7४०
भारी ब७ना मंदर - बगीचा, देखने को सब चले।
अपना न देखा पाप तो, फिर क्यों चले कैसे चले?।।
फिर तो तमाशा देखना, इसमें औ उसमें भेद क्या?।
जिसने न धोया दिल खुरा,उसको तिरथ औ बेद क्या?।।
७४१
निंदाही जिनका धर्म है, चुगलीही जिनका कर्म है।
सत्कार्यसे वंचित सदा, दूषणही जिनके वर्म है।।
इसके सिवा पल एक भी, जाना बडा मुश्किल है।
मनसोक्त करना पापही, तो दुर्जनोंका शील है।।
७४२
रुचती नहीं किसकी बडाई, और किसकी वंदना।
मेरे बराबर कौन है ? कहनाहि उसका घर बना।।
कभि संतसाधूसे नमे नहिं, मुफ्तका खावे सदा।
अभिमानका पर्वत बढा, उसपरही चरता है गधा।।
७४३
नित कष्टही देता, पडोसीसे नहीं कभु प्रेम है।
क्रोधाग्नि जलताही रहे, चुकता न उसका नेम है।।
मेरी गिनो, मुझसे झुको, मेरीही वाहवा सब कहो।
खाओ पिओ अपनेहि घर दुर्जन कहे, मेरे रहो ।।
७४४
अति कुशल होती दुष्ट बुद्धी, स्पष्ट तो दिखती नहीं।
पर कष्ट देती आदमीको, मार्गसे जाओ कहीं।
वैसीही दुर्जन-संगती, करती सु-जनका नाश है।
फाँसा पडे इस दुष्टका, जिन्दाही बनता लाश है।।
७४५
सत्कर्म कोसों दूर है, व्यभिचार घरमें पालता।
व्यसनी, गंजेटी, दुष्ट नरको ही मिलेगी मान्यता।।
धन गर्वसे उन्मत्त हो, आँखे चढी रहती सदा।
बकताहि रहता हरघडी, नहिं दर्जनोंमें सत्यता।।
७४६
यदि वेद अरु कुछ शास्त्र पढता,कंठी माला भी धरी।
पूजा बडी लंबी करे, पर दुष्ट बुद्धी है भरी ॥
मैं संत हूँ और मंडलेश्वर भी स्वयं बन जाऊँगा।
अभिमान के मारे चढे, दुर्जन उन्हें बतलाऊँगा ।।
७४७
अच्छी रही किसकी वहाँपर, जा बिगाडे फूट कर।
घरमें नहीं धेला, मगर सब धन जमावे लूटकर ।।
अमृत जहाँ हो जहर डाले, दुष्ट नरका काम है।
पल भी न जाता संत- संगत, ना भजे कभु राम है ।।
अतिथिदेवो भव
७४८
आया हुआ अतिथी उसे, सन्मान देना धर्म है।
सेवा उचित करना न रखना, दिल जरा भी शर्म है।
चाहे भले छोटा रहे, हो जात या बेजातही।
सत्कर्म मानव का यही, दुत्कारना अतिथी नहीं ।।
७४९
आया अतीथी प्रेमसे, आदर उसे सादर करो।
वह नीच है या ऊँच है, दिलमें अहंता ना भरो॥
फल फूल देकर जो बने, सत्संग उससे सीख लो।
सम प्रेमही उसपर करो, उसको ढलाओ ना ढलो ।।
७५०
होता गुरुवत ही अतीथी, प्रेमसे सन्मान दो।
छोटा बडा नहि देखना, फलफूलका ही दान दो।।
जो दर्दकी बातें करे, दिलसे उसे सुन लीजिये।
जितना बने सहयोग दे, संतुष्ट उसको कीजिये ।।
७५१
हम भी अतीथी हो कहीं, नहिं बोझ किसपर डालना।
सबको खुशी हो इस तरह, अपने नियमको पालना ।।
घर-काम जैसे घर करें, वैसेही उसके घर करो।
दूजा न समझे वह हमें, ऐसी रहन सादर करो ।।
७५२
यदि शत्रुमें सद्गुण रहे, तारीफ करनी चाहिये ।
दुर्गुण दिखाई दे अगर, मुंहतोड बात सुनाइये।
घर आगया अपने कहीं, कुछ बोलना वह चाहता।
सन्मान उसको दीजिये, सच बोलिये धर नम्रता॥
७५३
यदि संत हो या ब्राह्मणादिक, वैश्य या क्षत्रिय कहीं।
आया अतीथी शूद्र भी, अव्हेरना उसको नहीं।
सेवक समझकर मान दो, जो योग्य हो पूजा करो ।
फल फूल अपनेही बराबर दो, नहीं दूजा करो ।।
७५४
घर आगया कोई अतीथी, तो उसे सुंदर लगे ।
ऐसी रहन अपनी रहे, आदर्शता सबमें जगे।
हर चीज निर्मल स्वच्छ है, और ठीक ढंगसे है रखी।
छोटे-बड़े सब प्रेम करते, ना दिखे कोई दुखी॥
७५५
भोजन समय आया अतिथी, साथ उसका भी करो।
फल फूल दो जितना बने, सद्भावसे आगे धरो ।
वह देखता हम खा रहे, यह सभ्यतासे भिन्न है।
आओ,सभी मिल पायेंगे कहना बडा शुभ चिन्ह है।।
७५६
आये महात्मा घर कहीं, वे चाहते वैसा करो।
उनके व्रतोंमें विघ्न हो, ऐसा मगजमें ना धरो॥
जो साधु है वह साधुतासमही सदा इच्छा करे।
जो संतको भाता उसीके, योग्यही भिक्षा करे ।।
७५७
यदि दुःखदायी हो अतीथी, सह सके उतना सहे ।
सहने नहीं जो योग्य तो, मीठी जबाँ उससे कहे ।।
सात्विक घरोंमें भी अगर, वह माँस-मदिरा चाहता।
निर्भय बनो उससे कहो, होगी यहाँ नहिं तृप्तता ।।
७५७
विद्या विनयेन शोभते
७५८
विद्याविनयसंपन्नही, पाते प्रतिष्ठा देशमें।
चाहे भले धनहीन हों, या हो किसी भी भेषमें ।
संबंध जाति अजातिका, कुछ भी यहाँपर है नहीं।
जो विनयशील सुबुद्ध हो, उससेही झुकती है मही ।।
७५९
विद्या तभी भूषण बने, जिसमें विनय भर जायगा ।
गर नम्रता और शील नहिं, तो ज्ञानि भी गिर जायगा ।
जिसको न जनताकी कदर, पंडीत भी क्या कामका? ।
योगी हुवा तो क्या हुआ? जिसमें भजन नहिं रामका ।।
७६०
सुंदर सजीला देह है, धनसे लबालब घर भरा ।
दलबलसहित घूमे सदा, है बालबच्चोंसे पुरा ।
पर क्या करें विद्या नहीं, ना विनय है, ना ज्ञान है ।
बिन वृक्षके पर्वतसरीखा, भासता शैतान है ।।
७६१
विद्वान वह होता पुरा, जनजीवमें समरस बने ।
माने न अपनेको बडा, सच बात छोटेकी गिने ॥
वक्तव्य भी यदि दे कहीं, तो विनय उसके साथ है ।
आचारसे संपन्न जिसकी, प्रीय लगती बात है।।
७६२
संकट भलेही आय फिर भी, धैर्यसे गंभीर है।
या मूर्ख चाहे छल करे, पर शांतिका खंबीर है।
बोले किसीसे जब कहीं, तो विनयको भूले नहीं ।
सत्शक्तिका आधार है, विद्वान पूरा है वही ।।
७६३
विद्यागुणी नररत्नही, लिखता तथा पढता सदा ।
हरदम सुजनसे पूछता, अति नम्र हो बढता सदा ॥
पूरा न अपनेको कभी, माने न जाने ज्ञानसे ।
विद्याविनयसंपन्नही, पाता प्रतिष्ठा मानसे ।।
७६४
जिसपर सरस्वतिकी कृपा, लक्ष्मी उसीसे दूर है ।
विद्वान या पंडित रहे, पर तन फटे ही चीर है।
चाहे भले धन ना रहे, विद्वान घबडाता नहीं ।
वह आत्म-शांति चखे सदा, धनसे झुका जाता नहीं ।।
इन्सानियत और सेवाधर्म
७६५
गुजरी बिमारीको लपेटा, फेर क्यों तनपे भले? ।
रे! आजके भी रोग उससे, कम नहीं आगे चले ।।
इसकी दवाई ढूंढ ले, इन्सान बन इन्सान-सा ।
चंदन लपेटे क्यों फिरे? मनकी लगाकर अवदसा ।।
७६६
हाथी मिला तो मैं चढूँ, सत्ता मिली तो मैं बढू ।
यह क्यों नहीं कहता कि मैं भी देशके खातिर लढू।
जाऊँ गरीबों के घरोंपर, उनकी सेवाके लिये ।
पर तू पडा रहता सदा, बस माँस-मदिरा के लिये ।।
७६७
लाखों जुदी बीमारियाँ, एकी दवा कैसे चले?।
वैसी प्रकृतियाँ भिन्न है, एकी रहा कैसे मिले? ॥
तब जो जिसे सधता वही, करना भलाईके लिये।
पर लक्ष एकहि हो जगतमें, हम भले बनकर जिये।।
७६८
कोई फिरे घरही लिये और कोई साथीके लिये।
कोई फिरे मतपक्षके और पंथ-जातीके लिये।
अपने बनाकर गुट सभी जन, दायरेमें फँस गये।
सबका भला हो जगतमें, यह कहनेवाले क्या हुये? ।।
७६९
मंदरमें दौडे जा रहे, भगवानको छोडे चले।
सब पंथही चिल्ला रहे, सच तत्वको मोडे चले।
क्या दीन दुःखी दिख नहीं पाते तुम्हें संसारमें? ।
सेवा बिना इनकी किये, काशी कहाँ बाजारमें? ।।
७७०
मैं धर्मको भी मानता, अरु पंथको भी मानता।
हर संतको भी मानता, अरहंतको भी मानता।
मेरा मगर मतलब कहीं, इन पंथ-संतोंसे नहीं।
है सत्य सबका एकही, ईश्वर भी सबका एकही।।
७७१
कबतक रहे संसारमें? कुछ सोचलो यह तो जरा।
साठी हुई काठी लगी, तोभी न दिल निकले पुरा ।।
लडकोंके लडके भी भये, सब दाँत भी गिरने लगे।
सेवा नहीं करता धरमकी, कब करें मर जायेंगे?॥
७७२
हर आदमीपर कर्ज है, सेवा करे घरबारकी।
वैसी धरमकी, देशकी, अपने सभी परिवारकी॥
ऐसा नहीं है जी! सभी दिन भोगमेंही चूर हो।
इन्सान वह है ही नहीं, घरसे कभू ना दूर हो॥
७७३
अकसर हमारी जिंदगीके, लोग सेवक ना बने ।
ना धर्म से ना कर्म से , ना कष्ट करने में चुने ।।
बेकार ऐसी जिंदगी, उससे पशू क्या हैं बुरे? ।
सब काम आते देशके, कुछ भी नहीं उनका उरे ।।
७७४
हाथी चले, घोडा चले, राजा चले और दल चले।
सबही चले अपनी कुवतपर, कौन नहीं कहता चले? ।।
यहाँ सब चलाचलही मची, रहती जनमसे मौत तक।
जो ना चले और ना ढले, वहि ब्रह्म है खोजो पृथक ।।
मालिक तथा मजदूर
७७५
ऐ चढ मिजाजो! नौकरोंको, क्यों घृणासे देखते? ।
धन है तुम्हारे पास करके, नीच उसको लेखते ।।
ना याद तुमको है यही, धन रक्तपर किसके बढा? ।
अजि? पेटपर ये खून देते, करके सरपर छत चढा ।।
७७६
मजदूर ना कहना उसे, है मददगार सहकारका ।
अच्छी जबाँसे बोल लो, मुँह खोलकर भी प्यारका ।।
अजि! काम भी भरपूर लो, और दाम भी भरपूर दो ।
भरपूरही इज्जत रखो, तब धन छनाछन ले चखो ।।
७७७
अखत्यार जीवन है तुम्हारा, जिन श्रमीकोंके उपर ।
उनकोहि ठुकराते सदा, और बोलते हो बेकदर ।।
है आह उनकी आगही, तुमको वही जलवायगी।
एक दिन यही होगा कि तुमसे, वहहि बदला पायगी ।।
७७८
यह भाग्य है जो तुमसरीखे, लोग दुनियामें रहे ।
जो साथ सबको ले चले, नीचा और ऊँचा ना कहे ।।
है कौन नौकर और मालिक? हम सभी सहकारी हैं।
दोनों कमाओ और खाओ, बस यही बलिहारी है! ।।
७७९
रगरगमें जिनकी मालकीकी, है नशा छाई हुश्री ।
जूते पुछाते नौकरोंसे, और ठुकराते सही ।।
तो क्या इन्हें मालुम नहीं, कि उनके भी दिन आयेंगे ।
अच्छे रखो, अच्छे कहो, तबही सदा सुख पायेंगे ।।
७८०
दीपक जलाते घी अत्तरके, देवताके धाम में |
मजदूरको देते नहीं, भरपेट भी कुछ काममें ।।
भूखा, दरिद्री द्वारपर, मुँह फाडकर रोता खडा।
भगवान क्या है बेवकुफ, देगा तुम्हें मुक्ती-घडा? ।।
७८१
रे! प्रेमसेही काम लो, इज्जत करो मजदूरकी।
वे भी तो अपने भाई है, सोचो जरा तो दूरकी ।।
भारत हमारा एक है, हम है सभी भी भारती।
मिलके रहो मिलकर करो, मालिक और नौकर आरती ।।
७८२
हाँ जी! इसे मैं मानता हूँ, काम है सबके जुदा ।
है बुद्धि किसकी, हाथ किसके, यंत्र किसके है जुदा ।।
पर एक सबमें है परिश्रम, जिस तरह कूवत बढे ।
सब साथ आदरसे रहो, खाओ जिओ मत हो चढे ।।
७८३
यदि मैं किसीसे प्रेम कर लूँ, तो मुझे प्रेमी कहे ।
गर दुश्मनी होगी किसीसे, हम भी दुश्मन बन गये ।।
इसही लिये कहता हूँ मैं, मिल-जुलके काटो जिंदगी।
अपना बिगडता है कहाँ? यदि सबसे करवू बंदगी॥
७८४
सेवाहि करवा लो किसीसे, पर न तुम सेवा करो।
तब याद रखना एक दिन, यह पाप साराही भरो।।
देते रहो लेते रहो, दोनों बराबर पाओगे।
देते रहो पर लो नहीं, तबही तो साधु कहाओगे।।
धर्मकी पहचान क्या?
७८५
यह कौन कह सकता कि तुमने,धर्मसे क्या पा लिया? ।
किसका भला जगमें किया,या तो किसीको ठग लिया? ||
इस धर्म-परदेके पिछे, कितने ऋषीमुनि हैं पड़े।
और धर्मके ही नामपर, कई डाकू-खूनी भी खड़े ।।
७८६
जो शास्त्र रखता पासमें पंडीतही कहते उसे ।
जो शस्त्र हाथोंमें रखे, सब वीर ही कहते उसे ।।
पर पास रखना हाथ रखना, यह बडप्पन है नहीं।
जो वक्तपर बोले करे, वह वीर पंडीत है सही।।
७८७
ऐ धर्मवानो! साधुओं! सोचो तुम्हारे कौन है? ।
आज्ञा तुम्हारी मानते, वही ना तुम्हारे हो गये? ॥
फिर पूछ लो इस धर्म खातिर, कौन जलने आयेंगे?।
गर ना पडेंगे काम तब तो तुमको भी मरवायेंगे ।।
७८८
मैं तो सदा यूँ ही कहूँगा, घृणितसे कर लो घृणा ।
तुम तो सिरफ जातिहि समझकर,कर दिया करते मना ।।
भगवान भी तो कर्म देखे, प्रेम देखे मोहते ।
तुम तो गधे होकर भी ऊँची जात करकेही छुते ।।
७८९
निष्काम प्रेमहि भक्ति है, वैराग्य है अरु ज्ञान है।
जब कामना मुँह फाडती, तब जानना शैतान है।
ऐसे नरोंमें धर्म क्या, बिन वर्मके ही आयगा? ।
संतोष जब नर पायगा, तबही सुखी बन जायगा ।।
दया-दान का विवेक
७९०
हमने कमाया लाख भी, और दे दिया लाखो सभी ।
है फाक बैठे आज भी, दिलमें नहीं है लाज भी ।
क्योंकी लिया उपकारको, बाँटा भी पर उपकारको ।
हम है अकिंचन मुक्त हैं, खेले चलें उस पारको ।।
७९१
जो आयगा बाँटा सभी, फिर माँगने का पाप क्या? ।
सारे हि अपने हो गये, फिर रह गया संताप क्या? ।।
जब जर नहीं तब डर कहाँ?सत्ता न तब संगर कहाँ? ।
आसक्ति ना तो घर कहाँ ? इच्छा न तो मरमर कहाँ? ॥
७९२
जिसकी दया में स्वार्थ है, वह तो दया नहिं ढोंग है ।
अपने बडप्पन का प्रदर्शन ही, इसीका रंग है।
सच्ची दया करुणा से लिपटी, प्रेम है निष्काम है।
बदला नहीं वह चाहती, ऐसी दया बेदाम है ।।
७९३
जिस पर दया की जाय,वह यदि खाय पलटी साँप है।
है काम उसको दंड देना, बस यही इन्साफ है ॥
अजि! यह कहाँकी है दया?जो समय देखे सिर चढे ।
उस पर दया करना नहीं, जो पाप करने को बढे ।।
७९४
हरदम दया करना यही, जिसपर चढेगा रोग है।
वह आप और साथी सभी को, लायगा ही भोग है ।।
कमजोर है जो घर चलाने और शासन क्या करे?
