी कर सदा, जो झूठ से बचवायगा |
माया-नटी से छोड कर, सत्‌-रुप में मिलवायगा ।।

५९२
*कीमत* नहीं है द्रव्य में, बलवान में, या जान में ।
कीमत नहीं इन्सान में, या मान में, सन्मान में ।।
लगती है कीमत ज्ञान से, सत्‌-ध्यान से,निर्बान से ।
सुविचार से आचार से, या नीति के व्यवहार से ॥

५९३
नहिं धन्य होता है पुरुष, ना धन्य होता देह है।
ना धन्य होती वासना, ना धन्य होता स्नेह है ।।
ना धन्य होता मान है, ना धन्य होता जान है।
है *धन्य* वह,सत्‌ ज्ञान है,जहाँ सत्‌ स्वरुप का ध्यान है।।

५९४
सबसे हि मीठ बोलना, में जानता हू *पून* है।
कडवी जबानी बोलना, यह *पाप* सब से दून है ।।
नर ! दोष मत रख जीव में, ये दोषमय है इंद्रियाँ ।
जिव तो = निरामय अंश है,जाने वही *गुरु की दया* ।।

५९५
अंधी हमारी आँख है, बहिरे हमारे कान है ।
कड़वा हमारा मुँह है, अरु दिल सदा शैतान है।।
जबतक नही दी चीन्हा धरम,तब तक सभी तन*व्यर्थ, है।
सच धर्म धरते हाथ में, सब देह मन ये *सार्थ* है ।।


 ५९६
है मुँह का भूषण* यही, सत्‌ ज्ञान जग को बोलना।
है *नेत्र* का भूषण* यही, गुरुचरण देखे डोलना।॥।
है *हाथ का भूषण* यही, उपकार करना दीन से।
*सब देह का भूषण* यही, रहना जगत्‌ में लीन से।।

५९७
नर ! एक पल भी स्थीरना, ऐसी भरी है मूढ़ता।
क्या स्नान करके होयगा ? मन तो घडी पल ढूँढता।।
तो *स्नान* ऐसा साध ले* मन स्थीर निर्मल होयगा।
सत्संग के जलबूंद से, अक्षय पुनित हो जायगा।।

५९८
*तीरथ* अगर न्हावो भले, तो साफ मन को कीजिये।
बिन साफ मन हो, तीरथों की बूँद सर ना लीजिये ।।
क्यों दोष देते तीर्थ पे? मन तो विषय को चाहता।
क्या कर सके तीरथ भला ?दिल+इश्कबाजी लाहता ॥

५९९
दे चित्त जिसका शुद्ध तो,फिर बोध का क्या काम है? ।
लागी लगन प्रभु की जिन्हें,फिर खोजना क्या धाम है।।
सब तीर्थ उसके साथ में, सब देव उसके पास है।
रिद्धि अरु सिद्धी सभी, बनते उन्हींके दास है।।

६००
है देव की पूजा* यही, उनके चरित को जानना।
करना अमल उस बात पर, सच बात में दिल *बानना ||
मिलवायके सतग्रंथ को, करना श्रवण सत्‌पंथ को।
वैसा अमल करना सदा, अरु लीन होना संत को ।।

 ६०१
संध्या सभी को हो रही, संधि न जाने एक भी।
संधी अगर जाने लगे, तो तार टूटे ना कभी।।
तिहू-काल की संध्या करेसे, मन जरा ना स्थिर हो।
संधी अगर जानो भली, तिहू लोक में बानबिर हो।।

 
 
   
  
    
   
  
 
 
 
 

के में बनबीर हो॥
 ६०२
प्रभु ध्यान ही है *शुभ शकुन*,ध्याते फते सब काम है।
खाली न जावे वार यह, *मंगल, प्रभु के नाम है।।
उठ रे गड़ी! क्या देखता ?घट* तो भरा रख प्रेम का ।
तुकड्या कहे होजा सुखी, सब तोड बंधन नेम का ।।

६०३
वेदान्त ऐसा है नहीं, कर्तव्य की हानी करे।
वेदान्त ऐसा है नहीं, +संस्कार-हिरसानी करे।।
वेदान्त का नहिं अर्थ यह, मत उन्नती अपनी करो।
*वेदान्त कहता सब करो, लेकिन करनपन ना धरो* ।।

६०४
मेरी चलन तो है यही, सब ही जगह में घूमना |
जिस चीज से होता भला, वह चीज वहाँ से चूमना ।।
हो धर्म, या पर-धर्म भी, हानी नहीं करना कभी ।
नर ! सीख सच्चे ज्ञान को, अपना -पराया हो तभी ।।

६०५
जब मित्र तू खुद ही बने, तब बेर ना कोई करे।
तू ही रखेगा बेर तो, फिर दुष्मनी लाखों धरे ।॥।
इस ज्ञान को अब सीख कर,सत्‌ ही रखा कर भावना |
तब भाव रखते लोक भी, यह बात ना होगी मना ।।

६०६
ऐसा न किसका काम है, जिसको न पल आराम है।
दिन रात विषयों बीच में, रहता सदा बेफाम है।।
है श्वान सूकर वह तभी, बेवक्त ना भटका करे।
पर, नर महा ही *नीच* है, दिन-रात विषयों में मरे ।।

६०७
दिल चाहता है *यह करू* ईश्वर निराला ही करे।
मिलता न मेला एक में, जिससे भरोसा मन धरे।॥।
मैं मैं किया. पर कुछ नहीं, जो होनहारा ही हुवा।
तकदीर ना टलते किसे, है कुदरती ऐसी हवा।।


[4/17, 11:13] Suraj Apturkar: ६०८
हर फूल फूले साथ में, किस्मत सभी के है जुदा।
लाखों चढे प्रभु पाद पर, कई तो पडे धरनी अदा॥
कईं तो प्रभु के भक्त को, माला चढाने जा रहे।
 किस्मत किसी के यों रहे, प्रेतादिकों पर छा रहें॥ 

६०९
गर भाग में कुछ है नहीं, तो यत्न करके छोड दो। 
कुछ भी मिले नहिं आखरी, आशा हजारों जोड़ दो ॥ 
करते रहो कई जन्म तक, तो हक्क में फल पायेंगे |
आधे इधर, आधे उधर, करके मजा ना पायेंगे ।

