सुधा सिंधु की लहरें

प्रेमधर्म में सर्वधर्मसमावेश (२९/०९/१९३६)

उपासको! आज मैं आप लोगो के सामने धर्म की व्याख्या (परिभाषा) रखना चाहता हूँ। मतलब यह की धर्म शब्द का उच्चारण कौनसी बाते मेरे मगज में आती हैं, वही बताना चाहता हूँ। वैसे तो धर्म का अर्थ होता है धारण करना। धारण करने योग्य बातें की अपेक्षा धारण करनाभी धर्मही हैं। ब्राम्हण- शुद्र आदि वर्ण और माली- कुनबी आदि जातियोंको मैं धर्म नही मानना चाहता। धर्म तो वे बातें हैं, जिनको धारण करनेसे इसलोकका और परमार्थ का सुख मिल सकता है। जो इस लोकमें कीर्तिशाली कार्य नही करेगा वह आगे क्या चलेगा?
         मैं समझता हूँ की धर्म को जानना हर मनुष्यके लिए अत्यावश्यक है। धर्म नही जान लिया तो दुनियामें हमारा जीना ध्येयहीन हो जाएगा। धर्मका मतलब हिन्दुधर्म, इस्लामधर्म, बौद्धधर्म, जैनधर्म, आदि नामोसे जो मार्ग जाने जाते हैं, वह नही हैं, तो उन सभी मार्गोमे जो उचित तत्व मानवके विकास के लिए बताये गए हैं, उन्हींको मैं धर्म समझता हूँ। वे विचार तो सभी मार्गोमे मिलते-जुलतेहि होते है। इसलिए विरोधकी गुंजाइश नही रहती और जो विरोध करते हैं, उनको धर्मके तत्वही मालूम नही होते। इसलिए यह जरूरी है की कोई हिन्दू रहे या मुसलमान, बुद्ध रहे या जैन , सिख रहे या पारशी-ख्रिश्चन, उन सभीको अपने जीवनमे सबसे पहले सच्चे तात्विक धर्मका ज्ञान पा लेना चाहिए। जीवनके आरम्भमें अगर हम मनावका सच्चा धर्म क्या है, यह बात नही मालूम कर लेंगे तो कैसा आचरण करेंगे? किसी बड़े आदमीने किसी कितबका हवाला दिया और कहा की यही तुम्हारा सच्चा धर्म है, तो हम उसी राहसे चलने लगेंगे और इससे भिन्न- भिन्न समाजके मनावमे विरोध खड़ा हो सकेगा। हम रुढियों के गुलाम बनकर तत्वोसे दूर रहेंगे तो सच्चा धर्म हम पाहि नही सकेंगे। घरके दरवाजे अगर हमको मालूम नहीं हो तो चोर तो जरूर लूटेंगे ही।



बिना कानूनको जाने तुम राजाके पास नही जा सकतें ; उसीतरह बिना धर्माचरण किये तुम ईश्वरपथको भी नही पा सकते । परन्तु धर्म है क्या चीज ? धर्मका अर्थ है मानवका कर्तव्य ; धर्मका अर्थ है नीति । धर्मका अर्थ है शुद्धाचार ! ईश्वरके प्रति मनुष्यका धर्म है भक्ति ; मनुष्यके प्रति मनुष्य का धर्म है सहानुभूति और समाजके प्रति मनुष्यका धर्म है न्यायनीति ! संक्षेपमें कहना हो तो मनुष्य , समाज , देश , विश्व , ईश्वर इन सभीके प्रति मनुष्यका एकही धर्म होता है , जिसको कहते हैं प्रेम ! यह प्रेमही मनुष्य को न्यायनीति और पवित्र आचार - विचार सिखा देता है । यह प्रेमही सहयोग , सेवा , भक्ति , त्याग आदि जीवनमें ला देता है ।
धर्म के जो लक्षण धार्मिक महापुरुषोंने या धर्मके आचार्योंने बताये हैं उनमें प्रमुख येही हैं । जैसे ( १ ) सत्य - सामान्य व्यवहारसे लेकर परमार्थतक , बोलना - चलना - देखना आदि सभी बातोंमें यथार्थता हो ; झूठकपट न हो ; यही सत्य है । ( २ ) अहिंसा- काया - वाचा - मनसेभी
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किसीका अहित न किया जाय , किसे दर्द न पहुँचाया जाय । अर्थात् क्रोध - द्वेष - मत्सर आदि विकारोंका त्याग करनाही अहिंसा है । ( ३ ) अस्त्येय- किसीकी बिना इजाजतके वस्तु नही उठानी चाहिए । सत्यको छिपानाभी चोरीही होती है । अर्थात् किसी प्रकारकी चोरी न करनाही अस्त्येय हैं । ( ४ ) अपरिग्रह- किसीको कुछ माँगना , संग्रह बढाना इसे छोडकर , कार्य करते हुए सत्य व्यवहारसे जो भी मिले उसीमें संतुष्ट रहना , यही अपरिग्रह है । ( ५ ) ब्रह्मचर्य- गृहस्थ हो , वानप्रस्थ हो या संन्यस्त , सभीको ब्रह्मचर्यव्रतका यथोचित आचरण करना चाहिए । बचपनसेही टेढी नजर छोडकर सभीको इंद्रिय निग्रह सिखना चाहिए । इंद्रियोंका निग्रह , विकारोंका संयम यही है ब्रह्मचर्य । अरण्यमें जानेकीही आवश्यकता नहीं होती । प्रत्येक को अपने व्रतका पालन यानी शीलका रक्षण करना चाहिए । बुरी बातोंका त्याग करना चाहिए ।
महर्षि व्यास , शंकराचार्य , मनुमहाराज आदि महात्माओंने येही प्रमुख धर्मलक्षण बताये हैं । हिंदू , इस्लाम , बौद्ध , पारसी , जैन , ख्रिश्चन कोईभी धर्म हो , सभीमें किसी - न - किसी रूपमें येही लक्षण आगये हैं । इन बातों का जो आचरण करें , वही धर्मात्मा है , धार्मिक पुरुष है । यह धर्मही ईश्वरी आज्ञा है और इसका आचरण करें वही भक्त बन सकता है । जबतक आचरणकी यह नीवही ठीक न हो तबतक सभी करना - धरना
व्यर्थ जाता है ।
महापुरुषोंने धर्म के बारेमें हजार बातोंका निचोड ( सार ) एक बातमें लाकर कह दिया है कि , परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् । अर्थात् दूसरों को सुख दो यही धर्म है और किसीको दुख देनाही अधर्म


है । अब इसमें कहाँ आता है , उच्च वर्ण और नीच वर्ण ? कहाँ आता है हिंदू धर्म या इस्लाम धर्म ? कहाँ आता है गृहस्थधर्म अथवा संन्यासधर्म ? नाककी बोंडीसे शेंडीतक चंदन लगाना या खानेपिनेंमें , सोवला  रखना यही धर्मका मर्म क्या वास्तवमें है ? या हम ऊपरी बातोंकोही हृदयसे ज्यादा महत्त्व दे रहें हैं ।
सज्जनों ! ख्याल रक्खो । खाली रूढियोंके गुलाम न बनो । बाहरका आडम्बर और ढोंगधतूरा छोडकर सच्चा धर्मतत्त्व समझलो तथा आचरणमें लाओ । यथोचित धर्मपालन करनेवाला पुरुषही धार्मिक  होता है और वही भक्तिपथपर आगे बढता हुआ ईश्वरपदको पा सकता है ।