वह आप भी मर जायगा और देश को भी ले मरे ।।
७९५
उसको दया तारक बने, जो फिर बुराई ना करे ।
अनुताप से सुधरे जो अपनी, भक्ति नीतिहि ले धरे ।।
विश्वास जिसका आगया, उस पर दया करना सही।
जो साँप के सम पलटता, उसकी दया करना नहीं ।।
७९६
अजि! दुष्ट को तो दंड देना ही, दया का अर्थ है।
बचने दिया तब फिर उपद्रव, ले उठाना व्यर्थ है।।
जिसको चलाना घर नहीं, ना देश अरु ना धर्म भी।
वह तो भले सब दिन दया करता रहे किसपर कभी ।।
७९७
ईश्वर भी हम पर क्यों दया,करता अगर हम दोषि है।
बेशक हमें शासन करे, जो हम कभी फिर ना सहे ।।
हम हैं स्वभाव हि से बुरे, तब जिंदगी कैसी चले? ।
वह दंड देकर ही सुधारे, तबहि हम होंगे भले ।।
७९८
वाह रे! दया सिर पर चढी, निर्दोष के सीने खडी।
आश्चर्य होता है हमें, हम भूलकर बैठे बड़ी ।।
ऐसा न आवेगा समय, करके हशारी सीखिये ।
किसको न धोखा दीजिये, पर भूल भी ना कीजिये ।।
७९९
जो पाप भी करता रहे, फिर भी दयाको माँगता।
अजि! हाथ दोनों जोड़ता, और कान को भी मरोड़ता।
झुकझुक सदा बातें करे, पर द्वेष तो छोडे नहीं।
ऐसे अधम का मुँह न देखो,घर न आने दो कहीं।।
८००
दोषी अगर हो सत्य तुम, भोगो सजा जो भी मिले।
और मुक्त हो जाओ भले, फिर खोड़ा सर से जा टले ।
नहि तो तुम्हारा दिल सदा, तुमको हि तोडे खायगा।
कोई दया कर जायगा, दानत नहीं सुधरायगा ।।
८०१
अजि! क्यों किसीसे याचना,करके दया को माँगना? ।
यह आतमा निर्भय हमारा, दीन दुःखी बोलना? ||
हक से रहो, हक ही कहो, हक ही सभी का ताज है।
झूठा करो नहीं काम कुछ, तब तो बनी महाराज है।।
८०२
जिसकी गिरी नीयत तथा जो पाप का भंडार है।
अपने व्यसन की पूर्ति को, बेचे सभी घरदार है।।
उसको खिलाना या पिलाना, यह दया नहिं दोष है।
चाहे मरे, मरना हि उसका, मानना संतोष है।।
८०३
भाषण दिये प्रवचन किये,और भजन-कीर्तन भी किये।
पर लोग सुनकर घर गये,कुछ भी अमल नहिं कर गये ।।
वहि बात लाखों बार दुहराने लगे तो क्या हुआ? ।
दुनिया तो रोटी के लिये ही, बोलती है वाहवा! ।।
हैवान, इन्सान और भगवान
८०४
जब पेट भूखा ही पडा,तब ग्यान क्या अरु ध्यान क्या? ।
दिल ही नहीं लगता किसी में,मान क्या सन्मान क्या? ।।
इसही लिये मैं कह रहा हूँ आद्य चिंता दूर हो ।
उद्योग हो कोई भले, बस काम तो भरपूर हो ।।
८०५
पर कष्ट करना, पेट भरना, क्या यही सब है पुरा? ।
अजि! मानवों की बुद्धि से तो यह अधूरा ही धरा ।।
यह पेट तो भरना ही है, पर ग्यान होना आत्म का।
सेवा-धरम,नीति,प्रभू की,भक्ति का और मुक्ति का॥
८०६
खाना पिना सोना मजा करना पशू भी जानते ।
मानव-जनम कुछ और है, बिरले इसे पहिचानते ॥
चिर सत्य क्या अरु नित्य क्या?वह है कहाँ? कैसे मिले?।
इसको समझकर रम गये, वे ही कहे जाते भले ॥
८०७
अपना हि हक खाते रहो, पर बात तो सीधी करो।
धनपे किसी के दृष्टि अपनी, लूटने की क्यों धरो ।
सबका भला बोले तभी, अपना भला हो जायगा।
मेरा भला ही गर कहे, शैतान बन मर जायगा।।
८०८
मनके नचाये नाचते, पागल हि कहते है उन्हें ।
मनको विचारों से रखेगा, बस वही मानव बने।
जिनका विचार हि ग्यान है, वे संत कहलाते सदा ।
जो कह सके वहि कर सके, अवतार की है मान्यता ।।
वाणी की मधुर वीणा
८०९
किसको कहे अच्छा बुरा?हम भी तो कुछ अच्छे नहीं।
कितनी गरीबी जगत में, हम पार कर सकते नहीं ।।
जितना बने सत्कर्म करना ही हमारा फर्ज है।
निंदा न हो हमसे किसीकी, हे प्रभू! यहि अर्ज है।।
८१०
यदि बात सच्ची ही रही, तो भी न कटुता से कहो।
प्रिय बोलना ही सीख लो, सबसे भलाई से रहो।।
अपने करम के फल सभीको ही मिले, मिल जायेंगे।
भगवान कुछ सोया नहीं, जो कुछ किया वहि पायेंगे।।
८११
बिगडा सभी ही बोलते, पर कौन सुधरेगा इसे?।
है बुद्धि किसको? आज से, कर जायेंगे हम ही इसे ।।
जो आँख के ही सामने, झूठा कपट कर जायगा।
हम नाम उसका बोल देंगे, वह हमें नहिं भायगा!।।
८१२
सबका हि वीणा बोलता, अपने स्वरों के साथ में।
जैसी जिसे हो वासना, वैसा बजाता हाथ में।।
है कौन जो सुधरा सके, फूटे और टूटे तार को? ।
भगवान ही गर कर सके, तोही लगे उस पार को।।
८१३
स्वर गुनगुनाते है सभी, पर शब्द बिरले खोलते ।
कई बड़बड़ाते शब्द भी, पर बोल बिरले बोलते ।।
है बोलनेवाले मगर, वह ताल सबको है नहीं।
जो ताल दे अरु बोल दे, बिरलाद है प्यारे! कहीं।।
सबमें सत्यदर्शन
८१४
किसका ये दर्शन कर रहे हो,हाड का या माँस का?|
यह देह तो मुरदा हि है, इसमें है जीवन स्वास का।।
उस स्वास के अंदर बसा, वहि प्यार करने योग्य है।
उससे नजर मिलवा सको, तब ही मिलेगा सौख्य है।।
८१५
अजि!हर किसम के लोग है और हर किसम के भोग है।
सबको सभी मिलते नहीं, मिलते वहीं संजोग है ।।
कहिं एक है कहिं एक, फीका ही पडेगा रंग है।
सब रंग ही मिलते जहाँ, वहि जानिये सत्संग है ।।
८१६
है धूप तो सब में लगा, जो दम में दम बूझे नहीं।
किसकी सुगंधी और है, किसमें तो दुर्गंधी रही ।।
जो सबसे करता प्यार उसका, धूप सब ही चाहते ।
जो पेट को ही मर रहा, ना देखते ना साहते ।।
८१७
बीमार मैं हूँ यार कबका, रोग से बेचैन हूँ।
दुनिया भले दिखती मगर, मैं तो खुदी बिन नैन हूँ।
गर आँख मुझको थी कहीं, तो ब्रह्म कैसे छूपता? ।
सबमें हि पाता राम और हराम होता लापता ।।
उन्नति ही सच्चा स्वार्थ है !
८१८
हर जीव अपने स्वार्थ को ही, ढूँढता और मूंडता ।
सहि स्वार्थ भी जाने नहीं, अज्ञान में ही गुंडता ॥
लाखों कमाता घर बसाता, जोरु-लडके साथ में ।
पर छोडकर जाता सभी, रहना न कुछ भी हाथ में ।।
८१९
मरमर करोगे कष्ट पर, कितना कमाया आज तक? ।
सत्मार्ग को पकडा नहीं, सब तो गमाई लाज तक ।।
अबतो भी जागो यार! अपनी, उन्नती को साध लो ।
बेकार कर जीवन सभी, जमराज के मत हाथ दो ।।
८२०
यह झुंड सी गर्दी कहाँ से, किस लिये आयी यहाँ? |
सुनिये तो कुछ सत्संग,नहिं तो लाभ कैसे क्या हुआ?।।
सुनकर न जाओ कुछ करो भी,तब तो पाओगे मजा।
अनुभव परख लो ज्ञान का,तब तो छुटे जम की सजा।।
८२१
लाखों जमा है आदमी, अति शांति से बैठे वहाँ!।
वे देखते हैं भंजन सुनने, कब मिलेगा? वाहवा! ।।
मूझको खुशी इसमें नहीं, वे क्या सुने सुर-ताल को।
मैं चाहता हूँ लोग सुधरे, छोड बूरी चाल को।।
८२२
कितने बसे है घर हमारे, मित्र के सद्भाव से।
पर काम के कितने वहाँ, बोला न जाता नाम से।।
हम कुछ कहें वे कुछ करें, ऐसाही चलता आ रहा।
हमही हुए बदनाम, साथी उन्नती नहिं पा रहा ।।
लोग और हम
८२३
फिर मार लगने पर हि लगता, दर्द होता जोर से।
वैसा हि भूखा और मरता, जी न पाता कौर से।।
जोभी दरिद्री हो! उसे ही और घेरे आपदा।
पैसौं पे पैसा जोर करता, बस यही दिखता सदा।।
८२४
हम तो हसेंगे ही सदा, जो आयगा उसके लिये।
चाहे भले रोकर कहे, या वह खुशी होकर कहे।
हर बात के पीछे हि हम तो, प्रेम से समझायेंगे।
सुन तो रहा हूँ यार! गम से ही सभी दिन जायेंगे।।
८२५
वेदान्त तुम तो कह रहे, पर पेटवाला भी कहे।
बीमार भी तो कह रहा, और हँसनेवाला भी कहे ।।
सबकोहि उत्तर एक है, कम से कहो गम से रहो।
आये हुए दिन जायेंगे, अनुभव करो जम के रहो।।
८२६
हमको लगे मीठी मिठाई, कोई उससे खिन्न है।
कारण इसी के साथ है, सबकी रुची ही भिन्न है32232द3CKBNBNMJNV।।
किसको तो कडवा नींब भी, मीठा लगे या मिर्च दो।
जिसकी जबाँ विकृत हुई, कडवा हि उस पर सींच दो।।
८२७
तुम ढूँढते जिसको कहीं, वह ढूँढता है ना तुम्हें ? ।
जिसकी बुराई तुम करो, वह भी बुरा देखे तुम्हें ।।
फिर तुम हि अच्छा क्यों न देखो? सब तुम्हें अच्छा कहें।
रक्षा करो हर जीव की, रक्षक हमारे सब रहे ।।
८२८
तुम मित्र बन जाओगे पहले, फिर रहे शत्रुत्व क्या? |
जोभी मिले सब मित्र होंगे, शत्रु क्या और मित्र क्या? ।।
कारण है इसका एक ही, हम तो पुरे निष्काम है।
अच्छा करो तो राम है, बुरा करो तो राम है ।।
८२९
बूंदे हि जल की मिल गयी तो बाढ़ आती है बडी ।
चाहे बहा दे गाँव खेती, झाड-झुर्मट हो खडी।।
वैसी ही ताकत खून में है, संघटन यदि हो खडा ।
अच्छा करे तो बड़ा या नाश चाहे तो बड़ा।।
देश-सुधार की समस्या
८३०
अब जाती पर नहिं कर्म अपने, हो खुशी वह ही करें ।
जो भी सधे करते रहें, यह पेट कैसा भी भरे ।।
ऐसा जमाना आ गया, सब मुफ्त खाना चाहते ।
कैसा जियेगा देश? शासन भी करेगा क्या फते? ॥
देश-सुधार की समस्या
८३०
अब जाती पर नहिं कर्म अपने, हो खुशी वह ही करें ।
जो भी सधे करते रहें, यह पेट कैसा भी भरे ।।
ऐसा जमाना आ गया, सब मुफ्त खाना चाहते ।
कैसा जियेगा देश? शासन भी करेगा क्या फते? ॥
८३१
गर है स्वदेश सुधारना, तो साधुओं से ही करो।
मंत्री-महामंत्री सभी, आदर्श जीवन आचरो ।
सब ही ढकेले लोग पर, खुद पर न कोई ध्यान दे ।
तब देश सुधरेगा नहीं, चाहे कोई व्याख्यान दे।।
८३२
हम लिख रहे तो क्या हुआ?लिखना हि हमको रोग है।
कैसे अमल में ला सके, मिलता नहीं संजोग है।
अब तो यही आशा बढ़ी, हम करके कुछ दिखलायेंगे ।
तब ही फलेगी भक्ति यह, जब लोक कुछ सुधरायेंगे।।
८३३
चलते रहो चाहे अकेले, फिर भी पर्वा ना करो
अपना हृदय ही साक्ष दे, वहि है कृपा दिल में धरो ।।
संकट भले ही मार्ग रोके, दिल में घबडाना नहीं।
संघर्ष-मय जीवन सदा ही, यश कमाता है सही ।।
८३४
खाना नहीं अच्छा रहा, सबमें मिलावट है मिली।
कइ रोग उससे बढ रहे, यह साक्ष लाखों की चली ।।
ये ग्रामवाले भी नहीं, अपना घरेलूपन सधे ।
सब भागते है शहर में, वह माल चाहे भ्रष्ट दे॥
८३५
दानी नहीं हूँ मैं, मुझे लोकेषणा का रोग है।
करके लुटाता हूँ सदा, जो प्राप्त होता भोग है।
ऐसे भी दाता खूब हैं, जो मान को मरते सदा।
मनमें जरा नहिं कदर है, करुणा नहीं सो है गधा।।
८३६
जो कदर जाने आदमी की, वह कहीं धेला भी दें।
तो दान उसका यश दिलाता, चाहे जल पेला भी दे।।
लो बे-कदर की नोट सौ की, तो भी वह फलती नहीं।
लाती बला ही जिंदगी में, एक दिन रहती नहीं।।
८३७
चाहे कोई अस्मान भी, काबू में ले तो क्या हुआ? ।
नीयत तो होती दम दिखाने, की ही मन में वाहवा!।।
उसके लिये भगवान ने भी, वीर पैदा ही किया।
पलमें करेगा खाक वह, मालूम नहिं किसने किया ।।
८३८
रे मर्द! तेरी ऊँच गर्दन, क्यों किसे मर्दन करे?।
तू जानता तो है नहीं, तुझको भी बरगन में धरे।।
जबके बिमारी घर करेगी, सर करेगी आखरी।
जो हो कमाई सब गमाई, यह ही होगा सुन मेरी ।।
८३९
घर में नहीं माता पिता, बस हो तुम्ही जोरु मरद ।
लडका हवाले नौकरों के, है नहीं जिनको दरद ।।
उन स्कूलवालों को तो कोई, धर्म ही नहीं बोलते ।
यहाँ के नहीं, वहाँ के नहीं, बस बाल बच्चे खेलते ।।
८४०
ऐसा नहीं देखा सुना, जिसमें कोई अवगुण नहीं।
पर प्रश्न ऐसा है हमारा, कुछ तो सद्गुण हो सही॥
सद्गुण कहीं ज्यादा रहे, वह ही सभी को प्रीय है।
सत्कार्य करता है सदा, रहता नहीं निष्क्रीय है।।
८४१
गज की हमेशा चाल को, गध्धे कभी पाते नहीं।
कुत्ते भले हो कते, पर बीच वे आते नहीं ।।
पर शेर ऐसी शक्ति है, जो कुशल होता खेल में ।
करके वही राजा कहा जाता है जंगल-मेल में ।।
८४२
वाहवा तमासा खूब है, जो वह सभी बिगडा कहे ।
खुद को सभी है छोडते, और पाप दुसरों पे बहे ।।
तुम तो कहो कितने हो अच्छे?क्या तुम्हें दिखता नहीं? ।
कुछ कर दिखाओ बाद बोलो,लोग तब समझे सही ।।
८४३
झगडा-तमाशा देखने को, भागता दिल शौक से ।
कोई मिटाते है नहीं, बल्के बढाते खौफ से ।।
ऐसी चली दुनिया बढी, शैतानी घर में आ गयी।
ईश्वर-भजन या प्रार्थना, सब भूलती ही जा रही ।।
भगवान की सत्ता
८४४
आते हो तो आजाओ ना, यह खेल देखो तो सही।
छाया नशा कलजूग का, किसका किसे भाता नहीं ।।
क्यों आदमीपर जोर देकर, भूल उसकी ही कहो? ।
सत्ता तुम्हारे हाथ है, और तुम सदा न्यारे रहो? ॥
८४५
क्या राम ही तू है सही, अल्ला-खुदा तू है नहीं? ।
क्या येशू प्रभू भगवान है, और बुद्ध भी तू है नहीं? ।।
अरहंत ही ईश्वर बना, झरतुष्ट्र तू क्या है नहीं ?।
तू कौन है जिसने पछाना, वह कहे सबमें तुही ।।
८४६
हे नाथ! सब है हाथ तेरे, साथ तब हमने किया।
जब सत्य-सागर में गये, तब कौन गीने नहिया? ।।
हँ कौन तज दे शान्ति को, और मोह-मद में डूबता?।
तेरे सिवा किसको ठिकाना है लगा? तूही बता ।।
८४७
सारे नगर में शोर है, अवतार पैदा हो गया।
मुझको बडी आयी हँसी, भगवान कैसे दो भया? ।।
जो अवतरे सबही तो ये, भगवान के ही रूप है।
कोई बडे-छोटे रहे, यह दिव्यता का माप है।।
८४८
गाना कहाँ तक गाऊँ मैं? भगवान तो रीझे नहीं।
मेरी समझ तो है यही, पथ दूसरा बूझे नहीं।।
हाँ एक गलती है मेरी, मन भागता चौफेर है।
उसके लिये मैं क्या करूँ, मालुम नहीं क्या देर है? ।।
८४९
अंधेर है चारों तरफ, पर एक घर जलता दिया।
भगवान सबका साक्षि है, अच्छा किया बूरा किया ।।
सबको बराबर देखकर, वह न्याय देता है सही।
देरी हुई तो हर्ज क्या? पर भूल तो जाता नहीं ।।
मानवी कर्तव्य
८५०
अपनी गरज के वासते, कोई भी जोडे हाथ है।
पर दूसरों के भी लिये, रखना वही सी बात है।
किसकाभी बिगडा हो कोई, सहकार देना है उसे ।
है धर्म मानवका कहा, नहिं भूलना कोई इसे ।।
८५१
कपडे रंगा तो क्या हुआ? मन तो रंगा नहिं राम में ।
माला घरी तो क्या हुआ? काला भरा सब काम में ।।
चंदन लगा तो क्या हुआ? वंदन करे नहिं प्रेम से |
मंदिर बना तो क्या हुआ? पूजा चले नहिं नेम से ।।
८५२
लिख्खा पढा तो है सही, पर नम्रता सेवा नहीं।
खाना हि सबका चाहता, पर पास का देता नहीं ।।
तकदीर की बासी लँगोटी, कब तलक रोटी रहे ।
जब धर्म की सेवा करे, तब ही तो ताजी लो कहे ।।
८५३
जितना किया थोडा हि है, आशा नहीं है छूटती ।
वह और बढ़ती जा रही है, हर घडी ही ऊठती ।।