६१०
नेकी करूं तो नेक है, बदियाँ करू बदनाम हूँ। 
मारुं किसे मर जाऊंगा, जो जो करूं वहिं ठाम हूँ।
अच्छा करूं तो ऊँच हू, बूरा करू तो नीच हू।
हमरे करम से आप ही, मै नीच हूँ, या ऊँच हूँ॥

६११ 
प्यारे ! सभी की है गती, जैसा करे जो कर्म को। 
जाना जहा है आप को, वैसा पकड़ लो धर्म को।
यह न्याय का भंडार है, जो नर्क हो, या स्वर्ग हो।
पावे जगह वैसी तुम्हे, जैसा मिले संसर्ग हो।।

६१२
गुण-कर्म के अनुसार ही, होता जनम सुख-दुःख का।
चारों बरण पावे उन्हें, व्यभिचार हो जिन रुख का।
यह अंत में होता पुरा, संजोग गुण औ कर्म का। 
आगे जनम पावे वहीं, हो धर्म का अन् अधर्म का।।

६१३
इस जीव के गुण कर्म से, ये चार जाती बन गई।
अंडज, जरायुज, उद्भिजी, श्वेदज, यही चारों भई।
जिस जिव के जो कर्म हो, उस खान में वह जायगा।
अपने करम के न्याय से,चारो जगह भरमायगा।।
[4/17, 11:13] Suraj Apturkar: ६१४
मेरे-तुम्हारे जन्म ये, कई बार दूनिया में भये।
बिलकुल यादी है नहीं, थे कौन गा हो के |
जो जानता कई जन्म को, वहि छानता सतज्ञान को ।
भटका कभी फिरता नहीं,पाता प्रभू-गुंण-ध्यान को ॥

६१५
धनवान होता है वही, निष्काम देता दान को।
लेता गरीबों की कदर, चढता वही है मान को ॥
गज-राज पे चढता वही, सत्‌ धूल में मिल जायगा।
तुकड्या कहे वह तर गया, जो सत्‌गुरु-गुण गायगा।।

६१६
धन -द्रव्य सूमों का कभी, लगता न अच्छी राह में ।
या तो जले अंगार में, या चोर पकड़े बाँह में ।।
इनसे अगर बच जायगा, तो राज *दंडा पायगा।
सत्‌ में कभी ना जायगा, गर सूम का धन होयगा।।

६१७
इस शास्त्र का मै क्या करूँ ? गर प्रेम जो लगता नहीं ।
इस कर्म का मै क्या करूँ ? गर नेम जो लगता नहीं ।।
इस ज्ञान का मै क्या करूँ ? अज्ञान जो भगता नहीं ।
इस ध्यान का मै क्या करूँ ? चंचलपना डगता नहीं ।।

६१८
जिसको नहीं है बोध तो,गुरु-ज्ञान भी क्या कर सके? ।
करता नहीं जो अनुचरण, सत्‌-संग में क्या भर सके ।।
जाता नहीं प्रभू की शरण, तो कष्ट कैसे हर सके?!
जाने नहीं गुरु-ज्ञान तो, भव-सिंधु कैसे तर सके? ॥

६१९
श्रद्धाबिना बातें अगर-पोथी पढा तो क्या हुवा? !
शम-दम बिना हटयोग या-व्रत से कढा तो क्या हुवा? ॥
जाने बिना सत-ज्ञान,जग में -खुब बढा तो क्या हुवा।
अनुभव बिना,सत्‌-संग में, जाके लडा तो क्या हुवा? ।।
[4/17, 11:14] Suraj Apturkar: ६२०
इतना पढ़ा के क्या किया ? गर खुद पढ़ा तो है नहीं।
पढ़ भी गया तो क्या किया ?पढ केनकढा तो है नहीं।॥ 
कढ भी गया+क्रियमाण से, अनुभव लडढा तो है नहीं।
यदि लढ गया अनुभव हि से, हक में गढ़ा तो है नहीं ।।

६२१
अजि!जो फँसे जग-आस में, अरु काम के आधीन है।
इस देह का अभिमान धर, अरु प्रेम के स्वाधीन हैं।। ।
है गर्व विद्या का जिसे, अरु जात का अभिमान है।
चाहे करे कछु सैकडों, तारे न अपनी जान हैं॥

६२२
है वाद का वादी बना, छुटा न जिसका मान है।
नित ज्ञान की चर्चा करे, पर कर्म का नहिं ध्यान है।।
सत्‌ प्रेम की भक्ती नहीं, अरु कष्ट में हैरान है। 
चाहे करे कछु सैंकडो, तारे न अपनी जान है॥

६२३
है जोग का जोगी बना, जोगीपना नहिं जानता।
है ध्यान का ध्यानी बना, अरु ध्यान को नहिं मानता ॥
है भोग का भोगी बना, नहिं भोग की पहिचान है।
चाहे करे कछु सेंकडो, तारे न अपनी जान है॥।

६२४
है त्याग का त्यागी बना, जागा नहीं प्रभू राम में।
है जाग का जागी बना, लागा नहीं निज-धाम में ।।
निज-धाम में रहता भया, कीनी नहीं पहिचान है।
चाहे करे कछु सेंकडो, तारे न अपनी जान है॥

६२५
है संग का संगी बना, नहिं संग करना याद है।
है याद का यादी बना, नहिं याद में आबाद है॥
आबाद में रहता भया, आबाद का नहिं भान है।
चाहे करे कछु सैकड़ों, तारे न अपनी जान है।।


६२६
है ज्ञान का ज्ञानी बना, नहिं ज्ञेय को सीखा कभी ।
वहिं में गुजारा कर रहा, आगे नहीं चलता कभी।।
तुकड्या कहे यहि बात से, फँसवा दिया तन प्राण है।
चाहे करे कछु सेंकडो, तारे न अपनी जान है॥

*सनातन - धर्म*

६२७
सब का धरम तो है यही, *सत्‌ औ असत्‌* पहचानना।
हिंसा कभी नहीं +मानना, अस्तेय-ब्रत को जानना।।
रख ब्रह्मचयों को सदा, अरु द्रोह ना करना कदा।
उपकार करना दीन पे, यहि धर्म-व्याख्या सर्वदा।।

६२८
*है धर्म सब का एक ही* ऐसा मन कहते सदा।
फिर दंभ क्योंकर चाहिये, मेरा धरम मोटा सदा।।
हो सत्य, अरु हिंसा-रहित, अस्तेय, ब्रह्मश्चर्य से।
रहता सदा अपरिग्रही, यहि धर्म बोला आर्य से।।