यह देह तो खोखा हुआ, बस दाँत गिरते जा रहे ।
कचरा हुआ है बाल का, पर राम मुख ना आ रहे ।।
८५४
नहिं ख्याल आता है मुझे, दुनिया बडा कहती किसे? ।
सत्ता मिले या धन मिले, पायी जवानी भी जिसे ।।
खुब बाल बच्चे हो गये, साथी मिले तो क्या हुये? |
सेवा विनय जिसमें नहीं, उसमें बडप्पन ना रहे ।।
८५५
मरना हि है तो जा मरो, पर साथ कुछ तो ले चलो ।
धन, देह सब रह जायगा, फिर हाथ ही खाली मलो ।।
ये जोरु-लडके, मित्र सारे, सब यहीं रह जायेंगे ।
सत्कर्म, कीर्ती, आत्मशुद्धी, साथ प्यारे! आयेंगे ।।
सूत्रधार की मर्जी
८५६
यह मन बड़ा शैतान है, अपनी ही बातें तानता।
तुम क्या करो, क्या ना करो,उसको जरा नहिं मानता ।।
अपनी ही करता हर घडी, कुछ ज्ञान हो या ध्यान हो।
हम तो बडे बेजार है, कैसे करें काबू कहो? ।।
८५७
अर्जी मेरी मर्जी तेरी, तू कर वही मंजूर है।
विश्वास मेरा है पुरा, सब ही करेगा हुजूर है।।
हम पूतले है नाम के, तू ही नचावनहार है।
नहिं कौन तुझको जानता? तेरा सही बेपार है।।
८५८
यह हम नहीं कहते है यारो! हमसे कहवाता कोई।
क्या तुमको लगता हम ही करते?कर दिखाओ तो सही
॥
सोचा है कुछ होता है कुछ, सारा जमाना बोलता।
मरना कोई नहिं चाहता, पर कौन उसको टालता? ।।
८५९
भगवान ने ही रच दिया, नाटक यह आदी-अंत तक।
वैसा चलेगा मिनिट से, तो अरब-खरबों वर्ष तक।।
कुछ भी फरक होता नहीं, चाहे करोगे लाख भी ।
सबके रंगे ही वेश होंगे, पाक भी नापाक भी ॥
८६०
मैं सोचता हूँ और कुछ भगवान सोचे और ही।
झूठा हूँ मैं, भगवान सच, मेरा चले नहिं जोर ही।
इतनाहि मुझको सीखना है, सब प्रभू की है दया ।
अच्छा हुआ तो भी दया, बूरा हुआ तो भी दया।।
८६१
मेरे लिये संसार नहिं, सब सार है प्रभु-प्यार है।
जो जो दिखे परिवार है, घरबार है, दरबार है ।।
राजी हूँ मैं हर बात में, सुखमें रहूँ या दुःख में।
यह देह मन का धर्म है, फिर क्यों करूँ रुख रुख मै ।।
८६२
क्यों लोभ में मुझको फँसाते, मुक्ति के और मोक्ष के? ।
दोनों भी है बेकार हमको, हम तो सेवा-पक्ष के ।।
भक्ती हमारा ब्रीद है, और देश-सेवा मोक्ष है।
चाहे जनम लाखों मिले, बिगडे नहीं यह लक्ष है ।।
दांभिक संसार
८६३
मेहनत का फल मिल जायगा,चाहे कहाँ भी हो रहो।
सेवा करो दिल मन लगाकर,आत्म की ग्वाही कहो।।
बेकार रहकर नाम करना, झूठ कर सत माँगना ।
होगा नहीं यह याद रख, सोना नहीं, अब जागना ।।
८६४
खाना मुफत सब चाहते, पर कष्ट तो बनता नहीं।
बातें सभी करते मगर, कुछ हाथ अनुभवता नहीं ।।
निंदा चली तो प्यार से, कर भी हलाकर बोलते ।
वाह रे! निरीक्षक लोग ये,ये किस लिये जगमें जिते? ।।
८६५
परमार्थ का कर नाम सारे, स्वार्थ अपना कर रहे ।
वैकुंठ मुक्ती के भरोसे, जेब अपनी भर रहे ।।
कहते नहीं बनता कि सब अच्छे रहो, सच्चे रहो ।
कैसे भी हो पर दान दो, मरके रहो बचके रहो ।।
८६६
हालत बुरी है दिन पे दिन, घरकी औ देश-विदेश की।
सबको लगी चिंता हि है, अपने जिवन-अवशेष की।
विज्ञान तरने को बताते हैं, मगर है नाश ही ।
संसार जलने लग गया, ज्वाला में दिखता -हास ही।।
८६७
अंदाज कर सकता नहीं, दुनिया सुधर जायेगी कब ।
अब तो मुझे लगता है, जीवन है डुबा खतरे में सब ।।
जो जो भि दिन निकले भयानक ही खबर सुनता हूँ मैं।
भारी लडाई होयगी, सुनकर दुखी बनता हूँ मैं ।।
८६८
करना है मुझको आत्म-बल से, साधना अध्यात्म की।
साधन-चतुष्टय,शुद्धि मन की, औ प्रतिष्ठा स्वात्म की ।।
मैं को मेरे भुल जाऊँगा, सब तूहि तू बन जाऊँगा ।
तुममें औ मुझमें भेद नहीं ,इस तत्व में सुख पाऊँगा ।।
८६९
बजते रहे मंदिर में, घण्टे घनाघन जोर से ।
ब्राह्मण-पुजारी मंत्र बोले, वेद-गीता ठौर से ॥
चारों तरफ है महक ऊठी, धूप दीप औ माल की ।
पर मन नहीं मेरा वहाँ, खोजे कुटी कंगाल की ।।
८७०
रंग में रंगा दे नाथ! तेरे, हाथ सिर पर धर मेरे ।
मैं बहक जाता हूँ हमेशा, काम पूरे कर मेरे ।।
दुनिया बला पीछे पडी, बेकार करती वक्त को ।
बिन भजन के सार्थक नहीं, मैं मुफ्त खोता रक्त को ।।
८७१
गो-धन भले कितना भि हो,गज धन भी होगा साथ में ।
खेती पके धन दे भले, बेपार-धन हो हाथ में ।
उन्मत्त सत्ता धन करे, कुछ गुंड-धन भी धर लिये ।
संतोष धन पाया नहीं, तब तो किये कुछ ना किये ।।
८७२
सुनते किसीकी बात है, करते किसीका साथ हैं।
ले तिलक किसके नाम का, धरते किसीका हाथ हैं
जिनके भरोसे जी रहे, उनके बचन नहिं मानना ।
ऐसे जमाने में कहाँ रहना? मुझे बतलाओ ना ॥
८७३
घोडे-गधे यदि एक ही, पथ से सभी जाते रहे।
है मूल्य फिर भी भिन्न ही, यह हम समझ पाते रहे ।।
आत्मा सभी में एक है, इसमें तो कुछ अंतर नहीं ।
फिर भी वही है पूज्य, जिसके कार्य में अवगुण नहीं ।।
मन और आत्मा
८७४
संशय बडा शैतान है, बरबाद करता जिंदगी ।
आपस में फाटाफूट, करना ही उसीकी दिल्लगी ।
निवृत्ति संशय की किये बिन शक किसीका मानना ।
यह है महा चिंताजनक, अवगुण मनुज का जानना ॥
८७५
पापी है मन किस पर भी देता, दोष ही समझे बिना ।
श्रद्धा किसीकी नष्ट करना, ज्ञान करता है फना ॥
सोचे बिना ही मन के पीछे, तुम दिवाने ना बनो ।
आत्मा जला करती नहीं, अमरत्व इसका ही चुनो ।।
८७६
मर जाउँगा मर जाउँगा, कहते हो रो-रोकर कहीं।
है कौन कहता यार! दुनिया में मुझे दिखता नहीं ।
तनु पाँच तत्वों में विलिन होती है अपने मूल में ।
आत्मा अमर है नित्य है, फिर क्यों रहे हो भूल में? ॥
८७७
मन नित्य करता है खड़ा, संसार का नाटक बड़ा ।
पर देखने को जाइये, सबपे हि है पानी पड़ा।
नहिं तथ्य सत्य न एक भी, सब कल्पना से है रचा।
सुख शांति तब ही पायगी, मन पर करो काबू सचा ।।
८७८
रे उठ सुबह यह हो गयी, सोता पड़ा क्यों? जाग ना।
यह ज्ञान-सूरज देख तो, आनंदमय कैसे बना ।।
जो जो मिले मेरे हि हैं, मैं हूँ सभीकी आतमा ।
यह जान लेगा जब कहीं, सब दूर होगी यह तमा ।।
वर्तमान देश-दशा
८७९
आता तो मनमें खूब है, कुछ बोल दूँ दिल खोल दूँ।
पर क्या करे? सत्ता बिना, होगा नहीं जो भी कहूँ ।।
ऐसे अनेकों रत्न हैं, दिल में हि रोते काम को।
पर वक्त उनका है नहीं, बस याद करते राम को।।
८८०
रण-गर्जना सुनता हूँ मैं, जो आ रही और गा रही।
भारी क्षती पहुँचा रही, सब देश में है छा रही।
इस देश को मैदान करके, दोगले ही लड रहे ।
अपना भला वह चाहते, पर सिर हमारे पड रहे ।।
८८१
है कौन इनको रोक दें? जो होनहार ही होयगा।
आया है भरता पाप जब तो, कौनसा सुधरायगा? ।।
आकाश से बादल बने, बादल ही जल बन जात
वैसी प्रभू लीला हि वह, यह भी स्वरुप बदलात है ।।
८८२
मैंने लिखा नहिं कुछ कहीं, लिखना तुम्हारे हाथ है ।
मैं ही नहीं मेरा कभी, फिर लेख की क्या बात है? ।।
सब कुछ समझने बाद ही, मैंने इसे समझा बुझा ।
नाहक न कर बदनाम, तेरा ही बजा है अलगुजा ।।
८८३
भाई! सभी पढ़ते-पढाते, यह समय आया दिखा।
संस्कार बिगडे बाल-बच्चों के सहित पाया दिखा ।।
अजि! जो पढाना था सही,सब छोडकर पढवा दिया ।
बस पेट-खातिर जिंदगी को मौंत से लडवा दिया ।।
८८४
अजि!देखते हो क्या?तुम्हें, गर पा चुका घुसखोर है।
बाजी लगाओ जान की, उसको सजा दो क्रूर है ।।
ऐसे अगर कोई करें नहिं, तो समय वह आयगा ।
खाना पिना ही नहिं मिलेगा, जी तडप मर जायगा ।।
८८५
यह लूटकर धन पास रखने की, जिसे आदत हुई।
न्यायी न वह अन्याय से ही घर भरेगा है सही।
उसको कदर होगी नहीं, करुणा तो कोसों
अजि! जान लेना भी उसे,नहिं माल ऐसा क्रूर है।।
८८६
हर बात सत्ता से बनेगी, यह तमासा हो गया।
सज्जन भले ही रोके कह दे, तोभि वह न सुना गया ।।
उनकी चले, सत्ता मिले, चाहे चरित्र बुरा लगे।
जीना भी ऐसे देश में है, शर्म यह मुझको लगे ।।
धर्म और कर्म
८८७
यदि धन गया तो भी चले, परकीर्ति नहिं बदनाम हो।
सत्ता गयी तो हर्ज क्या? पर नेक अपना काम हो।
घरबार से होंगे फना, तो भी धरम जावे नहीं।
ऐसा हि निश्चय है तो फिर, आगे जनम आवे नहीं।।
८८८
मारो नहीं किसको कहीं, चुगली ओ निंदा के लिये।
सोचो तो पहिले सत्य क्या है?दोष है किसके लिये? ।।
सोचे बिना ही जिस किसीने, दंड सुनते ही दिया ।
पश्चात् उसीको याद आयी, यार!हमने क्या किया! ।।
८८९
जब मोहव्यापी बुद्धी ही, आरुढ होती कर्म में।
तब धर्म सब ही खो दिया, करती है सच्चे वर्म में।
निर्मोह वाले वीर ही, सच्चे अदब को जानते ।
मरना भले आ जाय पर, सच्चे करम नहिं टालते ।।
८९०
जब मोह अर्जून को हुआ, तब कर्म से हारा गया।
वापस हुआ निश्चय से अपने, भोग से भारा गया।।
भगवान ने सच न्याय का, परकाश डाला पार्थ में ।
तब ही खडा होकर लिया, गांडीव अपने हाथ में।।
८९२
यदि ढोंग करते हो सरासर,फिर भी सज्जन ही कहो ।
अरु पाप करके भी मुझे, पापी नहीं कोई कहो ।।
दनिया में ईश्वर है तो तू, कैसे कहाँ छुप जायगा? ।
होगा नहीं ऐसा कभी, तेरी सजा तू पायगा।।
८९३
मत बोल ऐसे बोल को, सज्जन के दिल मुरझायेंगे।
मत काम कर ऐसे कभी, गरिबों के दिल रुलवायेंगे।।
करना ही हैं तुझको तो चढ, उस गुंड के भी मुंड पर ।
तब शूर कहलायेगा तू, सच काम करने चाहे मर ।।
नादान कौन
८९४
नादान है जीना मेरा, जब कार्य न करूँ देश का।
वरदानी मैं हो जाऊँगा, वाहक बनूँ संदेश का ।।
सद्भाग्य मेरे ऊँच होंगे, सत्समागम मैं करूँ।
सारे जगत को जीत लूँ, गर मन पे मैं काबू करूँ॥
८९५
गर हूँ समझता पर न करता, तब समझ क्या काम की? ।
रहता हूँ लोगों में मगर, सेवा न होती राम की।
खाता हूँ जिसका माल-पैसा, ना करूँ उसका भला।
तब व्यर्थ है जीना मेरा, मैं ही बडा होने चला ।।
८९६
दिन रात श्रम करता है पर,नहिं एक पल भी काम का।
मदिरा चढा नाचे सदा, बकबक करे बेकाम का।
निर्लज्ज होकर फेर कहता है मुझे रोटी मिले ।
है कौन ऐसे आलसी को, पास कर फूले फले?॥
८९७
इस देश के कई आदमी, पीकर नशा गाली बके।
है बीर ऐसे भी यहाँ, प्रतिकार करना ना सिखे।
ये वीर नहि नादान हैं, जिनकी जबाँ फुटती नहीं।
बहु -बेटी पर हमला करे, पर आँख भी उठती नहीं।।
आत्मप्रकाश की साधना
८९८
तुम क्या सुनाते यार! मेरे, कान में है बंसरी।
दिन रातही सुनता हूँ मैं, प्यारे कन्हैया ने धरी।।
ऐसी मधुर रंगदार लगती, होश मुझमें ना रहे ।
सोहं की वीणा बज रही, हर श्वास में झनकार है।।
८९९
घर घर जलाया दीप पर, मनमें तो अंधःकार है।
जब तक न आवे ग्यान तब तक, जीव यह बेकार है।।
ग्यानी जनों का संगही, परकाश करता मार्ग में।
भूले नहीं वह आदमी, जाता नहीं जमद्वार में।।
९००
हमसे हँसो नहिं यार! हम हैं संत के दरबार के।
पागल ही करता प्रेम उनका, ना रहे घरबार के।।
चलते किधर देखे किधर, पर ध्यान उनका ही रहे।
दुनिया के नहिं हम काम के, हम संत के शाहीर है।।
९०१
किसका भजन करना है अब? सब तो हमारे हो गये।
परकाश आतम का हुआ अग्यान-तारे खो गये।।
निर्मल निरंजन आत्म की, ज्योति दिल में छा गयी।
शत्रू नहीं ना मित्र है, बस एकता दिल भा गयी।।
९०२
पर्वत सरीखा महलभी, पल में ही गिरता है सही ।
राजा सरीखे नाम को, धोखा बना रहता कहीं ।
सुंदर सजीले देह को, तो काम-कीडे ग्रासते ।
जो नम्र है अरु प्रीय है, वहि सर सभीके नाचते ।।
प्रभु-कृपा स्वानुभव
९०३
कविराज मैं तो हूँ नहीं, साहित्य-लेखक भी नहीं ।
मैं हूँ प्रभू का भाट! मेरा ठाठ है बस एक ही ।।
दिल में उमंगें जब उठी, चलती है मेरी लेखनी ।
आया वही गाया, मती गुरु के चरण से जो बनी ।।
९०४
तोडा नहीं अक्षर कभी, फिरके न देखा बाच के।
रंग में लिखा, जन में सिखा, आनंद पाया नाच के ।।
साथी मेरी है खंजरी, और मित्र हैं पागल गडी ।
पशु पक्षि से भी प्रेम है, है साधना मेरी बडी ।।
९०५
इन इन्द्रियों के भोग सारे, कल्पना से ही दबे ।
देखा नहीं खाना पिना, सोना, कहाँ होती सुबे ।।
पागल सरीखा संत चरणों में सदा रहता गया ।
बस हो गयी उनकी दया, मँझधार से तरता गया ।।
९०६
काफी गयी थोडी रही, अब तो न धोखा पायगा ।
हंकार बिन जीया हुँ मैं, अब तो अहं नहिं आयगा ।।
होगी बिमारी भी तभी, गम से ही मैं सह जाऊँगा।
जब मौत भी कभु आयगी, हँसते प्रभू-गुण गाऊँगा ।।
९०७
ऐ पंडितो और साधुओ! तुमने कमाई जो करी ।
जीवन तपस्या में गमाया, तब प्रतिष्ठा ले भरी।
इस दास ने तो नम्रता से, सबको अपना-सा किया
परमार्थ पद भी पा लिया, गुरुभक्ति भी करवा लिया।।
९०८
मुझमें न डर कभु भी रहा, बेडर हूँ मैं निर्मोह से।
झगडा नहीं किससे किया, हरदम अलग था द्रोह से
किसको न मेरा बोझ था, थी चाह मेरे प्यार की।
अब आखरी निभ जायगी, भारी कृपा करतार की॥
धन का खजाना और मैं ।
९०९
धन भी पडा किस काम का,जब दान में ना काम में।
भूमी हि खा जाये उसे, और साँप बैठे सामने ।।
ऐ कंजुसो! कर हाथ ऊँचा, बाँट दो सत् कार्य को।
चाहो तभी मिल जायगा, आगे बढाओ धैर्य को।।
९१०
निर्धन हमी हैं एक अब भी पास में धेला नहीं।
है धन मिला गुरु-शक्ति का,उससे यह दिल हीला नहीं।।
लाखों करोडों से भी ऊपर, आ गये जन धन सभी ।
ऐ मातृ भू और धर्म भू! तुझको किया अर्पण सभी ।।
९११
मैं सद्गुणों का भंग हूँ, सत् प्रेम का सत् नेम का।
वहाँ ही मेरा मन मस्त है, जहाँ पर खजाना क्षेम का।
सत्संग की बहती नदी, नहाता हूँ मैं दिल खोल के।
थोडा नहीं रहता खडा, जहाँ झुंड होते झोल के।।
९१२
देना ही देना हैं हमें, लेना भी उसके ही लिये।
उपकार का संग्रह बने, उसके लिये तो हैं जिये।
गंगा का जल भर ला रहे, पूजा भी गंगाकी करे ।
इसमें खुशी हम मानते, चाहे भले जीये मरे ।।
९१३
धन तो हमारा है नहीं, तन भी हमारा है नहीं।
मन-बुद्धि, ग्यान-विवेक भी, कुछ भी हमारे हैं नहीं ।।
हम भी हमारे हैं नहीं, तुम भी हमारे ही नहीं।
है साक्षि हम सबके यहाँ, लीला सभी यह हो रही ।।
देश में फैला हुआ रोग?