६२९ 
जीवित हमारा है यही-निज ज्ञान को पहिचानना।
सब भोग से निर्मुक्त हो, प्रभू के गुणार्णव मानना ।।
छोटे रहे, बुढे रहे, वानस्थ हो, बलवान हो।
अपने उचित कर्तव्य की, हरदम उन्हें पहिचान हो।।

६३०
सबकी करे जो धारणा, वहिं धर्म-ईश्वर-खास है।
उसके मिलन की साधना,बहि धर्म-पथ अभ्यास है।।
जग-सौख्य मोक्षानंद को, पथ है सनातन धर्म ही।
तुकड्या कहे बिन धर्म के, होगी फना सारी मही।।


 वर्णाश्रम-धर्म

६३१
शम, दम, क्षमा ,शांती,दया, हैं सहज जिन के पास में |
आर्जव स्वयम्‌ है शीलता, अरु सत्य है हर श्वास में।
ऐसा जिन्होंका नेम हैं, बिन योग्य नहिं माँगे जरा |
है मंत्रवत्‌ वह देवता, *ब्राह्मवी* वही जानो पुरां ॥

६३२
भगवान भी उनकी सदा, सेवा किया करते सुना। 
बह धन्य *ब्राह्मण* -देवता, जिनको न धन की याचना |
दिन-रात ही प्रभु-कर्म में, उनकी उमर बीती गई |
शांति, क्षमा, शम, दम,दया बस कामना यों ही रही |

६३३
है शूर क्षत्री-वंश ही, रण में थरारे काल भी।
लौटे न लाखों से कभी, होगा अकेला बाल भी ॥
जैसे सुरज निकला सुना, अँधियार लगता भागने |
वैसे चमकता तेज *क्षत्री-वंश* ही ऐसा बने |

६३४
बलवान जिनका बाहुबल, स्फुरता सदा रण बाज पे |
आँखे सदा घुमती रहे, कहाँ दूष्ट की सँसाज पे ।
है कर्ण जिनके ऊँच ही, सुनने ध्वनि कटु नाद के।
कर्कश रहे रण में सदा, जो *शूर *है आजाद के।।

६३५
मद-गज करोड़ों आ रहे, कड़ लाख बीरों साथ में ।
भाले, कट्यारी, जंबिया, हथियार सब ही हाथ में ।
आँखों दिया जब शूर के, धडके नहीं छाती जरा।
छोडे न हिम्मत रोम भी, सो *शूर *होता है पूरा।।
 ६३६
*रण-गर्जना सुन शूर की, पृथ्वी करे डवडोल ही।
आकाश कडकडता रहे, निकले जबाँ से बोल ही॥
अधिकार ऐसा हो तभी, जो नम्र है सत्‌-धर्म से। 
सो शूर पूरा जानिये, भूले न अपने कर्म से॥

६३७ 
डरता न मरने को कभी, यदि प्राण भी छूटे कहीं। 
सत्‌ के लिये झूरे सदा, बस आसना यों ही रही॥
मन को जरा नहिं छोडता, अन्याय के संसर्ग में। 
खाने यदी कुछ ना रहा, जावे न गंदे वर्ग में॥

६३८
वह शूर तो है ही नहीं, रक्षा न करता दीन के।
सेवा करे नहिं देश की, धन चूसता है छीन के।।
बिन ज्ञान के लढता सदा, अन्याय का ले पक्ष को।
वह शूर ना है, क्रूर हैं, खाता हरामी भक्ष्य को।। 

६३९ 
मत शूर ऐसा हो कभी -सत्‌ के उपर हल्ला करे।
ऐसा अगर कुछ भी करे, तो शुर-बुद्धी ही मरे॥।
होगा बडा ही पार फिर, *भोगे न भोगे जाय है।
सत्‌ का अनुग्रह प्राप्त कर,तब ही तो शूर*कहाय है॥

६४०
कर ख्याल पहिले शुर का,जिन की जगत्‌ कीर्ति भरी।
अपने लिये भूखे रहे, पर संतकी की चाकरी॥
थे शूर ही पे भार कर, भिक्षुक, जोगी सर्व ही।
पर *शूर* लौटे ना कहीं, दे सर्व को सुख ही जही।।

६४१
वहि *वैश्य* है,व्यवहार में, -स्वाभाविकी अति दक्षता।
आर्जव,दया, उद्योग-तत्पर, सत्य अरू चाणाक्षता।।
है शूद्र का कर्तव्य यह-सेवा सदा करना भली।
हो सत्य, प्रेमरू तुष्टता, यही आर्य से नीति चली।।

 ६४२
है दुष्ठ जिन का आचरण, वह *वर्ण के बाहर* सदा।
चाहे भले हो ऊँच जाती, ब्राह्म या क्षत्री यदा॥
शासन उन्हीं को कीजिये, जो धर्म-जाती मोडते।
धन के छिये गुरगुर करे, अपना करम सब छोड़ते।।

६४३
खुद *ब्रह्मचर्या के लिये, न नैष्ठीकता ही चाहिये।
खाना, पिना, सोना तथा आलस्य ना मन भाइये।।
वेदाध्ययन तो चाहिये, सत्‌ कर्म के उपचार को।।
सेवा करे गुरु की सदा, सोही धजे आचार को ॥

६४४
हो *ब्रहमचारी* की यही, आदत हमेशा लोक में। 
ना वह फँसे जग-मोह में, नाचे न कोई शौक में।।
एकान्त का ही अनुसरण, एकान्त ही हो बैठना।
हो त्याग अच्छा पास में, दिल में विषय का देठ ना।

६४५
खुद *ब्रह्मचयों* के लिये, *वानस्त* या *सन्यास* को।
है वर्ज स्त्री से क्रीडना, या बोलना मुख-हास को॥
एकान्त या लोकान्त में, स्त्री-संग उस का वर्ज है।
है रीत शास्त्रों से यही, अभ्यासियों का फर्ज है।।

६४६
है ब्रह्चारी भी भला, वानस्त या संन्यास है।
सबसे गृहस्थी है ऊँचा, उसको सभी की आस है॥
अपना सभी कर कर्म को, रक्षा करे जो तीन की।
सो ही गृहस्थी है पुरा, उसपे न टोली रीण की।।