९१४
कामी को सबही काम है दिखता नहीं कहिं राम है।
पूजा करे, मंदर चढे, चाहे रहे निज धाम है।
जब तक भरा यह रोग है, कोई दवा लगती नहीं।
बिन संत-संगत-चूर्ण खाये, यह बला जाती नहीं ।।
९१५
हो एक व्यक्ती तो भली, कहिं दो हुए शंका चली।
जब साथ चारों की मिली,कुछ भी नहीं फूली फली ।।
ऐसा हमारा देश है, इसमें बड़ा ही रोग है।
परदेश में ऐसा नहीं, उनका बडा संजोग है ।।
९१६
सब ग्यान हममें है भरा, पर काम में आलस्य है।
छोटे-बड़ों में हर जगह, देखा यही सब दृश्य है।।
उपभोग सारे चाहते, पर कष्ट बिरलाही करे ।
ऐसी ही आदत रह गयी, तब देश पूरा ही मरे! ।।
९१७
वेदान्तवादी भाइयो! सब एक है कह तो दिया।
व्यवहार में आया नहीं, तब तो जनम बिरथा गया ।।
कहना और करना बोलने को तो बडा आसान है।
अनुभव करोगे तब दिखे, अंतर जमी-अस्मान है।।
९१८
बोलो जहाँ तक बोलना है- लड्डु पेढा खाइए।
जबतक पडे नहिं मुख में आकर तब तो क्या सुख पाइए? ।।
वैसे प्रभू का नाम बोलो, चाहे तो दिन रात ही।
पर झूठ छोडोगे नहीं, तब शांति पाओगे नहीं।।
९१९
पंडीत, ज्ञानी औ पुजारी भजन-गायक हो यदी।
चंदन लपेटा अंग में, माला भली पहनी खुदी ।।
पर एक बूरी बात है, निंदा बदी-चुगली करे ।
सात्वीक मन होगा नहीं, तब सब में ही पानी फिरे ।।
सत्ता का मोह छोड दो!
९२०
रँग ढंग तुम्हारे जानता हूँ, क्या छिपा ये जात हो ।
सेवा भी की तो क्या किया?तुम तो विषय के साथ हो ।।
इच्छा तुम्हारी है लगी, अधिकार-पद पावे हमें।
विद्या, विनय ओर नम्रता,बिलकुल नहीं आयी तुम्हें ।।
९२१
मत मोह कर पकडा रहूँ, सत्ता सदा के ही लिये।
यह स्वप्न है जागृत दिखे, पर स्थीर ना किसने किये ।।
जो योग्य करता चाकरी, ओर त्याग से रह पायगा।
सुख पायगा वह कुछ घडी, नहिं तो समय पलटायगा ।।
९२२
जैसा तरुण अपनी जवानी में सदा ललकारता ।
वैसा जमाना भी हमेशा, दौडता भरमारता ।।
बूढे हुये तब सोच समझे, मौन है धरते सदा ।
जूने विचारक भी समय को, देख वहि करते सदा ।।
९२३
एक बार तुमने मौज भोगी, तब हमेशा ही बने ।
ऐसा समझ करके रहो, तो कौन तुमको ले गिने? ॥
घर का भी लडका उम्र में, आते यही समझायगा ।
समझो तो सत्ता-भोग भी, हर दम यही बतलायगा ।।
९२४
यहाँ तो बिचारों की जवानी, तीर सम बहती सदा ।
समझो तो भागो साथ में, नहिं तो पडो बनके गधा ।।
यह आज का रंग कल नहीं,कल का न परसों मिल सके।
बहती हि दुनिया से मिलो,जीवन सभी यह रह सके ।।
९२५
सम्हलो अगर सम्हले नहीं,तब छोड दो पथ मोड दो ।
रास्ता न रोको और का, करते हो उनको वोट दो ।।
अजमाओ अपनी शक्ति को,सब राजी हैं या के नहीं।
जन गण अगर नाराज है, तब तुम वहाँ बाकी नहीं।।
९२६
आया जमाना हुक्म पालन, कर रहा कलजूग का।
तुम भूल करते हो यहाँ, जपते हो मंतर मूल का।
जुग-जूग का बाँधी लड़ाई का मजा तो सीखलो।
कलजूग कैसे नाचता, सत्जूगवालों! देख लो।।
९२७
कुछ दिन हुए, रावण भी सत्ता भोगकर खाली गया ।
प्रभु राम ने भी भक्त दलबल, साथ सत्ता को लिया।
उनको भि तो जाना पडा, पथ मोडकर रंग तोडकर।
दुनिया न ब्याही एक की, भगती है दुर्बल छोडकर ।।
९२८
जब बुद्धि का और शक्ति का,तारुण्य है तब मौज है।
बूढे हुए दोनों कहीं, तब शत्रु लाता फौज है।।
मानो कही तब ठीक है, नहीं तो खतम है जिंदगी।
यहि रीति व्यष्टी औ समष्टी की सदा रह जायगी।।
९२९
लिपटो न अपने मोह से, सावध रहो, हुशियार हो।
भुल जाओगे गर कर्म से, इस पार के उस पार हो।।
यह सोचना नहिं की हमी, भगवान के दत्तक बने ।
बूरे करम से जो चलें, बस खाक ही उनकी बने।।
सत्संग की महिमा
९३०
घर संत आये है अतीथी, भाग्य की यह बात है।
अब तो सफल होगा जिवन, पावित्र्य उनके साथ है।।
सत्संग की महिमा बडी, गायी बतायी, ग्रंथ ने।
उपदेश से उनके सफल, अग्यानि का जीवन बने।।
९३१
गंगा की धारा जल प्रवाहित ही सदा कर जायगी।
वैसे ही सत्संगत की बाणी, ग्यान को फैलायगी।।
गंगा न किसके घर चले, कोई भी जल भर लाइये।
सत्संग भी होगा जहाँ, श्रद्धा लिये तर जाइये।।
९३२
साधू न घर घर में बसे, बिरलाद ही चमके कहीं।
पाता नहीं है मुक्त वह, श्रद्धा बिना दिल में सही।
गर पा गया बड़ भाग से, दुर्गुण माँगेगा तुम्हें।
देना पडेगा छोडकर, तब लाभ होगा ग्यान में।।
क्या शासन सोया हुआ है?
९३३
गर कष्टवालों को न रोटी, देयगी सरकार यह।
कैसे जगेगी देश की खेती? बड़ा भू-भार यह ।।
लेना किसीसे है तो देना ही पडेगा पेट को।
मर जाये गर मजदूर तो, क्या चाटना इस ऐठ को?।।
९३४
चारों तरफ इस धर्मवालों की, भली हलचल मची।
अनशन पे साधू आ गये, सब छोड मंदर की रुची।।
गौओ अगर कटती हि है तब तो हम जिये किस वासते? ।
बलिदान से शासन जगे, यहि तो है तप के रास्ते ।।
९३५
बलिदान साधू का हुआ, तब देश सारा खाक है
शासक खतम् हो जायेंगे, भगवान की यह हाक है ।।
इसके लिये मैं बोलता हूँ, मार्ग तो निकले कोई।
सबके धरम की भावना, किसने दुखाना ही नहीं ।।
९३६
इस देश में बसते हैं जो, उनकी सदा सेवा बने ।
इसही लिये तो राज्य-शासक, वोट से जाते चुने ।।
गर वे कदर करते नहीं, जनता भली भूखों मरे ।
शासन बदलने की भी फिर,वह क्यों नहीं हिंमत करे? ।।
९३७
कड़ सैकडो बहु-बेटियाँ, पकडी-भगायी जा रही।
हिंदू धरम की ये पुकारें, नित्य सुनने आ रही।
शासन कहाँ सोया हुआ है? जब नहीं रक्षा करे।
तब हम भी क्यों जीयें ?यह दिल दिन रातही रोया करे ।।
९३८
ऐ देश के अधिकारियों! इस पर तो थोडा ध्यान दो।
हिंदू धरम को पर-धरम से, ठेस मत पहुँचाने दो।
तुमको सभी गर है बराबर, तो यही क्या न्याय है? ।
लाखो करोडो हिन्दु ख्रिश्चन हो गये, दुखदाय है! ।।
गुरु कृपा का रहस्य
९३९
मेरे परम पावन गुरु ही, इष्ट है मेरे लिए।
मैं भिन्नता नहिं मानता, गुरुदेव ईश्वर के लिए।
बल्के मेरा अस्तित्व ही, उनकी ही लहरें है सदा ।
त्वंपद औ तत्पद एक हो असिपद हि होता सर्वदा ।।
९४०
कोई मुझे चिंता नहीं, क्या हो गया, क्या हो रहा ।
मैं एक बच्चे की तरह हूँ, खेलता डुलता रहा ।।
मेरे गुरु है के सर्व कुछ, माता कहो या हो पिता।
ईश्वर वही सर्वस्व है, ऐसी है मुझमें एकता ।।
९४१
चलते हुए इस मार्ग के, काँटे मुझे तो फूल हैं।
यह भूमि माता ही मुझे लगती है मेरा कूल है ।।
मुझको कहीं नहिं शत्रु हैं, वह मित्र से रहते सदा ।
मेरे गुरु का वरद सिर है, छत्र-चामर सर्वदा ।।
९४२
मेरा पुरा विश्वास ही, मेरे लिये पथपूर्ण है।
मुक्काम गुरु की दया, बस आखरी संपूर्ण है ।।
पढता नहीं मैं ग्रंथ को, मंदीर को देखू कहीं।
रटता हूँ गुरु की शब्द-वाणी, एक पल जाता नहीं ।।
९४३
मुझको गुरु ने कह दिया,ईश्वर और तुममें भेद क्या? ।
दोनों उसीके रुप हो, मिल के बने गुरु की दया ।।
बल्के गुरु और शिष्य का भी स्थान समझो एक है।
यह जीव, ईश्वर, ब्रह्म भी, नहिं भिन्न निःसंदेह है।।
९४४
विश्वास ने पायी सफलता, अब मुझे छोडे नहीं।
संकट बडा ही आय चाहे, दिल मेरा मोडे नहीं।।
मेरे अनूभव में बसा, गुरुदेव ही सर्वत्र है।
मुझसे कराता सर्व लीला, जगत-चित्रविचित्र है।।
९४५
असफल-सफल होना जिवन का,नृत्य है और कृत्य है।
दोनों नहीं रह जाय तब तो, जिंदगी यह स्तुत्य है।।
यह ग्यान सद्गुरु की कृपा से, पायेंगे विश्वास है।
विश्वास गुरु पर ही जडे, ऐसा सदा निज ध्यास है।।
९४६
मैं था पशूवत ही हमेशा, विषय के आनंदमें ।
खाना विषय, पीना विषय,सब कुछ विषय के धुंद में।
गुरुदेव ने मेरे उपर, तो शक्तियात ही कर दिया।
सारे विषय पलटे मेरे, स्वानंद सुख अजमा लिया।।
९४७
आश्चर्य मुझको है बड़ा, मैं धूल से भी धूल था।
दुनिया जिसे पापी कहे, उससे हि मैं अनुकूल था।
अच्छे न मुझसे काम होते, था सदा बदनाम-सा।
गुरु की दया ने ही किया, मेरा जनम सच धाम-सा॥
९४८
किसको नहीं तारा गुरु ने? एक तो दिखता नहीं।
उसको बिना विश्वास के, साधन दुजा लगता नहीं।।
विश्वास गर मेरा अधूरा, हो तो फिर क्या कीजिए?
कहता वही गुरुदेव मेरा, मुझको तन-मन दीजिए।।
९४९
बल्के मेरी इस कल्पना ने ही मुझे दुनिया दिया।
थी बूंद थोडी सी वहीं, सागर भि चंचल-सा किया।
मेरे ही भाई-बंधु सारे, शत्रुसम दिखने लगे।
गुरुदेव ने जब की कृपां, मनके अंधारे जा भगे।।
९५०
जब वह हमारे आत्म में ही बैठता गुरुदेव हैं।
सत् क्या असत् क्या यह सभी, दे ग्यान निःसंदेह है।।
यह विषय-राक्षस इंद्रियों पर, जोर करता, है सदा ।
करने न देता कार्य सच, हमको बना रखता गधा ।।
९५१
यह मन सदा चंचल ही है, इसका सभीको है पता।
श्रीकृष्ण, राम भी साक्ष देते, और की है क्या कथा? ॥
ढूँढो जमाने भर तभी, यह स्थीर बनता है नहीं।
अभ्यास और विश्वास से, मन स्थीर करते संत ही।।
९५२
पोथी पढी हमने बडी, क्या स्थीर होती कल्पना? ।
कितने पढे पंडीत है, उनको तो जाकर देख ना॥
पैसा-प्रतिष्ठा के सिवा, उनको जरा नहिं चैन हैं।
हम भी वही वाचक बने, खुलते न गुरुबिन नैन है।।
९५३
आग्रह करो किस काम का? मन में नहीं श्रद्धा जहाँ।
भक्ती करो चाहे भले, मन ढूँढता बाहर कहाँ ॥
इसके लिये तो खुद का निश्चय ही सदा फलदायी है।
श्रद्धा बिना बनता नहीं, जो कुछ करो चतुराई है।।
९५४
यह जीव ईश्वर नहिं बने, तब तक न माया छोडती।
व्यष्टी समष्टी में न हो, मिलती नहीं है सद्गती ॥
ये सर्व मिलते फल यहाँ, गुरु की करो आराधना।
गुरु-चक्र काटे, अज्ञ तम, तब काम सारा ही बना ।।
गुरु-ग्यान में नहाओ!