६४७ 
जो ब्रह्मचारी है सही ? वह ना करे संसार को।
यदि कर रहा संसार को, करता पशु व्यवहार को॥
जो एक पत्नी के सिवा, माता सभी को जानता।
बह ब्रम्हचारी है पुरा, मेरा यही दिल मानता।।


६४८
 संन्यास लेना सर्व ने, ऐसा नहीं अधिकार है।
जिसने न जीती इंद्रियाँ, संन्यासि में वह जार है॥
*बैराग से भरपूर है, अरु ज्ञान से मशहुर है।
निर्वासना ही नूर है, *संन्यास* सो मंजूर है* ॥

६४९
जग के नचे खुब नाचता, कहता *लिया संन्यास है।
खाता सदा मिष्टान्न को,नहिं कर्म का कुछ न्यास है॥
भीतर भरी है वासना, विषयों तथा धन, दार की।
बिलकुल नहीं संन्यास वह,आशा जिसे व्यवहार की ।।

६५०
निज धर्म के अनुरुप जो, सत्‌-कर्म को करता रहे।
नहिं मोह हे परधर्म का, नहिं द्वेष भी धरता रहे।।
बाहर-भीतर है एक-सा, नहिं दंभ कुछ भरता रहे।
 तुकड्या कहे वहि तर गया, जो हक्क में मरता रहे।।

*रुढि और धर्म*

६५१
 है धर्म छूवा-छूत में, है खान में, या पान में। .
 ऐसा न माने नर ! कभी, मत भूल ये अनजान में।।
यह तो पड़ी है रुढियाँ, कंई रोज से चलती रही।
*बस, है यही मेरा धरम* मत भूल के कहना कहीं।।

६५२
है *धर्म* सच्चा शील में, है सत्य में, अस्तेय में।
है शौच, ब्रहमश्चर्य में, अरु आत्म-रुप के स्नेह में।।
यह तो कभी नहिं सोचता, करता फजुलों की गही।
 *बस, है यही मेरा धरम *मत भूल के कहना कही।।
६५३
रुढी सनातन है नहीं, बदले समय-अनुसार है। 
स्थल, काल आदिक भेद से, बन जाय सार असार है ॥
पर तत्व जो हैं सत्य के, वह *धर्म* तू जाना नहीं। 
*बस, हैं यही मेरा धरम* मत भूल के कहना कही ॥ 

 ६५४
सुविवेक-बुद्धी प्राप्त कर, सत्‌-ग्रंथ अरु सत्संग से।
कर खोज सत्यासत्य की, माता न जा हठ-भंग से ॥
नवमत रहे, या हो रुढी, ले सत्य चुन चुन के सही।
*बस, है यही मेरा धरम* मत भूल .के कहना कहीं ॥ 

*प्रस्तुत कलि-काल*

६५५
हठयोग क्या बनता अभी,सत्‌-जुग जमाना चल गया ।
निश्चय सभी के ढल गये,बिरलाद किसको फल गया ॥ 
राज वही, परजा वही, साधु  कयामत हल गये ।
अब नाम के सारे रहे, अपने करम को भुल गयें॥।

६५६
कलयुग की छाई छटा, जब से फरक होता गया। 
आगे जमाना दूर है, क्या था, अरु क्या हो गया॥ 
देखे पिछे की बात को, तो आज ही कुछ ना रहा। 
अब नाम के सारे रहे, झूठा पसारा छा रहा ॥ 

६५७ 
आचार तो दिखता नहीं, आचार्य के भी पास में। 
तो पंडितो की क्या कथा ? नहिं सत्य दिखता खास में ॥
ब्राम्हण अरु क्षत्रीय वर्णाश्रम -पिछाना ना रहा । |
बस शुद्रदू का ठाठ* है,अरु शुद्र परचा छा रहा।।


६५८
करनी कहाँ, जाती कहाँ ?कहाँ धर्म,कहाँ व्यवसाय है?।
नाता कहाँ, संथा कहाँ ? कहाँ उम्र, कहाँसे ब्याह है?।।
नहिं एक भी है तौल पर, पर बात मुख में रह गई।
*मेरा धरम, मेरा धरम* यह आसना खाली रही।।

६५९
अध्यात्म-विद्या देखकर, अपना भला सब कर रहे।
अध्यात्मवाले मस्त तो, निज ज्ञान ही में मर रहे।।
कितनी हमारी भूल है ? धन तो हमारे पास में ।
पर हम शिकारी हो गये, बाँधे गये पर-दास्य में ।।

६६०
नहिं चोर को भी चोर कह, ऐसा जमाना आ गया।
तो क्या करूँ में आचरण ? झूठा तमासा छा गया ।।
सच बोलना भी पाप है, ऐसा मुरख जन मानते ।
ऐसे निराले. जगत्‌ को, ज्ञानी सदा ही छानते ।।

६६१
अपनी गपें सब छोड़ते, अरु श्रेष्ठ के पथ मोडते।
ऐसे न जन अब चाहिये, जो मान पे ही दौडते ॥
कितना भला नुकसान है, अब देश के इस रंग का।
यादी रखो बूरा हि है, जब प्रेम ना सत्संग का।।

६६२
नहिं काम है अब मौज का, सच का बतैया चाहिये ।
नहिं तो बढेगा पापही, मुश्कील है मन भाइये ॥।
कोई अनुभव दे सके, तो वेद को दे आगिया।
तब ही भला अब होयगा, नहिं तो जगत्‌ भूला गया।

६६३
चलती हुई रूढी हमें, इस वक्‍त आडी आ रही।
ऐसी समझ जो मानता, उसकी मजा सब जा रही।॥।
गर चीज करना हो जनम, तो आँख अपनी खोलिये।
जैसा पटे सत्‌-ज्ञान में, वैसा कराकर बोलिये ! ।।

६६४
हरदास आया गाँव में, खुब नाचता, दुनिया *ठगे।
ख़ुब बोलबाला हो रहा, सब लोग ही भूले”नगे ||
कहा गजल अरु दादरा, कई लावणी, कड़ मोहनी।
पूरा तमासा कर रहा, नवसीख की अच्छी बनी ॥

६६५
हरएक जोगी ऊठता, करता खुदी के शास्त्र है। 
भरता झुठाई पास की, डाले मोहब्बत-अस्त्र है॥ 
ऐसे तितंबे से भला, कैसा चले जग एकसा।
बस, कुछ न सूझे यार! अब, ईश्वर करे सो एक-सा।