९५५
धीरे धीरे हम बढ रहे, और काल से है लड रहे।
अब आयु भी थोडी बची, इस बात पे ही नड रहे ।।
पहिले तो था नहिं ग्यान इसका, संत-संगत साधना ।
आयी समझ अब आखरी, जब अंत का है सामना ।।
९५६
सबसे करो तुम प्रेम! इसको अर्थ नहिं है देह से ।
जो आत्म का आनंद है, जानो उन्हें गुरु-ग्यान से ।।
इस देह का तो प्रेम अच्छा औ सिखलायगा।
घोडा गधा नहिं एक होगा, विषय प्रेम बतायगा ।।
९५७
आये हो इतने दूर अब, जाना नहीं वापस अभी ।
पाये हो सत्संगत यहाँ, तब छोड दो कुमती सभी ।।
बिन भाग्य के कोई यहाँ तक, पहुँचते तो हैं नहीं ।
गुरु-ग्यान के मंजील सम, नहिं भाग्य है दुसरा कोई ।।
९५८
रंग लग गया जब है तुम्हें, तब तो न भंग करना इसे ।
संग आ गये हो संत के, जैसे पतंग हो दीप से ।।
अब तो डुबो गुरु-ग्यान में, माया-नदी को पार कर |
तुकड्या कहे निर्धास्त हो, नैया न रुकती मार्ग पर ।।
विज्ञानयुग की विकृति
९५९
लिख तो रहा हूँ गीत पर, बातें पुरानी हो गयी।
विज्ञान का युग लग गया, अब धर्म समझे ना कोई॥
अब तो चलेंगे टॅक, ट्रॅक्टर, बम तथा रॉकेट है।
संहार की खेती पकेगी, वक्त नहिं अब लेट है।।
९६०
इन्सान ही इन्सान का शत्रू बनेगा बेगुन्हा ।
मेरी ही मानो तब भला होगा कहेगा सामना ।।
सच बोलने का अर्थ होगा, शक्ति-सामुग्री बडी।
फिर झूठ भी सच ही बनेगा, नीति यह होगी खडी।।
९७१
हम जानते है तुम हि हो, तुम जानते हो हम हि हैं।
मुरगे-लडैया दूसरा है, यह न किसीको सुध रहे ।
वह दूर देशों से हमें, पागल बनाता नाचने ।
युग की कुटिल नीती ही खिलती, अब हमारे सामने ॥
९७२
पागल बने हैं मन हमारे, शान-शौकत के लिये।
चाहे मिले नहिं दाल रोटी, पर सिनेमा चल दिये।
कपडा विदेशी पहनने को, या तो मलमल चाहिए।
बस पान-सीझर मुख में है, चोरी भले कर जाइए ।।
९७३
यह देश वैसा ही बने, जिसका हमें धन-कण मिले।
चाहे चलाते हम कहो, पर बाजी उसकी ही चले।
गर भारती बनना है भारत, तब समझ यह पाइए।
अपना पकाओ, अपना खाओ, मत किसे ललचाइए।
सन्त पद का स्वरुप
९७४
जो सुख हो या दुःख हो, दोनों बराबर मानता।
माटी मिले, पत्थर मिले, सोना भि उसिमें तोलता।।
प्रियता नहीं, अप्रिय नहीं, नित धीर है खंबीर है।
निंदा स्तुती पर लक्ष नहिं, वहि संत है मुनि वीर है।।
९७५
शुभ सत्व गुण सुख को बढाता,रज बढावे मोह को
तम है प्रमादी ग्यानहिन, आगे बढाता द्रोह को।।
जब सत्व गुण बलवान हो, तब ग्यान-ज्योती पायगा।
मानवजनम-उद्धारकर, वह शांति मुक्ति समायगा।।
९७६
उन पुरुष प्रकृति से ही तो,जीवन बना, तन-मन बना।
संसार भर उसकी है रचना, मारना और जन्मना ।।
यदि प्रकृति में रम जाओगे, तब मोहमाया पाओगे।
जब पुरुषवत् रह जाओगे, तब ब्रह्मपद को पाओगे।
९७७
मैं-मैं कहो यह ठीक है, पर है कहाँ मैं का पता? ।
किसने नहीं देखा है मैं, जो देखता वहि लापता ।।
जैसे नमक पानी को लाने, पानी में ही चल बसा।
वैसा ही मैं का शोधकर्ता, ब्रह्म में जाकर धसा ।।
गुरु-भक्त का आचार पथ
९७८
सुंदर सजीले वृक्ष देखे, पुष्प से फूले फले ।
कुछ पर्वतो के टोंक देखे, बादलों से जा मिले ।।
बहु जीर्ण औ विस्तीर्ण देखी, मंदिरोंकी झाँकिया।
पर ना कहीं देखा उसे जिसने जिवन यह भर दिया।।
९७९
घर में ही सुंदर-सा सजा, कमरा अती निर्मल रहे।
गुरुदेव की तसबीर कमरे मध्य में दिखती रहे।
हरदम हि ज्योती, धूप सात्विक, मंदसा जलता वहाँ ।
आसन हो उत्तम ध्यान को, कुछ संत ग्रंथ रहे जहाँ ।।
९८०
जाना नहीं हरदम वहाँ, जहाँ ध्यान-भक्ति-स्थान है।
अति स्वच्छ होकर ही चलो, छोडे रहो अभिमान है।
मन की तरंगे भूलकर, गुरु का स्मरण हो ध्यान में।
आसन हो सीधा सरल जो, तारी लगे गुणगान ।।
९८१
ऊठो सुबह आलस न कर, तसबीर गुरु की देख लो।
संकल्प कर लो सत्य का,सत्कार्य का सहयोग लो।।
फिर नित्य दैहिक कार्य कर,पूजा या ध्यान को जाईये।
एकांत मन से इष्ट को, भलिभाँति हृदय समाइये।।
९८२
भोजन करो सात्वीक ही, मीठा नहीं खट्टा नहीं ।
सब रस मिले जो योग्य हो, जो प्राप्त हो पाओ वही ।।
भगवान को अर्पण किये बिन, अन्न ना सेवन करो।
भोजन किये पर स्वास्थ्य को,कुछ योग निद्रा भी धरो॥
९८३
बिन कष्ट की रोटी मिले, ऐसा कभू नहिं सोचना।
जितना बने इस देश का, कर्तव्य समझो आपना ।।
हो नौकरी, कारीगरी, खेती कहीं भी जाइये।
ईमान से कर्तव्य कर, अपनी बिदाई पाइये।
९८४
सच ही कहो सच्चे रहो, सच की ही संगत प्रेम की।
आसक्त होना ही नहीं, ना हो त्रुटी किसि काम की ॥
जो जो करो सत्धर्म है, सत्कर्म अपना जानकर ।
निर्भय रहो प्रभु पे भरोसा, भक्तिपूर्वक डालकर ।।
९८५
चाहो नहीं ज्यादा कभी, जो हो जरुरत कम करो।
इन इंद्रियों को भोग से, हरदम ही काबू में धरो।।
जो बोलना, खाना सभी, सादा रहे, सीधा रहे।
आरोग्य का भी ख्याल हो, शत वर्ष की आयू रहे ।।
९८६
अधिकार की लालच न हो,सेवा हि बढिया बात हैं।
राजी रहे जिससे रयत, चलना सभीके साथ है।
अनुभव सभीका हो तुम्हें जो जहर क्या अमृत क्या? ।
ठग लोक लूटे ना तुम्हें, समझो बचो, करतूत क्या? ।।
९८७
अति चपल हों, सब काम में,आलस्य तो होना नहीं।
सेवा हि करने को सदा, दौडो न यह भूलो कहीं।।
सबके हि घरमें प्रेम से, जाते रहो, आते रहो।
इस जिंदगी को खुशमिजाजी से हि बहलाते रहो ।।
९८८
हिंमत न हारो आपनी, या साथियों की भी कहीं।
गम से चलो, भ्रम से ढलो, सहकार कर जाओ सही ।।
डरना नहीं उनसे कभी, जो झूठ है यदि सेठ हैं।
सच्चा हि हरदम ख्याल हो, आगे करो नहिं पेट हैं।।
९८९
रोटी तुम्हें तो चाहिए, पर मान से ही खाइए।
अपमान का धन भी मिला, कहिं तो उसे ठुकराइए ।।
उन सज्जनों से नम्र रहना ही हमारा धर्म है।
गुंडे अगर छाती चढें, तो शेर बनना कर्म है।।
९९०
विश्राम मत सोचो कभी, यह तो लड़ाई है खडी।
जब देह खुद थक जायगा, तब नींद आवेगी बडी।
कर्तव्य हरदम आतमा को, शुद्ध रखता झुंझसे ।
आलस्य से सोना बड़ा ही, दोष मानो तुम उसे ।।
९९१
उत्तेजना से काम की, गर्मी न हो मस्तिष्क में।
ठंडे रखो अपने जिसम, खंबीर होकर रिस्क में।
तुमको निराशा काम की, आवे नहीं मन में कभी ।
छोटे रहे, मोटे रहे, अपने हि हो जावे सभी ।।
९९२
मनको औ तन को भी हमेशा,व्यस्त रखना काम में ।
खाली तरंगे काम नहिं देती जिवन के धाम में ।।
शैतान ही आता वहाँ, जहाँ ढील पाती इंद्रियाँ ।
कस के रखो पट्टा विचारों का, शिथिल होगा जहाँ ।।
९९३
करते रहो शुभ कामना, फल ना मिले रोना नहीं।
लपटे रहो कर्तव्य से, बिलकूल घबड़ाना नहीं।
नहिं लाज हो किसि काम की, झाडू अगर लेना पडे।
मौका मिले जब गुण दिखाना, तब कहीं होंगे बडे ।।
९९४
तारीफ किसिकी व्यर्थ करना, आदमी गिरना हि है।
जरुरत से बोलोगे वहाँ तो गैर फिर होना हि है।
किसकी भी जिम्मेदारियाँ, तकलीफ देती आखरी ।
हो शक्ति अपने में पुरी, तब सफल होती मैतरी ।।
९९५
मन के नहीं कभु दास हो, धोखा नहीं तो पाओगे।
चंचल से संगत भी करो, तब बीच में घबड़ाओगे।।
अपने विचारों के हि बल पर, पैर रखना चाहिए।
सत्संगती ले झूठ-सच का , ग्यान सिखना चाहिये ।।
९९६
सुन तो रहे हो बात मेरी, काम में भी लाइए ।
नहिं तो वृथा ही वक्त मेरा, क्यों यहाँ गमवाइए? ।।
हर पल हमारा और तुम्हारा, कीमती है जानिए ।
आयू खतम हो खेल में, तब क्या कहीं से लानि है? ।।
धर्मस्थानों का सदुपयोग करो!
९९७
मंदीर तो बाँधा पडा, पर लोग ही आते नहीं।
क्यों लोग आवें प्रार्थना? जब कुछ वहाँ पाते नहीं।
यों ही तमाशा देखते, कुछ तो वहाँ समझाइए।
कीर्तन-भजन और भाषणों की, ढेर ही लगवाइए।।
९९८
हर बात में हो पूर्वजों की, साक्ष ग्रंथों, संत की।
तब ही बनेगी बात अपने, भेख की और पंथ की।।
खाली हमी कहते सुनो, तब लोग ऊँचे चाहिए।
वह खुद तुम्हारी बात पर, माने वही बतलाइए।।
९९९
दुनिया है पूरी स्कूल, यहाँ पर भिन्न होते वर्ग हैं।
उनके विषय भी भिन्न हैं, अधिकार सर्ग-विसर्ग हैं।।
जिसको है बतलाना तुम्हें, उनकी समझ लो योग्यता ।
खेती के बैठे आदमी, वहाँ क्या कहोगे संहिता? ॥
१०००
अब खैर! बूढे हो गये, अब तो हटाओ भोग को।
तो जवानी की स्मृती में, मस्त रखते रोग को ।।
सब बल गया और ढल गया, इन्द्रीयगण मुरदा बना।
यमराज आया द्वार पर, फिर भी न छूटी वासना ॥
मीठा जहर
१००१
अपनी स्तुती अपने हि मुख पर, बोलनेवाले मिले।
तब जान लेना यह इन्हें, कुछ लाभ होना है भले॥
तारीफ के पीछे कभी, षडयंत्र भी रहता खडा।
सुनना नहीं वह बात, बोलो-मैं नहीं इतना बडा।
१००२
अति झुक के जिसको बोलने की,आदतें होती बडी।
निंदक हि पूरा जानिए, विश्वास नहिं करना घडी!।।
सीधा सरल आदर भरा, वह नैन से शुभ मानिए।
मिच-मिच के आँखे बोलता,वह कुटिल मानव जानिये।।
ऊँचे उठो ! स्वानंद पा लो !
.
१००३
सच्चे रहो तुम रत्न हो, अनमोल गुण के पुत्र हो ।
सब कुछ तुम्ही में है भरा, तप-तेज के भी छत्र हो ।।
नीचा करो नहिं आत्म को, रखना नहीं दुर्भावना।
ऊँच ही सोचो और बोलो, ऊँच की ही कल्पना ।।
१००४
एकान्त तुम हो चाहते, पर तुम तो साथी ले बसे ।
आशा और तुष्णा कल्पना के, जाल में रहते फँसे ।।
छोडो जरा तो साथियों को, जब तुम्ही रह जाओगे ।
तब तो मिलेगा सद्गुरु, फिर पूछना नहिं पाओगे।।
१००५
ईश्वर तुम्हारे पास क्या, बल्के तुम्ही में व्याप्त है।
तुम जीव बनकर अज्ञ से, हो विषय में संतृप्त है।।
ऊँचा उठाओ आपको, पहिचान कर लो आत्म की।
मैं कौन हूँ?अक्षर या क्षर? यह राह लो अध्यात्म की।।
१००६
प्रभू चाहता मुस्कान अरु, आनंद-प्रियता आपकी।
क्यों दुःख में हो इंद्रियों के? वह नदी है साँप की।।
कितना भि पालोगे उसे, वह विषय विष ही छोडता।
ऊँचे उठो सब छोडकर, जाओ जहाँ स्वानंदता।।
१००७
आनंद उसको पायगा, जो अंतरंग को ढूंढता।
सब इंद्रियों के पाश को, सत्ग्यान से ही मूंडता ।
संतोष अपने आप में, कैसा कहाँ किस से मिले? ।
इस बात पर जो डट गया, आनंद फिर फूले फले॥
१००८
क्यों संग में जाते हो उनके, जो सदा दुखदायि है? ।
मरने तलक आराम का घर, हैं कहाँ बतलाइये?॥
विषयों को भोगा जिसने उसको पूछिए कहाँ शांति है? ।
इंद्रीय मुरदा हो गये, पर नहिं गयी स्मृति-भ्रांति है।।
१००९
मानव-जनम हीरा मिला,पर चीज तुमने क्या किया? ।
पशु की तरह इंद्रीय-भोगों में, उसे बहका दिया।।
उसको अगर तुम संतसंगत में, लिजाकर बाँधते ।
तब पूर्ण होते स्वात्म-सुख से, दुःख ही ना बाधते ।।
भारतीय संस्कृति के विविध रुप
१०१०
इस संस्कृति के पथ-प्रदर्शक, अब नहीं दिखते यहाँ।
जिस संस्कृती ने विश्व में,अध्यात्म को फैला दिया।।
सब एक है मानव, जहाँ तक-चंद्र है और सूर्य है।
यह ज्ञान जिससे मिल चुका,मिलना अभी अनिवार्य है।।
१०११
फिर जागती सोती भी है, आदत हि उसको है लगी।
आनंद उसका है यही, कभि रात दिन बन जायगी।
इतिहास के पन्ने पढे तब, लक्ष्य आता सामने।
वहि राम भी और कृष्ण भी, सब देवता वह ही बने ।।
१०१२
मालुम नहीं अब क्या बनेगी, बम तथा रॉकेट है?।
यह भारती सब रुप लेती, रेल, मोटर, जेट है?||
था एक दिन इसका यहाँ, हिंसा नहीं होना कहे।
पर वक्त वह अब आगया, संहार का ही हुक्म है।।
१०१३
इस संस्कृती ने वीर भी और संत भी बनवा दिये ।
अवतार भी इसमें हुए हैं, तत्वज्ञानी भी किये ।
विज्ञान की चोटी पे भी,जब शस्त्र-अस्त्रादिक किये।
तब आज अंतर्गत हमारे, कलह भी मचवा दिये ।।
१०१४
इस संस्कृती में श्रेष्ठ, संस्कृत ग्रंथ अपरंपार है।
साहित्य सब विज्ञान का, अध्यात्म का आधार है।।
सब मंत्र तंत्रादिक महा, यंत्रादि वेदान्तादि है।
सारे जगत का गुरु बने, वह जटिल कुटिल विवाद है ।।
१०१५
इस संस्कृती सम त्याग की,दीक्षा कहीं मिलती नहीं।
भोगादि राज्यादिक सभीका, मोह भी नहिं था कहीं।।
कई बार जिता युद्ध और,फिर माफ भी उसको किया ।
अपने हि हाथों सर कटाकर, धर्म के स्वाधिन दिया ।।
१०१६
स्वाधीन भारत-संस्कृती, यह पूर्वजों की देन है।
आलस्य होता जब कभी, वीरत्व होता क्षीण है।।
फिर जागती ज्योती बने, दिव्यत्व अपना खोलती।
वैभव-शिखर पर डोलती, सब विश्व पूजे भारती ।।
१०१७
एकेक वीरों ने यहाँ, अपना करिश्मा दे दिया।
तलवार-बुद्धि-शक्ति से, स्वातंत्र्य अपना ले लिया ।।
जब शस्त्रहिन था देश तब, बलिदान से जीता उन्हें ।
शान्ती-अहिंसा-सत्य का, बाणा लिया बीता उन्हें ।।
१०१८
फिर जागती है भारती, ऊठी न पीछे जायगी।
आपस का बूरा कूडा-कचरा, आग से हटवायगी ।।
घुसखोर जातीवादी सब, मिटने को आये आखरी ।
मानव बनेगा एक अब, बजती है देखो बाँसुरी ॥
१०१९
भूखे मरेंगे फिर भी अपनी, जिद्द ना हम छोडते ।
दुषमन से नाता जोडते, धोखा दिखे तब मोडते ।।
जब चेतता है भारती, हिंदुत्व तत्वज्ञान से ।
विज्ञान लेता हाथ में, लडता है अपनी जान से ।।।
जाति-द्वेष क्यों ?
१०२०
हर आदमी अपनेहि प्रिय गुण शक्ति से संपन्न हो ।
संचार हो उसका उन्ही में, भेष भूषा भिन्न हो ।।
मतलब इसीका यह नहीं, कि खान पान हि ना करे ।
प्रायः यही देखा गया, कहीं पास ना बैठा करे ।।
१०२१
यह ऊँच-निच का द्वेष जिसने, आज कल फैला दिया।
इस भारती युग का उसीने, अंत ही करवा दिया ।।
ना जाति होती नीच है, है नीच होते कर्म ही ।
सत्कर्म किसिमें भी रहे, है पात्र आदर का वही ।।
१०२२
धंधा जरुरत का सभी, चाहे करे कोई यहाँ।
झाडू लगावे, मैल धोवे, या सिलावे जूतियाँ ।।
खेती करे, नौकर बने, उद्योग हो, व्यापार हो ।
वेदाध्ययन, शिक्षादि हो, या वीर रणझुंजार हो ।।
१०२३
संबंध सबका एक है, इस संस्कृती से देश में ।
निर्मल सभीके हृदय हों, कोई न पहुँचे द्वेष में ।।
पर जो कहे अपना भला, और दूसरों का हो बुरा ।
मैं मानता, उस व्यक्ति से, यह देश बिगड़ा है पुरा ।।
१०२४
एक बात सच्ची है यहाँ, कुल को नहीं तोडा कभी।
इतिहास अपने पूर्वजों का, याद देता यों सभी ।।
यदि उस मुताबिक कर्म कोई, आज करता है नहीं।
चाहे उसे तुम भ्रष्ट कह दो, दोष तो कुल का नहीं।।
१०२५
वह शूर-घर में जन्म पाया, कुछ तो उसके पुण्य है।
ब्राह्मण-कुलों में जन्म लेना, यह नहीं अवगुण्य है।।
गर वह नहीं करता पुरातन पूर्वजों के कर्म है।
तब दोष उसका है सही, पर निकट उसके धर्म है।।
१०२६
यहाँ व्यक्ति के गुण-कर्म ही, जाती बनेगी अंत में।
टाला टला नहिं जायगा, विश्वास हो भगवंत में।।
उसका भी कुल बन जायगा, उसके पिछे जो कर्म हो।
उसी जाती का जन बोलते, जो पूर्वजों का वर्म हो ।।
१०२७
मुझको यही प्रिय बात है, कुल धर्म से सब ही चलें।
वहि कर्म अपने भी करें, जो पूर्वजों से ही पले ।।
इसमें न माने हीनता, सबका यहाँ आदर हि हो।
हो हाथ, पग या सिर कोई, सबका सदा सहकार्य हो ।।
राष्ट्रीय नवनिर्माण का मार्ग
१०२८
क्यों व्यर्थ शक्ति गमा रहे, इस आपसी मतभेद में? ।
धन जा रहा, आयू चली, लगता न कुछ भी हाथ में ।
अजि तुम बडे या हम बडे, इसका फजुल अभिमान क्या? ।
कुछ कर दिखाओ लोक-सेवा,फिर न हो निर्माण क्या? ।।
१०२९
पर्याप्त है भूमी, नदी-तालाब से भी काम लो ।
गैया न मारो, बैल पालो, दूध, खाद औ चाम लो ।।
बिन कष्ट के खाना नहीं, ऐ भारतीयों! सीख लो ।
यदि जान जावे तो सही, परदेश से ना भीख लो ।।
१०३०
गैया है धन समझो जरा, उससे करो कल्याण है।
कुछ मुफ्त जाता ही नहीं, मलमूत्र सब तो दान है ।।
जीवित तो देती दूध-बछिया, मौत में चमडी मिले ।
उपकारि जीवों को भी पापी, मारकर खाने चले ।।
१०३१
खेती बिना चारा नहीं, इस देश को वरदान है।
ऐ समझदारों! कष्ट कर, खेती में डालो जान है ।।
दे दो किसानों को मदद, जितनी लगे जो भी लगे ।
सुंदर सजाओ नाज-फल, तब लक्ष्मी घर आने लगे ।।
१०३२
परदेश का जब अन्न खाओ, आलसी होके रहो ।
मरना उसीसे क्या बुरा? अपमान से जी के रहो ।।
जब कष्ट करके पैर पर, अपने नहीं रह पाओगे ।
तब तो गुलामी घर में लाने को हि क्या शरमाओगे? ॥
१०३३
भर पेट नहिं खाना मिले, घर भी नहीं रहने मिले।
कपडा नहीं है बदन पे,अवसर नहीं कुछ सीख ले।।
बच्चे हि पैदा हो रहे, संयम नहीं ना अक्ल है।
कैसे जियेगा देश भारत? सब गमाया तोल है।।
१०३४
आलस्य को छोडो, खडे हो, आत्म-शक्ती साथ लो।
अपनी परायी अक्ल को, हशियार होके हाथ लो ।
उद्योग करना है तुम्हें, इस देश की गरिबी हटे ।
घर-घर में जागे धर्म, खेती, तब गुलामी जा मिटे ।।
१०३५
गप्पें ही खाली मारकर, नेतागिरी करते रहो।
चूसो गरीबों के हि धन, इस पेट को भरते रहो।।
कुछ ना करो और ना कराओगे, यहाँ निर्माण है।
तब याद रखना, अब उतारी जायगी सब शान है ॥
संघटना और सावधानी
१०३६
बस हद है इस कलह की! नहिं सभ्यता बाकी रहे।
सत्ताधिकारी देश के, लडते हैं कुर्सी के लिए।
धन को गमाकर मान पाने, वोट खुद को माँगते ।
क्या देश का होगा भला? सज्जन नहीं यह जानते ।।
१०३७
हे यार! छोडो पक्षबाजी, देशवासी एक हों।
शत्रू खडा है द्वार पर, अपने लिए तो नेक हों ।।
वह तो गनीमी चाल से, है मारने को आ रहा ।
तुम होश में हो या नहीं? फिर क्यों तमाशा हो रहा? ॥
१०३८
दुर्जन कभी किसी काल में, अमृत बरसाता नहीं।
हो दूध पीया साँप, मुंह से जहर छुडवाता नहीं।।
फिर वीर कैसे वीरता से, एक पल हट जायगा? ।
मर जायगा, पर अंत अपने सत्य को नहिं खोयगा।।
१०३९
हम सब परस्पर मिलके बोले, कार्य भी मिलके करे ।
जो सोचना हो मिलके सोचें, सबके मन एकी धरे॥
अधिकार के फल सब ही लें,और धर्म को सन्मान दें।
कलजूग में तारक यही, इस बात पर सब ध्यान दे॥
१०४०
कुछ गुप्त विषयों की सभा,मिलकर ही करनी चाहिए।
फूटे न तुमसे कोई भी, ऐसे ही जन भर पाइए ।
सब संघटन में लोग का, कल्याण ही है सोचना।
निज धर्म की निंदा न हो, ऐसी कराओ भावना ।।
१०४१
उपदेश ऋषियों का यही, व्यसनी न हो अपना कोई।
सत के लिये हम मर मिटें, सब एक हों, ना हो दुई।।
कोई हमारी गुप्त बातें, शत्रु ना सुन पा सके।
फल एक भी बिगडे कहीं,अच्छे भी फल बिगडा सके।।
१०४२
बस संघ को ही शरण जाओ, संघटन ही हो बना।
सद्बुद्धि से ही काम लो, झूठी करो नहिं कल्पना ।।
मानव-भलाई के लिए,सब शक्ति अपनी साथ लो।
अन्याय को करना नहीं, अन्यायि को मत हाथ लो ।।
१०४३
कई बार तुमसे कह दिया, न छुपो परस्पर तुम कहीं।
सब बात अपनी बोल दो, अच्छी-बुरी भी हो कोई ।।
मिलके करो सल्लाह, हमको मार्ग ऐसा चाहिए।
धोखा न हो शत वर्ष भी, ऐसे हि साधन पाइए।।
१०४४
बूरी निगा वाले कभी, हम में अगर घुस जायेंगे
सीधे सरल इस संघटन को, फाडकर ही खायेंगे।
कपटी नमक सम, दूध जैसे निर्मलो को नासते ।
हुशियार रहना सब कहीं, शत्रू न हो इस वासते ॥
१०४५
हुशियार गर अपनी ही, सत्ताके लिए घुस जायगा।
हुशियार ना वह कुटिल कपटी,सबको ही घुलवायगा ।।
हम एक हों सीधे सरल, भगवान के सत्पुत्र हो।
मर जायें पर ना सत्य छोडें, शस्त्र हो बिन शस्त्र हो ।।
१०४६
छल-बल कभी करना नहीं,गज के समान हि पग घरो।
दुर्जन बड़ा ही वृक्ष हो, बस नाश ही उसका करो।।
काँटे हों उसके अंग में, बचके ही धरना है उसे ।
डरना नहीं भय से कभी, प्रभूपुत्र हो तुम सिंह से।।
१०४७
संकल्य सबके एक हों, काया वचन-मन से सदा ।
तब देवता भी कर सकेंगे, दौडकर ही साह्यता ।।
तुम आपसी में फूट करके, तट कहीं गिरवाओगे।
तब याद रखना बीच में, शैतान ही भर पाओगे ॥
हिन्दुत्व की राज्यध्वजा
१०४८
आनंदघन, आनंदवन जो विघ्ननाशक है सदा।
सब विश्वका कल्याणकर्ता, दुःखहर्ता सर्वदा।।
उसका स्मरण करते है हम, वह बुद्धि को सन्मार्ग दें।
दे प्रेरणा, कर स्फूर्त हमको, सज्जनों का वर्ग दें।।
१०४९
पापी न हों, दुर्जन न हों, व्यसनी न हों, ना गुंड हों।
हम नम्र हों, शत उम्र हों, औ एकता के झुंड हों ।।
फूटे नहीं हमसे कोई, हम बीर हों, बजरंग हों।
सेवा करें हिंदूत्व की, हम देवता के संग हों ।।
१०५०
हिंदुत्व नहिं है वेशभूषा, रंग हैं ना जात है।
ना पक्ष है, ना भक्ष्य है, ना और कोई बात है।।
जो स्वप्रकाशी सत्य है, वहि नित्य है, निज तत्व है।
जिस पर खडा यह विश्व है, सच्चा वही हिंदुत्व है ।।
१०५६
जिसमें भरे, दुर्गुण बडे, वहि दुष्ट दानव जन कहे।
सद्गुण किसीमें अधिक हों, वह संत-मानव देव है।।
ऐसा नहीं कोई मिले, जिसमें सभी कुछ शुद्ध है।
गर शुद्ध ही पूरा रहे, वह जन्म से नहिं बद्ध है।।
१०५७
मैं मान से, अधिकार से, अब तो बडा ही दूर हूँ।
आशा नहीं इस बात की, मैं तो पका पत्ता कहूँ ।।
कब टूटकर गिर जायगा, उसमें नहीं अब मोह है।
वैसा मेरा मन मस्त है, सेवा हि अब संभव रहे ।।
१०५८
मीठी तो शक्कर ही लगे, पर गुण उसी में हैं बुरे ।
कडवा भी लगता नींब पर, अच्छे हि गुण उसमें भरे।।
संसार सुख-सा भासता, पर यह दुखों का कुंड है।
सुधरो सिखो प्रभु-ग्यान तो,मिल जाय सौख्य अखंड है।।
१०५९
मुझसे करो नहिं याचना, मैं कुछ नहीं देता किसे।
कहते हो तुम मिलता यहीं, वह पूछ लो गुरुदेव से ।।
सच बोलता हूँ, मैं नहीं, किसि सिद्धि के आधार हूँ।
सिद्धी नरकगामी करे, क्यों चार दिन बाँधा रहूँ? ।।
आदरणीय कौन?
१०६०
जब दुष्ट व्यसनी का हि आदर, भर सभा में होयगा ।
तब तो सभीका दिल भि वैसी, दुष्टता पर जायगा।।
इस ही लिए मैं कह रहा, आदर्श रखना सामने ।
ऊँची जगह पर हो कोई, दर्शन से मन सुंदर बने ।।
१०६१
गोली तो होती है वही, पर भिन्न शक्ती से चले ।
कुछ हात से, कुछ तीर से, बंदूक से भी वेग ले ॥
जैसी हो ताकत साधनों की, जोर से आगे चले।
वैसी ही वाणी व्यक्ति की, तप-त्याग से फूले फले ।।
१०६२
होता प्रभाव व व्यक्ति का, बल्के पडे चारित्र्य का ।
विद्वान पूजा जायगा, कोई भि देश-विदेश का ।।
जिसकी तपस्या मानवों की, पूर्ण सेवा में लगे ।
उसके लिये भगवान भी, मंदीर में रहते जगे ।।
१०६३
जिसका बना संस्कार है, संसार भी वैसा रहे ।
जिसने दिया हो दान, वह ही भोगता सुख प्यार है ।।
इसमें नहीं शंका हमें, जब दूसरों से प्रेम हो ।
वह भी तुम्हारे प्रेम से, करता तुम्हीं पर प्रेम हो! ।।
१०६४
धोखा नहीं देना किसीको, तुम भी धोखा खाओगे ।
जब दूसरे को सुख दिया, तब खुद सुखी बन जाओगे ।।
सबके लिए आदर रखो, तब तुम भी आदरणीय हो ।
सबसे करोगे मित्रता, तब तुम भी सबके प्रीय हो ।।
ब्रह्मानंद की मंजिल
१०६५
अजि! मैं करूँ तारीफ क्या? मुझको पता पाता नहीं ।
पर दिल तडफता है सदा, पल भी रहा जाता नहीं ।।
तू सत्य है और नित्य है, सत्चित् मिला आनंद है।
आनंद विषयोंसे भी मिलता, तू तो ब्रह्मानंद है ।।
१०६६
संकल्प सारे छोड दो, वृत्ति बहिर्मुख मोड़ दो ।
कुछ भी नहीं प्रवृति हो, निवृत्ति सुध भी छोड़ दो।।
सब लक्ष्यको भी आत्म समरस करो और शून्य हो।
फिर भी रहो जीओ जगत में, धन्य हो तुम धन्य हो।।
१०६७
प्रभु। कौन गिनती कर सके, तेरे जगत् ब्रह्मांड की?।
कितना है तू, किसमें है तू, यह याद पिंड न खंड की।।
इतनाहि कह सकते मुनी, तू सबमें है, सबसे परे।
उसमें हि घट उसमें हि मठ, आकाश नहिं जीये मरे ।।
१०६८
अजि! खूब बाची पोथियाँ, सत्संग भी सारा किया।
मंदीर-तीरथ में गया, और साधना भी कर लिया।।
मुझको पता पाया यही, अच्छे रहो, सच्चे रहो।
मिलके रहो, आनंद लो, इसमें हि ब्रह्मानंद लो ।।
१०६९
गाडी खडी आकर किनारे, अब न मंजिल दूर है।
आये हैं जब यहाँ तक तो हम, लौटेंगे क्यों मजबूर है ? ।।
अब तो हजुर के दर्श लेकर ही बनेंगे निहाल है।
रुकते नहीं कोई रोक दें, आडा पडे यदि काल है।।
धर्म की विजयध्वजा
१०७०
देखा अभी का हाल हमने, हाल नहिं बेहाल है? |
गुंडे निहाल हुए यहाँ, सज्जन को तो दुष्काल है ।।
जो कोई करता है मुजोरी, वह हि नेता होयगा ।
यदि धर्म-राज्य न आयगा, तब सब फना हो जायगा ।।
१०७१
हम धर्म नहिं कहते, बिना कर्तव्य के होगा कोई।
कर्तव्य व्यष्टी और समष्टी का, धरम तो है वही ।।
कर्तव्य-हिनता और आलस, पाप इसको जानिए।
उठो चलो, जागृत रहो, रख लो सदा यह बानी है।।
१०७२
जो जो भि निकले दिन, हमारी शान होगी सत्य है।
उल्हास होगा सत्करम की धारणा का नित्य है ।।
आरोग्य उन्नत है सदा, सेवादि करने के लिए।
आत्मा प्रबल है, स्फूर्ति निर्मल, मोक्ष पाने के लिए।।
१०७३
गर मर मिटो, पर कर नहीं सकते, धरम का नाश तुम ।
वह बीज है भगवान का, जाने हुए है खूब हम ॥
पत्ता झडेगा वृक्ष का, यह नाश ना समझे कोई।
वैसी शितलता धर्म की, पनपे बिना रहती नहीं ।।
१०७४
हनुमान जिनके ध्वज पे है,उनको तो बल की क्या कमी? ।
लक्ष्मी ही जिनकी दास है, उनको धनों की क्या कमी? ।।
हाथों में जिनके है सुदर्शन, उनको होना फौज क्यों? ।
है नित्य ही आनंद जब, तब दूसरों से मौज क्यों? ।।
१०७५
निर्भय उन्हींका कार्य है, जो सत्य पर रहते डटे ।
उनकी विजय ही होयगी, आवाज उनकी ही उठे ।।
है सत्य और निर्भय कोई, ऊँचे वही कहलावेंगे।
यदि मर गये सच काम से, तो पुण्य फल ही पावेंगे ।।
भक्तसाधू तथा स्वार्थसाधू
१०७६
शुभ कामना सबके लिए, करता वही निष्काम है।
व्यक्तित्व से निबडा उसीका, ख्याल रखता राम है।।
अपने लिए सुख-भोग चाहे, वह बड़ा आसक्त है।
जो विश्व को सुख चाहता, वहही प्रभू का भक्त है।।
१०७७
खुद जो न कुछ है चाहता, उसको सभी कुछ चाहते।
जो चाहता धन-मान उससे चोर लूट उगाहते ।।
हम इसलिए ही साधुओं से, नम्र रहते हैं सदा।
वह तो हमारे ही लिए, दिन-रात भोगे आपदा।।
१०७८
छूपो नहीं तुम साधु बनके, डाकू औ बेकार हो ।
चेहरा तुम्हारा बोलता, यदि तुम कहो या ना कहो।।
कौआ कहाँ तक हंस बनके, वर्ष काटेगा यहाँ? |
चूना लगा झड़ जायगा, तब मार खाता है महा।।
१०७९
झट से न कोई बात बोलो, सोच लो पहिले जरा।
गोली निकल जाती तो लगता दाग ही तन को पुरा ।।
तलवार लगने से कभी, संभव रहे अच्छाभि हो।
कटु शब्द का जो मार सुधरेगा नहीं, सबसे कहो।।
१०८०
घर की तुम्हारी गंदगी, मन में असर कर जायगी।
तुम भी बनोगे बेतमिज, इज्जत सभी ढल जायगी।।
इसही लिए कहता हूँ मैं, घर भी और मन भी ठीक हो।
सच्चे रहो, अच्छे रहो, तब तो सदा निःशंक हो।।
१०८१
कितना खवाते यार ! कुछ तो, पेट खाली है नहीं।
जिनको खवाना है जरुरी, उनको ना टुकडा कहीं।
क्या अजब है यह चाल ही!किन लोगों ने डाली यहाँ?
मुझको पता तो लग गया, वे स्वार्थी हाते हैं महा।।
प्रवृत्ति और निवृत्ति
१०८२
प्रवृत्ति सब निवृत्त हो, वह ही सही निवृत्ति है।
घडि पल बने प्रवृत्ति औ निवृत्ति, वह अतृप्ति है।।
विषयांध यदि इंद्रियरहित, होगा तभी आसक्त है।
आसक्ति जब पूरी छुटे, तब ग्यानि होता मुक्त है।।
१०८३
प्रवृत्ति तो सत् चाहिए, जब तक शरीर में जान है।
जब नष्ट हो प्रवृत्ति ही, फिर तो रहा निर्वाण है।।
झूठी प्रवृत्ती नष्ट करना ही, सुजन का कार्य है।
सच ग्यान, सेवा, भक्ति यह, प्रवृत्ति तो अनिवार्य है।।
१०८४
प्रवृत्ति ऐसी ना उठे, जो दूसरे को कष्ट दे।
वह धृष्टता कहलायगी, जिसको वरद ना इष्ट दे।।
जिसके पिछे-आगे सदा ही, सिद्धियाँ रहती खडी।
वह भी न चाहे दूसरों का, हो बुरा ही किस घडी।।
१०८५
हो शान्ति का परिणाम जिससे, क्रान्ति वह ही सत्य है।
यह शांति क्रांती तब फले, परिणाम जिसका नित्य है।।
परिणाम में निवृत्ति हो, टूटे न उसका तार है।
जग जीतता है वह पुरुष, वहि संत का अवतार है।।
१०८६
प्रवृत्ति ऐसी बढाइए, निवृत्ति को जो मान्य हो।
नहिं तो प्रवृत्ति बंद हो, और मुक्ति ही सन्मान्य हो ।
प्रवृत्ति का रुकना असंभव, है बिना अभ्यास के।
प्रवृत्ति सत् बढवाइए, तब तो निवृत्ति पा सके।।
भय मानो । निर्भय बनो ।।
१०८७
भय हो उसीका जिससे मानवता बडी बदनाम है।
नहिं शांति अपने आपको, और आयु भी बेकाम है ।।
तो श्रेष्ठ लोगों में करे, अपमानी अपने आपको ।
उससे डरो, हर दम बचो, ऐसे घृणित से पाप को ।।
१०८८
जिस काम की नहिं है प्रतिष्ठा, लोक में पर लोक में।
उस काम को करना नहीं, निर्भय रहो प्रभु-संग में ।।
मानो उसीका भय जिसीसे, असुरसम बन जाओगे।
ले लो अभय-वरदान गुरु से, ग्यान तब अजमाओगे।।
१०८९
निर्भय कोई गर दुष्ट है, अग्यान उसमें है बड़ा।
वह जानता नहिं दुष्ट होना, आत्मघात ही है खड़ा ।।
उसको बचावे कौन? जो करता भयप्रद काम है।
निर्भय प्रभू के नामबिन, किसिको नहीं आराम है ।।
१०९०
कितने भी ऐसे लोग है, जो पाप करके बच गये।
उनको बड़प्पन है मिला, जो दुष्टता ही रच गये ।।
कारण है इसका, भोग उनका और भी बाकी रहा।
जब पाप का हंडा भरे, कोई न छोडेगा कहाँ ।।
१०९१
डरना भला नीच काम से, नीचा नहीं, झुकना पडे ।
बेडर बने जब पाप करते, काल ही सर पे चढे ।।
बचके रहो उस काम से, जो सन्त को नहिं मान्य है।
सीधे रहो, सादे रहो, सच्चे बनो तब धन्य हैं! ।।
विनाश की ओर
१०९२
लिख-लिख के काला हो गया,कागज औ मेरा दिल सभी।
उमटा नहीं किसि भी जगह, अब थक गये संकल्प भी ।।
लगता बिनाही समय हमने, यह तो पागलपन किया।
भगवान की मर्जी चले, तब ही फले सब पे दया ।।
१०९३
बेबूध हो मैं सोचता हूँ, घर मेरा, लडका मेरा ।
मुझको तो होगा हुक्म जब, उड जायगा डेरा मेरा ।।
यह जब तलक है दम में दम, ऐसा कोई तो काम हो ।
वह मर गया पर कर गया, सेवा यही कुछ नाम हो ।।
१०९४
देखा स्मशानों में तभी, सारी पडी थी हड्डियाँ ।
साधू वहाँ का बोलता, तुमभी तो आओगे यहाँ ।।
देखो तुम्हारी शक्ल-सूरत, क्या बनेगी आखरी ।
होगा फना यह तन-बदन, कुछ तो करो प्रभु चाकरी ।।
१०९५
रणराज अब सबको बुलाता, सोच लो, हुशियार हो ।
लडना हि होगा विश्व को,करना बदल सबको कहो।।
तुम बात से और शांति से, बिलकूल सुधरोगे नहीं।
इसके लिये ही बम बने, रॉकेट भी बोले यही॥
१०९६
कितना जगत में पाप होता है, सुना हमने यहाँ।
अब तो धरातल डूबकर, धोखा ही खावेगा महा।।
भगवान! क्या इन्सान को,भेजा है इस ही काम को?