६६६ 
सच में न दिल जगता प्रभो ! इस काल के संसार में।
रहना भक्ता कैसा उचित, नीती न जिस व्यवहार में |
सब द्रव्य के लोभी गडी, जितने नजर में आ रहे। 
तुकड्या कहे बिरला कहाँ, तेरा गडी मिलता रहे।।


*प्रभू से अर्ज*

६६७
प्रभु ! भक्त की महिमा, भलीभाँती सुनाते थे हमें।
*मम भक्त मुझसे हैं बडे*, यों कह बनाते थे हमें।
*जो भक्त मुझको चाहते, उसको सदा मै चाहता*।
ऐसे बताते थे मुझे, *मैं भक्त का दुःख साहता।

६६८
प्रभु ! द्रौपदी के दुख में, आये बडे ही धाय के। 
कैसा निभाया काज वह, दी लाज सब बचवाय के।
 जो आज नंगी बाइयाँ, फाटी चिथडियाँ ओढ़ते।
क्या खबर तुमको है नहीं ? तुम ख्याल उनका छोड़ते।।


६६९
धनवान से धनवान भी, अपनी भूमी को देखता।
कुछ हो कसर, कम-बेश तो, अपनी दया भर फेकता।
प्रभु ! है तुम्हारी जिंदगी, तो क्यों भला भुखी मरे ? ।
कुछ तो किया कर ख्याल अब,बस प्राण आशा में भरे।

६७०
ग्लानी भई जब धर्म की, तब मैं *खड़ा हूँ* बोलते।
अब क्या हुवा, होने रहा ? नहिं रुप अपना खोलते ॥।
पर-धर्मवाले शूर तो, छाती तलक भी आ रहे।
अब आप की ही है  रहा, नहिं तो मरण को पा गये ॥

६७१
किसने कहा था *नाथ, तू ? मैं देखता हूँ भूल ये।
पूरा करे कंगाल जब, होता तरस ढलढूल ये।।
तारे बड़े पर ख्याल तो, वह तारना नहिं मानते ।
तारे हमीं-से मूढ तो, उस नाथ को ही जानते ।।

६७२
मेरी समझ में है नहीं, वह आपका क्या नेम हैं? ।
कितना सहन करना भला, दुख का उठाकर क्षेम है।।
भारत भला भूखों मरे, बिलकूल खाने है नहीं।
अब आप के वह वाक्य की, पूरी रहा बाकी रही।।

६७३
है दोष के भंडार हम, निर्दोष अब कर दो हमें।
तेरे चरण के आसरे, दिंन-रात ही धर दो हमे।।
कर दो हमें प्रभु! एक -सा; निर्द्वंद अपने रूप में।
बस,*भक्ति दे अपनी सदा, भटका न अब जग-धूरे में।।

६७४ 
मंजूर हो गर अर्ज तो, आवो पुकारे हो रहीं।
बूरी खियालत है पड़ी, सर पे जुतैया छा रही।
तुकड्या कहे नहिं हक्क कुछ,खाने-पिने की लाज है।
है दीन-बंधो !अर्ज की, सुन-सुन जरा आवाज है।।
गौ-रक्षण

६७५
श्रीकृष्ण के हो भक्त तो, मानों उन्हीं का यों कहा ।
परत दर्द दो गौ कों कभी* उनके बचन में यों कहा ॥
जब मानते हो बचन को, मत भूलना गो को कभी ।
सेवा करो जितनी बने, *गोपाल* -हो जावो तभी ॥

६७६
गो है प्रभू की आतमा, है प्राण से भी प्राण वो ।
नर! सोच दिल में खूब यह,मत बेच गो की जान वो ॥
परधर्मियों को. बेचकर, गौएँ अगर कट जायगी ।
तो याद रख ! तेरी भी इज्जत, आखरी फट जायगी ॥

६७७
ऐ हिंदुओ ! प्रिय गाय को, मत कत्लखाना बेचना ।
हिंदू धरम में संत ने, अरु देव ने कर दी मना ॥
गर तोड़कर उनका बचन, तुम द्रव्य को हरषाओगे | 
तो बालबच्चों के सहित, अपना हकिया फल पावोगे ।।

६७८
जो दुसरे को दु:ख दे, दुखिया वही हो जात हैं।
जो सुख देना चाहता, तो ख़ुद सुखी बन जात है ।।
गर यार ! तेरे हाथ से, गौएँ कतल-घर जायगी |
तो याद रख यह जिंदगी, भर धूल में हर जायगी ॥

६७९
जब भक्त हो श्रीकृष्ण के, तो मानलो उनका कहा |
पालो गऊं को प्रेम से, *गोपाल* हो जावो तहाँ ॥
प्रभू तो गऊं की जानसे, *सेवा* सुनाते हैं तुम्हें ।
गौएँ चराकर के खुदी, जाहिर जनाते है तुम्हें ॥


६८0
श्रीकृष्ण, शिव, *अवधूत भी, गो -पालना करते सदा।
गौतम, वसिष्ठादिक ऋषी, सेवक बना करते सदा।।
पांडव तथा भरताहि भी धर राजे उन्हें कर बन थे |
*है विश्व-माता गो सदा*, यह बेद में गुण-गान थे।।

६८१
रे ! हाय ! भारत की गती, कैसी दशा यह हो गई?।
खाने नहीं है अन्न भी, सब वासना खाली रही॥
इसका पता गौएँ मुझको लगा, है एक ही कारण बड़ा।
जाती है गौएँ कत्ल में, यह पाप ही जब से बढ़ा।।

६८२
ऐ हिंद के प्यारे सुपूतो ! फिर्याद मेरी मान लो।
वह प्रीय गौ को बेचना, यहि पाप है पहिचान लो।।
जाती कसाबों की जगह, तब शाप देती दुःख से।
तुम भी मरोगे भूख से, मुझको बिकातें सुख से* ।।

६८३
कट जायगी गौ मौत -में, तब याद तुमरी लेयगी।
कर प्रार्थना प्रभू से, तुम्हें अपना किया फल देयगी।।
किसी जीव को मत बेच भाई! तू कसाबों को कभी।
सेवा सदा कर जो बने, सुख पायगा आखिर जभी।।

६८४ 
धन तो कमाती रांड भी, व्यभिचार करके जार से।
तू क्या मरेगा द्रव्यबिन ? सेवा करे उपकार से।।
सेवा किया गौ-जीव की, पाई कमाई लाख है।
बेची अगर धन के लिये, पावे जगह नापाके है।।

६८५
गर बेचने की आश हो, तो ऐसियो को बेचना।
चारा मिले उसके लिये,संतुष्ट हो उन आतमा।।
सेवा करे जो गाय की, उसको भले तू बेच दे।
पर-धर्मियों को बेच मत, मत कूल अपना बेच दे ।।

६८६
प्यारा हमें वह हिंदु है, सेवा करे गो-जीव की। 
कर्कश रहे नित दूष्ट से, बाहें छुडा गो-जीव की ॥।
पीता गऊ का दूध अरु, माखन सदा अपने लिये।
तुकड्या कहे, वह धन्य है ! है शीलवत्‌ अपने लिये ।।

*बोध सार*


६८७
मत दिल दुखा किसका कभी,तेरा हि दिल दुख जायगा ।
यह याद रख तेरा किया, तुझको भुगतना आयगा ॥।
रख साफ अपनी आतमा, हर जीवजूवों के लिये।
तो तू सुखी हो जायगा, इस तीन भूवों के लिये ।।

६८८
जिस कर्म से वृत्ति मलिन हो, वह सभी तू डालना ।
जिससे विमल-निश्चल-कुशल-मन हो वही पथ पालना ॥
पावित्रता, सुविवेकता, निष्ठाहि साधन-सार है।
कर एक प्रभू ही के लिये, परमार्थ या संसार है॥ 

६८९
नजदीक है ईश्वर सदा, नर ! तू किधर है देखता? ।
जो देखना नहिं सीखता, भलती हि बातें ठोकता ॥
जा पूछ संतों से कहीं, *नजदीक, में वह है कहाँ* ।
ले ज्ञान-दीपक हाथ में, कर खोज ईश्वर है जहाँ ॥

६९०
मत फैँस जगत्‌ के शौक में ,मत फँस जगत के प्रेम में ।
सीधा चला जा मार्ग से, रह मस्त अपने नेम में ।।
जब वृत्तियों को रोककर, निज केंद्र में मिलवायगा ।
सारी जहाँ वश होयगी, आनंद का पद पायगा।।


*प्रभु-महिमा तथा विनय*

६९१
सब ही करे, कुछ ना करे, ऐसा करे जो सो प्रभू |
लाखों करे, लाखों हरे, ऐसा करे जो सो प्रभू।।
करने करनको ना करे, ऐसा करे, जो सो प्रभू।
खुद ही करे न करे, ऐसा करे जो सो प्रभू।

६९२
ऐसा न बाजीगर कभी -देखा, दिखाने आयगा।
खुद ही बने सब खेल अरु, खुद ही उन्हें नचवायगा।।
खुद ही तमाशा कर रहा, ख़ुद ही मजा मनवा रहा।
पेदा करे सब आप ही, अरू आप में समवा रहा।।

६९३
नाटक जगत का कर दिया, पारट अजब भरवायके।
हर जीव को न्यारा किया, गुण से गुणी मिरवायके।।
*पच्चीस रस को भर दिया, तैयार कीना देह को।
खुद आप है न्यारा भरा, होकर भगत्‌ के स्नेह को।।

६९४
सरदार तेरे-सा प्रभो ! मुझको नजर आया नहीं।
बेपार तेरे -सा प्रभो ! मेंने कभी पाया नहीं।।
इक सीड़ियों की चीट पे, लाखों -करोडों वस्त्र दे।
उस द्रौपदी के ब्याज को, बस वस्त्र का ही आस्त्र दे॥

६९५
थे मूठभर चावल धरे, सुवर्ण-पुरिया दान दी।
दल एक तुलसी के धरे, दुनिया सभी कुर्बान दी।।
ऐसा नहीं देखा कभी, कोई भला सरदार है।
सब सेठ में तु ही प्रभो ! रखता हि सच बेपार है॥
६९६
बुजरुग तुमसे कौन है, सारे जगत में भी भला? ।
पैदा करैया आप हो, माया गुणै-गुण की कला॥
सब के अनादी आप हो, पूरे सनातन-रूप ही।
है आद, मध्यरू अंत में, तेरी सभी सत्ता सही।।

६९७
. मृतवत्‌ सभी जग भासता, गर आप ना होते प्रभु!।
सत्ता तुम्हारी है सभी, देखा अचेत्‌ चेता +जभू॥।
माया-नटी के जाल का, परदा सभी फहला टिया।
इस भेद से बाँधे गया, शैतान में बहला दिया।।

६९८
सब की सुरत को कर दिया,तेरी सुरत क्यों छिप गई ?।
कई लाख चीजें दिख रही,लेकिन न तू दिखता कहीं।।
इतना तुझे क्यों डर भला ?छिप छिप रहा किस दूर में।
कुछ तो नजर कर देख, हम-कैसे फसे जग *भूर में।।

६९९
किसके खुशी को कर दिया दुनिया -पसारा सौर का ?।
हर एक नट न्यारा बना, मिलता न मेला तौर का।।
हर जीव में झलकी भरी, माया-पटा को डार के।
हे यार ! तू क्यों छिप गया न्यारा रहे संसार के ?।।

७००
जंगल सजीला कर दिया, क्या बाग से भी बाग है।
सुंदर फुलारी फुल रही, लगते खुदी से लाग है।॥।
अपने ऋतू पर वृक्ष सब, करते सदा व्यवहार है।
रमता न तू इस बाग में, देखा न नूर-उजार है।।

७०१
कई मंदिरों में शीस धर, निर्वाण करते भाव से।
कई योग कर प्राणादि से, दम को खिंचाते डाव से।।
कई पंच-अग्नी साधकर, अंगारमें रहते खडे।
ख़ुलते नहीं है द्वार प्रभू ! कितने मढ़ाऊ से मढ़े।।


७०२

मैं ढूँढता हुँ दूर में, मंदीर में, मस्जीद में ।
एकान्त में, लोकान्त में, कुछ ज्ञानियों के जीद में ।।
वाहवा अजब है खेल यह,कितनी घडी छुपना भला।
आओ दरस दे दो हमें, कर लो मुझे अपना भला।।

७०३
तेरे जगत का ला-पता, तेरी सुरत का ला-पता।
तेरी मुरत का ला-पता, तेरी किरत का ला-पता॥।
हरगीज दिखती है मगर, झूठी दिखाई दे रही।
छूपा कहाँ दिलदार ! तू ? है तो नहीं मुझमें कहीं ? ।।