देखो, सुधर जाते न हो? मारो सभीके प्राण को।।
गद्दारों से होशियार
१०९७
ऐ देशभक्तो! देश का, कुछ आखरी तो सोच लो।
अपने तो पहिले दिल मिलाओ, फेर आगे हो चलो।।
तुममें कोई गद्दार हों, पहिले उन्हें फाँसी पे दो।
सोचो नहीं मामा और भांज्या, देश को देखे चलो।।
१०९८
यहि वक्त था गीता सुनाने का, वहाँ भगवान का।
मत मोह कर अपने घराने का, औ अपनी जाति का ।
पहिले धरम और देश की, रक्षा करो ईमान से।
गद्दार होगा जो कोई, झुको न उस बैमान से ।।
१०९९
है भीष्म भी तो क्या हुआ? वह दुष्ट के दल से मिला ।
लडना हि अपना फर्ज है, भगवान देता फैसला॥
क्या आज भी तो है यही, तुमको खबर आती नहीं? |
अपने कहें, पर शत्रु को, अंदर से फुसलाते नहीं?।।
११००
अजि ! दुष्ट करनी से हि होते, और तो सब एक है।
जो देश को धोखा हि दे, तो फिर कहाँ से नेक है? ।।
बैमान पकडा जाय फिर तो, छोडना नहिं जान से |
बिच्छू की पूजा है वही, मारो उसे पदत्राण से।
११०१
दिल में मेरे है आग, अब मैं क्या करूँ कैसे करूँ? ।
अपने हि शत्रू बन गये, मारूँ उन्हें या मैं मरूँ? ।।
जब खबर आती है कि तुममें भी तो कुछ गद्दार हैं।
ऐ देशभक्तों ! नाव डूबे, लग गयी मँझधार है।
११०२
चारों तरफ घेरा तुम्हारे शत्रु ने ही है दिया।
अंदर वही, बाहर वही, क्यों पास उनको ले लिया? ॥
इसके लिए भगवान ने, दी पार्थ को दृष्टी महा।
तुम भी पछानो आत्म बल से, कौन से शत्रू कहाँ ।।
११०३
चुन लो यहाँ पर कौन है, बैमान जो तुममें घुसे ?।
पकडो, करो साबीत और, बचने न देना जान से ।।
उनकी प्रतिष्ठा ही अगर, तुम मोम से बनकर करो।
फिर तो मरो तुम भी यहाँ, और देश भी लेकर मरो ।।
भीषण प्रलय के दुश्चिन्ह
११०४
अब तो बिना ही आदमी, शस्त्रास्त्र चलते जायेंगे।
चाहे हजारों मैल हो, शत्रू पे वार करायेंगे।
संहार ही करना है शिव को,तब तो फिर कहना हि क्या? ।
शैतान भी कर दे खड़ा, मरना नहीं तो ओर क्या ?॥
११०५
जल के बिना कहिं बाढ से, भूकंप से,कहिं आग से ।
बीमारियों से, डाकुओं से, आपसी रणराग से ।।
चाहे किधर से क्यों न हो, शस्त्रास्त्र से, तूफान से ।
जब नाश ही करना है शिव को, पल नहीं लगता उसे॥
११०६
भोगे हुए है हम खुशी, और राज्य अपने धर्म से।
बदला समय अब जान पड़ता है, प्रभू के हुक्म से ।।
या तो हमारा पाप है, या कर्म है छोटे बडे ।
करके हि आया वक्त यह, होनाहि है इसमें खडे ।।
११०७
सर सर चला जाता है सूरज, अब अंधेरा आयगा।
इसका पता सबको हि है, पागल को नहिं लग जायगा।।
वह तो सुरज के सामने, कंदील धर टट्टी करे।
वैसे हमी कुछ हो गये, मालुम नहीं कितने मरें।।
११०८
कोई सुनाता बोल हम से, देख लो तो सामने ।
अंगार कैसी आ रही है, तुम लगे किस काम में? ॥
यह काल का हथियार है, चमचम चमककर आयगा।
कर प्रार्थना भगवान की, तो कुछ समय बच जायगा।।
कर्मयोग का तारतम्य
११०९
मैं कर्मयोगी हूँ, मुझे बेकार से होती घृणा।
संन्यासि हो या हो धनिक, पंडीत हो श्रम के बिना।
सबको हि करना कार्य है, अपने उचित कर्तव्य से।
सुंदर बनाना देश को, भगवान खुश होंगे उसे ।।
१११०
बदलो बदलना चाहिए, जैसी बखत आ जायगी।
आगे हि बढना चाहिए, तब जिंदगी सध जायगी।
पिछली सभी बातें हमेशा, चल नहीं सकती कहीं।
ना हम चलें वैसे अभी, यह समय देता याद ही।।
११११
कर्मठ बनो नहि एकदेशी, मोड पर मुड जाइए।
सत्तत्व किसमें है सही, यहि सोचिए, दिल लाइए।
कभी सोवले में खाइए, कभी खाइएगा रेल पर।
पानी पियें नल का कभी, इसमें नहीं होता है डर॥
१११२
पूजा बिना नहिं खायेंगे, यह तो मुझे भी मान्य है।
पर वक्त वैसी हो नहीं, तब सोच लेना अन्य है।
मानसपुजा मन से बने, उसको वही है मान्यता।
गर युद्ध का ही समय हो, लढनाहि पूजा है स्वतः।।
१११३
सबसे बराबर प्रेम करना, और पूजा है नहीं।
जो समझता इस बात को, सच्चा पुजारी है वही ।।
जब वासना से मुक्त है, संन्यास फिर दूजा कहाँ?।
परस्त्री जिसे माता लगे, माला चढी न चढी वहाँ ।।
सुसंस्कार ही सत्संग है !
१११४
अजि! आदमी की वृत्ति, पूरब बीज से अंकूरती।
धीरे धिरे बढती मती, जब उम्र में है पहुँचती॥
कितना भी उसको साथ दो, संस्कार नहिं जाते कहाँ।
गर चोर है, तब चोरि करने को ही दौडेगा वहाँ ।।
१११५
कहते तो है सत्संगती से, फर्क होता कर्म में।
ऐसे भि मैंने सामने, देखे जनम तक धर्म में ।
फिर भी नहीं सुधरे दिखे, मन में छुपी थी गंदगी।
मुझको बडा आश्चर्य होता, क्या हुआ कर बंदगी? ॥
१११६
कुछ तो नजर आये है ऐसे, घर गृहस्थी साथ है।
पर नेक उनका काम है, संतोष के ही हाथ है।
जितना मिले जैसा मिले, पर झूठ करते हैं नहीं।
मंदीर में जाते नहीं, पर सत्य बिटलाते नहीं।।
भगवान की लीला
१११७
अजि! शेर था वहिं पास, मैं भी सो गया जाकर वहाँ।
मालुम नहीं था, फिर दिखा, मैंने उसे वाहवा कहा ।।
दोनों भि हम अपने भजन में, लीन थे, तल्लीन थे।
मरने को हम तैयार थे, पर बीच में भगवान थे।।
१११८
उसकी बिना आज्ञा, कोई किसिको न मारेगा यहाँ।
ऐसा हि मारेगा कहीं, तब तो प्रभू का क्या रहा? ।।
सबको बराबर न्याय देना ही, प्रभू का धर्म है।
गर मौत ही होगी बदा, तब क्या करेगा कर्म है? ॥
१११९
लाखों दवाईयाँभि दी, पर मौत थी हक की वहाँ।
जाना हि था सब छोडकर, फिर कौन पकडेगा यहाँ? ।।
ऐसे हि सब प्रभु काम हैं, कंकर न खाली है कहाँ।
पत्ता भि तो हिलता नहीं, भगवान बिन, समझो यहाँ ।।
११२०
श्रद्धा हमारी है यही, दुनिया नहीं बिन काम की।
हर पल उसीका है बँधा, हर चीज उसके दाम की॥
ऐसा नहीं होता तो तारे, चंद्र, ग्रह क्यों है खडे? |
चलती हवा और धूप भी, पानी न भूमी में पडे ।।
दुनिया की पाठशाला
११२१
सुंदर कला शिल्पादि जूनी, याद देते हैं सदा ।
खोये हुए भी आदमी का फर्ज करते है अदा ॥
ऐसी भी बातें चाहिए इतिहास रखने के लिए।
जिनको निरख नूतन ये बालक, बीर बनकर ही रहें।।
११२२
जो सीखना हो सीख लो, बाकी भी होगा सीखना।
यह सीखने की पाठशाला, पड सकेगी बंद ना ।।
मुनि ब्रह्म-माया तक यहाँ, अभ्यास में ही है लगे।
जब ब्रह्म ही रह जायगा, तब खेल ही सारा भगे॥
प्रकृति अस्वस्थ पर हम कृतार्थ ?
११२३
मन चाहता है यों करे, पर देह तो चलता नहीं।
जिभली भली चाबे मगर, यह पेट पचवाता नहीं।
कुछ पेट ने भी सह लिया,पर मल निकल आता नहीं।
ऐसी गती होती है जब, आरोग्य बिगडेगा सही।।
११२४
नहिं पैर धर सकते जमीं पर, आसरा ही चाहिए।
नहिं हाथ ऊठे आपसे, कुछ लिखकर ही बतलाइए।।
कुछ बोलना भी हो नहीं सकता, जबानी क्या कहे?।
अब तो यही लगता प्रभू! सेवा को आयेंगे नये॥
११२५
मर जायेंगे तो क्या हुआ? मरना हि तन का हक्क है।
आत्मा नहीं मरती कभी, इसमें न हमको शक्क है।।
इस लोक की यात्रा हमारी, सफलता से हो गयी।
इच्छा-अनिच्छा कुछ नहीं, गुरुदेव की मर्जी रही ।।
११२६
सुनकर सुना जाता नहीं, कहकर कहा जाता नहीं।
दिखता मगर कुछ भी नहीं, यह हाल होता है सही।
निवृत्त वृत्ती हो रही, प्रवृत्ति के गुण धर्म से।
आसक्ति सारी जा रही है, बाह्य सारे कर्म से।
११२७
दिखता नहीं है पास का, अब दूरदृष्टी हो गयी।
अपना गया घर-कुल सभी, है धर्म ही और देश ही।
उसका भला, अपना भला,यह दिल में लगता है सदा ।
आसक्ति सारी जा भगी, सुख-दुःख दोनों ले बिदा ।।
११२८
मेरे चरण और हाथ, सिर, सब हृदय पर ही जम गये।
बनता नहीं इस देह से, पर ब्रीद साथी हो गये ।।
किसका बुरा हमने किया, ऐसा हमें लगता नहीं।
जितनी बनी प्रभु-याद में, सारी उमर सेवा रही।।
११२९
बस हाथ धोये कर्म से, इससे कहो, उससे कहो।
अब एक ही दिल बोलता, भगवान से ही सब कहो।।
उसका हि सारा खेल है, इसका पता अब लग गया।
सोया हुआ जब यह जिवात्मा, ग्यान लेकर जग गया।।
११३०
कर्मेद्रियाँ ज्ञानेंद्रियाँ होती है बलवत् जीव पर।
बाँधा पड़ा रहता सदा, भोगादि ही सुख मानकर।
उसको नहीं लगता पता, जो आत्म ही सर्वत्र है।
अनुभव नहीं जब तक मिले, तब तक सभी परतंत्र हैं।।
११३१
पहिले हि था बंदर, उसीके हाथ में कोलित दिया।
फिर देखना क्या आग का?यह जल गया,वह जल गया ।।
उसमें भि उसको भंग दी, मदिरा पिया आया नशा।
सबका हि करता नाश है, वैसी हि मन की है दशा ।।
११३२
हर चीज अटकाती हमें, सहकार्य जब तक ना मिले।
यह दशदिशा बंधन बने, मन-बुद्धि में रहते भुले ।।
सबको हि खुश करना बड़ा ही कष्ट है, यह स्पष्ट है।
गुरु की कृपा हो तो सभी, जा भागते संकष्ट हैं।।
११३३
मैं खेलता अपने नशे में, जो मुझे है सूझता।
अपनेहि बल पर आजतक, पायी सभी की मित्रता ।।
मैं जानता हूँ शक्ति है, गुरुदेव की आगे-पिछे ।
धोखा न खाया आज तक, विश्वास नहिं डाले निचे ।।
सन्त और चमत्कार
११३४
कई लोग बतलाते सदा, धन-पुत्र देता संत है।
देता बभूती हाथ में, चेला बने श्रीमंत है।
सबही दिया तो क्या हुआ? यह तो अघोरी भी करे।
आनंदपद परमात्म-सुख, पावे वही तो उद्धरे ।
११३५
झटका दिया जब हाथ को, पेढा-मिठाई ला दिया।
खाली ही उंगली को घसा, अत्तर सुगंधी पा लिया ।।
जेवर निकाले मूठ से, और साँप डाले गाँठ से।
यह जादूगर भी कर सके, क्या संत कहना है उसे?।।
११३६
बोले वही होता है फिर, दारिद्रय क्यों है पास में?।
भंडार खोले मुक्त हाथों, धन लुटावे, रास में।।
तकदीर से मिलता यह कहना, संत की शोभा नहीं।
गंगा बहे जब मस्ति में, पानी पिओ चाहे कोई॥
११३७
अजि! दीप पर जैसे पतंगा, जान देता दौडकर।
वैसे प्रभु-प्रेमी प्रभू पर, मस्त है कुर्बानि कर।।
नहिं एक पलभी जी सके, भक्ती बिना, सेवा बिना।
वहि धन्य है मानव जिवन में! कार्य सब उसका बना।।
ईश्वरी दान का स्वरूप
११३८
अपनाहि लिखते बाचते, अपनी खुशी में नाचते।
दुनिया हमारी है यही, नाता नहीं हम जाँचते ।।
दिखता वही भगवान है, बस प्रेम है पूजा मेरी।
सेवा है मन की चिंतना, शुभ कामना होती पुरी॥
११३९
हँसते रहो सुख दुःख में, संग्राम, संकट काल में।
सब यह लिला है नाथ की, छायी हुई कलिकाल में।।
आसक्त मत होना कहीं, कहना सभी कुछ ठीक है।
गर मौत भी आगे खडी, मांगो न उससे भीख है।।
११४०
तुम फूल हो उस बाग के, जिससे सभी दुनिया भरी।
हर किस्म है इस बाग में, मुरझे कोई है तरतरी।।
किसि फूल की ऊँची सुगंधी, फैलती अस्मान तक।
चाहता उसे ईश्वर सदा, गोदी में रखता जान तक।।
११४१
ईश्वर सभीको देखता , पर कर्म - कागज हाथ है ।
जिसका किया उसको दिया ,ऐसी प्रभू की बात है ।
बनिया है वह बिन तोल के,नहिं मोल करता बात से।
नेकी का बदला नेक दे, नहिं लूटता खैरात से।।
संसार का द्वंद्वयुध्द
११४२
सुर और असुर का खेल है, संसार में जो चल रहा।
वैसे हि अंतरद्वंद्व है, मन के विकारों का महा।।
जब देवता का साथ होता, शांति पाता आदमी।
शैतान कामादिक घुसे, तब ग्यान की पडती कमी।।
११४३
मेरे विचारों से, विकारों से मचा यह युध्द है।
एक चाहता भोगो मजा, एक बोलता, रह शुद्ध है।।
जादा हो जिसका बल वही, तनु इंद्रियो से जूझता।
प्रति क्षण यही चलता, न होती स्थिर कभी बुद्धिमता।।
११४४
संसार का जादू भरेगा, जिस किसीके नैन में।
सोने नहीं देगा उसे, ना रख सकेगा चैन में।
स्वारथ बडा शैतान है, छाती पे होता स्वार है।
खाता चिता तक ही पुरा, करता है दिल बेजार है।।
११४५
खेती पकेगी क्यों भला? पानी नहीं ना खाद है।
भक्ती फलेगी ही नहीं, जब भोग का आस्वाद है।
वैसे ही सद्गुरु-ग्यान बिन, जीवन सफल होगा नहीं।
चाहे पढो कुछ शास्त्र भी, भ्रम दूर जावेगा नहीं।
११४६
अब तो न सोचो, ऊठ भागो, इस बुरे संसार से।
बचकर रहो इस द्वंद्व से, और छल, कपट-मँझधार से।।
बैमान है यह काम, स्वारथ और तृष्णा मान की।
जिंदा जलाती देह को, भक्ती न दे भगवान की।
११४७
मरने का डर मुझको नहीं, पर दीन, दुःखी क्यों मरें? ।
ये लडनेवाले चाहे लड ले, बीच क्यों नाहक फिरे? |
साहित्य-लेखक शब्द के, भोगों में उडते हो यदि।
जनता बिना सत्संग के, पावे नहीं जग में सुधी।।
हे अनंतरुपिणी देवी
११४८
ओ माँ सरस्वती शारदे! कमलासनी, मनमोहिनी!।
व्याघ्रांबरी शिव-सुंदरी! हे दुर्ग-दुर्गति-नाशिनी!॥
स्वरमाधुरी, दिव्यांबरी! शक्ती-सुबुद्धी-धारिणी!।
हे अन्नपूर्णे, सर्व पूर्णे! मंगले रण-रंगिणी!॥
११४९
ओ माँ कलीमल-हारिणी! महिषासुरी रिपुवारिणी!।
काली, अकाली, सर्वकाली! दशदिशा-संचारिणी!॥
सीते, सुचित्ते, नर्मदे! प्रिय शर्मदे ब्रह्मांगिणी!।
हे जगत्-जननी, जनक-तनये! दुष्टदल संहारिणी!॥
११५०
हे माँ उमापदधारिणी! शिवभूषणी, शववाहिनी!।
नीलांबरी, मृगलोचनी! हिमकन्यके, स्वरागिणी!॥
हे मूर्ति, कीर्तिप्रदायिनी! सौंदर्यमंगलवर्षिणी!।
अरुणोदया, माध्यान्हिका, संध्या, तमांधक-नाशिनी! ||
११५१
ओ माँ अभयपद-दामिनी! लक्ष्मी सुमंगलकारिणी!।
श्यामा, रमा, सावित्रि, सुषमा! भूमिजा, मृदुभाषिणी! ॥
हहे कमलनयनी, मयुरवहनी! शांतिपथ-सुखगामिनी!।
हे अंबिके, जगदंबिके! हे योगनिद्रे, योगिनी! ।।
११५२
हे शांतिरुपिणि, पतितपावनि! माउली, वरदायिनी!।
देवी सुदिव्या भक्ति-मुक्ति! शक्ति-युक्ती माँ! तुम्ही ॥
जग-जन्मदे, जग-पालके! जग नाशिके, जगरुपिणी!।
हे मोहमाया, आदिमाया, प्रकृती, मन उन्मनी!॥
११५३
हे माँ सुसंगति, शान्त सन्मति! भारती, मंदाकिनी!।
गायत्रि, गौरी, रुक्मिणी! राधे, महायुगधारिणी!॥
हे वाक्यवादिनि, स्वामिनी! कन्याकुमारी, पार्वती!।
हे चंद्रभागे! काविरी! गंगे! भिमे! यमुने! स्मृति!।।
११५४
हे माँ महाप्रबला, बला! अबला, सुसंस्कृतिधारिणी!।
हे मधुरवीणावादिनी! गुणगुंजनी! दुखभंजनी! ॥
भजनामृती, मुनिवरकृती! हे संस्कृती, ज्योती, सती!।
कांती, सुकांती, हे प्रिती! नीती, सुकीर्ती, श्रीमती!॥
११५५
एकभूजा, अष्टभूजा! सहस्त्रभूजा, चंडिके!।
नरमुंडिके, खलदंडिके! शस्त्रास्त्रभूषणमंडिके!॥
हे मंत्रशक्ते, यंत्रशक्ते! तंत्रशक्ते, बहुगुणी!।
अन्यायि-पापी-ध्वंसिनी! अणु-रेणुव्यापकव्यापिनी!॥
संसार-रथ के सारथी बनो!
११५६
संसार का है सार यह, संस्कार अच्छे चाहिए।
लाखों कमाओ नेक से और धर्म में लुटवाइए।
परिवार अपना देश है, उससे नहीं छल-दंभ हो।
सीधे रहो, सादे रहो, और न्याय के दृढ खंब हो ।।
११५७
घोडा भगाता वीर जब, काबू में रखता है लगाम ।
ढीला अगर पड जाय तो, नाकाम होता है तमाम ।।
वैसे विवेकी इंद्रियों को, संयमी बनवायगा।
संसार में सुख पायगा, परमार्थ भी सध जायगा ।।
११५८
मन के भगाये जो भगे, बेछूट, पडते है कहीं।
जैसे किसीका रथ चले, पर सारथी कोई नहीं ।
जिसने सम्हलकर इंद्रियाँ, मनपे सदा काबू किया।
आरोग्य -सुख तो पा लिया, परमार्थ उसका सध गया ।।
११५९
मोटर चली बडी तेज से, मोडे न टर्निग पर कहीं।
तब तो समझना आज का, जीना भरोसे का नहीं॥
वैसे समय को देखकर, आदत नहीं सुधराओगे।
तब क्या कहें, तुम जीओगे या तो कहीं मर जाओगे? ।।
११६०
रथ का सभी सामान अपने, देखता जब सारथी।
तब स्वार होता लक्ष्य पर, भूले नहीं उसकी मती ।।
वैसी हि अपने देह को, मन-बुद्धि को काबू करे ।
संसार सारा जीतकर, परमार्थ पथ योगी धरे ॥
१९६१
घोडा अगर ठुकरा गया, तब स्वार धोखा खायगा ।
या तो कहीं गिर जायगा, सम्हले तभी सुख पायगा ।।
वैसे हि जीवन, देह के-मनबुद्धि के आधीन है।
सम्हले रहो इनको सदा, नहीं तो ये छिन्न-विछिन्न है ।।
११६२
बिन आग-पानी के कभी, यह रेल बढने की नहीं ।
चाहे हलाओ झंडि या सीटी बजाओ लाख ही ।।
वैसे बिना अध्यात्म के, शांती नहीं कोउ पायगा।
सत्ता मिले या धन मिले, बस काल उसको खायगा।।
११६३
तुम देह के वाली नहीं, वाली हो अपने तत्व के।
उसके लिए ही देह तुमने, पा लिया बल सत्व के।
इसका करो उपयोग, जैसी वक्त पाओगे सदा।
बलिदान कर दो धर्म पर, नहिं तो कहाओगे गधा ।।
११६४
संसार की कीमत करो, जब जन्म है संसार में।
झूठा नहीं कहना उसे, अच्छे रहो व्यवहार में ।।
नेकी हि उसका है शिखर, बद्दी ही उसका नर्क है।
सबसे करोगे, प्रेम, सेवा, तब दुजा क्या स्वर्ग है? ॥
हम और साधुता
११६५
नापाक, या के पाक हो? सूरत तुम्हारी बोलती।
अलमस्त हो, या चोर हो? रहनी भरम यह खोलती ।।
हम हैं किनारे पे खडे, दोनों भी हमसे ना छिपे ।
चंचल औ निश्चल तत्व क्या?हम जानते अजपा जपे ।।
११६६
ऐ चोर। साधू क्यों बना? दिल से नहीं चोरी गयी।
अपना हि कर ले काम तू, फसवा न हो साधू कहीं।।
जब दिल तेरा प्रभु नाम पर, कुर्बान ही हो जायगा।
तब साधुओं के भेष बिन ही, साधु तू कहलायगा।।
११६७
प्यारा मुझे जंगल लगे, निर्मल वहाँ के वृक्ष हैं।
नहिं जाति है, ना पक्ष है, ना धर्म है, ना लक्ष्य है।।
बस एक ही है स्थीर जीवन, वनचरों के साथ में।
आनंद अपने पास है, नहीं उग्रता किसि बात में।।
११६८
सज्जन! तुम्हारी चाकरी भी, लाख इज्जत पायगी।
और दुष्ट घर की मालकी भी, नर्क में डुलवायगी।।
गर संत के सत्संग का, झाडू लगाना भी मिले।
रजधूल उसकी पा सकूँ तो जान यह फूले फले ।।
भारतीय वीरों और भारत के शत्रुओं
११६९
अब तो लडाई आगयी, मुरदे पडेंगे देश में।
शत्रू बडा ही क्रूर है, देगा गिरा वह क्लेश में।
हुशियार होना है अभी, सब साथियों से बोल दो।
अंतर-कलह सब छोड दो, यह भेद-पडदे खोल दो।
११७०
ऐ शत्रु! तूने ही सिखाया, युद्ध करने को हमें।
हम शांत थे, गंभीर थे, थे संत-साधू से नमे ।।
अब तो कदर होगी नहीं, या तू रहे, या हम रहें।
सत् की विजय होती हमेशा, हिन्दुओं का तत्व है।।
११७१
छीपे तुम्हारे हेर हैं, भारत में पाये जा रहे ।
क्या तुमही सीखे हो गनीमी? हम सभी नेता रहे।।
मालुम है तुमको छत्रपति शिवराज की तलवार क्या? ।
हम है गुरु, सब जानते, इस पार क्या, उस पार क्या।।
११७२
भोले नहीं थे हम कभी, पर सोचमें ही थे खडे ।
शत्रूपे जाके ही भिडे, तब देश क्या बोले बडे?।।
अब तो रहा नहिं डर कोई, सबको पता ही लग गया।
विश्वास देकर काटना, तूने इरादा ही किया ।।
११७३
रणचंडिका रंग में खडी है, देर उसको है नहीं।
डरकर छुपे जो भागते, जाहीर है कायर वही ।।
ऐसे दगाबाजों पे पहिले, वार करना धर्म है।
जो वीर लडने को डटे, सच्चा उन्हींका कर्म है।
११७४
सौ बार हमने कह दिया है, युद्ध होना है यहाँ ।
हुशियार वीरों! हो रहो, कसके करो तैयारियाँ ।।
डरना नहीं इस मौत से, हिंमत से आगे काम लो।
तलवार लो, बंदूक लो, या तोप, बम नापाम लो॥
११७५
यह वीर भारत का कभी, हटता नहीं संघर्ष से।
इतिहास साक्षी है यहाँका, सत्य लाखों वर्ष से ।।
ऐ शत्रुओं! आगे कदम, डालो तो सोचो मौत है।
ना तुम रहे, ना घर रहे, जेवर रहे, ना गोत है।
११७६
टरबूज जैसे काटते, वैसा नतीजा पाओगे।
आगे कदम धरना नहीं, बस मौत के मुँह जाओगे।
क्या अक्ल खाली है तुम्हारी, भूत ने, शैतान ने?।
सीधा सिखाया ही नहीं, तुमको किसी भगवान ने॥
११७७
मतभेद हो, या कलह हो, हम सब समेटे जायेंगे।
पर तुम कहीं यहाँ आओगे, तो जान से कट जाओगे।।
यह एक वीर ही आयगा, तो सैंकडो को खायेगा।
भारत खडा रह जायगा, तब क्या नतीजा पाओगे? ।।
११७८
अरे! कौन दुश्मन सोचता के, युद्ध होना चाहिए?।
पर क्या करें? आयाहि हो तो, छिपके क्यों मर जाइए? ॥
हिम्मत से हम लडकर बढेंगे, शत्रु घर आया हि है।
हम जानते हैं सिर हमारे, शूरों की छाया हि है।।
निंदास्तुति और दण्डनीति
११७९
क्यों संत की निंदा करो? हम क्या बडे हुशियार है? ।
वे तो बिचारे नाम लेते, हम पडे मँझधार हैं।
दिनरात विषयों में फँसे, उनको नहीं अधिकार हैं।
जब हम रहेंगे शुद्ध तबही होगा बेडा पार हैं।
११८०
नीचे न उतरो इस तरह, किसका बुरा ही सोचना।
गर सोचने की है खुशी, खुद की करो आलोचना ।।
मैंने किया क्या आज तक? क्या शुद्ध मेरा लक्ष्य है? ।
उपकार-धन कितना बढा?क्या हीन-दीन की साक्ष है?॥
११८१
आलोचना करना सदा, हर बात में, हर काम में।
आसान यह अब हो गया, लगता न दिल प्रभु-नाम में।।
निंदा-बदी की है खुशी, इसका हि जिसको शौक है।
उससे ही पूछो अन्त में, तुम्हे शांति है, या शोक है? ॥
११८२
हम तो बुरा नहिं चाहते, किसि मित्र का, या शत्रु का ।
सबका भला ही सोचते, परमार्थ का, व्यवहार का ||
करता बुरा कोई उसे, सच्चा बनाने को भले ।
हर बात से शिक्षा मिले, नीती हमारी यह चले ।।
११८३
अन्यायियों को दंड देना ही, बडा उपकार है।
उसको क्षमा करना यही, सबके लिए सिरभार है ।।
आदत है बूरे काम की, वह प्रेम से छूटे नहीं।
वह और बढती है मगर, भोगे बिना टूटे नहीं ।।
११८४
शिक्षा, दमन और दंड यह है, दान पशुओं के लिए।
वैसे हि जुल्मी और गुंडे, चोर-डाकू के लिए ।।
इनको अगरचे माफ कर दें, तो समझना कष्ट है।
बदला हि लेंगे फिर कभी, आदत यह उनकी स्पष्ट है ।।
११८५
गर देश अच्छा ही बनाना है तो मेरी मान लो।
छोडो नहीं उन दोषियों को, दो सजा, पहिचान लो ।।
टेढा अगर है वृक्ष तो, काटो उसीकी बाँह को।
सीधा बढेगा फिर वही, सुंदर लगेगा चाह को ।।
११८६
अजि! शर्म की क्या बात है?जब उन्नती करना हि है।
भोगो सजा और फेर सुधरो, झूठ से डरना हि है ।।
गर दोषि बनकर ही रहोगे, तो सुधर नहिं पाओगे ।
बदनाम तो रह जाओगे, पीछे बहुत पछताओगे ।।
११८७
हे शेषशायी, गरुडवाहन! श्रीपती, भवभयहरी!!।
हे चक्र शंकांकित गदाधर! पद्यनाभ तू श्रीहरी!।।
हे कमललोचन, कमलमुख! पदकमल, कमलासनहरी!।
हे भक्त-बलिया,दुष्ट-दलिया! काल-छलिया प्रिय हरी!।।
११८८
चिंता न कर किसि काम की, आनंद रख घट में सदा।
फल के उपर मत ख्याल दे, सत्कर्म करते रह सदा।।
सब भोग है प्रारब्ध से मिलते, मिलाना हैं नहीं।
करना-कराना क्या रहा? गुरु की दया जब है सही।।
११८९
हर कल्पना एक सृष्टि है, बनती औ मिटती साथ में।
सुख दुःख तो होता मगर, लगता न कुछ भी हाथ में।।
मैं जानता हूँ जब इसे, मेरा बिगड पाता नहीं।
आत्मा सदा साक्षी रहे, आता नहीं, जाता नहीं।।
११९०
मेरी तनू में जीव है, उस जीव में भी जीव है।
है आत्म में परमात्म ही, कूटस्थ जो स्वयमेव है।।
वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तर, जिसमें बनी दुनिया बडी।
आत्मा सभीका साक्षि है, आश्चर्य दिखता हर घडी।।
११९१
अति सूक्ष्म तर, इस पिंड से ब्रह्मांड तक व्यापक बड़ा।
ब्रह्मांड भी तो पिंड ही है, ब्रह्मसत्ता से जुड़ा।
वह ब्रह्म व्यापक-व्याप्त सबसे ही परे स्वयमेव है।
जो जन्मता-मरता नहीं, वहि सत्य है, वहि देव है।।
११९२
इस देव में भी देव है, जो देव का पर देव है।
अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तर, वह मूल देव सदैव है।।
जहाँ तक है साक्षी साक्ष्य का,द्रष्टासहित त्रिपुटी महा।
यह सब जहाँ पर है विलय,सच देव उसको ही कहा ।।
११९३
पहिला गुरु सुविचार है, जो मंत्र देता हर घड़ी।
चेला वही बन जायगा, जो मानता बातें बड़ी ।।
सत्ग्यान दे पापाचरण से, ऊँच जो उठवायगा।
आत्मा अमर निज तत्व है, अपरोक्ष गुरु बतलायगा ।।
११९४
निश्चिंत हूँ मैं आत्म में, यह जीव मेरा सब करे।
ग्यानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, सेवक समझ सेवा करे ।।
सब ग्यान के सत्संग से, पाते खुशी हर बात में।
मैं सच्चिदानंदरुप ही हूँ, खेल में, हर मेल में ।।
११९५
कुछ भी मेरा बिगडे नहीं, यदि मौत हो, या जन्म हो ।
हूँ मैं दरिद्री, या धनी, पूरा रहँ, या न्यून हो ।।
मन ही मेरा गंभीर है, निश्चित है सत्ग्यान से ।
दुनिया हमारी है लिला, नाता सदा भगवान से ।।
उपदेश और इन्सानियत
११९६
अजि! क्या सिखाते हो किसीको?जो सिखा,धोकर धरो।
वह शुद्ध निर्मल ही रहे, ऐसी कृपा उस पर करो।
कृत्रीम जीवों की तरह, वह इंद्रियों का दास हो ।
ऐसा करो तब क्या किया? यमराज के ही पास हो।।
११९७
उपदेश भी तो कष्ट है, सबको सुभीता है नहीं।
सत् बात को समझे बिना, उपदेश फलता ही नहीं ।।
जिस बात को हम जानते, उसको यथावत् बोलना।
इसकी कला ही चाहिए, होता नहीं है उस बिना ।।
११९८
हम है वही बतलायेंगे, इतना भी जिसको आयगा।
वह वाक्य-सिद्धी पायगा, बोले वही सच होयगा
॥
इन्सान अपने को छुपाकर, झूठ हरदम बोलता।
खो दी इसी कारण यहाँ, उसने सरल मानव्यता ।।
११९९
नर-मांस-भक्षक भी कहे, हम ही सही इन्सान है।
मदिरा पिये, चोरी करें, वह भी तो चाहे मान है।
मेरी समझ में जो किसीको, त्रस्त करता ही नहीं।
वह ही सही इन्सान है, है मान्यता मेरी यही ।।
देवत्व और भक्त की माँग
१२००
भगवान वह जो कर दिखावे, व्यर्थ बोलेगा नहीं।
सब सिद्धियाँ उसके हि पीछे, रात दिन रहती सही ।।
उसकी निगा में देश है, करुणा-सरलता-नम्रता ।
वह जानता नहिं जाति-नाती, सिर्फ जाने सत्यता ।।
१२०१
बस मैं कहूँ सो ही करो, ऐसा भगत नहिं बोलता।
वह तो, प्रभू करता उसीको दे,सदा ही मान्यता ।।
जो हट्ट करके देवताओं से, सदा माँगा करे ।
वह प्राप्त तो कुछ ना करे, पर साथियों को ले मरे ।।