७०४
गर विश्व में रहता न तू, तो सब मृतक होते प्रभो ! ।
रहती न मर्यादा कहीं, सब ही पृथक होते प्रभो ।।
गर सूत्र मणिगण में नहीं, होगी गती फिर क्या भला ? ।
है खास में आधार तू, यह विश्व तेरी है कला।।

७०५
प्रभू ! आपको वहि जानते, जिसपे तुम्हारी है दया ।
तेरी कृपाबिन और ना, कोई जने जाने-गया।।
यह जीव तो है अज्ञ-सा, नित भोग में फँसवायगा।
तेरी कृपाबिन कोउ का, नहिं पार बेडा होयगा।।

७०६
नाना स्वरुप से आप ही, नट के नटे हो जी प्रभू! ।
नहिं भिन्न तुम से है कहीं, दिखता मुझे देखा कभू।।
सब में तुम्हीं हो व्याप्त पर, अध्यस्त तुम से है जुदा ।
अध्यस्त अंशाअंश है, नहिं आप हो न्यारे कदा॥

७0७
मैं क्या करूं! अरू क्या हरूँ ?गर तूहि सब में व्याप्त है।
सूनी नहीं कोई जगह, जहाँ पर न तेरा *आप्त है।।
अध्यस्त से भाता नहीं, तेरा कहाँपर नूर है|
अध्यस्त छूटा जायगा, तब तूहि तू भरपूर है

७०८ .
मौजूद हो हर नब्ज में, तब तो हमें क्या देखना? ।
देखें कहां ? देखा वही-जहाँ देखना होता फना ।।
यह देखने के बाद में, सो अंत में अरु आद में।
जल -थल भरा आबाद में -आजाद में-हर नाद में ।।

७०९
स्वयमेव-सिद्ध प्रकाश में, अँधियार संभवता नहीं ।
वैसा तुम्हारे स्थान पर, अज्ञान-पट रहता रहीं।॥।
जो मूल की गड चढ चुके, वह लोटकर आता नहीं।
है घाट यह अवघड प्रभो ! जलदी खबर पाता नहीं ।।

७१०
निष्काम-आनंद का झरा, बहता जिनों के नूर से।
वहि आप की सत्ता प्रभो ! पाती है *आँश "हुजूर से ।।
सब बंध से अति दूर जो, निर्द्वंद आत्माराम है।
तुकड्या कहे मिलता उसे, जो बन चुका निष्काम है।।

७११
कितनी करूं तारीफ में ? मेरी अकल चलती नहीं ।
हर चीज के आनंद से ये वृत्तियाँ ढलती नहीं ।।
हर चीज में अपनी छटा, पल-पल नसों में भर दिया ।
तुकड्या कहे, तू धन्य है ! परचंड लीला कर दिया ।।

७१२
सूने महल को यार ! तूने साज से सजवा दिया ।
पुंगी-सरीसे बाँस को, हर तान से बजवा दिया॥।
-खत के सरीसे भूमि को, ज्योति स्वरुप बनवा दिया ।
तुकड्या सरीके मुढको, प्रभू ! नाम में मनवा लिया ॥

७१३
मुश्किल नहीं तुमको कहीं,मिथ्या नचाना सत्य सा!
मूका बृहस्पति जीत ले, जडजीव को कृतकृत्य-सा ।
पंगू कुदे मेरा-शिखर, अंधा *अलख-पद को लखे |
तुकड्या कहे तेरी कृपा से, हो अघट भी बन सके।।


*निर्वाणाष्टक*

७१४
इंद्रिय-सहित ना द्रूश्य है, मन के सहित ना भास भी ।
अंतःकरण-जल के सहित, नहिं र बिंब-चित आभास भी ॥
नहिं भूत है, जड सूक्ष्म भी, ना लेश कारण -शून्यता।
माया नहीं, ना है जगत्‌, आनंदघन चैतन्यता* ॥

७१५
वाणी नहीं, ना मात्रिका, मन भी नहीं, ना कल्पना ।
संशय नहीं, निश्चय नहीं, मै -तू पना भी अल्प ना ॥।
नहिं ज्ञान, ना अज्ञान भी, नहिं लेश त्रिपुटी -दैन्यता ।
माया नहीं, ना है जगत्‌ *आनंदघन चैतन्यता* ॥

७१६
ना है अवस्था एक भी, गुण भी जरा लवलेश ना ।
सब सृष्टि का आधार जो, वह मै-पना भी शेष ना ॥।
साक्षी परम है एकरस, यह भी जहाँ नहिं मान्यता |
माया नहीं, ना है जगत्‌ *आनंद्घन चैतन्यता* ।।

७१७
ना है उरे, ना है परे, परिपूर्ण केवलमात्र है।
नहिं सर्वथा का नाम भी, खुद में खुदी सर्वत्र है।।
त्रिपुटी बिना त्रिपुटी वही, ना है जनक, ना जन्यता
माया नहीं, ना है जगत्‌ *आनंदघन चेतन्यता।

७१८
यहि पूर्ण है, वहि पूर्ण है, होता पुरे से पूर्ण ही |
यह पूर्ण में से पूर्ण ले, अवशेष भी संपूर्ण ही |
जिहूँ शुन्य का सारा गणित,नहिं शून्य से कुछ अन्यथा।
माया नहीं, ना है जगत्‌ *आनंदघन चैतन्यता*।।


७१९
सृष्टी वही, दृष्टि वही, वहि दृष्टीका आधार भी।
वहि खेल है, वहि मेल है, वहि मेल का बलदार भी।|
खुद में खुदी नटता वही, नहिं एकता, ना अन्यता।
माया नहीं, ना है जगत्‌ *आनंदघन चैतन्यता* ||

७२०
ना मैं-पना ना तू-पना , वाणी परा भी बंद है।
 ॐ तत्सदिती* है एकरस, अवलंब बिन स्वच्छंद है।।
यह बोलना भी मौज है, *शाखा-शशी, सम गोण्यता।|
माया नहीं, ना है जगत्‌ *आनंदघन चैतन्यता* |

७२१
स्वानंद-सागर एकरस में, स्फूर्ति लहरे खेलती।
बरखा फुँवारे-शब्द की, खुद में खुदी ही झेलती।।
तुकड्या कहे समरस हुई, परिपूर्ण पाई धन्यता।
माया नहीं, ना है जगत् *आनंदघन चैतन्यता" |।

दिव्य गुरु - भक्ति

७२२
गुरुभक्त के मुखसे सदा, झरते श्रुति स्मृति वेद है।
छह शास्त्र अरु सदग्रंथ सब, स्फुरते उसेहि अभेद है।।
जाना न पड़ता सिखने, पढ़नी न पड़ती पोथियाँ।
सेवा गुरुकी जो करे, उसने सभी तीरथ किया।।

७२३
जो धर्म, अर्थ औ काम ये, मोक्षादि सब पुरुषार्थ है।
गुरुभक्त को मिलते सभी, सेवा उसीकी सार्थ है।।
अनुभव खुदी आता उसे, गुरुकी कृपाका पात्र है।
सच्चा अनुग्रह भी मिले, तब मित्रही सब मित्र है।।


७२४
आज्ञा गुरुकी प्राप्त कर, हरकाम करता जायगा।
धोखा नहीं उसको कभी, शुभ कामना फल पायगा |।
नीर्मोहि गुरु शुपाया अगर, तब जन्मका साफल्य है।
पुरुषार्थ चारों प्राप्त कर, वह शहन्‌शाह के तुल्य है ॥

७२५
गुरुकी निगा ही मोक्ष है, गुरुवाक्यही है संपदा ।
सेवा गुरुकी जो करे, पाता नहीं वह आपदा ।।
सब संकटोपर मात करनेकी उसे शक्ति मिले।
गर मौत भी आवे तभी, आनंदही फूले फले ॥

७२६
गुरुकी कोई निंदा करे, तब चुप्प कर समझाइये ।
सच बात को बतलाईये, या तो वहाँसे जाइये ॥
गुरुभक्त नहिं सहता कभी, चुगली गुरुकी एक भी ।
प्रतिकार करता जो बने, यदि जान जाती हो तभी ॥

७२७
गुरुवाक्यही है मंत्रजपतप, यज्ञ-यागादिक सभी ।
गुरुदेव सबसे श्रेष्ठ है, यह मानते देवादि भी ॥।
गुरुदेव नहिं है जात भी, ना पंथ भी ना देह भी ।
गुरुग्यानही अपरोक्ष है, अनुभव-खजाना है सभी ॥

७२८
जो *पंथ पंथहि बोलता, सच ग्यानको नहिं खोलता ।
गुरुभक्ति उसको ना मिली, मेरा यही दिल बोलता ॥
गुरुभक्त तो सेवा करे, अति नम्र प्राणीमात्रसे ।
गिनता न जाति - अजातिको, निर्मक रहे सर्वत्रसे ॥

७२९
गुरु मूरती है चंद्रमा, सेवक चकोर समान है।
गुरुग्यान अमृतसे भी बढकर, है उद्धारे प्राण है ।।
पारस करे लोहा कनक, पर भेद रखता है तभी ।
कर दे गुरु अपनेही सम, यदि हो कृपा गुरुकी कभी ॥


७३0 कि
गुरुभेद खोले आत्मका, संसार-सार बता सके |
गुरुके बिना कोई नहीं, सतग्यान ध्यान भि दे सके।।
महिमा गुरुकी है बडी, सब ग्रंथ-मंथन कर लिया |
सच्चा गुर सिलना कठिन; चाहे भले हो तप किया ||

सत्कर्मही सतशास्त्र है ।


७३१
सत्‌शास्त्रका अनुभव, हमारे काम यों नहिं आयगा ।
जबतक न होगा चित्त निश्चल, योही सब रह जायगा।
इसके लिये खुदकी तयारी, चाहिये बतलाइये ।
खाली पठनपाठन कथनसे, कुछ नहीं बन पाईये ।|

७३२
हो बोझ अपना क्यों किसीपर, अर्थका या देहका ।
निष्काम सबका क्षेत्र हो, व्यवहार हो सब सनेहका ।
परमार्थका नहिं अर्थ यह, जो दुसरोंपरही जिओ |
खाओ पिओ पर-कष्टसे, यह पाप है क्यों ना कहो ?
 ।।

७३३
सीधे रही सादे रहो, निर्मल हृदय करके रहो ।
अपना कमाओ कष्ट करके, मित्र बनकर ही जिओ ॥
संगत नहीं करना किसीकी, छल कपटवाली कहीं ।
श्रद्धा रखो पर अंधता नही, यह खबर रखना सही ॥

७३४
अजि ! दूसरोंके बोझ लेकर, तुम नहीं तर जाओगे ।
अनुभव जहाँतक खुद न लोगे, अंतमें पछताओगे ॥
यदि संत हो तो क्या हुआ और पंथ हो तो क्या हुआ? ।
जबतक न आत्मा ऊँच होगी, कोई ना देगा दुआ।।

७३५
कही लादकर बोझा गधेपर, शास्त्रका अरु बेदका
हाथी न वह कहलायगा, यहि तो विषय है खेदका ॥।
जबतक न हम ऊँचे उठे, मनसे तथा सतकर्मसे ।
तबतक न कोई साथ दे, वाकिफ* रहो इस वर्म से ॥

७३६
है हरघडीही *राम* कहना, यह बडप्पन तो महा ।
पर छल कपट चुगली न छोडी,तो भजन कैसे रहा? ।।
है इसलिये कहना हमारा, नम्रही सबसे रहो।
सीधे रहो सादे रहो, फिर रामका सुमरण कहो ॥

७३७
यह वेद कहता,शास्त्र कहता, संत कहते *क्यों कहे?।
क्यों तूहि ना कहता सही? विश्वास तुझको ना रहे ॥
तेरी गवाही बोल सच, तेरा वहाँ क्या स्थान है ।
गर तू उसे जाने नहीं, फिर क्यों करे हेरान है? ॥

दुर्जनताके रागरंग


७३८
तू भक्त बन या पातकी, जो है सही कह दे वही ।
बाहर-भितर का भेद मत रख, तब तेरी बानी रही ॥।
तू *पातकी* कहते डरे, और पाप तो छोडे नहीं ।
ऐसी दगाबाजीको जनता, क्यों भला बोले सही ॥।

७३९
*इन्सान तो बनता नहीं, पर *संत* कहनेको मरे ।
कुछ पाप तो छोडे नहीं, पर *पापिया* कहते डरे ॥।
कबतक चलेगी बात यह ? भगवान सबही जानता ।
पूरा समझले यार ! तू, न फँसा किसीकी मान्यता ॥।